बगावत कर फिल्मों में आई- नम्रता राव
चवन्नी के पाठकों के लिए यह लेख फिल्म सिनेमा से साभार लिया गया है।
-गजेन्द्र सिंह भाटी
मनीष शर्मा की फ़िल्म ‘शुद्ध देसी
रोमैंस’ की एडीटर नम्रता राव इससे पहले उनके साथ ‘बैंड बाजा
बारात’ और ‘लेडीज
वर्सेज रिकी बहल’ कर चुकी हैं। दिल्ली की नम्रता ने आई.टी. की पढ़ाई और एन.डी.टी.वी.
में नौकरी के
बाद कोलकाता के सत्यजीत रे
फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान का रुख़ किया। वहां से फ़िल्म संपादन सीखा। 2008 में दिबाकर बैनर्जी की फ़िल्म ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ से उन्होंने एडिटिंग की शुरुआत की। बाद में ‘इश्किया’, ‘लव से-क्-स और धोखा’, ‘शंघाई’ और ‘जब तक है जान’ एडिट कीं। ‘कहानी’
में सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन के लिए उन्हें इस साल 60वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया। फ़िल्म संपादन में रुचि रखने वाले
युवाओं के लिए यह
साक्षात्कार उपयोगी हो सकता है।
जिन्हें रुचि नहीं भी है और फ़िल्म बनाने की कला को
चाव से देखते हैं वे भी पढ़ते हुए नया परिपेक्ष्य पाएंगे। प्रस्तुत है नम्रता राव से विस्तृत बातचीतः
कहां जन्म हुआ? बचपन
कैसा था? घर व आसपास का माहौल कैसा था?
त्रिवेंद्रम, कोचीन में हुआ जन्म। मैं कोंकणी हूं। केरल में ही हमारा घर है। मेरे पिता बी.एच.ई.एल. (Bharat Heavy Electricals Limited) में काम करते थे और दिल्ली में पोस्टेड थे, तो मैं दिल्ली में पली-बढ़ी। स्कूलिंग और ग्रेजुएशन वहीं से की। आई.टी. में मैंने ग्रेजुएशन किया था। उसके बाद मुझे उसमें उतना रस नहीं आ रहा था तो सोचने लगी कि आगे क्या करना है। इस तरह मैं इस माध्यम की ओर आई। मैं सत्यजीत रे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, कोलकाता गई और वहां से पोस्ट-ग्रेजुएशन इन सिनेमा किया। एडिटिंग में स्पेशलाइजेशन किया।
कैसी बच्ची थीं आप? कैसा व्यवहार था?
शांत, गुमसुम, सामान्य। मैं एक नॉर्मल और स्पोर्टी चाइल्ड थी। बहुत किताबें पढ़ती थी। बहुत खेलती थी। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी।
सबसे शुरुआती फ़िल्में कौन सी देखी थीं जो आपको सम्मोहित छोड़ गईं?
दरअसल, हम लोग बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। मेरी सबसे पुरानी याद्दाश्त है ‘राम तेरी गंगा मैली’ जो मैंने तब देखी जब बहुत छोटी थी। मेरे पेरेंट्स लेकर गए थे रात के शो में, कि “ये सो जाएगी, हम फ़िल्म देखेंगे”। सिनेमा का सबसे पहला आमना-सामना यही था। फिर ‘मिस्टर इंडिया’ देखने गए। वैसे बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। ज्यादातर तो दूरदर्शन पर ही देखी हैं जितनी भी मैंने देखी हैं। मतलब ये सिनेमा में और थियेटर में जाने का ज्यादा कुछ नहीं था। किताबें पढ़ने का था, इसे प्रोत्साहित किया जाता था। मैं बहुत पढ़ती थी, नॉवेल और कॉमिक्स। कहानियों का शौक मुझमें वहीं से आया। फ़िल्मों से कम, किताबों से ज्यादा आया। मतलब, फ़िल्मों तक पहुंचना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। हमारे घर में वी.सी.आर. नहीं था। तब टेलीविज़न और इंटरनेट तो होते नहीं थे। थियेटर बहुत मिन्नत करने के बाद घरवाले कभी लेकर जाते थे।
ये एडिटिंग का कहीं उन कॉमिक्स से तो नहीं आया जो आप पढ़तीं थीं? जैसे, उनमें अलग-अलग हिस्से बने होते हैं हर पन्ने पर। सिलसिलेवार डिब्बे कहानी कहते जाते हैं एक-दूसरे में जुड़े हुए। सीन और कहानी की समझ कि कैसे सेट करना है, अनजाने में कहीं वहीं से तो नहीं आया?
बिल्कुल हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि कॉमिक्स भी बहुत एडिटेड होते हैं और बहुत लीनियर नहीं होते हैं, सुपर लीनियर और आपको पता चला है.. । मतलब वो इतना पर्याप्त होते हैं कि आप कहानी समझ सकें, कहानी का असर समझ सकें और इमोशनल इम्पैक्ट जो है वो करेक्ट रहे। फ़िल्मों में भी वही है, कि ये जरूरी नहीं आप हर चीज बोलें, हर चीज लीनियरली कही जाए लेकिन इमोशनल इम्पैक्ट होना जरूरी है और वो शायद बिल्कुल उसी तरह से आता है।
बढ़ने के दिनों में कौन से नॉवेल आपने पढ़े जिनका असर रहा, जो बेहद पसंद रहे?
सारे क्लासिक्स पढ़े मैंने। मतलब, एमिली ब्रॉन्ट (Emily Brontë) और जेन ऑस्टन (Jane Austen) से लेकर चार्ल्स डिकन्स (Charles Dickens) के और बाकी क्लासिक्स ‘द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो’ (The Count of Monte Cristo)... मतलब सारे इंग्लिश क्लासिक्स पढ़े। घर में कोंकणी ही ज्यादा चलती थी। हिंदी पढ़ने की ऐसी प्रथा नहीं थी, हां हम बोलते हिंदी थे। ऐसे में इंग्लिश में ही पढ़ते थे। फिर हमारे पड़ोस में किराए की कॉमिक्स मिलती थी। राज कॉमिक्स... 50 पैसे में... सर्कुलेशन में जो चलता है न...।
फेवरेट कौन सी थी इनमें से?
आई थिंक, मुझे फैंटम बहुत पसंद थी। फैंटम (Phantom), मैंड्रेक (Mandrake) मेरे फेवरेट थे। कैरेक्टर्स के हिसाब से बताऊं तो फैंटम मेरा पसंदीदा था। मतलब उसका बहरूपिया होना, एक तरफ वह सामान्य जीवन जीता है और दूसरी तरफ उसके एकदम उलट।
त्रिवेंद्रम, कोचीन में हुआ जन्म। मैं कोंकणी हूं। केरल में ही हमारा घर है। मेरे पिता बी.एच.ई.एल. (Bharat Heavy Electricals Limited) में काम करते थे और दिल्ली में पोस्टेड थे, तो मैं दिल्ली में पली-बढ़ी। स्कूलिंग और ग्रेजुएशन वहीं से की। आई.टी. में मैंने ग्रेजुएशन किया था। उसके बाद मुझे उसमें उतना रस नहीं आ रहा था तो सोचने लगी कि आगे क्या करना है। इस तरह मैं इस माध्यम की ओर आई। मैं सत्यजीत रे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, कोलकाता गई और वहां से पोस्ट-ग्रेजुएशन इन सिनेमा किया। एडिटिंग में स्पेशलाइजेशन किया।
कैसी बच्ची थीं आप? कैसा व्यवहार था?
शांत, गुमसुम, सामान्य। मैं एक नॉर्मल और स्पोर्टी चाइल्ड थी। बहुत किताबें पढ़ती थी। बहुत खेलती थी। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी।
सबसे शुरुआती फ़िल्में कौन सी देखी थीं जो आपको सम्मोहित छोड़ गईं?
दरअसल, हम लोग बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। मेरी सबसे पुरानी याद्दाश्त है ‘राम तेरी गंगा मैली’ जो मैंने तब देखी जब बहुत छोटी थी। मेरे पेरेंट्स लेकर गए थे रात के शो में, कि “ये सो जाएगी, हम फ़िल्म देखेंगे”। सिनेमा का सबसे पहला आमना-सामना यही था। फिर ‘मिस्टर इंडिया’ देखने गए। वैसे बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। ज्यादातर तो दूरदर्शन पर ही देखी हैं जितनी भी मैंने देखी हैं। मतलब ये सिनेमा में और थियेटर में जाने का ज्यादा कुछ नहीं था। किताबें पढ़ने का था, इसे प्रोत्साहित किया जाता था। मैं बहुत पढ़ती थी, नॉवेल और कॉमिक्स। कहानियों का शौक मुझमें वहीं से आया। फ़िल्मों से कम, किताबों से ज्यादा आया। मतलब, फ़िल्मों तक पहुंचना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। हमारे घर में वी.सी.आर. नहीं था। तब टेलीविज़न और इंटरनेट तो होते नहीं थे। थियेटर बहुत मिन्नत करने के बाद घरवाले कभी लेकर जाते थे।
ये एडिटिंग का कहीं उन कॉमिक्स से तो नहीं आया जो आप पढ़तीं थीं? जैसे, उनमें अलग-अलग हिस्से बने होते हैं हर पन्ने पर। सिलसिलेवार डिब्बे कहानी कहते जाते हैं एक-दूसरे में जुड़े हुए। सीन और कहानी की समझ कि कैसे सेट करना है, अनजाने में कहीं वहीं से तो नहीं आया?
बिल्कुल हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि कॉमिक्स भी बहुत एडिटेड होते हैं और बहुत लीनियर नहीं होते हैं, सुपर लीनियर और आपको पता चला है.. । मतलब वो इतना पर्याप्त होते हैं कि आप कहानी समझ सकें, कहानी का असर समझ सकें और इमोशनल इम्पैक्ट जो है वो करेक्ट रहे। फ़िल्मों में भी वही है, कि ये जरूरी नहीं आप हर चीज बोलें, हर चीज लीनियरली कही जाए लेकिन इमोशनल इम्पैक्ट होना जरूरी है और वो शायद बिल्कुल उसी तरह से आता है।
बढ़ने के दिनों में कौन से नॉवेल आपने पढ़े जिनका असर रहा, जो बेहद पसंद रहे?
सारे क्लासिक्स पढ़े मैंने। मतलब, एमिली ब्रॉन्ट (Emily Brontë) और जेन ऑस्टन (Jane Austen) से लेकर चार्ल्स डिकन्स (Charles Dickens) के और बाकी क्लासिक्स ‘द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो’ (The Count of Monte Cristo)... मतलब सारे इंग्लिश क्लासिक्स पढ़े। घर में कोंकणी ही ज्यादा चलती थी। हिंदी पढ़ने की ऐसी प्रथा नहीं थी, हां हम बोलते हिंदी थे। ऐसे में इंग्लिश में ही पढ़ते थे। फिर हमारे पड़ोस में किराए की कॉमिक्स मिलती थी। राज कॉमिक्स... 50 पैसे में... सर्कुलेशन में जो चलता है न...।
फेवरेट कौन सी थी इनमें से?
