फिल्म समीक्षा : शोले 3 डी
-अजय ब्रह्मात्मज
इस फिल्म की समीक्षा दो हिस्सों में होगी। पहले हिस्से में हम 'शोले' की
याद करेंगे और दूसरे हिस्से में 3 डी की बात करेंगे।
15 अगस्त 1975 को
रिलीज हुई 'शोले' को आरंभ में न तो दर्शक मिले थे और न समीक्षकों ने इसे
पसंद किया था। दर्शकों की प्रतिक्रिया से निराश फिल्म की यूनिट क्लाइमेक्स
बदलने तक की बात सोचने लगी थी। अपने समय की सर्वाधिक महंगी और आधुनिक तकनीक
से संपन्न 'शोले' से फिल्म के निर्माता-निर्देशक ने भारी उम्मीद बांध रखी
थी। आज का दौर होता तो फिल्म सिनेमाघरों से उतार दी गई होती, तब की बात कुछ
और थी। 'शोले' की मनोरंजक लपट दर्शकों ने धीरे-धीरे महसूस की। दर्शकों का
प्यार उमड़ा और फिर इस फिल्म ने देश के विभिन्न शहरों में सिल्वर जुबली और
गोल्डन जुबली के रिकार्ड बनाए।
मुंबई के मिनर्वा थिएटर में यह फिल्म लगातार 240 हफ्तों तक चलती रही
थी। आज के युवा दर्शक इसकी कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि अभी की हिट
फिल्में भी 240 शो पार करते-करते दम तोड़ देती हैं। तब आंकड़ों में पैसों की
नहीं दर्शकों की गिनती होती थी। कह सकते हैं कि 'शोले' हिंदी दर्शकों के
बीच सर्वाधिक देखी कई फिल्म है। आज भी कहीं बड़े पर्दे पर यह दिखायी जाए तो
दर्शक टूट पड़ते हैं। टीवी प्रसारण में टीआरपी सुनिश्चित रहती है।
कई फिल्में बनने के बाद महत्वपूर्ण और महान हो जाती हैं। 'शोले' की
यात्रा थोड़ी भिन्न है। शुरुआत से ही रमेश सिप्पी ने शानदार बड़ी फिल्म की
योजना बनाई थी। वे इसमें सफल भी रहे। इसकी भव्यता से एडजस्ट करने में
दर्शकों को थोड़ा समय लगा। एक बार यह रिश्ता बन गया तो समय के साथ वह निरंतर
मजबूत होता गया। हिंदी फिल्मों के लिए कहा जाता है कि इसमें एक्शन,
ड्रामा, लव, दोस्ती, परिवार, इमोशन, नाच-गाना और फाइट सब कुछ रहता है।
'शोले' इन सभी विशेषताओं से सजी मनोरंजन की स्वादिष्ट थाली रही है।
38 साल होने जाने के बाद भी इसके रसास्वादन में बासीपन नहीं आया है।
'शोले' अपने समय की मल्टीस्टारर फिल्म थी। आठवें दशक के सभी पापुलर
कलाकारों को इसमें शामिल किया “या था। फिल्म के मुख्य किरदारों के साथ-साथ
छोटे-मोटे सहयोगी किरदारों के चित्रण पर भी लेखकों ने समुचित ध्यान दिया
था। यही वजह है कि सिर्फ तीन शब्द 'पूरे पचास हजार' बोलने के बावजूद सांभा
दर्शकों को याद रहा। कालिया, सूरमा भोपाली, जेलर, नाई, राम लाल, मौसी, अहमद
आदि भी अपनी पहचान छोड़ जाते हैं। सभी प्रमुख किरदार इतने दमदार हैं कि हर
कलाकार अपने मिले किरदारों को छोड़ उन्हें निभाने की इच्छा जाहिर करता रहा।
पारंपरिक तरीके से सोचें तो फिल्म के नायक-नायिका धर्मेन्द्र और हेमा
मालिनी हैं। इसके बावजूद अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार और जया भादुड़ी को भी
समान दृश्य और महत्व दिया गया।
'शोले' की कहानी सामान्य सी थी। 'मेरा गांव मेरा देश' में उसकी झलक
