कमल स्वरूप-4
कमल स्वरूप से हुई बातचीत अभी जारी है। उनके प्रशंसकों,पाठकों और
दर्शकों के लिए उन्हें पढ़ना रोचक है। सिनेमा के छात्र और
अध्यापक...फिल्मकार भी इस बातचीत से लाभान्वित हो सकते हैं। अबर आप कमल
स्वरूप की फिल्म या उन पर कुछ लिखना चाहें तो स्वागत है।
chavannichap@gmail.com पते पर भेज दें।
अभी के फिल्मकारों में मुझे विशाल भारद्वाज में संस्कार
दिखता है। वे मेरठ के हैं। उन्होंने पल्प साहित्य भी पढ़ा है। गुलजार साहब की
संगत भी की है। उन्हें संगीत का भी ज्ञान है। फिल्मों की मेलोडी, आरोह-अवरोह और
सम सब कुछ मालूम है उन्हें। विशाल संगीत के सहारे अपनी फिल्म में समय पैदा करते
हैं। किसी भी फिल्मकार की यह खूबी होती है कि दो घंटे की अवधि में वह कितने समय
का एहसास देता है। अगर समय की अमरता का एहसास मिल जाए तो फिल्म बड़ी और महान हो
जाती है। काल का अनुभव देने के बाद ही फिल्में कालातीत होती हैं। अफसोस है नए
फिल्मकारों के फिल्मों में काल का अनुभव नहीं है। मुझे लगता है फिल्मकारों को
काल का भाष ही नहीं है।
राजनीतिक फिल्मों को लेकर भी समस्या है। दर्शक और
फिल्मकार तक यह मानते हैं कि राजनीति पर बनी फिल्में ही राजनीतिक होती हैं। राजनीति
वास्तव में फिल्मकार के पोजीशन या स्टैंड से ताल्लुक रखती है। मुंबई में तो
कम, लेकिन दक्षिण भारत में इस तरह की बातें हो रही हैं। फिल्मों के विषय से अधिक
उसके फार्म और प्रजेंटेशन में पॉलीटिक्स होती है। राजकपूर की फिल्में देखें तो
उनके लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास वामपंथी थे। उनकी फिल्मों पर इप्टा और मार्क्स
का प्रभाव था। एक जमींदार है, एक कम्प्राडोर बुर्जुआ है, एक नेशनल बुर्जुआ है,
प्रोलेट्रिएट है। औरत है, औरत देवी भी है औरत वेश्या भी है। कहानी लिखने का एक
फार्मूला बन गया था। गौर करें तो हिंदी फिल्मों की कहानी लिखने का फार्मूला इप्टा
से ही आया है। कुमार साहनी ने ‘तरंग’ बनाई थी तो सीपीएम का फार्मूला लिया था।
‘ओम दर-ब-दर’ का अंकन मैंने अंग्रेजी में किया। अंग्रेजी में ही मार्केटिंग होती थी।
मेरी अंग्रेजी भी हिंदी की तरह कच्ची है। चूंकि मेरा विषय अलग था इसलिए एक भाषा
बनानी पड़ी। मेरी अंग्रेजी में ग्रामर नहीं था, लेकिन स्पंदन था। मैं इसे
जेनरेटिव सेंटेंश बोलता हूं। उसकी ध्वनि अटपटी और तोड़फोड़ की होती थी। मेरे वाक्य
अनसुने होते थे। अनसुने वाक्यों में भी पॉलीटिक्स थी। मैंने तय कर लिया था कि
कुछ भी फैमिलीयर नहीं बनाऊंगा। मुझे अपनी फिल्म में ऐसा कुछ करना था जो न पहले
देखा गया हो और न सुना गया हो। मुझे अपना स्पेस पैदा करना था। मैंने अपनी फिल्म
में मां को निकाल ही दिया था। फिल्मों में सेक्स और वायलेंस फैमिलीयर होता है। मैंने
इन दोनों को निकाल दिया। हमलोग फिल्मों में सेक्स और वायलेंस देखते हैं तो लगता
है कि देखी हुई चीज है। देखने का रिश्ता ताजा हो जाता है। मुझे मरना भी नहीं दिखाना
था। क्योंकि फिल्मों में आदमी मरता तो है नहीं। वह केवल प्रिट्रेंड करता है। मजेदार
तत्थय है कि मेरी स्क्रिप्ट मंजूर हो गई। उसके बाद समस्या आयी कि मैं इसे हिंदी
में कैसे लिखूं। अंग्रेजी में तो कुछ भी फेंक दो अच्छा लगता है। हिंदी में अपने
धरती का ख्याल रखना पड़ता है। धरती तो अंग्रेजी में सोचती नहीं है। हिंदी में
लिखने लगा तो वह अलग फिल्म बन गई। हिंदी में भी मुझे ऐसा कुछ लिखना था जो पहले
नहीं सुना गया हो। मैं एक ही वाक्य को बार-बार लिखता था। जब तक मेरी समझ में आता
था मैं लिखता रहता था। जब समझ में आना बंद हो जाता था तब मैं छोड़ देता था कि अब