आई थिंक, मुझे फैंटम बहुत पसंद थी। फैंटम (Phantom), मैंड्रेक (Mandrake) मेरे फेवरेट थे। कैरेक्टर्स के हिसाब से बताऊं तो फैंटम मेरा पसंदीदा था। मतलब उसका बहरूपिया होना, एक तरफ वह सामान्य जीवन जीता है और दूसरी तरफ उसके एकदम उलट।
Namrata with Filmfare Trophy.
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हाई-स्कूल और
कॉलेज कहां से किया?
उस दौरान फ़िल्में कितना
देखना शुरू किया और तब चाव कितना बढ़ा?
दरअसल हाई स्कूल तो सेम ही स्कूल में था, कुछ बदलाव नहीं आया। दिल्ली में ही था। लेकिन कॉलेज में आकर दुनिया थोड़ी खुल गई। पहली बार मेरा सामना थियेटर से हुआ। मैंने ख़ुद थियेटर करना शुरू किया। ऐसे लोगों से मिली जो काफी फ़िल्में देखते थे तो उनके साथ मैंने भी फ़िल्में देखनी शुरू कीं। एक शंकुतला थियेटर है दिल्ली में। होता था, अब तो शायद बंद हो गया। वहां पर बहुत ही सस्ते में बहुत सारी फ़िल्में हमने देखी। हर फ्राइडे वहां जाते थे क्योंकि शनिवार-रविवार तो छुट्टी होती थी कॉलेज की, तो शुक्रवार को जरूर जाकर देखते थे। तब शायद मैंने इतनी फ़िल्में देखना शुरू किया। तब तक कंप्यूटर भी आ गए थे तो सीडीज भी मिलने लगी थीं। वह भी एक विकल्प हो गया था। मतलब फिर इतना कठिन नहीं था जितना बचपन में होता था। बचपन में तो आप निर्भर होते हैं अपने अभिभावकों पर। उन्होंने मना कर दिया तो फिर तब ऐसा तरीका नहीं है कि जाकर देख सकें। कॉलेज में आकर बहुत फ़िल्में देखीं, इंग्लिश फ़िल्में देखीं। तब रुचि जागने लगी इनमें। पर तब भी ऐसे नहीं पता था कि फ़िल्मों में काम करना है। तब थिएटर में ज्यादा इंट्रेस्ट था, लगता था यही करेंगे। मैं तब आई.टी. पढ़ रही थी। कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज है दिल्ली यूनिवर्सिटी में। चार साल का कोर्स किया। जमा नहीं तो फिर ढूंढने लगी कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।
फिर फ़िल्म स्कूल आने का किस्सा क्या रहा? घरवालों ने आपको बोला नहीं कि ये सडन चेंज ऑफ माइंड है इसे छोड़ दो, सिक्योर जॉब है और उसी में आगे बढ़ते रहो?
हां बिल्कुल, बिल्कुल बोला उन्होंने। वे बहुत नाराज थे इसके बारे में। क्योंकि उन्हें लग रहा था कि फ़िल्में कौन पढ़ता है। और वो भी तीन साल का कोर्स है जिसे करते हुए चार साल हो जाते हैं। मैं तब 23 साल की ही थी और पेरेंट्स बहुत नाराज थे कि “उमर तुम्हारी बिल्कुल भी नहीं है ऐसे तीन साल के कोर्स की। इस वक्त तुम नौकरी कर रही हो”। तब मैं एन.डी.टी.वी. में काम कर रही थी। “अच्छी-भली नौकरी छोड़कर तुम क्यों जा रही हो” और ये सब...। तो बहुत ही विरोध हुआ घर पर। पता नहीं तब कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं। क्योंकि मैं बहुत ही आज्ञाकारी बेटी थी। पहली बार मैंने बग़ावत की। वहां पर जाकर मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। मैंने कभी भी इतना फ़िल्मों को सीरियसली नहीं लिया था। मैंने इतनी सारी फ़िल्में देखीं। कैसे-कैसे लोग काम करते है, ये देखा। कितनी बड़ी दुनिया है, ये वहां जाकर पता चला। इंडिया में तो ये सिर्फ मनोरंजन है लेकिन बाकी लोगों के लिए ये ख़ुद को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के बहुत सारे तरीके हैं।
सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान में किन फ़िल्मों ने आपको एकदम हिलाकर रख दिया?
ऐसे तो याद नहीं लेकिन किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) एक पॉलिश फ़िल्ममेकर थे जिनकी फ़िल्म से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुई थी। अकीरा कुरोसावा (Akira Kurosawa ) हैं, उनकी ‘सानशीरो सुगाता’ (Sanshiro Sugata, 1943)। बहुत फ़िल्में थीं। इंडियन फ़िल्में भी थीं जिनके बारे में पहले मैंने सोचा भी नहीं था। फिर एक बहुत बड़ा प्रभाव था डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का, जिनका पहले मुझे कोई एक्सपोजर नहीं था और मुझे अहसास हुआ कि वो कितनी ज्यादा... मतलब एक टाइम को कैप्चर करती हैं। आपकी जेनरेशन को कैप्चर करती हैं। समाज के एक विशेष पहलू को कैप्चर करती हैं। ये इतिहास का सच्चा दस्तावेज होती हैं। तो मैं इन्हें यहां देख पा रही थी और बहुत खुश थी।
संस्थान में रोजाना तीन-चार फ़िल्म दिखाई जाती होंगी और यूं आपने सैंकड़ों फ़िल्में देखी होंगी?
हां...।
तब आपने और आपके दोस्तों ने फ़िल्में बनाने का सपना साथ देखा होगा। आज आप लोग बना पा रहे हैं तो एक-दूसरे की सफलता देखकर कैसा लगता है? कौन दोस्त फ़िल्मों में आज सफल हो पाए हैं?
ये तो बहुत अन्यायपूर्ण बात होगी सफलता को ऐसे आंकना। सक्सेस और फेलियर तो बहुत सब्जेक्टिव हैं। तो मैं सफलता को यूं नहीं मापती हूं। अगर वे अपना काम करते हुए खुश हैं तो मेरे लिए वही सक्सेस है। पर जो करना चाह रहे थे और कर रहे हैं, उनमें बहुत हैं। जो डायरेक्टर होता है उसे वक्त लगता है, इसलिए जो डायरेक्टर्स हैं वो धीरे-धीरे कर रहे हैं, जो टेक्नीशियंस हैं उनके लिए थोड़ा सा आसान होता है क्योंकि उनके ऊपर लोगों को इतना पैसा नहीं लगाना पड़ता है जितना डायरेक्टर के ऊपर लगाना होता है। बहुत सारे लोग कर रहे हैं। बहुत सारे साउंड डिजाइनर्स हैं। बहुत सारे सिनेमैटोग्राफर्स हैं, राइटर्स हैं जो मेरे साथ वहां थे और अब यहां हैं। मतलब हम उतना बात अब नहीं कर पाते हैं, मिल नहीं पाते हैं, बहुत बिजी हैं, पर...। बहुत सारे डॉक्युमेंट्री मेकर्स हैं जो वही करना चाहते थे जो कर रहे हैं और बहुत खुश हैं। कमर्शियली सफल नहीं हैं लेकिन बहुत खुश हैं।
आप भी साउंड डिजाइनिंग करना चाह रही थीं?
हां, साउंड डिजाइनिंग में करना चाहती थी पर वो हो नहीं पाया लेकिन एडिटिंग में साउंड डिजाइनिंग बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।
थियेटर आपने पहले किया, अभी एडिटिंग कर रही हैं, बीच में साउंड की रुचि कहां से आई?
मुझे लगता है ये सब चीजें बहुत अलग-अलग या स्वतंत्र नहीं हैं। एडिटिंग कहानी कहना होता है और साउंड डिजाइनिंग उस कहानी को या में जोड़ना होता है। मतलब बिना साउंड के ज्ञान के आप एडिट नहीं कर सकते और बिना एडिटिंग के ज्ञान के आप साउंड डिजाइनिंग नहीं कर सकते। तो ऐसा नहीं है कि ये सब बहुत अलग हैं। ये सब एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
क्या एडिटर बनने के बाद आप लाइफ की बाकी चीजों या बातचीतों को भी एक सेंस में एडिट करने लगती हैं? मतलब, क्या आपकी एडिटिंग क्षमताएं फ़िल्मों के बाहर की दुनिया को भी वैसे ही देखती या समझती है? आपकी पर्सनैलिटी में वो कहीं न कहीं आ गया है?
हां, बिल्कुल होता है। पहले तो बहुत ही ज्यादा होता था, अभी काफी कंट्रोल में है। अब मैं सोच-समझकर ही करती हूं। पहले तो बहुत ज्यादा होता था, मतलब बहुत ही ज्यादा होता था। अब शायद मैं टेक्स्ट मैसेज मैं बहुत बार एडिट करके भेजती हूं। बातें एडिट करना तो मैंने बंद कर दिया है लेकिन पहले बहुत होता था। कभी क्या होता है कि आप फ़िल्म देखने चले जाओ तो आपको सिर्फ शॉट्स नजर आते हैं। वैसे कोशिश करती हूं कि मेरी वो पर्सनैलिटी बिल्कुल अलग रहे। अब फ़िल्मों को आम दर्शकों की तरह देखने की कोशिश करती हूं। लोगों की बातें सुनूं तो मैं ऑब्जर्व करने की कोशिश करती हूं क्योंकि कभी पर भी कहीं भी यूज हो सकती है ये चीज।
जर्नलिज़्म में अगर कोई एडिटर है तो उसे सिनिकल या दोषदर्शी होना जरूरी है रिपोर्टर के प्रति भी, उसकी खबर के प्रति भी और जो कंटेंट सामने पड़ा है उसके प्रति भी। फ़िल्म एडिटर के लिए भी सिनिकल होना जरूरी है या कोई दूसरा ऐसा इमोशन उसमें होना चाहिए ताकि फ़िल्म आखिरकार बहुत बेहतर होकर निकले?
एक अच्छा ऑब्जर्वर होना तो बहुत जरूरी है। कौन डायरेक्टर किस तरह से बिहेव करेगा... क्योंकि कई बार ऐसा होता है फ़िल्मों में, सीन्स में, कि जो एक्टर्स करते हैं उनको कई बार आइडिया भी नहीं होता है सीन्स में कि उन्होंने क्या-क्या एक्सप्रेशन दिए हैं, एग्जैक्टली किस बात में क्या किया था। तो आप उस भाव को एडिट करके लाते हो। आप उस वक्त उसे सही करते हैं। मान लीजिए आप किसी की डेट एडिट कर रहे हैं। दो लोग पहली बार मिल रहे हैं कहीं पर। तो किस तरह का अजनबीपन रहेगा? किस तरह बात करेंगे? कितना बात करेंगे? कैसे करेंगे? जाहिर है कैरेक्टर की अपनी एक समझ होती है लेकिन उसमें अनुकूल हाव-भाव आप शामिल करने की कोशिश करते हैं। तो मेरे हिसाब से एक एडिटर के तौर पर आपकी सबसे बड़ी जरूरत है कि आप जिंदगी के बहुत बेहतरीन ऑब्जर्वर हों। आपको लाइफ को लाइक करना आता हो।
मान लीजिए आपके सामने बहुत धूसर या कच्चेपन वाली फ़िल्में आती हैं। जैसे ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ है या ‘शंघाई’ है। उनमें जो लोग हैं वो एक अलग ही भारत से नाता रखते हैं और उनको आपको एडिट करना होता है, तो क्या आपको लगता है आप पर्याप्त घूमी हुई हैं या आपने वैसे लोग पर्याप्त तौर पर देखे हुए हैं? या अगर प्रोजेक्ट ऐसा अलग आ जाए तो कैसे सामना करती हैं? आप जाकर देखती हैं या कैसे संदर्भ लेती हैं?
