फिल्म रिव्यू : डेढ़ इश्किया
नवाब तो नहीं रहे। रह गई हैं उनकी बेगम और बांदी। दोनों हमजान और
हमजिंस हैं। खंडहर हो रही हवेली में बच गई बेगम और बांदी के लिए शराब और
लौंडेबाजी में बर्बाद हुए नवाब कर्ज और उधार छोड़ गए हैं। बेगम और बांदी को
शान-ओ-शौकत के साथ रसूख भी बचाए रखना है। कोशिश यह भी करनी है कि उनकी
परस्पर वफादारी और निर्भरता को भी आंच न आए। वे एक युक्ति रचती हैं।
दिलफेंक खालू बेगम पारा की युक्ति के झांसे में आ जाते हैं। उन्हें इश्क की
गलतफहमी हो गई है। उधर बेगम को लगता है कि शायर बने खालू के पास
अच्छी-खासी जायदाद भी होगी। फैसले के पहले भेद खुल जाता है तो उनकी मोहब्बत
की अकीदत भी बदल जाती है। और फिर साजिश, अपहरण, धोखेबाजी,भागदौड़ और
चुहलबाजी चलती है।
अभिषेक चौबे की 'डेढ़ इश्किया' उनकी पिछली फिल्म 'इश्किया' के थ्रिल
और श्रिल का डेढ़ा और थोड़ा टेढ़ा विस्तार है। कैसे? यह बताने में फिल्म का
जायका बिगड़ जाएगा। अभिषेक चौबे ने अपने उस्ताद विशाल भारद्वाज के साथ मिल
कर मुजफ्फर अली की 'उमराव जान' के जमाने की दुनिया रची है, लेकिन उसमें
अमेरिकी बर्गर, नूडल और आई फोन 5 जैसे 21वीं सदी के शहरी लब्ज ला दिए हैं।
महमूदाबाद की ठहरी हुई दुनिया में ज्यों आज का इलाहाबाद घुस आया हो। यहां
मोटर है, मोबाइल है, मोहब्बत है, मुशायरा है और मोहरा है। खालू इफ्तखार और
बब्बन हैं। 'डेढ़ इश्किया' पतनशील नवाबी का नमूना है, जिसमें आधुनिक समाज
के भ्रष्ट आचरण और व्यवहार भी शामिल हो गए हैं।
विशाल भारद्वाज की देखरेख में अभिषेक चौबे की 'डेढ़ इश्किया' हिंदी
फिल्मों की नवाबी परंपरा से जुड़ने के बावजूद कथित मुस्लिम सोशल फिल्म नहीं
है। यह शायरी, नजाकत, रक्स और खालिस उर्दू जैसी सांस्कृतिक विशेषताएं हैं
तो छल-प्रपंच और झूठ-फरेब की आधुनिक विसंगतियां भी हैं। दो वक्त आकर 157
मिनट की फिल्म उसी कदर ठहर गए हैं, जैसे 'डेढ़ इश्किया' क्लाइमेक्स पर
निर्जन स्टेशन पर ठहर जाती है। ऐसा लगता है कि बाहरी समाज इस दुनिया में
कोई आमदरफ्त नहीं है,एक पुलिस के अलावा। यकीनन यह मायावती और मुलायम के
शासन काल का महमूदाबाद नहीं है। अभिषेक चौबे ने अपनी फिल्म के लिए एक
फंतासी रची है और उसकी जुबान भी गुजरे जमाने से निकाल कर चस्पां कर दी है।
जमाने बाद ऐसी खालिस उर्दू फिल्म में सुनाई पड़ी है। शुक्रिया विशाल
भारद्वाज और अभिषेक चौबे। हां, आप उर्दू समझते-बूझते न हों तो किसी उर्दू
जानकार को अवश्य साथ ले जाएं, क्योंकि ऊिल्म के संवादों में फिल्मी गीतों
यी मेंहदी हसन-गुलाम अली की गजलों में लगातार सुनाई पड़ने वाली उर्दू की
जानकारी नाकाफी होगी। यह कोई दीवान या किताब नहीं है कि पन्ने मोड़ कर आप
मुश्किल लब्जों के मानी खोज लें।
बेगम पारा की भूमिका में माधुरी दीक्षित और मुनिया बनी हुमा कुरेशी
फिल्म की जान हैं। दोनों की खूबसूरती और अदाएं फिल्म में छटा बिखेरती हैं।
माधुरी के नृत्य कौशल और चपलता का निर्देशक ने सुंदर इस्तेमाल किया है।
उनके लिबास और लुक में कसर रह गया है। हुमा कुरेशी मुनिया के रूप में बराबर
का साथ देती हैं। मौका मिलते ही वे अपने जलवे भी बिखेर देती हैं। सचमुच
सधे निर्देशन और सुलझी स्क्रिप्ट से अदाकारी निखर जाती है। इस फिल्म में
नसीरुद्दीन शाह और अरशद वारसी पर यह बात सौ फीसदी सही ठहरती है। हाल-फिलहाल
में हम दोनों उम्दा अभिनेताओं की साधारण फिल्में देख चुके हैं। खालू
इफ्तखार की भूमिका में नसीरुद्दीन शाह पूरी शालीनता और लहजे के साथ मौजूद
हैं। वहीं अरशद वारसी की बेफिक्री पसंद आती है। इन दोनों के साथ नकली नवाब
की भूमिका में आए विजय राज ध्यान खींचते हैं। विजय राज की चंद उल्लेखनीय
फिल्मों में 'डेढ़ इश्किया' शामिल होगी। मनोज पाहवा छोटी भूमिका में भी
प्रभावित करते हैं।
'डेढ़ इश्किया' हिदुस्तान की हिंदी-उर्दू तहजीब को ट्रिब्यूट है।
लेखक-निर्देशक ने शास्त्रीय परंपराओं का समुचित उपयोग किया है। कई सारी
महत्वपूर्ण चीजें रेफरेंस में आती हैं। अगर उनसे आप की वाकिफियत नहीं है तो
भी आप मिस नहीं करेंगे, लेकिन जानकार होंगे तो ज्यादा मजा आएगा। 'डेढ़
इश्किया' दर्शकों से बारीक और सटीक नजर की अपेक्षा रखती हैं। यूं तो फिल्म
इंडस्ट्री में हैं फिल्मकार हैं कई अच्छे, कहते हैं कि विशाल का है
अंदाज-ए-बयां और ़ ़ ़ जी हां, विशाल भारद्वाज और अभिषेक चौबे की वाहिद
फिल्मकारी के लिए 'डेढ़ इश्किया' अवश्य देखें।
**** चार स्टार
अवधि-157 मिनट
Comments
tribute - अर्पित
miss - कमी महसूस करना
script - कहानी