फिल्म समीक्षा : हाईवे
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी और अंग्रेजी में ऐसी अनेक फिल्में आ चुकी हैं, जिनमें
अपहरणकर्ता से ही बंधक का प्रेम हो जाता है। अंग्रेजी में इसे स्टॉकहोम
सिंड्रम कहते हैं। इम्तियाज अली की 'हाईवे' का कथानक प्रेम के ऐसे ही
संबंधों पर टिका है। नई बात यह है कि इम्तियाज ने इस संबंध को काव्यात्मक
संवेदना के साथ लय और गति प्रदान की है। फिल्म के मुख्य किरदारों वीरा
त्रिपाठी (आलिया भट्ट) और महावीर भाटी (रणदीप हुड्डा) की बैकस्टोरी भी है।
विपरीत ध्रुवों के दोनों किरदारों को उनकी मार्मिक बैकस्टोरी सहज तरीके से
जोड़ती है। इम्तियाज अली की 'हाईवे' हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में रहते
हुए भी अपने बहाव और प्रभाव में अलग असर डालती है। फिल्म के कई दृश्यों में
रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सच का सामना न होने से न केवल किरदार बल्कि दर्शक
के तौर पर हम भी स्तब्ध रह जाते हैं। इम्तियाज ने आज के दौर में बच्चों की
परवरिश की एक समस्या को करीब से देखा और रेखांकित किया है,जहां बाहर की
दुनिया के खतरे के प्रति तो सचेत किया जाता है लेकिन घर में मौजूद खतरे से
आगाह नहीं किया जाता।
वीरा की शादी होने वाली है। वह विरक्त भाव से शादी के विधि-विधानों
में हिस्सा ले रही है। रात होते ही वह अपने मंगेतर के साथ तयशुदा सैर पर
निकलती है। दमघोंटू माहौल से निकल कर उसे अच्छा लगता है। मानों उनकी नसें
खुल रही हों और उनमें जीवन का संचार हो रहा हो। हाईवे पर वह अपराधी महावीर
भाटी के हाथ लग जाती है। तैश और जल्दबाजी में वह वीरा का अपहरण कर लेता है।
बाद में पता चलता है कि वीरा प्रभावशाली उद्योगपति एम के त्रिपाठी की बेटी
है। अब महावीर की मजबूरी है कि वह वीरा को ढंग से ठिकाने लगाए। इस चक्कर
में वह वीरा को लेकर एक अज्ञात सफर पर निकल पड़ता है। इस सफर में वीरा अपनी
दुनिया के लोगों से कथित अपराधी महावीर की तुलना करती है। उसे इस कैद की
आजादी तरोताजा कर रही है। वह लौट कर समृद्धि की आजादी में फिर से कैद नहीं
होना चाहती। एक संवाद में वीरा के मनोभाव को सुंदर अभिव्यक्ति मिली है-जहां
से आई हूं, वहां लौटना नहीं चाहती और जहां जाना है, वहां पहुंचना नहीं
चाहती। यह सफर चलता रहे।
वीरा और महावीर दोनों विपरीत स्वभाव और पृष्ठभूमि के किरदार हैं। उनके
जीवन की निजी रिक्तता ही उन्हें करीब लाती है। दोनों के आंतरिक एहसास के
उद्घाटन के दृश्य अत्यंत मार्मिक और संवेदनशील हैं। स्पष्ट आभास होता है कि
दुनिया जैसी दिखती है, वैसी है नहीं। वीरा जैसे अनेक व्यक्ति इस व्यवस्थित
दुनिया की परिपाटी से निकलने की छटपटाहट में हैं। वीरा का बचपन उसे स्थायी
जख्म दे गया है, जो महावीर की संगत में भरता है। वीरा उसके दिल पर जमी
बेरुखी की काई हटाती है तो अंतस की निर्मलता छलक आती है। पता चलता है कि
महावीर ऊपर से कठोर, निर्मम और निर्दयी है, लेकिन अंदर से नाजुक, क्षणभंगुर
और संवेदनशील है।
इम्तियाज अली ने मुकेश छाबड़ा की मदद से सभी किरदारों के लिए उपयुक्त
कलाकारों का चुनाव किया है। वीरा की भूमिका में आलिया भट्ट का प्रयास
सराहनीय और प्रशंसनीय है। प्रयास इसलिए कि अभिनय अभी आलिया का स्वभाव नहीं
बना है। उन्होंने अभी अभिनय का ककहरा सीखा है, लेकिन इम्तियाज अली के
निर्देशन में वह परफॉरमेंस की छोटी कविता रचने में सफल रही है। कुछ दृश्यों
में उनका प्रयास साफ दिखने लगता है। हिंदी फिल्मों में अभिनेत्रियां
उत्तेजक दृश्यों में नथुने फुलाने लगती हैं। बहरहाल, आलिया भट्ट ने वीरा की
जद्दोजहद और जिद को अच्छी तरह समझा और व्यक्त किया है। फिल्म में रणदीप
हुड्डा चौंकाते हैं। भीतरघुन्ना मिजाज के नाराज व्यक्ति की पिनपिनाहट को
उन्होंने सटीक ढंग से पेश किया है। दोनों ही कलाकारों के अभिनय ने फिल्म को
असरकारी बना दिया है। सहयोगी कलाकारों दुर्गेश कुमार, सहर्ष कुमार शुक्ला
और प्रदीप नागर ने फिल्म को पूर्णता दी है।
इम्तियाज अली की फिल्मों में गीत-संगीत का खास योगदान रहता है। इस
फिल्म में भी इरशाद कामिल और ए आर रहमान की जोड़ी ने अपेक्षाएं पूरी की हैं।
रहमान ने ध्वनि और इरशाद ने शब्दों से फिल्म के भाव को कथाभूमि में पिरो
दिया है। 'सोचूं न क्या पीछे है, देखूं न क्या आगे है' में वर्तमान को जीने
और समेटने का भाव बखूबी आया है। फिल्म की उल्लेखनीय खूबसूरती
सिनेमैटोग्राफी है। हाल-फिलहाल में ऐसी दूसरी फिल्म नहीं दिखती, जिसमें देश
के उत्तरी राज्यों की ऐसी मनोरम छटा फिल्म के दृश्यों के संगत में आई हो।
अनिल मेहता ने इम्तियाज अली के रचे दृश्यों में प्रकृति के स्वच्छ रंग भर
दिए हैं।
'हाईवे' में इम्तियाज अली ने संत कबीर के हीरा संबंधी तीन दोहों का
इस्तेमाल किया है। उनमें से एक दोहा इस फिल्म के लिए समर्पित है।
हीरा पारा बाजार में रहा छार लपटाए।
केतिहि मूरख पचि मुए, कोई पारखी लिया उठाए।।
अवधि- 133 मिनट
**** चार स्टार
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