मैं इसी देश में पली-बढ़ी हूं। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मुझे पर्याप्त आइडिया है। मैंने बहुत ट्रैवल किया है। आज भी करती हूं। मुझे लगता है कि मुझे अपने लोगों का एक निश्चित आइडिया है। और अगर कोई बहुत ही विशेष या तय विषय है जो मैंने कभी देखा नहीं है, जैसे मैंने कभी मर्डर होते हुए तो देखा नहीं और ना मेरी इच्छा है देखने की। अब अगर मुझे मर्डर का सीन एडिट करना है और मर्डरर का माइंडस्पेस दिखाना है तो उसके लिए मुझे एक निश्चित मात्रा में कल्पना की जरूरत होगी। आपके डायरेक्टर का भी यही रोल होता है कि आपको ठीक-ठीक बताए और आप सोचें। जैसे, हर तरह के दंगे अलग होते हैं। मैं जब दिल्ली में थी तो सिख दंगे देखे थे, उसके बाद मंडल कमीशन के दौरान देखे थे। लेकिन अब जो ‘शंघाई’ के दंगे थे वो बहुत ही अलग थे। मतलब वो बिल्कुल ही पॉलिटिकल दंगे थे। मैंने ऐसे कभी नहीं देखे थे। तो आप डील करते हैं। डायरेक्टर भी बताता है, ब्रीफ करता है। और डायरेक्टर ने भी दंगे देखें हों ये जरूरी नहीं। तो ऐसी चीजों को डॉक्युमेंट करने के लिए उनको अनुभव करना जरूरी नहीं है, उनके बारे में आपकी दूरदर्शिता या विज़न होना जरूरी है कि क्या सोचकर करें जो भी करें।
किस फ़िल्म के लिए अब तक सबसे ज्यादा रॉ मटीरियल आपको मिला है और कितनी दिक्कत आई? जैसे 20 घंटे का माल हो और उसे काटकर दो घंटे का करना हो। ऐसी फ़िल्में कौन सी रही हैं और ऐसा होता है तब क्या करती हैं?
ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। काफी सारी फ़िल्मों में हुआ है। ज्यादा घंटे की शॉट फ़िल्म है और फ़िल्म दो घंटे की ही बनानी होती है। ये तो हर बार होता है। मेरा एक प्रोसेस है। मुझे जो चीजें अपील करती हैं उन्हें मैं रख लेती हूं और बाद में यूज़ करती हूं। जैसे, ‘बैंड बाजा बारात’ में मुझे पता था कि ये दो मुख्य किरदार हैं और इन्हें इस तरह प्रेजेंट करना है कि लोग इन दोनों से कनेक्ट करें और दिल्ली में शादी और वेडिंग प्लैनिंग का माहौल बने। मतलब सबकुछ रियल हो और आपको लगे कि ये हमारे पड़ोस में रहते हैं। मैंने एडिट पर यही कोशिश की। हमारे पास काफी सारा फुटेज था। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ... मतलब मेरा सामना जब भी अत्यधिक फुटेज से होता है तो पूरी मुश्किल को मैं छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट देती हूं। मैं जितने छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों में फुटेज को बांट सकूं, बांट देती हूं। फिर इन छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों को हल करती चलती हूं। मतलब जब मैं छोटी चीज के बारे में सोच रही हूं तो मैं बड़ी चीज टालती हूं।
जैसे आप छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटती चलती हैं तो उस दौरान पूरा का पूरा मटीरियल अपने जेहन में याद रखती हैं? क्या एक खास सेक्शन को छोटे टुकड़ों में बांटती हैं, फिर उसे निपटाती हैं? फिर दूसरे पोर्शन को टुकड़ों में बांटती हैं और उसको निपटाती हैं? या पूरी फ़िल्म का फुटेज आपने छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया और फिर उसे हैंडल करती हैं?
ऐसा कोई तरीका नहीं होता है। हर फ़िल्म को हल करने या एडिट करने का एक सिस्टम होता है। पहले मैं सीन को टारगेट करती हूं। फिर उस सीन में भी बहुत सारी फुटेज है तो वन टू थ्री, अलग-अलग ब्लॉक में विभाजित करती हूं। मतलब जितना आप उसे छोटी-छोटी इकाइयों में बांट देते हैं न, तो समझना और सुलझाना आसान रहता है। जब फील्ड वर्क पूरा हो जाता है तो सबको पिरोकर एक पूरी फ़िल्म बनती है तो उसको भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटती हूं और स्टोरी फ्लो और दूसरे पहलुओं के हिसाब से तह करती हूं। कि फर्स्ट हाफ हो गया, सेकेंड हाफ हो गया, फर्स्ट हाफ में फर्स्ट रील हो गई, सेकेंड रील हो गई, थर्ड रील हो गई। फर्स्ड रील में भी पहले दस मिनट हो गए, फिर अगले दस मिनट हो गए। उसमें भी अगर यूं, कि अच्छा, कैरेक्टर का इंट्रोडक्शन ऐसे नहीं बैठ रहा है, या बैठ रहा है तो ... मतलब जितने भी छोटे हिस्सों में उसे विभाजित करें, आसान हो जाता है। सबकुछ एक साथ तो कर नहीं सकते।
ये तरीका आपका पहली फ़िल्म से रहा है या पहली-दूसरी फ़िल्मों के बाद अनुभव से सोचा कि मुझे इस तरह से अपने काम को अनुशासित और व्यवस्थित करना चाहिए?
नहीं, शुरू से तो नहीं था। ऑन द जॉब हुआ है धीरे-धीरे। लगा कि ये तरीका हो सकता है चीजों को डील करने का। शुरू-शुरू में बहुत घबरा जाती थी इतना मटीरियल होता था। अब मैं उसे अच्छे तौर पर या लाभ मानकर लेती हूं। क्योंकि मेरे पास इतना मटीरियल है तो उतना ही लचीलापन और उतनी ही स्वतंत्रता है, अपनी कहानी कहने के लिए। पहले मैं थोड़ा घबरा जाती थी कि भगवान! कैसे होगा, मुझसे तो नहीं होगा! लेकिन अब ऐसा नहीं। अब तो लगता है, नहीं, जितना मेरे पास मटीरियल है उतनी ही मेरे पास पावर है। ये तो कर कर के ही सीखा है। ... और हर डायरेक्टर से आप कोई नई चीज सीखते हैं। हरेक के साथ काम करते हुए उनके स्टाइल को देखती रही और सीखकर चीजों को अपने में जोड़ती रही। उससे भी बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि वे सभी बेहद विशिष्ट लोग हैं जिनका अपना-अपना नजरिया है, अपनी सोच है।
डायरेक्टर लोग भी तो आपसे सीखते होंगे? जैसे आप नई थीं तो अनुभवी लोगों से सीखा होगा लेकिन आज आपको बहुत सी फ़िल्मों का और सफल फ़िल्मों का अनुभव है तो कोई नया डायरेक्टर आता है वो भी आपसे काफी सीखता होगा?
मैंने दरअसल बहुत सारे फर्स्ट टाइमर्स के साथ काम किया है। ‘इश्किया’ अभिषेक (चौबे) की पहली फ़िल्म थी, ‘बैंड बाजा बारात’ मनीष (शर्मा) की पहली फ़िल्म थी। उसके बाद और भी दो-तीन छोटी फ़िल्में मैंने की हैं। अब भी कर रही हूं। मुझे लगता है कि एडिटिंग स्टोरीटेलिंग होती है और जो एक मूल स्टोरीटेलिंग होती है वो प्राकृतिक रूप से आप में होती है। कि या तो आप एक नेचुरल स्टोरीटेलर हैं। और जो दूसरी चीज होती है स्टोरीटेलिंग मं वो करत विद्या है, कि कर-कर के आपको समाधान आने लगते हैं। मतलब जब आपको समझ आने लगता है कि अच्छा अब ये समस्या आ रही है, कैरेक्टर का अब ये समझ में नहीं आ रहा है, इसका कैसे करूं। बोर हो रहा है, इसका मैं क्या करूं। तो ये चीजें आपको समझ में जल्दी आने लगती हैं। वो एक दूसरा पहलू है। जो दूसरी बेसिक स्टोरीटेलिंग वाला पहलू है, उसका और अनुभव का ज्यादा कनेक्शन नहीं है, सॉल्युशंस का कनेक्शन है। कि अगर स्टोरी काम नहीं कर रही है और आप अनुभवी हैं तो समाधान ज्यादा आने लगते हैं। चाहे पहली बार के निर्देशक ही क्यों न हो, मैं तो जितना ज्यादा सीख सकती हूं सीखती हूं। सब में कुछ न कुछ खास बात होती है। कुछ लोग बहुत अच्छा एक्टर्स के साथ व्यवहार करते है। यानी उन्हें इतनी बेहतरी से डायरेक्ट करते हैं। इतने आर्टिक्युलेट (स्पष्ट) होते हैं कि बहुत ही ग्रे इमोशन एक्टर्स को समझा पाते हैं। कि ये मुझे चाहिए और तुम इस तरह से निभाओ। कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत सारा शूट करते हैं लेकिन अच्छे से जानते हैं कि मुझे ये पीस चाहिए या मुझे ये सब चाहिए और ये सब नहीं चाहिए। तीसरी तरह के निर्देशक वे होते हैं जो कभी हार नहीं मानते हैं। चाहे उन्हें बहुत सारी आलोचना मिल रही है। जैसे फ़िल्म रिलीज होने से पहले काफी सारे लोगों को दिखाई जाती है तो कई लोग आलोचना करते हैं, कई लोग अच्छा कहते हैं। कुछ डायरेक्टर होते हैं जो कभी हार नहीं मानते, वो लगे रहते हैं। उन्हें आलोचना भी मिलती है तो बहुत शांति से स्वीकार करते हैं। ये सब चीजें मैंने बहुत से निर्देशकों से सीखी। वे कभी हार नहीं मानते, सुझावों को लेकर बेहद खुले मन के होते हैं।
फ़िल्म स्टॉक और डिजिटल पर एडिट करने में मूलतः क्या फर्क है?
डिजिटल में आपको पैसों के बारे में इतना ज्यादा नहीं सोचना पड़ता। आप थोड़ा अतिरिक्त शूट कर लेते हैं। क्वालिटी के लिहाज से भी डिजिटल वाले स्टॉक की बराबरी करने की कोशिश कर रहे हैं तो गुणवत्ता में भी बहुत फर्क नहीं है। जाहिर तौर पर टेक्नीकली तो है, पर आम गणित करें तो इतना फर्क नहीं है जब मिलाना है या विलय करना है। एडिटर के लिए डिजिटल में अनुशासन कम होता है। वो अनुशासन कम होने से शूटिंग ज्यादा होती है। सेटअप टाइम कम होता है। तो मुख्यतः अनुशासन का फर्क है।
दोनों के लुक में तो कोई फर्क रहा नहीं, क्योंकि जितने भी सॉफ्टवेयर हैं, उनसे डिजिटल भी फ़िल्म स्टॉक की तरह ही लगने लगता है।
जी, बिल्कुल।
अगर आम दर्शक को समझाना हो कि एडिटिंग की प्रक्रिया मोटा-मोटी क्या होती है?
