धूम तो सेलिब्रेशन है-विजय कृष्ण आचार्य


-अजय ब्रह्मात्मज
    कानपुर के विक्टर ऊर्फ विजय कृष्ण आचार्य ‘धूम 3’ के लेखक और निर्देशक हैं। साफ-सफ्फाक और बेलाग व्यक्तित्व के धनी विक्टर में अपने शहर का मिजाज घुला हुआ है। ‘धूम 3’ की कामयाबी ने उनका आत्मविश्वास बढ़ा दिया है। पहली निर्देशित फिल्म ‘टशन’ से लगे झटके से वे उबर चुके हैं। उन्होंने विश्वास दिलाया कि जल्दी ही वे उत्तर भारतीय सोच की मनोरंजक फिल्म लेकर आएंगे। उन्होंने ‘धूम 3’ की सफलता के कारणों और पहलुओं पर बातें की।
- क्या ‘धूम 3’  से ऐसी सफलता की उम्मीद थी?
0 उम्मीद तो हर निर्माता करता है। हमारी दुनिया सफलता से आगे बढ़ती है। सफलता के साथ सराहना मिले तो मेरे जैसे निर्देशक को अधिक खुशी होती है। पहले फिल्में सिल्वर और गोल्डन जुबली मनाती थी। फिल्में गाढ़ी हुआ करती थी। हफ्तों सिनेमाघरों से नहीं उतरती थीं। दर्शकों की उमड़ी भीड़ से अपना प्रयास सार्थक लगा है। ताकत मिली है कि अगला काम भी अच्छा और इससे बेहतर करें। महत्वाकांक्षा के साथ विनम्रता भी बढ़ी है। रिलीज होने के बाद हर फिल्म दर्शकों की हो जाती है। दर्शकों की प्रतिक्रिया से बहुत प्रभावित हूं,लेकिन अब आगे बढऩे का वक्त आ गया है।
- दर्शकों को फिल्म पसंद आई, लेकिन समीक्षकों में स्पष्ट भेद दिखता है। हिंदी समीक्षकों ने ‘धूम 3’ पसंद की और अंग्रेजी समीक्षकों ने इसे रिजेक्ट कर दिया। आप क्या महसूस करते हैं?
0 समय के साथ फिल्म निर्माण का परिवेश और दर्शकों का सौंदर्यबोध बदलता रहता है। दर्शकों को पहले से बेहतर चाहिए और फिल्मकार भी कुछ नया करना चाहते हैं। तुलना करनी है तो फिर क्रिटिक की तुलना भी रोजर एबर्ट से हो सकती है। मुझे लगता है कि हमारी सोच और मानसिकता उपनिवेशवाद से प्रभावित है। हम अभी तक अमेरिकी और अंग्रेजी प्रभाव से निकल नहीं पाए हैं। अपेक्षा सिर्फ फिल्मों से ही क्यों? हमारे और उनके सामाजिक व्यवहार में भी यह दिखना चाहिए। फिल्मों का मूल्यांकन उसके सांस्कृतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही होना चाहिए। हिंदी फिल्मों के दर्शक पूरी दुनिया से अलग और अलहदा हैं। हमारी फिल्में उनके मनोरंजन के लिए होती हैं। ‘धूम 3’ को अद्वितीय सफलता दर्शकों की भागीदारी से मिली है। विदेशों के दर्शकों ने भी इसे सराहा है। मुझे कई बार उनके द्वारा प्रशंसित फिल्मों की सराहना समझ में नहीं आती। ऐसा लगता है कि फिजिक्स के पेपर में उन्होंने हैंडरायटिंग के लिए नंबर दे दिए हों।
- ऐसा क्यों होता है?
0 हम सभी अपने जिंदगी में कभी न कभी ‘फेक’ होते हैं। हिंदी फिल्मों के मूल्यांकन में यह ‘फेकनेस’ बढ़ा है। ‘धूम 3’ का मूल्यांकन ‘चक दे इंडिया’ की तरह बिल्कुल न करें। इस भेद और व्यवहार से हम जूझते और सीखते रहेंगे। सराहना की अपेक्षा बनी रहेगी। हमें सिखाया गया है कि शिद्दत से कोई काम करो तो इज्जत और पैसे दोनों मिलते हैं।
- तीनों धूम आपने लिखी है। इस बार आपने निर्देशित भी किया। इस फिल्म की आधारभूत विशेषता क्या है?
