कमल स्वरूप - 1
कमल स्वरूप की 1988 में सेंसर हुई फिल्म 'ओम दर-ब-दर' 17 जनवरी को रिलीज हो रही है। इस अवसर पर उनसे हुई बातचीत धारावाहिक रूप में यहां प्रकाशित होगी। उममीद है पहले की तरह चवन्नी का यह प्रयास आप को पसंद आएगा। आप की टिप्पणियों और शेयरिंग से प्रोत्साहन और बढ़ावा मिलता है। पढ़ते रहें....
-अजय ब्रह्मात्मज

पहले मेरी इच्छा साहित्य में
जाने की थी। लिखने की कोशिश मैं करता रहा था। लिखने में समस्या थी। मैं मूलत:
कश्मीरी हूं। कश्मीर बहुत पहले छूट गया तो भाषा से संपर्क भी खत्म हो गया।
राजस्थान में आकर बस गए, लेकिन
वहां की भाषा से जीवंत संपर्क नहीं रहा। साहित्य की मेरी भाषा किताबी थी। मुझे
एहसास हो गया था कि मैं साहित्यकार नहीं हो सकता। साहित्य की अपनी प्रांतिकताएं
होती हैं। वहां भी प्रवेश आसान नहीं है। दूसरे मैंने साइंस की पढ़ाई की थी। सोचता
था कि अगर साइंस पढ़ कर मनोहर श्याम जोशी लेखक बन सकते हैं तो मैं क्यों नहीं बन
सकता?
मैं बहुत पढ़ाकू था। स्कूल तक
मैंने सारा भारतीय साहित्य पढ़ लिया था। मेरे पिता जी अरबी और संस्कृत के विद्वान
थे। वे शिक्षाविद थे। सरपंचों को पढ़ाया करते थे। उनका नाम पंडित अमरनाथ स्वरूप
था। घर में बहुत किताबें थीं। पढऩे-लिखने का माहौल था। आज की भाषा में कहूं तो
मेरी हार्ड डिस्क हिंदी भाषा की नहीं है। अज्ञेय और रांगेय राघव की भी हार्ड डिस्क
हिंदी की नहीं थी। शायद लिख सकता था, लेकिन ध्यान संकेंद्रित नहीं कर पाता था। वक्त नहीं था कि हिंदी साहित्य
में एमए की पढ़ाई करूं। भाषा में मैं थोड़ा कमजोर हूं अभी तक। मैं पढ़ता था,
कल्पना करता था, अनुभवों के झंझावात कोहरे की तरह दिमाग में छा जाते थे,
धूंध बनता था, भावनाएं पैदा होती थीं... इन सब के बावजूद मैं उन्हें
शब्द नहीं दे पाता था। मेरे पास बिंब होते थे और कल्पनाएं होती थीं।

19 साल के लडक़े को जब
एक्सपोजर मिला तो वह पूरी तरह से स्पंदित हो गया। स्नायुओं पर असर हुआ। समझ तो थी
नहीं। बर्गमैन देख कर अजमेर से आया 19 साल का लडक़ा क्या समझेगा? अधिकतर फिल्में मेरी समझ में नहीं आती थी। फिर
पढऩा शुरू किया। तब भी यह ख्याल नहीं था कि आगे चल कर फिल्म बनाऊंगा। मेरी उम्र के
कम लोग थे तब मैं थोड़ा अकेला महसूस करता था। मैं कमरे पड़ा रहता था। वहां हिंदी
साहित्य की पृष्ठभूमि से आया कोई नहीं था। मैं किस से बातें करता? एफटीआईआई में ज्यादातर छात्र तकनीकी पढ़ाई कर
आए थे। उन्हें लगता था कि वे समाज के लिए अनफिट हैं। मणि कौल और कुमार शाहनी थोड़े
मशहूर हो गए थे। वे दोनों पढ़ाने आया करते थे। इन सभी ने मीडिया में हलचल मचा दी
थी। एफटीआईआई के तीन साल स्वर्ग थे। आज भी एफटीआईआई के छात्र खुद को स्वर्गवासी
कहते हैं। वहां सारे भेद-भाव मिट जाते हैं। एक आदर्शवादी यूटोपियन संसार था।
मैंने महसूस किया कि तत्कालीन
मुंबई के बुर्जुआ समाज में संगीतकार, पेंटर, साहित्यकार की
तरह फिल्मकारों की भी जरूरत थी। तब फिल्मों को आर्ट का दर्जा नहीं मिला था।
बुर्जुआ बुद्धिजीवी कमर्शियल फिल्में नापसंद करते थे। उन्हें वे नौटंकी मानते थे।
इस समाज में फिल्मकारों की जगह खाली थी। अकबर पद्मशी और भूपेन खख्खर को मणि कौल
जैसे फिल्ममेकर मिल गए। धीरे-धीरे उनका माहौल बना। तब टाइम्स ऑफ इंडिया ऐसे
फिल्मकारों को सपोर्ट करता था। उन दिनों हर हफ्ते मृणाल सेन, अवतार कौल, मणि कौल और कुमार शाहनी पर लेख छपा करते थे। ये सभी
आभिजात्य वर्ग के खानदानी लोग थे।
क्रमश:...
Comments