फ़िल्में शॉट्स में शूट की जाती हैं। मतलब छोटे-छोटे टुकड़ों में शूट की जाती हैं। एडिटिंग करते वक्त आप उन छोटे-छोटे हिस्सों को मिलाकर एक कहानी कहते हैं। कहानी ऐसी जो आपको समझ में आ रही है, आपको रोक कर रख रही है, आपको कहीं बोर नहीं कर रही है, क्रम में चल रही है और आपको वो छोटे-छोटे हिस्से अलग से नजर नहीं आ रहे हैं। तो एडिटर का काम ये होता है। ये मोज़ेक जैसा है, कि आप एक-दूसरे के ऊपर छोटे-छोटे टुकड़े लगा रहे हैं लेकिन ऊपर से देखें तो ये एक सुंदर डिजाइन दिखता है। आपको वो छोटे-छोटे टुकड़े बहुत पास जाने के बाद ही दिखेंगे। तो फ़िल्म एडिटिंग में वो जो भी मोज़ेक है, उसका डिजाइन समझ आना चाहिए, वो अच्छा लगना चाहिए और उसका कुछ मतलब भी होना चाहिए।
आप किस सॉफ्टवेयर पर एडिट करती हैं? फ़िल्म उद्योग में अभी कौन सा चलन में है? दूसरा, कोई इंडिपेंडेट फ़िल्ममेकर अगर खरीद नहीं कर सकता और अपने बेसिक लैपटॉप पर ही एडिट करना चाहता है तो क्या करे और उसे कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
एविड (Avid) और एफटीपी (FTP) दो सॉफ्टवेयर हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में दोनों से काम हो रहा है। कई लोग एविड पर करते हैं, कई लोग एफटीपी पर करते हैं। दोनों के दोनों ही आजकल लैपटॉप पर इंस्टॉल हो सकते हैं। एविड थोड़ा सा महंगा पड़ता है निवेश के लिहाज से, एफटीपी थोड़ा सस्ता है। इंडिपेंडेंट फ़िल्ममेकर ज्यादातर एफटीपी को तवज्जो देते हैं क्योंकि खर्च कम आता है। मैंने अपनी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जो पूरी लैपटॉप पर एडिट की थी और मुझे कोई दिक्कत हुई नहीं। आजकल डिजिटल फॉर्मेट धीरे-धीरे भारी होता जा रहा है तो पता नहीं कैसे होता है, मुझे भी नहीं पता क्योंकि मैं अब लैपटॉप पर करती नहीं हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई भी मुश्किल होती होगी।
नए लड़के-लड़कियां एडिटिंग सीखना चाहें और किसी इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं मिला हो तो कैसे सीख सकते हैं और आगे काम पा सकते हैं?
देखिए, इंस्टिट्यूट का बड़ा लाभ तो होता ही है क्योंकि वो सिर्फ फ़िल्म स्कूल नहीं होता लाइफ स्कूल होता है। क्योंकि इसमें आप इतने सारे आर्ट से परिचित होते हैं और आपको उनके बारे में सोचने और समझने का समय मिलता है, वो एक लाभ है। अगर फ़िल्म इंस्टिट्यूट न जा सकें तो बदले में आप एक डिजिटल एकेडमी में जहां आपको सॉफ्टवेयर सिखाए जाएं, वहां जा सकते हैं। इसके बारे में ज्यादा तो नहीं कह सकती क्योंकि मैं डिजिटल एकेडमी गई नहीं हूं तो पता नहीं वहां क्या सिखाया जाता है और क्या नहीं सिखाया जाता है। आप और भी तरीकों से सीख सकते हैं। आप किसी एडिटर को असिस्ट कर सकते हैं। मुझे लगता है कि एडिटर को असिस्ट करके सीखना बहुत-बहुत अच्छा तरीका है। वहां आप बिल्कुल मामले के बीचों-बीच होते हो। आप वहीं पर रहकर सब देख और कर रहे होते हो।
फ़िल्म रिव्यू जब भी होता है तो उसमें बहुत से समीक्षक फ़िल्म एडिटर के बारे में लिखते ही नहीं हैं। और जब भी लिखते हैं तो समझ भी नहीं पाते हैं कि फ़िल्म एडिटर ने किया क्या होगा क्योंकि उसको पता नहीं है कि रॉ स्टॉक कब मिला था? ब्रीफ कैसे किया था? पहले दिन से एडिटर शूट पर साथ थे? या लास्ट में उनको मटीरियल ही सिर्फ दिया गया? क्या आर्ग्युमेंट उनके और डायरेक्टर के बीच हुआ? तो आपने जब असल में उस चीज को एडिट किया है और आप उन असल हालातों को जानती हैं और आप जब देखती हैं कि कहीं जिक्र हुआ है नाम और इस तरह से हुआ है और ये कमेंट है जो फिट ही नहीं बैठ रहा है, ऐसा कुछ था ही नहीं जो लिखा गया है, ये आलोचनात्मक रूप से सही ही नहीं बैठ रहा है...। तो इन लिखी चीजों को आप कैसे लेती हैं? हमारे यहां एडिटिंग को लेकर कितनी समझ है और उसको कितना सही लिखा जा रहा है?
नहीं, ज्यादातर तो सही नहीं लिखा जाता है। बहुत ही कम रिव्यूज मैंने देखे हैं जहां कुछ उपयुक्त होता है मूवी के बारे में। ज्यादातर समीक्षक फ़िल्म के पेस और एडिटिंग को कनेक्ट करते हैं। कि गति अच्छी है तो एडिटिंग अच्छी है, नहीं है तो अच्छी नहीं है। लेकिन एडिटिंग सिर्फ गति के बारे में ही नहीं होती है। न ही ये सिर्फ बड़े कट्स के बारे में होती है। जैसे, कह देते हैं कि बड़े से कट्स थे, यहां से वहां हो गया, फास्ट हो गया बहुत ही...। तो न तो सिर्फ कटिंग होती है और न ही महज पेसिंग होती है। जैसे मैंने ‘कहानी’ की थी तो इतने सारे रिव्यूज में लिखा गया कि बड़ी अच्छी कटिंग है, लेकिन कटिंग से ही नहीं होता है। कई जगह बोला गया था कि इतनी ज्यादा तेज गति है कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। मुझे नहीं लगता कि ये दोनों चीजें एडिटिंग में किसी भी चीज का सही प्रतिनिधित्व हैं। ठीक है, ये दोनों चीजें अपने आप में कुछ हैं, लेकिन इन्हें ही सिर्फ एडिटिंग नहीं बोल सकते हैं। मैंने कई जगहों पर तो यह भी पढ़ा है कि एडिटिंग खराब थी पर फ़िल्म बहुत अच्छी थी। ... अब ये कैसे हो सकता है मुझे तो नहीं पता। पर ठीक है, क्योंकि मुझे लगता है कि एडिटिंग एक ऐसी चीज है जिसके बारे में ज्यादा पता होना भी नहीं चाहिए। जिन्हें रुचि है सिर्फ उन्हीं को पता होना चाहिए। आम आदमी या दर्शक को इतना ज्यादा पता होने की जरूरत नहीं है। सिनेमा को इतना ज्यादा अगर हम डीकंस्ट्रक्ट कर देंगे न, कि हर चीज ऑडियंस को पता है, मुझे लगता है फिर उसका जादू नहीं रहता है। फिर सिनेमा एक अलग ही चीज हो जाएगी। मैजिक होना जरूरी है। कि अब पता नहीं क्या हो रहा है, किसने क्या किया है एग्जैक्टली पता नहीं लेकिन मैं एक्टरों में बिलीव करती हूं। जो एक्टर डायलॉग बोल रहा है मुझे लग रहा है कि बहुत ही सच है। उस जादू को बनाए रखने के लिए मुझे यकीन करना होगा कि ये जो भी हो रहा है, सच है। जितना ज्यादा मुझे पता होगा कि पीछे की तरफ ये लेंस लगाया गया था, यहां से लाइट मारी थी, तो फिर मजा नहीं रहेगा ऑडियंस के लिए। ठीक है, जो लिख रहे हैं उन्हें लिखने देना चाहिए। वो जो भी लिखें कोई फर्क नहीं पड़ता है।
लेकिन क्या ये संभव है कि एडिटर की वस्तुस्थिति जानी जा सके। क्योंकि फिल्म कैसे भी शूट हुई हो, कितना भी बुरा फुटेज हो, एडिटर उसे जादूगरी से बदल देता है। क्या उसका सही योगदान पता नहीं लगना चाहिए लोगों को। या बस एडिटर जानता है और डायरेक्टर उसे थैंक्स बोल देता है, इतना पर्याप्त है?
ये बहुत ही मुश्किल है कहना। मुझे लगता है कि अगर इंडस्ट्री में लोगों को पता चल जाए, इतना काफी है ताकि आपको और अच्छा काम मिलता रहे। उससे ज्यादा दर्शकों को बताना मेरे ख़्याल से इतना जरूरी नहीं है। सिडनी लुमिया (Sidney Lumet) ने कहा था या पता नहीं किसने कहा था कि, “एक संपादन कक्ष में क्या होता है, ये सिर्फ दो लोग जानते हैं, एक तो फ़िल्म का डायरेक्टर और एक एडिटर” (what happens in an editing room, only two people know, the director and the editor)। अगर आप बेहद अनुभवी एडिटर हैं तो फ़िल्म देखकर बता सकते हैं कि अच्छा ये हो सकता था और ये नहीं हुआ या ये बहुत अच्छा हुआ है। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि कोई तीसरा पक्ष इस विषय के बारे में जान सकता है या टिप्पणी कर सकता है।
आपने जितनी फ़िल्में अभी तक एडिट की हैं और उनका जो अंतिम नतीजा रहा है, क्या उनको और भी बहुत सारे तरीकों से एडिट किया जा सकता था, या वो ही बेस्ट रास्ते थे एडिट करने के?
मेरे लिए तो वही बेस्ट रास्ते थे। पर मैं आश्वस्त हूं कि आप उसको एडिट करते तो वो अलग होते, तीसरा कोई करता तो वो अलग होते। ये तो बहुत ही वस्तुपरक (subjective) है। जैसे, मैं जब दूसरी फ़िल्में देखती हूं और कभी बोर हो रही होती हूं फ़िल्म से तो फिर मैं एडिटिंग देखने लग जाती हूं। सोचती हूं कि मैं ऐसे करती, वैसे करती। तो ये बहुत अलग है। कोई भी ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही तरह से एडिट करे। पर मेरे लिए एक ही तरीका होता है। जैसे, आप और मैं बात कर रहे हैं तो मैं किस टाइम पर आपको देखूं और किस टाइम पर किसी और चीज को देखूं, मुझे ये बहुत ही ऑर्गेनिक लगता है। शायद आपको कुछ और ही लगे ऑर्गेनिक। आप तो मुझसे बहुत अलग इंसान हैं न। अलग परवरिश है, अलग अनुभव हैं तो उनके हिसाब से आप अपनी स्टोरीज बताएंगे। मैं अपने हिसाब से बताऊंगी तो वो कहीं से भी सेम हो ही नहीं सकती हैं। पर बात ये है कि जो भी मैं करती हूं मुझे वो ऑर्गेनिक लगता है। जब भी मुझे लगता है कि ये (तरीका) जबरदस्ती है तो फिर मैं उसके बारे में ज्यादा सोचती हूं। कुछ ऐसे थीम होते हैं जो आपको ऑर्गेनिकली नहीं आते हैं, अगर आपको बार-बार उन पर काम करना पड़ता है तो।
मैं जैसे कोई स्टोरी एडिट करता हूं तो मुझे एडिट करने से पहले पता नहीं होता है कि एडिट करने के बाद उसका स्वरूप मैं कैसा बना दूंगा लेकिन मुझे पता होता है कि जब भी मुझे ऐसी मुश्किल आएगी तो मैं उसका सामना ऐसे करूंगा। क्या आपका दिमाग भी वैसे ही चलता है या आपको एकदम पता होता है कि फ़िल्म ऐसी नजर आएगी?