0 पहली ‘धूम’ के समय यही आयडिया था कि प्रचलित फिल्मों से अलग एक मनोरंजक फिल्म लिखी जाए। आदित्य चोपड़ा का साफ सुझाव था कि हिंदी फिल्मों की भारी-भडक़म चीजें इस में नहीं रहेंगे। चोर-पुलिस  की हल्की-फुल्की फिल्म बनानी है। ‘धूम’ लिखते समय मेरे दिमाग में अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना की फिल्में थीं। उसमें रास्ते के एक मुंबईया किरदार अली को मैंने जोड़ दिया था। उसमें हिंदी फिल्मों का मेलोड्रामा नहीं था। उनके साथ कोई इमोशनल बैगेज नहीं थे। तीनों में से कोई भी नैतिक रूप से सही या गलत नहीं था। तीनों की अपनी डिग्निटी थी। जॉन अब्राहम के कैरेक्टर का आकर्षण था कि वह पकड़ा नहीं जाएगा। संक्षेप में ‘धूम’ अपारंपरिक हिंदी फिल्म थी। पहली धूम के सफल होने के बाद ‘धूम 2’ एक किस्म का सेलिब्रेशन बन गया। लॉजिक को दरकिनार कर ब्यूटी, म्यूजिक और एक्शन का जश्न मनाया गया। ‘धूम 2’ में चोरी के साथ एक लव स्टोरी थी। ‘धूम 2’ पहली के अपेक्षा पारंपरिक और मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्म थी। ‘धूम 3’ में कुछ अलग करना जरूरी था।
- हां, ‘धूम 3’ अलग होने के साथ हिंदी फिल्मों के उस परंपरा में आती है जहां नायक के गलत राह पर जाने की एक वाजिब या इमोशनल वजह होती है।
0 इस बार मैं निर्देशित कर रहा था, इसलिए कहानी लिखते समय मेरा डायरेक्टर भी एक्टिव था। मैंने फिल्म में इमोशनल बैकस्टोरी रखी। दर्शकों के लिए हमने जिस मजे की बात सोची थी,उसे अचीव करने पर अगली धूम की संभावना बढ़ जाती है। आप बिल्कुल सही कह और समझ रहे हैं।
- एक आम शिकायत रही कि आमिर खान को चोरी करते हुए न दिखाने से थ्रिल थोड़ा कम हुआ?
0 याद करें तो पहली ‘धूम’ में भी चोरी करते नहीं दिखाया। वादा करता हूं कि ‘धूम 4’ में जरूर चोरी दिखाऊंगा। अगली धूम में थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन सात सालों का फासला नहीं रहेगा। अगली धूम ‘धूम 3’ से बड़ी और अधिक मनोरंजक होगी।
- पिछली फिल्म ‘टशन’ न चलने का कितना मलाल रहा?
0 ‘टशन’ न चलने का जबरदस्त झटका लगा था। हमारी रीइनवेंश की कोशिश नाकामयाब रह गई थी। मैं कानपुर जैसे छोटे शहर का व्यक्ति हूं। मुझे ऐसी चीजें टच कर जाती हैं। खुद पर ही संदेह होने लगता है। फिर भी मुझ में आदित्य चोपड़ा का विश्वास बना रहा। उन्होंने मुझे ऐसा नहीं फील होने दिया कि ‘टशन’ मेरे टैलेंट का रिजेक्शन है। नए काम में हमेशा रिस्क रहता है। या तो जोरदार सफलता मिलती है या फिर असफलता हाथ लगती है।
- समकालीन निर्देशकों में आप किन्हें पसंद करते हैं?
0 मुझे राजकुमार हिरानी और राकेश ओमप्रकाश मेहरा बहुत पसंद हैं।  दोनों ने हिंदी सिनेमा में विषय का विस्तार किया है। ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ और ‘रंग दे बसंती’ पिछले दशक की श्रेष्ठ फिल्में हैं। इन्हें विश्व की बेहतरीन फिल्मों की सूची में रखा जा सकता है। पिछले साल आई आनंद गांधी की फिल्म ‘शिप ऑफ थिसियस’ भी मुझे अच्छी लगी।

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को