कमल स्‍वरूप-6

कमल स्‍वरूप की बातें आप सभी को पसंद आ रही हैं। मैं इसे जस का तस परोस रहा हूं। कोई एडीटिंग नहीं। हां,अपने सवाल हटा दिए हैं। इस बातचीत में वे गुम भी तो हो गए हैं। अगर आप ने 'ओम दर-ब-दर' देख ली है और कुछ लिखना चाहते हैं तो पता है chavannichap@gmail.com




फिल्‍म के न रिलीज होने का मुझ पर बहुत असर पड़ा। मैंने इस फिल्‍म के लिए आठ लाख रुपए लोन लिए थे। दूसरे शेड्यूल में कैमरे की प्रॉब्‍लम आ गई थी। कैमरे का शटर खराब हो गया था। लौट कर रसेज देखे तो उसमें वीडियो इफेक्‍ट दिखा। वह दौर फिल्‍मों से वीडियो में ट्रांजिशन का दौर था। मुझे एक साल रुकना पड़ा। एक साल के बाद पुष्‍कर का मेला लगा तो फिर से गया। बीच में लोग बोलने लगे थे कि इसके साथ यही होना था। यह तो लापरवाह आदमी है। लोग मजे ले रहे थे। मेरा मजाक बन रहा था। फिल्‍म किसी तरह मैंने पूरी कर ली। इसे फिल्‍मफेयर अवार्ड मिला। फिल्‍म बर्लिन भी गई। मणि कौल आदि को मेरी जरूरत थी। वे मुझे पसंद करते थे। इकबाल मसूद वगैरह ने साफ कहा कि अगर तुम्‍हें एक्‍सेप्‍ट कर लेंगे तो बाकी का क्‍या होगा? श्‍याम बेनेगल आदि के बारे में क्‍या लिखेंगे। तू तो एक जंतु आ गया है। एक तो यह हुआ। मेरी फिल्‍म का रिव्‍यू तक नहीं किया गया। खालिद और आशीष ने अच्‍छा लिखा। ज्‍यादातर मुझे एक्‍सेंट्रीक मानते रहे। अवार्ड और फेस्टिवल से मैं सेलेब्रिटी बन गया। सब जगह से घूम-घाम कर आया। मुंबई में तब आदर्श नगर में रहता था। तब वह झोपड़पट्टी हुआ करती थी। आर्ट फिल्‍म झोपड़पट्टी में रह कर बनाओगे तो लोग कहेंगे कि लफड़ा है। आर्ट फिल्‍म भी क्‍लास की चीज है। वह दक्षिण मुंबई और एनसीपीए के आस पास हो सकती है। आर्ट फिल्‍म के लिए जरूरी है कि आप उस क्‍लास का बिलौंग करें। मुझे डर था कि अगर मैं उनकी राह पर चला तो धीरे-धीरे उनके जैसा हो जाऊंगा। इस वजह से उनके बीच मैं शिड्यूल कास्‍ट हो गया।
बाद में मुझे वीमेन इन सैटेलाइट सिटी के लिए ग्रांट मिली थी। उसे पूरा करने के बाद मैं फालके में लग गया। दादा साहब फालके पर मैंने 1990 से काम शुरू किया। तब मैं न्‍यू बांबे में रहता था। मैंने स्‍क्रैप बुक बनाना शुरू किया। अभी जो बुक बनाई है वह स्‍क्रैप बुक को स्‍कैन कर डिजिटाइज किया गया है। मैं दु:स्‍वप्‍न में ही जीता रहा। एनएफडीसी का पैसा न चुकाने से मैं डिफॉल्‍टर हो गया था। तब के निर्देशक रवि मलिक मेरे जाने के पीछे पड़े हुए थे। कोर्ट के भी चक्‍कर शुरू हो गए थे। मैं भी समाज से नजरें छुपाता था। मेरी मानसिक स्थिति अच्‍छी नहीं थी। उन्‍हीं दिनों मैंने तय किया कि अभी इससे भी बड़ा काम करूंगा। फाल्‍के पर काम करते हुए बीस साल निकल गया। फाल्‍के का काम जल्‍दी पूरा कर दूंगा।
अभी ओम दर-ब-दर रिलीज हुई है। मुझे लगता है कि मुझे दिया गया कर्ज माफ कर दिया गया है। एनएफडीसी ने अनेक फिल्‍मकारों के कर्ज माफ कर दिए थे। इस माफी का भी एक किस्‍सा है। एनएफडीसी का नियम था कि पहली फिल्‍म का कर्ज चुकाने के बाद ही दूसरी फिल्‍म के लिए कर्ज मिलता था। सभी के ऊपर कर्ज थे। किसी को दूसरी फिल्‍म के लिए पैसे नहीं मिल रहे थे। तभी गांधी पिक्‍चर की योजना बनी। इस फिल्‍म को एनएफडीसी ने सात साढ़े सात करोड़ दिए। यह खबर सुनते ही फिल्‍मकारों को मौका मिल