नहीं, मुझे बिल्कुल नहीं पता होता है कि क्या होने वाला है। मुझे कहीं-कहीं आइडिया होते हैं कि इसको यहां पर ऐसे बदलकर और इंट्रेस्टिंग बनाया जा सकता है, लेकिन एक सटीक विजुअल तो मेरे दिमाग में नहीं होता है।
कोई अगर एडिटिंग पढ़ना चाहे तो क्या किताबें हैं या सब कुछ प्रैक्टिकल खेल है? या फ़िल्में ज्यादा से ज्यादा देखी जाएं और सीखा जाए?
बुक्स तभी हेल्प करती हैं जब आपको कुछ प्रैक्टिकल अनुभव होता है। जब मैं फ़िल्म स्कूल में थी और किताबें पढ़ रही थी तो मुझे एडिटिंग एक अलग ही चीज लगती थी लेकिन एक बार जब मैंने प्रैक्टिस करना शुरू किया और काम हाथ में लिया तो जो किताबों में पढ़ा था वो बिल्कुल ही अलग दिखने लगा। सबके अलग-अलग मतलब निकलने लगे। मैं यही कहूंगी कि एडिटिंग करत विद्या है। आप जो भी किताबें पढ़ते हैं आपको हेल्प जरूर करेंगी, बिल्कुल करेंगी लेकिन प्रैक्टिकल अनुभव या अपने हाथ से की एडिटिंग का मुकाबला कोई ज्ञान नहीं कर सकता।
अब आपको मूवीज देखने के लिए टाइम मिलता है या एडिटिंग में व्यस्त रहती हैं?
फ़िल्म देखना बहुत जरूरी है, मेरे को तो लगता है कि वही बेस्ट लर्निंग है। जब आप ऑडियंस के साथ फ़िल्म देखते हैं, उससे अच्छी लर्निंग कोई दूसरी नहीं है। वो करना तो जरूरी होता है। बिल्कुल करती हूं मैं।
आप महीने या साल में कितनी फ़िल्में देख लेती हैं?
मैं कोशिश करती हूं रोज एक फ़िल्म देखने की, कभी-कभी नहीं हो पाता है। पर हफ्ते में दो, तीन, चार तो देख ही लेती हूं।
कौन से फ़िल्म एडिटर दुनिया में ऐसे हैं जिनकी आप बहुत प्रशंसा करती हैं?
थेल्मा शूनमेकर (Thelma Schoonmaker – ‘ह्यूगो’, ‘रेजिंग बुल’, ‘द डिपार्टेड’) मुझे बहुत पसंद हैं। वॉल्टर मर्च (Walter Murch – ‘द गॉडफादर’, ‘द कॉन्वर्जेशन’, ‘अपोकलिप्स नाओ’, ‘द इंग्लिश पेशेंट’) की एडिटिंग पसंद हैं क्योंकि वे बेहद आर्टिक्युलेट हैं। इसके अलावा कुछ फ़िल्में मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं जिनके एडिटर्स का नाम मुझे नहीं पता। ‘ब्लैक हॉक डाउन’ (Pietro Scalia) है, ‘डाउट’ (Dylan Tichenor) है और भी बहुत सी हैं। मुझे लगता है कि एडिटिंग में भी एक्सपेरिमेंट करना बहुत जरूरी है जिस किस्म की भी स्टोरी आपके पास हो। नया एक्सपेरिमेंट फ़िल्म में कहीं छिपा होना चाहिए, मतलब ऑडियंस को कुछ नया महसूस होना चाहिए पर उनको हर चीज दिखनी नहीं चाहिए।
आपके जो समकालीन एडिटर हैं भारत में, उनमें से किसका काम अच्छा लगता है, जो नया कर रहे हैं?
बहुत सारे हैं। श्रीकर सर (A. Sreekar Prasad – ‘राख़’, ‘वानाप्रस्थम’, ‘फिराक़’, ‘दिल चाहता है’) हैं। वो कितनी सारी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं। दीपा (Deepa Bhatia – ‘हज़ार चौरासी की मां’, ‘देव’, ‘तारे जमीं पर’, ‘काई पो चे’) है, आरती (Aarti Bajaj – ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘जब वी मेट’, ‘रॉकस्टार’, ‘पान सिंह तोमर’) है। ये बहुत अलग तरह का काम कर रही हैं। बहुत रोचक।
आपकी ऑलटाइम फेवरेट मूवीज कौन सी हैं, इंडियन और विदेशी?
ये तो बहुत ही मुश्किल सवाल है, इसका मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं होता है क्योंकि ये नाम बदलते रहते हैं। मुझे बहुत सारी फ़िल्में अलग-अलग टाइम पर अच्छी लगती हैं। जैसे, मुझे ‘गरम हवा’ बहुत अच्छी लगी थी। जब देखी थी तो हिल गई थी। फिर कुछ और देखने की इच्छा बाकी न रही। मुझे ‘परिंदा’ बहुत अच्छी लगती है, ‘मिस्टर इंडिया’ बहुत अच्छी लगती है, ‘जाने भी दो यारों’, ‘अंदाज अपना-अपना’, फिर... ‘दीवार’ बहुत अच्छी लगती है। एक टाइम था जब ‘हम आपके हैं कौन’ बहुत अच्छी लगती थी। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ बहुत अच्छी लगती है। अलग-अलग फेज में अलग-अलग पसंद होती हैं। फ़िल्म स्कूल जाकर वर्ल्ड सिनेमा को देखा। किश्लोवस्की की फ़िल्में बहुत अच्छी लगने लगीं। तब कुछ खास किस्म की फ़िल्मों को ही मैं ज्यादा एंजॉय कर पाती थी। अब ऐसा है कि कोई भी फ़िल्म अगर मुझे एंगेज करती है तो मुझे अच्छी लगती है। कोई परवाह नहीं कि स्लो है या उसमें कुछ और है... अगर आप मुझे थाम कर रख सकते हो तो मुझे बहुत अच्छी लगती है। मैं किसी फ़िल्म को पसंद करने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करना पसंद नहीं करती हूं। फ़िल्म में कोई न कोई जुड़ाव होना चाहिए जो मुझे दिखा रही हो।
डायरेक्टर्स में अभी कौन अच्छा काम कर रहे हैं?
वे जिनके साथ आपने काम किया है और वे जिनका सिर्फ काम देखा है। मैं तो उन्हीं के साथ काम करती हूं जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं तो पूछना ही बेकार है। दिबाकर (बैनर्जी), सुजॉय (घोष), मनीष (शर्मा) जिनके साथ मैंने अब तक काम किया है। ‘इश्किया’ में अभिषेक चौबे।, मुझे मजा आया। अनुराग बासु का काम भी बहुत पसंद है। वह बहुत अच्छे डायरेक्टर और स्टोरी टेलर हैं। फिर अनुराग कश्यप हैं, जोया (अख़्तर) है... मुझे जोया का काम बहुत पसंद है।
सभ्यताओं के बसने के बाद से ही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आप प्रेरणा किसे मानते हैं? या इंस्पिरेशन होना कितना बुरा है या अच्छा है? जैसे आपने अनुराग बासु का नाम लिया तो ‘बर्फी’ को लेकर काफी रहा कि जो सीन्स थे वो दूसरी फ़िल्मों से थे। अभी स्पष्ट नहीं है कि डिबेट किस तरफ जानी चाहिए क्योंकि एक तरह से तो सारी फ़िल्में इंस्पायर्ड ही हैं। कुछ भी मौलिक या ऑरिजिनल तो एक लिहाज से है ही नहीं। ‘बर्फी’ आई तो कुछ लोग बिल्कुल सपोर्ट में खड़े हो गए कि नहीं, अनुराग ने पुरानी फ़िल्मों को श्रद्धांजलि दी, कुछ कहते हैं कि नहीं, उन्होंने अपनी तरफ से क्या प्रयास किया था। फ़िल्म स्कूल में ये डिबेट तीन सालों में जरूर रही होगी। आपकी सोच क्या है?
मैं निजी तौर पर दूसरे लोगों के काम से चीजें लेने के पक्ष में नहीं हूं। प्रेरणा अलग चीज होती है, ट्रिब्यूट अलग चीज होती है। जैसे ‘द अनटचेबल्स’ (The Untouchables, 1987) में ब्रायन डी पाल्मा ने ‘ओडेसा स्टेप्स सीन’ (फ़िल्म ‘बैटलशिप पोटयेमकिन’, 1925 का एक आइकॉनिक दृश्य) को ट्रिब्यूट दी थी। उस तरह के स्टेप्स लिए थे जहां उनकी फाइट होती है। वो अलग चीज है लेकिन कोई सीन कहीं से उठा लेना और उसे अपना बताना एक अलग चीज है। मुझे नहीं पता, पर ये ओपन डिबेट है। अगर मैं एक फ़िल्ममेकर हूं तो मैं ये नहीं करूंगी। मैं जानबूझकर या इरादतन किसी के सीन्स को उठाकर हूबहू वैसे यूज नहीं करूंगी। पर किसी फ़िल्ममेकर को मुझे ट्रिब्यूट देनी है तो.. जैसे ‘कहानी’ में सत्यजीत रे को ट्रिब्यूट है कि विद्या खिड़की के पास खड़ी हैं और वहां से देवी को गुजरते देखती हैं, वो बिल्कुल ट्रिब्यूट है ‘चारुलता’ को, लिफ्टेड नहीं है। जैसे खिड़की में चलकर मदारी को देखती है चारुलता और ऐसे ही विद्या देवी को गुजरते हुए देखती है। मेरे लिए ये उचित ट्रिब्यूट है। लेकिन मैं किसी पर टिप्पणी नहीं कर सकती क्योंकि ‘बर्फी’ के कौन से दृश्य कहां से हैं और क्या माजरा है, इसकी जांच मैंने की नहीं है इसलिए जानती नहीं कि उसमें जो है वो क्या है। लेकिन एक फ़िल्ममेकर के तौर पर और व्यक्तिगत रूप से मैं जानती हूं कि अनुराग बासु कहानी कहने की एक विशेषता रखते हैं।
फ़िल्म एडिटिंग में अभी क्या चुनौतियां हैं? क्या इनवेंशन और इनोवेशन की कमी हम में और हॉलीवुड में भी है, क्योंकि एक जॉनर की फ़िल्म आती है तो उनमें समान तरह का पेस और प्रस्तुति होती है? जैसे एक्शन और स्टंट वाली फ़िल्मों में एडिटिंग का उनका एक अलग ही फॉर्म्युला बना हुआ है। एडिटिंग की दुनिया में भीतरी बहस अभी क्या चल रही है?
