कमल स्वरूप-5
कमल स्वरूप बी बातें आप सभी को पसंद आ रही हैं। मैं इसे जस का तस परोस रहा हूं। कोई एडीटिंग नहीं। हां,अपने सवाल हटा दिए हैं। इस बातचीत में वे गुम भी तो हो गए हैं। अगर आप ने 'ओम दर-ब-दर' देख ली है और कुछ लिखना चाहते हैं तो पता है chavannichap@gmail.com
मेरे ज्यादातर कलाकार नोन-एक्टर थे। एक्टर को भी
दिक्कत हो रही थी। वे मेरी स्क्रिप्ट समझ ही नहीं पा रहे थे। वे अपना कैरेक्टर
नहीं समझ पा रहे थे और संवादों के अर्थ नहीं निकाल पा रहे थे। मैंने किसी एक्टर
का ऑडिशन नहीं लिया था। उन्हें कुछ पूछने का मौका भी नहीं दिया था मैंने। मैं मान
कर चल रहा था कि मेरे सोचे हुए संसार को अजमेर खुद में समाहित करेगा और अजमेर का
असर मेरे संसार पर होगा। तोड़ फोड़ और निर्माण एक साथ चलेगा। इस प्रक्रिया को मैं
रिकॉर्ड कर रहा था। क्रिएटिव द्वंद्व को डॉक्यूमेंट कर रहा था। कृत्रिम और प्राकृतिक
का यह द्वंद्व अद्भुत था। ‘ओम
दर-ब-दर’ में मैंने किसी कहानी
का चित्रण नहीं किया है। मजेदार है कि ‘ओम दर-ब-दर’ की कहानी आप
सुना नहीं सकते।
राजकमल चौधरी और मुक्तिबोध के लेखन का मेरे ऊपर असर
रहा। राजकमल चौधरी से तो मैं मिला भी था। उनसे गिंसबर्ग पर बातें भी की थी। धूमिल
की कविताओं और कहानियों का माहौल मुझे आकर्षित करता था। मुक्तिबोध के यहां ‘विपात्र’ और ‘सतह से उठता आदमी’ में उनका क्राफ्ट देखिए। मुक्तिबोध की
कहानियों के रंग, रंगछाया और माहौल फिल्मों में रच दे तो बहुत बड़ी बात हो जाएगी।
तारकोवस्की ‘ब्रह्मराक्षस’ को रच सकते थे। मणि कौल कर सकते थे। ‘सतह से उठता आदमी’ में वे सफल नहीं हो सके। ‘सिद्धेश्वरी’ के समय वे क्राफ्ट सिद्ध कर चुके थे। तब तक वे मीठे हो गए थे। मुक्तिबोध
और राजकमल की रचनाओं के बीज छायावाद में देखे जाते हैं। मेरा मानना है कि दोनों
छायावादी रचनाकार नहीं थे।
पुष्कर की एक पुराण कथा है। ब्रह्मा जी के पास कोई स्थान
नहीं था। ईश्वर ने नील कमल धरती पर फेंका। वह तीन जगह उछल कर गिरा। तीनों जगह झील
बन गया। उन्हें आशीर्वाद मिला कि इन झीलों में जो भी नहाएगा वह सीधे स्वर्ग
जाएगा। पुष्कर के आस पास मेला लगने लगा। लोग आकर वहां झील में डुबकी मारते थे।
डुबकी मारने से उनके सारे पाप धूल जाते थे। बुरे कर्म साफ हो जाते थे। उनका स्वर्गारोहन
हो जाता था। स्वर्ग की आबादी बढ़ने लगी। देवी-देवताओं ने ब्रह्मा से आपत्ति की।
उन्होंने शिकायत की कि तुम कर्म श्रृंखला ही तोड़ रहे हो। ईश्वर ने कहा कि अब तो
मैं आशीर्वाद दे चुका हूं, उसे बदल नहीं सकता। एक काम करता हूं कि मैं इसे वापस
बुला लेता हूं। अब साल में केवल पांच दिनों के लिए वह धरती पर उतरेगा। उन पांच
दिनों का ही महात्म्य होगा। मैंने इसे एक बिंब के तौर पर लिया।
बिंबों को आप छू नहीं सकते। जो दिखती है वह छाया है।
छाया और बिंब पांच दिनों के लिए मिलते हैं तो पुष्कर का पानी पवित्र हो जाता है।
‘ओम दर-ब-दर’ कुमार शाहनी को पसंद आई थी। गुलाम शेख, भुपेन खख्खर और दूसरे चित्रकारों
को भी मेरी फिल्म अच्छी लगी थी। बुद्धिजीवियों ने पसंद की थी। मणि कौल और कुमार
शाहनी उनसे मिलवाने मुझे ले जाया करते थे। मैं भी उनके ग्रुप का छोटा सदस्य मान
लिया गया था। उस ग्रुप को फिल्ममेकर की जरूरत थी। फिल्ममेकर को भी कलाकार समझा
जाता था। हम लोगों की कास्टिंग हो चुकी थी। मैं भुपेन खख्खर की नैरेटिव पेंटिंग
से बहुत प्रभावित था। फिल्म भी मेरे दिमाग में स्क्रॉल की तरह थी।
शुरू में फिल्म का नाम मैंने ‘दर-ब-दर’ रखा था। कश्मीर में यह शब्द बहुत प्रचलित है। दर-बदर होना मतलब भटकना।
घाटियों में भी एक दर्रे की आवाज निकल कर दूसरे दर्रे में जाती है तो उसे भी
दर-ब-दर कहते हैं। प्रतिगूंज कह लें। यह प्रतिगूंज कांप रही थी। उस स्थिर करने के
लिए मैंने दर-ब-दर में ओम शब्द जोड़ दिया। ओम मेरे फिल्म का कुंभक है। ओम के आने
बाद द्वंद्व पैदा हुआ। तंत्र विज्ञान के लोग इसे अच्छी तरह समझ सकते हैं। ओम ही
मेरे लिए फिल्म का सूत्र और मंत्र था। बाकी चरित्र उसके वजह से प्रकट होने लगी।
राजकमल चौधरी तंत्र-मंत्र में थे। ऐसा लगता है कि वे साहित्य रच रहे थे, लेकिन
उनके साहित्य में तंत्र-मंत्र ही है। उनके साहित्य को अर्थों में नहीं मंत्रों
में समझने की जरूरत है। मेरी फिल्म भी मंत्रात्मक है। मंत्र से ही फिल्म का
संकल्प बनता है। यह मंत्र मुझे मार भी सकता है। मुझे मारा भी उसने... लेकिन मैं
जीवित रहा। बड़ी इच्छा रखने और ईशनिंदा करने का परिणाम तो होगा।
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