गया। उन्‍होंने एक संगठन बनाया फॉरम फॉर गुड सिनेमा। सुरेश जिंदल ने उस फॉरम को फंड किया। दारू, टैक्‍सी के खर्च वही देते थे। सुरेश जिंदल और सईद मिर्जा के घर मीटिंग होती थी। फॉरम का कहना था कि हम गांधी नहीं बनने देंगे। उनकी मांग थी कि पैसे हमारे बीच बांटो। हम तो लाखों में फिल्‍म बना देते हैं। आप करोड़ों एक ही फिल्‍ममेकर को दे रहे हो। हमलोग किसी से कम हैं क्‍या? भूख हड़ताल, धरना, सत्‍याग्रह की योजनाएं बन गई। इस तरह उन्‍होंने मंत्रालय को ब्‍लैकमेल किया। फिर प्रस्‍ताव आया कि 1981 के पहले के सारे कर्ज माफ कर दिए जाएंगे।
आर्ट सिनेमा के लिए जरूरी है कि उसे नेशनल अवार्ड मिले। नेशनल अवार्ड मिलने के बाद ही औकात और अन्‍य सुविधाएं मिलती हैं। बगैर अवार्ड के आप इस समाज के सदस्‍य नहीं हो सकते। एक बार नेशनल अवार्ड मिल जाने से कई रास्‍ते खुल जाते हैं। आप सर्कल में आ जाते हैं और माननीय सदस्‍य बन जाते हैं। मेरी फिल्‍म को अवार्ड तो क्‍या नेशनल पैनोरमा के लिए भी नहीं चुना गया था।
मेरी फिल्‍म की अंडर ग्राउंड पॉपुलैरिटी की अलग कहानी है। सेंसर के लिए हमें एक वीएचएस कॉपी बनानी होती थी। मैंने दो कॉपी बना ली थी। एक मेरे पास रह गई थी। एक सेंसर को दी थी। सेंसर ने फिल्‍म को एक साल के लिए रोके रखा। उनको संदेह था कि फिल्‍म में कुछ छिपे हुए मतलब हैं। अब जैसे लड़का लौकेट खोल कर कुछ पढ़ता है। उन्‍होंने एक मौलवी को बुला कर पूछा कि यह कुरान शरीफ तो नहीं है? मैंने बताया था कि वह कुरान शरीफ नहीं। इंग्लिश की छोटी डिक्‍शनरी है। उन्‍होंने उसे फ्रेम बाय फ्रेम मौलवी को दिखाया। इसी प्रकार टरट्रीटाल कहीं सतश्रीयकाल तो नहीं है। सेंसर ने कुछ कट्स के साथ एडल्‍ट सर्टिफिकेट दिया। मुझे लगता है कि मेरी फिल्‍म को इसलिए एडल्‍ट सर्टिफिकेट मिला कि वह केवल एडल्‍ट को समझ में आ सकती है। मतलब मानसिक रूप से परिपक्‍व होने के बाद ही आप ओम दर-ब-दर देख सकते हैं। सेंसर को सेक्‍स और वायलेंस से ज्‍यादा दिक्‍कत नहीं होती है। उन्‍हें धर्म, राजनीति जैसी चीजों से दिक्‍कत होती है।
जो वीएचएस मेरे पास था, वह मैंने कुछ लोगों को दिखाया था। उन्‍हीं दिनों सफदर हाशमी की बलि चढ़ी थी। सहमत की स्‍थापना हुई थी। उन्‍हें मैं हीरो लग रहा था। उन्‍होंने मेरी फिल्‍म दिखाई। केरल में जॉन अब्राहम की मृत्‍यु हो गई थी। उन्‍हें भी मैं हीरो दिख रहा था। उन्‍हें बलि के लिए अगला बकरा चाहिए था। मैं सॉफ्ट टारगेट था। मेरे पास घर नहीं था, पैसे नहीं थे। मैं हैंडसम था। कोई काम नहीं था। इस प्रकार मैं बलि के लिए उपयुक्‍त था। बलि चढ़ने के सारे गुण मेरे अंदर थे। कल्‍ट बनने की सारी संभावना थी। सहमत ने दिल्‍ली में ओम दर-ब-दर का प्रीमियर किया। कसौली में विवान सुंदरम के घर पर इनकी मीटिंग होती थी। ये लोग मुझे भी ले गए। वहां सुबह-शाम ओम दर-ब-दर की वीएचएस देखी गई। मेरी जां ऐ ऐ और बबलू बेबीलोन से सुनकर उन्‍हें थ्रिल होता था। फिर अचानक ये लोग मुझ से नाराज हो गए। मैं बुर्जुआ था नहीं। उनकी लाइफ में कम्‍फर्ट फील नहीं करता था। उनकी जाति का मैं नहीं हो सका। हो भी नहीं सकता था। एक तो वे अंग्रेजी वाले थे और दूसरे बड़े बड़े लोग थे। मैं अपने हिसाब से एरोगेंट था।
 

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