सबसे बड़ी बहस तो यही होती है कि आधे लोग (एडिटर या फ़िल्ममेकर) ये यकीन रखते हैं कि दर्शकों को ये देखना है तो हम ये करेंगे और आधे लोग ये यकीन रखते हैं कि आपको क्या पता दर्शकों को क्या चाहिए, आप तो दर्शक क्रिएट कीजिए। एडिटिंग में भी सवाल आता है, मैं जिस सवाल का रोज सामना करती हूं कि ये फ़िल्म किसके लिए है? ये फ़िल्म डायरेक्टर अपने लिए बना रहे हैं कि दर्शकों के लिए बना रहे हैं? वो ऑडियंस कौन है? क्या मैं फ़िल्म रिलीज से पहले पता कर सकती हूं कि वो दर्शक कौन हैं? क्या मेरी ये रींडिग सही है या मैं सिर्फ अपने पास्ट एक्सपीरियंस से जा रही हूं। क्योंकि हम देखते हैं कि दर्शक हर बार अलग तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। तो आपकी जो स्टडी है, किस बात पर बेस्ड है। और सबसे ज्यादा मुझे लगता है कि फ़िल्मों में करप्शन भी इसी बिंदु पर प्रवेश करता है। क्योंकि आपको लगता है कि फ़िल्में ये बन रही हैं क्योंकि दर्शकों को ये देखना है, ये तो एक बहुत ही आसान-सहज सोच बना दी गई है। मतलब आप ये फ़िल्म बना रहे हैं क्योंकि आपको ये फ़िल्म बनानी है, कौन देखता है कौन नहीं देखता है ये तो बाद की बात है। ये जो ‘ऑडियंस’ शब्द है न जो फ़िल्मों को गवर्न करता है, सबसे बड़ी डिबेट तो यही चलती है, अंदरूनी भी और बाहरी भी। मतलब कि कौन है ये दर्शक, जिन्हें आप परोस रहे हैं। जैसे, अनुराग, दिबाकर या छोटी फ़िल्में जो बना रहे हैं, क्या ये किन्हीं दर्शकों को केटर कर रहे हैं या इन्होंने अपने दर्शक ख़ुद बनाए। क्योंकि ऐसी फ़िल्में भी पसंद करते ही हैं कुछ लोग। सिर्फ ऐसा नहीं है कि लोग बड़ी फ़िल्में ही पसंद करते हैं। ‘विकी डोनर’ जैसी फ़िल्म को भी तो दर्शक मिले हैं तो क्या उन्होंने पहले से सोचा होगा। क्या दर्शकों को पहले से पता होगा। ऐसा नहीं होता है तो मतलब ये एक आसान सी टर्म है जो फॉर्म्युला में डालकर यूज कर ली जाती है। मुझे लगता है कि ये सबसे बड़ी और मौजूदा वक्त में चल रही डिबेट है। मेरे को आज छह साल हो गए हैं कि छह साल में मेरे पास तो कोई जवाब आज तक नहीं आया है कि आप एडिटिंग जो कर रहे हैं तो किसके लिए कर रहे हैं? कि आप बोर न करें, तो किसको बोर न करें? मतलब कौन बोर हो रहा है? फ़िल्ममेकर बोर हो रहा है देखते हुए या ऑडियंस बोर होगी जिसने फ़िल्म अभी तक देखी ही नहीं है।
इतनी फ़िल्मों की एडिटिंग आपने की है तो आखिरी नतीजे के लिहाज से अपनी कौन सी फ़िल्म की एडिटिंग से आप बहुत खुश हैं, संतुष्ट हैं?
बहुत मुश्किल है कहना। ‘कहानी’ में काम करने में हम लोगों को बहुत मजा आया था क्योंकि ये वाकई में एक बहुत प्यारी और छोटी सी फ़िल्म थी। लेकिन मुझे उतना ही मजा ‘एलएसडी’ में आया था, मुझे उतना ही मजा ‘बैंड बाजा बारात’ में आया था, उतना ही मजा ‘इश्किया’ में भी आया था और ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ मेरी पहली फ़िल्म थी तो मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। अलग-अलग फ़िल्म से अलग-अलग याद जुड़ी हुई है। ‘जब तक है जान’ जब मैंने की थी तो यश जी के साथ काम करने का मेरा पहला अनुभव था। वो अपने आप में बहुत ही बड़ी बात थी मेरे लिए। मैं तो दूरदर्शन पर उनकी फ़िल्में देखकर बड़ी हुई हूं तो मैं तो कभी सोच ही नहीं सकती थी कि मेरे पास बैठकर वो मुझसे इस तरह से बात कर रहे होंगे। तो हर फ़िल्म की अपनी एक खुशी है। ‘कहानी’ में ये मजा आया कि इतनी सारी डॉक्टुमेंट्री किस्म की फुटेज थी। उसे शूट करके एक अलग ही परत बनाई गई फ़िल्म में, जिसका मुझे गर्व है।
संगीत का इस्तेमाल दर्शक को इमोशनली क्यू (उसके भावों को एक निश्चित दिशा में कतारबद्ध करना) करने के लिए किया जाता है। कुछ कहते हैं कि ये बहुत बासी तरीका है, वहीं सत्यजीत रे की फ़िल्में भी संगीत का जरा अलग लेकिन इस्तेमाल लिए होती थीं। जैसे फ़िल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ी ट्रैजेडी हुई तो वीणा या सितार उसी भाव में बजकर क्यू करेगा कि भई बड़ा दुख का मौका है। क्या आप इसे बासी तरीका मानती हैं या नहीं मानती हैं? क्या ये हर फ़िल्म के संदर्भ पर निर्भर करता है?
बिल्कुल निर्भर करता है। जैसे अगर आप ‘एलएसडी’ जैसी फ़िल्म बना रहे हैं जो फाउंड फुटेज पर बनी है। कि ये किसी ने एडिट नहीं की है, ये किसी ने शूट नहीं की है। ये किरदारों ने ही शूट की है और उन्होंने ही बनाई है। उसमें अगर मैं बैकग्राउंड म्यूजिक डालती हूं तो अपने संदर्भ या कथ्य को ही हरा रही हूं। वहीं अगर मैं ऐसी फ़िल्म बना रही हूं जिसके बारे में मैं पहले बिंदु से ही कह रही हूं कि ये तो काल्पनिक है, कि मुझे तो पता नहीं है कि ये सच है कि झूठ है, जिसका किसी जिंदा व्यक्ति से किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं है.. तो ऐसी स्थिति में संगीत के साथ मैं जैसा करना चाहूं कर सकती हूं। अगर मुझे किसी बिंदु पर लग रहा है कि यहां ये संगीत लाकर दर्शकों को मैन्युपुलेट कर सकती हूं और अगर उस मैन्युपुलेशन से मुझे कोई नैतिक दिक्कतें नहीं हैं तो करूंगी। इन दिनों मैं कई ऐसे निर्देशकों से मिलती हूं जिन्हें संगीत नैतिक तौर पर गलत मैन्युपुलेशन लगता है। मेरे लिए ये डिबेटेबल है। क्योंकि मुझे लगता है संगीत ही क्यों, आप डायलॉग्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं, आप कट्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं... मतलब कुछ खास कैमरा शॉट्स भी तो मैन्युपुलेशन है न। मुझे संगीत मैन्युपुलेशन नहीं लगता है, पर ये नहीं होना चाहिए कि पांच सौ वॉयलिन बज चुके हैं और जो इमोशन आपके विजुअल में नहीं है आप उसे ही अपने म्यूजिक में डाल रहे हैं तो उस पर मैं सवाल जरूर उठाऊंगी। अगर आप संगीत से किसी दृश्य को सहयोग कर रहे हैं, अगर संगीत से मुझे किसी और ही दुनिया में लेकर जा सकते हैं, विजुअल और म्यूजिक से अगर आप एक तीसरे दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे हैं तो कोई आपत्ति नहीं है।
Namrata Rao is an Indian film editor. She Started with Dibaker Banerjee's Oye Lucky! Lucky Oye! in 2008. Later on she edited films like Ishqiya (2010), Love Sex aur Dhokha (2010), Band Baaja Baaraat (2010), Ladies vs Ricky Bahl (2011), Kahaani (2012), Shanghai (2012) and Jab Tak Hai Jaan (2012). For Kahaani she received 60th National Film Award for Best Editing. Now she's doing the editing of Maneesh Sharma's Shuddh Desi Romance, slated to release on September 13, this year. - See more at: http://filamcinema.blogspot.in/2013/07/blog-post.html#sthash.GE0PFnen.dpuf
दरअसल हाई स्कूल तो सेम ही स्कूल में था, कुछ बदलाव नहीं आया। दिल्ली में ही था। लेकिन कॉलेज में आकर दुनिया थोड़ी खुल गई। पहली बार मेरा सामना थियेटर से हुआ। मैंने ख़ुद थियेटर करना शुरू किया। ऐसे लोगों से मिली जो काफी फ़िल्में देखते थे तो उनके साथ मैंने भी फ़िल्में देखनी शुरू कीं। एक शंकुतला थियेटर है दिल्ली में। होता था, अब तो शायद बंद हो गया। वहां पर बहुत ही सस्ते में बहुत सारी फ़िल्में हमने देखी। हर फ्राइडे वहां जाते थे क्योंकि शनिवार-रविवार तो छुट्टी होती थी कॉलेज की, तो शुक्रवार को जरूर जाकर देखते थे। तब शायद मैंने इतनी फ़िल्में देखना शुरू किया। तब तक कंप्यूटर भी आ गए थे तो सीडीज भी मिलने लगी थीं। वह भी एक विकल्प हो गया था। मतलब फिर इतना कठिन नहीं था जितना बचपन में होता था। बचपन में तो आप निर्भर होते हैं अपने अभिभावकों पर। उन्होंने मना कर दिया तो फिर तब ऐसा तरीका नहीं है कि जाकर देख सकें। कॉलेज में आकर बहुत फ़िल्में देखीं, इंग्लिश फ़िल्में देखीं। तब रुचि जागने लगी इनमें। पर तब भी ऐसे नहीं पता था कि फ़िल्मों में काम करना है। तब थिएटर में ज्यादा इंट्रेस्ट था, लगता था यही करेंगे। मैं तब आई.टी. पढ़ रही थी। कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज है दिल्ली यूनिवर्सिटी में। चार साल का कोर्स किया। जमा नहीं तो फिर ढूंढने लगी कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।
फिर फ़िल्म स्कूल आने का किस्सा क्या रहा? घरवालों ने आपको बोला नहीं कि ये सडन चेंज ऑफ माइंड है इसे छोड़ दो, सिक्योर जॉब है और उसी में आगे बढ़ते रहो?