मिलती है। 'शोले' ने ईमानदार पुलिस अधिकारी और डकैत के बीच की तनातनी का
वितान वृहद और प्रभावशाली बना दिया था। उन दोनों के बीच विपरीत स्वभाव के
दो जांबाज युवक थे। फिल्म की नाटकीयता गतिशील है। एक सिक्वेंस खत्म होने के
थोड़ी देर बाद ही दूसरा सिक्वेंस या गाना आ जाता है। कह लें कि 'शोले'
देखते समय सांस थमी रहती है। 38 साल पहले की तकनीकी सीमाओं के बावजूद
'शोले' का थ्रिल आज भी रोमांचित करता है।
इस फिल्म की विशेषताओं में पटकथा और संवाद का उल्लेख आवश्यक हो जाता
है। फिल्म की पटकथा कहीं भी शिथिल नहीं होती है। प्रसंग-दर-प्रसंग रोचकता
बनी रहती है, जो क्लाइमेक्स में उत्कर्ष पर पहुंचती है। अब तो रामलीला की
तरह सब कुछ मालूम होने के बावजूद दर्शक इसे बार-बार देखना पसंद करते हैं।
फिल्म के किरदारों के साथ वे पहले ही संवाद बोलने से नहीं चूकते। फिर भी न
तो आनंद कम होता है और न 'शोले' को फिर से देखने की इच्छा। इस फिल्म के
संवाद भारतीय समाज के दैनंदिन जीवन में मुहावरों की तरह इस्तेमाल होते हैं।
सभी के अपने प्रिय संवाद हैं।
'शोले' सभी उम्र के दर्शकों को देखनी चाहिए। खास कर युवा दर्शकों को
बड़े पर्दे पर यह फिल्म अपनी भव्यता का एहसास देगी। हिंदी फिल्मों के इस
गौरव पर गर्व होगा।
***** पांच स्टार
3 डी
38 सालों के बाद 3 डी फॉर्मेट में रिलीज हुई 'शोले 3 डी' आधुनिक तकनीक
के इस्तेमाल से पुराने आनंद और अनुभव को बढ़ा देती है। फिल्म के जिन
दृश्यों का 3 डी रूपांतरण किया गया है, उनका प्रभाव निश्चित ही बढ़ गया है।
ट्रेन सिक्वेंस में लट्ठों का गिरना, फाइट सिक्वेंस में गोलियों चलना,
होली के दृश्य में रंगों का उड़ना, क्लाइमेक्स में हेमा मालिनी का डांस और
उसके पहले गब्बर के गैंग से जूझते अमिताभ बच्चन ़ ़ ़इन सभी प्रसंगों में 3
डी प्रभावशाली है। पुरानी 'शोले' का रोमांच गाढ़ा हो जाता है। अगर पूरी
फिल्म 3 डी होती तो यह रोमांच स्थायी और गहरा होता। 3 डी रूपांतरण के साथ
फिल्म के गीत और पाश्र्र्व संगीत को रिक्रिएट किया गया है।
आधुनिक साउंड सिस्टम से लैस सिनेमाघरों में फिल्म देखते समय ध्वनि का
कमाल और प्रभाव महसूस होगा। 3 डी रूपांतरण की वजह से फिल्म का आनंद अलग भी
हुआ है। तकनीकी युक्ति से मौलिक फिल्म को ऊपरी तौर पर सजा दिया गया है।
फिल्म का कंटेंट वही है। फॉर्म में नई चीजें जुड़ गई हैं। संभव है पुरानी
फिल्म के प्रशंसकों को 3 डी रूपांतरण बनावटी और कृत्रिम लगे।
हालीवुड में भी 'टायटैनिक' और 'जुरासिक पार्क' जैसी फिल्मों का 3 डी
रूपांतरण किया गया है। 'शोले 3 डी' में वैसी दक्षता और गुणवत्ता का अभाव
है। फिर भी क्लासिक फिल्मों के रीमेक से बेहतर प्रयास उसका रिस्टोरेशन या
रूपांतरण है। इस संदर्भ में 'शोले 3 डी' का प्रयास सीमाओं के बावजूद
सराहनीय है।
*** 1/2 साढ़े तीन स्टार
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