ठीक है। मुझे ऐसे ही वाक्य लिखने थे जो समझ में न आए। फिर भी इन वाक्यों में
प्राण रहता था। मेरा मानना है कि जो चीज समझ में आ जाए वह आपके कब्जे में आ जाती
है। आप उसे मार देते हैं। जब तक कोई चीज समझ में न आए तब तक उसमें जान रहती है। यह
मेरा सिद्धांत था पॉलीटिकल स्टैंड था। मुझे स्क्रिप्ट लिखने में डेढ़ साल लगे।
शुरू में एनआईडी में दिखाया तो उनकी समझ में नहीं आया।
फिल्म के आरंभ में प्रेम कहानी देख कर सभी खुश हुए, लेकिन कुछ देर के बाद सब गडमड
हो गया। मेरी प्रेम कहानी में जब वे घर के अंदर चले गए तो मैंने बाहर के दरवाजे
बंद कर दिए। मैं कंफ्यूजन पैदा कर दिया। यहां से फिल्म उनकी बौद्धिकता के लिए
चुनौती हो गई। फिर फिल्म के अंदर तो घुस गए, लेकिन बाहर नहीं निकल पा रहे थे। मैंने
उनके साथ छेड़खानी कर दी थी। सच कहें तो यह मेरे जीवन का अनुभव भी है। मुझे लगता
है कि मैं तो सब कुछ समझ रहा हूं। फिर लगता है कुछ समझ में नहीं आ रहा है। सारे
मतलब और अर्थ धीरे-धीरे छूट जाते हैं।
किशोर वय की जो छटपटाहट है उसे मैं पर्दे पर लाना
चाहता था। दैहिक, मानसिक हर तरह की छपटाहट है फिल्म में। बाबूजी, जगदीश, ओम सब एक
ही पात्र हैं। ये सभी ओम के ही प्रक्षेपण हैं।
फिल्म मेरे लिए एक जादू-टोना था। जादू-टोना दूसरों पर
होने से पहले खुद पर होता है। पहले खुद को डिलयूड करना पड़ता है। मैं मेढ़कों की
कल्पना कर रहा था तो मुझे हर जगह मेढक ही दिखने लगे। स्क्रिप्ट मेरे आंखों सामने
नाचता रहता था। मैं साइकी की स्ट्रेट में जा रहा था। एक बहुत पतली रेखा थी मेरे
पागल हो जाने का खतरा था। पागल तो मैं था ही। मैं एक अलग संसार में रमा हुआ था।
अचेतन और अवचेतन में छलांगें लगा रहा था। कोशिश थी कि मोती हाथ लग जाए। ऐसी छलांग
में डूबने की भी संभावना रहती है। समस्या थी कि मैं अपने पागलपन में जीवित कैसे
रहूं। फिल्म कैसे बनाऊं। मेरे दोस्त कहते भी थे कि तू नेति-नेति पर चला गया तो
बचेगा क्या। ऐसे तो तू मर जाएगा। फिर कौन से संसार में रहेगा। वे मेरे संसार के
बारे में पूछने लगे। मेरा इरादा था कि नेति-नेति करते हुए अचानक कुछ दिखने लगेगा। दूसरा
मेरा सिद्धांत था कि आर्ट इज नॉट नेचुरल। मणि कौल का सिद्धांत था कि स्वाभाविक हो
जाओ। मैं पूछता था कि स्वभाव क्या होता है। मेरा कहना था कि आर्ट आर्टिफीशियल
होता है।
आर्टिफीशियल लोक को लेकर मैं अजमेर जा रहा था। वहां
जमीन है, जंगल है, पहाड़ है। सब कुछ वास्तविक है। वहां अपर मीडिल क्लास, लोअर
मीडिल क्लास बाकी लोग दरगाह, परिवार और इन सभी का एक संसार है। उनके लिए वही
नेचुरल है। कहते हैं कि डाक्यूमेंट्री बनाओ तो उसे फिल्म की तरह बनाओ। और फिल्म
बनाओ तो उसे डाक्यूमेंट्री की तरह शूट करो। अजमेर की आत्मा मेरे खाके में थी।
कहानी वहीं से निकली थी। अजमेर के प्रति मुझे प्रेम है और अजमेर ने मुझे धृष्टता
दी है। अजमेर के प्रति मेरे मन में एक तिरस्कार भाव भी था। चोर बन कर मैं अपने ही
खजाने को लूटने जा रहा था। कोशिश थी कि किसी को पता भी न चले कि मैं क्या लूट रहा
हूं। अजमेर और पुष्कर में कहा जाता है कि लोग यहां देने आते हैं। कोई यहां से कुछ
लेकर नहीं जाता। वहां जेबें खाली हो जाती हैं। मैं खाली जेब वहां गया था। अपने
अप्राकृतिक संसार को वहां थोप रहा था। वहां के नोन एक्टर और एक्टर को ऐसी लाइने
दी जो उन्होंने कभी सुनी ही नहीं थी। सुने-सुनाए संवाद हों तो एक्टर के हाथ-पांव
खुद ही चलने लगते हैं। उनकी स्मृतियों में एक लय होती है। उसी लय को वे अभिनय में
खींच लाते हैं।
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