हां बिल्कुल, बिल्कुल बोला उन्होंने। वे बहुत नाराज थे इसके बारे में। क्योंकि उन्हें लग रहा था कि फ़िल्में कौन पढ़ता है। और वो भी तीन साल का कोर्स है जिसे करते हुए चार साल हो जाते हैं। मैं तब 23 साल की ही थी और पेरेंट्स बहुत नाराज थे कि “उमर तुम्हारी बिल्कुल भी नहीं है ऐसे तीन साल के कोर्स की। इस वक्त तुम नौकरी कर रही हो”। तब मैं एन.डी.टी.वी. में काम कर रही थी। “अच्छी-भली नौकरी छोड़कर तुम क्यों जा रही हो” और ये सब...। तो बहुत ही विरोध हुआ घर पर। पता नहीं तब कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं। क्योंकि मैं बहुत ही आज्ञाकारी बेटी थी। पहली बार मैंने बग़ावत की। वहां पर जाकर मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। मैंने कभी भी इतना फ़िल्मों को सीरियसली नहीं लिया था। मैंने इतनी सारी फ़िल्में देखीं। कैसे-कैसे लोग काम करते है, ये देखा। कितनी बड़ी दुनिया है, ये वहां जाकर पता चला। इंडिया में तो ये सिर्फ मनोरंजन है लेकिन बाकी लोगों के लिए ये ख़ुद को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के बहुत सारे तरीके हैं।
सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान में किन फ़िल्मों ने आपको एकदम हिलाकर रख दिया?
ऐसे तो याद नहीं लेकिन किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) एक पॉलिश फ़िल्ममेकर थे जिनकी फ़िल्म से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुई थी। अकीरा कुरोसावा (Akira Kurosawa ) हैं, उनकी ‘सानशीरो सुगाता’ (Sanshiro Sugata, 1943)। बहुत फ़िल्में थीं। इंडियन फ़िल्में भी थीं जिनके बारे में पहले मैंने सोचा भी नहीं था। फिर एक बहुत बड़ा प्रभाव था डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का, जिनका पहले मुझे कोई एक्सपोजर नहीं था और मुझे अहसास हुआ कि वो कितनी ज्यादा... मतलब एक टाइम को कैप्चर करती हैं। आपकी जेनरेशन को कैप्चर करती हैं। समाज के एक विशेष पहलू को कैप्चर करती हैं। ये इतिहास का सच्चा दस्तावेज होती हैं। तो मैं इन्हें यहां देख पा रही थी और बहुत खुश थी।
संस्थान में रोजाना तीन-चार फ़िल्म दिखाई जाती होंगी और यूं आपने सैंकड़ों फ़िल्में देखी होंगी?
हां...।
तब आपने और आपके दोस्तों ने फ़िल्में बनाने का सपना साथ देखा होगा। आज आप लोग बना पा रहे हैं तो एक-दूसरे की सफलता देखकर कैसा लगता है? कौन दोस्त फ़िल्मों में आज सफल हो पाए हैं?
ये तो बहुत अन्यायपूर्ण बात होगी सफलता को ऐसे आंकना। सक्सेस और फेलियर तो बहुत सब्जेक्टिव हैं। तो मैं सफलता को यूं नहीं मापती हूं। अगर वे अपना काम करते हुए खुश हैं तो मेरे लिए वही सक्सेस है। पर जो करना चाह रहे थे और कर रहे हैं, उनमें बहुत हैं। जो डायरेक्टर होता है उसे वक्त लगता है, इसलिए जो डायरेक्टर्स हैं वो धीरे-धीरे कर रहे हैं, जो टेक्नीशियंस हैं उनके लिए थोड़ा सा आसान होता है क्योंकि उनके ऊपर लोगों को इतना पैसा नहीं लगाना पड़ता है जितना डायरेक्टर के ऊपर लगाना होता है। बहुत सारे लोग कर रहे हैं। बहुत सारे साउंड डिजाइनर्स हैं। बहुत सारे सिनेमैटोग्राफर्स हैं, राइटर्स हैं जो मेरे साथ वहां थे और अब यहां हैं। मतलब हम उतना बात अब नहीं कर पाते हैं, मिल नहीं पाते हैं, बहुत बिजी हैं, पर...। बहुत सारे डॉक्युमेंट्री मेकर्स हैं जो वही करना चाहते थे जो कर रहे हैं और बहुत खुश हैं। कमर्शियली सफल नहीं हैं लेकिन बहुत खुश हैं।
आप भी साउंड डिजाइनिंग करना चाह रही थीं?
हां, साउंड डिजाइनिंग में करना चाहती थी पर वो हो नहीं पाया लेकिन एडिटिंग में साउंड डिजाइनिंग बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।
थियेटर आपने पहले किया, अभी एडिटिंग कर रही हैं, बीच में साउंड की रुचि कहां से आई?
मुझे लगता है ये सब चीजें बहुत अलग-अलग या स्वतंत्र नहीं हैं। एडिटिंग कहानी कहना होता है और साउंड डिजाइनिंग उस कहानी को या में जोड़ना होता है। मतलब बिना साउंड के ज्ञान के आप एडिट नहीं कर सकते और बिना एडिटिंग के ज्ञान के आप साउंड डिजाइनिंग नहीं कर सकते। तो ऐसा नहीं है कि ये सब बहुत अलग हैं। ये सब एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
क्या एडिटर बनने के बाद आप लाइफ की बाकी चीजों या बातचीतों को भी एक सेंस में एडिट करने लगती हैं? मतलब, क्या आपकी एडिटिंग क्षमताएं फ़िल्मों के बाहर की दुनिया को भी वैसे ही देखती या समझती है? आपकी पर्सनैलिटी में वो कहीं न कहीं आ गया है?
हां, बिल्कुल होता है। पहले तो बहुत ही ज्यादा होता था, अभी काफी कंट्रोल में है। अब मैं सोच-समझकर ही करती हूं। पहले तो बहुत ज्यादा होता था, मतलब बहुत ही ज्यादा होता था। अब शायद मैं टेक्स्ट मैसेज मैं बहुत बार एडिट करके भेजती हूं। बातें एडिट करना तो मैंने बंद कर दिया है लेकिन पहले बहुत होता था। कभी क्या होता है कि आप फ़िल्म देखने चले जाओ तो आपको सिर्फ शॉट्स नजर आते हैं। वैसे कोशिश करती हूं कि मेरी वो पर्सनैलिटी बिल्कुल अलग रहे। अब फ़िल्मों को आम दर्शकों की तरह देखने की कोशिश करती हूं। लोगों की बातें सुनूं तो मैं ऑब्जर्व करने की कोशिश करती हूं क्योंकि कभी पर भी कहीं भी यूज हो सकती है ये चीज।
जर्नलिज़्म में अगर कोई एडिटर है तो उसे सिनिकल या दोषदर्शी होना जरूरी है रिपोर्टर के प्रति भी, उसकी खबर के प्रति भी और जो कंटेंट सामने पड़ा है उसके प्रति भी। फ़िल्म एडिटर के लिए भी सिनिकल होना जरूरी है या कोई दूसरा ऐसा इमोशन उसमें होना चाहिए ताकि फ़िल्म आखिरकार बहुत बेहतर होकर निकले?
एक अच्छा ऑब्जर्वर होना तो बहुत जरूरी है। कौन डायरेक्टर किस तरह से बिहेव करेगा... क्योंकि कई बार ऐसा होता है फ़िल्मों में, सीन्स में, कि जो एक्टर्स करते हैं उनको कई बार आइडिया भी नहीं होता है सीन्स में कि उन्होंने क्या-क्या एक्सप्रेशन दिए हैं, एग्जैक्टली किस बात में क्या किया था। तो आप उस भाव को एडिट करके लाते हो। आप उस वक्त उसे सही करते हैं। मान लीजिए आप किसी की डेट एडिट कर रहे हैं। दो लोग पहली बार मिल रहे हैं कहीं पर। तो किस तरह का अजनबीपन रहेगा? किस तरह बात करेंगे? कितना बात करेंगे? कैसे करेंगे? जाहिर है कैरेक्टर की अपनी एक समझ होती है लेकिन उसमें अनुकूल हाव-भाव आप शामिल करने की कोशिश करते हैं। तो मेरे हिसाब से एक एडिटर के तौर पर आपकी सबसे बड़ी जरूरत है कि आप जिंदगी के बहुत बेहतरीन ऑब्जर्वर हों। आपको लाइफ को लाइक करना आता हो।
मान लीजिए आपके सामने बहुत धूसर या कच्चेपन वाली फ़िल्में आती हैं। जैसे ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ है या ‘शंघाई’ है। उनमें जो लोग हैं वो एक अलग ही भारत से नाता रखते हैं और उनको आपको एडिट करना होता है, तो क्या आपको लगता है आप पर्याप्त घूमी हुई हैं या आपने वैसे लोग पर्याप्त तौर पर देखे हुए हैं? या अगर प्रोजेक्ट ऐसा अलग आ जाए तो कैसे सामना करती हैं? आप जाकर देखती हैं या कैसे संदर्भ लेती हैं?
मैं इसी देश में पली-बढ़ी हूं। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मुझे पर्याप्त आइडिया है। मैंने बहुत ट्रैवल किया है। आज भी करती हूं। मुझे लगता है कि मुझे अपने लोगों का एक निश्चित आइडिया है। और अगर कोई बहुत ही विशेष या तय विषय है जो मैंने कभी देखा नहीं है, जैसे मैंने कभी मर्डर होते हुए तो देखा नहीं और ना मेरी इच्छा है देखने की। अब अगर मुझे मर्डर का सीन एडिट करना है और मर्डरर का माइंडस्पेस दिखाना है तो उसके लिए मुझे एक निश्चित मात्रा में कल्पना की जरूरत होगी। आपके डायरेक्टर का भी यही रोल होता है कि आपको ठीक-ठीक बताए और आप सोचें। जैसे, हर तरह के दंगे अलग होते हैं। मैं जब दिल्ली में थी तो सिख दंगे देखे थे, उसके बाद मंडल कमीशन के दौरान देखे थे। लेकिन अब जो ‘शंघाई’ के दंगे थे वो बहुत ही अलग थे। मतलब वो बिल्कुल ही पॉलिटिकल दंगे थे। मैंने ऐसे कभी नहीं देखे थे। तो आप डील करते हैं। डायरेक्टर भी बताता है, ब्रीफ करता है। और डायरेक्टर ने भी दंगे देखें हों ये जरूरी नहीं। तो ऐसी चीजों को डॉक्युमेंट करने के लिए उनको अनुभव करना जरूरी नहीं है, उनके बारे में आपकी दूरदर्शिता या विज़न होना जरूरी है कि क्या सोचकर करें जो भी करें।
किस फ़िल्म के लिए अब तक सबसे ज्यादा रॉ मटीरियल आपको मिला है और कितनी दिक्कत आई? जैसे 20 घंटे का माल हो और उसे काटकर दो घंटे का करना हो। ऐसी फ़िल्में कौन सी रही हैं और ऐसा होता है तब क्या करती हैं?
ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। काफी सारी फ़िल्मों में हुआ है। ज्यादा घंटे की शॉट फ़िल्म है और फ़िल्म दो घंटे की ही बनानी होती है। ये तो हर बार होता है। मेरा एक प्रोसेस है। मुझे जो चीजें अपील करती हैं उन्हें मैं रख लेती हूं और बाद में यूज़ करती हूं। जैसे, ‘बैंड बाजा बारात’ में मुझे पता था कि ये दो मुख्य किरदार हैं और इन्हें इस तरह प्रेजेंट करना है कि लोग इन दोनों से कनेक्ट करें और दिल्ली में शादी और वेडिंग प्लैनिंग का माहौल बने। मतलब सबकुछ रियल हो और आपको लगे कि ये हमारे पड़ोस में रहते हैं। मैंने एडिट पर यही कोशिश की। हमारे पास काफी सारा फुटेज था। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ... मतलब मेरा सामना जब भी अत्यधिक फुटेज से होता है तो पूरी मुश्किल को मैं छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट देती हूं। मैं जितने छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों में फुटेज को बांट सकूं, बांट देती हूं। फिर इन छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों को हल करती चलती हूं। मतलब जब मैं छोटी चीज के बारे में सोच रही हूं तो मैं बड़ी चीज टालती हूं।
जैसे आप छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटती चलती हैं तो उस दौरान पूरा का पूरा मटीरियल अपने जेहन में याद रखती हैं? क्या एक खास सेक्शन को छोटे टुकड़ों में बांटती हैं, फिर उसे निपटाती हैं? फिर दूसरे पोर्शन को टुकड़ों में बांटती हैं और उसको निपटाती हैं? या पूरी फ़िल्म का फुटेज आपने छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया और फिर उसे हैंडल करती हैं?
ऐसा कोई तरीका नहीं होता है। हर फ़िल्म को हल करने या एडिट करने का एक सिस्टम होता है। पहले मैं सीन को टारगेट करती हूं। फिर उस सीन में भी बहुत सारी फुटेज है तो वन टू थ्री, अलग-अलग ब्लॉक में विभाजित करती हूं। मतलब जितना आप उसे छोटी-छोटी इकाइयों में बांट देते हैं न, तो समझना और सुलझाना आसान रहता है। जब फील्ड वर्क पूरा हो जाता है तो सबको पिरोकर एक पूरी फ़िल्म बनती है तो उसको भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटती हूं और स्टोरी फ्लो और दूसरे पहलुओं के हिसाब से तह करती हूं। कि फर्स्ट हाफ हो गया, सेकेंड हाफ हो गया, फर्स्ट हाफ में फर्स्ट रील हो गई, सेकेंड रील हो गई, थर्ड रील हो गई। फर्स्ड रील में भी पहले दस मिनट हो गए, फिर अगले दस मिनट हो गए। उसमें भी अगर यूं, कि अच्छा, कैरेक्टर का इंट्रोडक्शन ऐसे नहीं बैठ रहा है, या बैठ रहा है तो ... मतलब जितने भी छोटे हिस्सों में उसे विभाजित करें, आसान हो जाता है। सबकुछ एक साथ तो कर नहीं सकते।
ये तरीका आपका पहली फ़िल्म से रहा है या पहली-दूसरी फ़िल्मों के बाद अनुभव से सोचा कि मुझे इस तरह से अपने काम को अनुशासित और व्यवस्थित करना चाहिए?
नहीं, शुरू से तो नहीं था। ऑन द जॉब हुआ है धीरे-धीरे। लगा कि ये तरीका हो सकता है चीजों को डील करने का। शुरू-शुरू में बहुत घबरा जाती थी इतना मटीरियल होता था। अब मैं उसे अच्छे तौर पर या लाभ मानकर लेती हूं। क्योंकि मेरे पास इतना मटीरियल है तो उतना ही लचीलापन और उतनी ही स्वतंत्रता है, अपनी कहानी कहने के लिए। पहले मैं थोड़ा घबरा जाती थी कि भगवान! कैसे होगा, मुझसे तो नहीं होगा! लेकिन अब ऐसा नहीं। अब तो लगता है, नहीं, जितना मेरे पास मटीरियल है उतनी ही मेरे पास पावर है। ये तो कर कर के ही सीखा है। ... और हर डायरेक्टर से आप कोई नई चीज सीखते हैं। हरेक के साथ काम करते हुए उनके स्टाइल को देखती रही और सीखकर चीजों को अपने में जोड़ती रही। उससे भी बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि वे सभी बेहद विशिष्ट लोग हैं जिनका अपना-अपना नजरिया है, अपनी सोच है।
डायरेक्टर लोग भी तो आपसे सीखते होंगे? जैसे आप नई थीं तो अनुभवी लोगों से सीखा होगा लेकिन आज आपको बहुत सी फ़िल्मों का और सफल फ़िल्मों का अनुभव है तो कोई नया डायरेक्टर आता है वो भी आपसे काफी सीखता होगा?
मैंने दरअसल बहुत सारे फर्स्ट टाइमर्स के साथ काम किया है। ‘इश्किया’ अभिषेक (चौबे) की पहली फ़िल्म थी, ‘बैंड बाजा बारात’ मनीष (शर्मा) की पहली फ़िल्म थी। उसके बाद और भी दो-तीन छोटी फ़िल्में मैंने की हैं। अब भी कर रही हूं। मुझे लगता है कि एडिटिंग स्टोरीटेलिंग होती है और जो एक मूल स्टोरीटेलिंग होती है वो प्राकृतिक रूप से आप में होती है। कि या तो आप एक नेचुरल स्टोरीटेलर हैं। और जो दूसरी चीज होती है स्टोरीटेलिंग मं वो करत विद्या है, कि कर-कर के आपको समाधान आने लगते हैं। मतलब जब आपको समझ आने लगता है कि अच्छा अब ये समस्या आ रही है, कैरेक्टर का अब ये समझ में नहीं आ रहा है, इसका कैसे करूं। बोर हो रहा है, इसका मैं क्या करूं। तो ये चीजें आपको समझ में जल्दी आने लगती हैं। वो एक दूसरा पहलू है। जो दूसरी बेसिक स्टोरीटेलिंग वाला पहलू है, उसका और अनुभव का ज्यादा कनेक्शन नहीं है, सॉल्युशंस का कनेक्शन है। कि अगर स्टोरी काम नहीं कर रही है और आप अनुभवी हैं तो समाधान ज्यादा आने लगते हैं। चाहे पहली बार के निर्देशक ही क्यों न हो, मैं तो जितना ज्यादा सीख सकती हूं सीखती हूं। सब में कुछ न कुछ खास बात होती है। कुछ लोग बहुत अच्छा एक्टर्स के साथ व्यवहार करते है। यानी उन्हें इतनी बेहतरी से डायरेक्ट करते हैं। इतने आर्टिक्युलेट (स्पष्ट) होते हैं कि बहुत ही ग्रे इमोशन एक्टर्स को समझा पाते हैं। कि ये मुझे चाहिए और तुम इस तरह से निभाओ। कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत सारा शूट करते हैं लेकिन अच्छे से जानते हैं कि मुझे ये पीस चाहिए या मुझे ये सब चाहिए और ये सब नहीं चाहिए। तीसरी तरह के निर्देशक वे होते हैं जो कभी हार नहीं मानते हैं। चाहे उन्हें बहुत सारी आलोचना मिल रही है। जैसे फ़िल्म रिलीज होने से पहले काफी सारे लोगों को दिखाई जाती है तो कई लोग आलोचना करते हैं, कई लोग अच्छा कहते हैं। कुछ डायरेक्टर होते हैं जो कभी हार नहीं मानते, वो लगे रहते हैं। उन्हें आलोचना भी मिलती है तो बहुत शांति से स्वीकार करते हैं। ये सब चीजें मैंने बहुत से निर्देशकों से सीखी। वे कभी हार नहीं मानते, सुझावों को लेकर बेहद खुले मन के होते हैं।
फ़िल्म स्टॉक और डिजिटल पर एडिट करने में मूलतः क्या फर्क है?
डिजिटल में आपको पैसों के बारे में इतना ज्यादा नहीं सोचना पड़ता। आप थोड़ा अतिरिक्त शूट कर लेते हैं। क्वालिटी के लिहाज से भी डिजिटल वाले स्टॉक की बराबरी करने की कोशिश कर रहे हैं तो गुणवत्ता में भी बहुत फर्क नहीं है। जाहिर तौर पर टेक्नीकली तो है, पर आम गणित करें तो इतना फर्क नहीं है जब मिलाना है या विलय करना है। एडिटर के लिए डिजिटल में अनुशासन कम होता है। वो अनुशासन कम होने से शूटिंग ज्यादा होती है। सेटअप टाइम कम होता है। तो मुख्यतः अनुशासन का फर्क है।
दोनों के लुक में तो कोई फर्क रहा नहीं, क्योंकि जितने भी सॉफ्टवेयर हैं, उनसे डिजिटल भी फ़िल्म स्टॉक की तरह ही लगने लगता है।
जी, बिल्कुल।
अगर आम दर्शक को समझाना हो कि एडिटिंग की प्रक्रिया मोटा-मोटी क्या होती है?
फ़िल्में शॉट्स में शूट की जाती हैं। मतलब छोटे-छोटे टुकड़ों में शूट की जाती हैं। एडिटिंग करते वक्त आप उन छोटे-छोटे हिस्सों को मिलाकर एक कहानी कहते हैं। कहानी ऐसी जो आपको समझ में आ रही है, आपको रोक कर रख रही है, आपको कहीं बोर नहीं कर रही है, क्रम में चल रही है और आपको वो छोटे-छोटे हिस्से अलग से नजर नहीं आ रहे हैं। तो एडिटर का काम ये होता है। ये मोज़ेक जैसा है, कि आप एक-दूसरे के ऊपर छोटे-छोटे टुकड़े लगा रहे हैं लेकिन ऊपर से देखें तो ये एक सुंदर डिजाइन दिखता है। आपको वो छोटे-छोटे टुकड़े बहुत पास जाने के बाद ही दिखेंगे। तो फ़िल्म एडिटिंग में वो जो भी मोज़ेक है, उसका डिजाइन समझ आना चाहिए, वो अच्छा लगना चाहिए और उसका कुछ मतलब भी होना चाहिए।
आप किस सॉफ्टवेयर पर एडिट करती हैं? फ़िल्म उद्योग में अभी कौन सा चलन में है? दूसरा, कोई इंडिपेंडेट फ़िल्ममेकर अगर खरीद नहीं कर सकता और अपने बेसिक लैपटॉप पर ही एडिट करना चाहता है तो क्या करे और उसे कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
एविड (Avid) और एफटीपी (FTP) दो सॉफ्टवेयर हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में दोनों से काम हो रहा है। कई लोग एविड पर करते हैं, कई लोग एफटीपी पर करते हैं। दोनों के दोनों ही आजकल लैपटॉप पर इंस्टॉल हो सकते हैं। एविड थोड़ा सा महंगा पड़ता है निवेश के लिहाज से, एफटीपी थोड़ा सस्ता है। इंडिपेंडेंट फ़िल्ममेकर ज्यादातर एफटीपी को तवज्जो देते हैं क्योंकि खर्च कम आता है। मैंने अपनी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जो पूरी लैपटॉप पर एडिट की थी और मुझे कोई दिक्कत हुई नहीं। आजकल डिजिटल फॉर्मेट धीरे-धीरे भारी होता जा रहा है तो पता नहीं कैसे होता है, मुझे भी नहीं पता क्योंकि मैं अब लैपटॉप पर करती नहीं हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई भी मुश्किल होती होगी।
नए लड़के-लड़कियां एडिटिंग सीखना चाहें और किसी इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं मिला हो तो कैसे सीख सकते हैं और आगे काम पा सकते हैं?
देखिए, इंस्टिट्यूट का बड़ा लाभ तो होता ही है क्योंकि वो सिर्फ फ़िल्म स्कूल नहीं होता लाइफ स्कूल होता है। क्योंकि इसमें आप इतने सारे आर्ट से परिचित होते हैं और आपको उनके बारे में सोचने और समझने का समय मिलता है, वो एक लाभ है। अगर फ़िल्म इंस्टिट्यूट न जा सकें तो बदले में आप एक डिजिटल एकेडमी में जहां आपको सॉफ्टवेयर सिखाए जाएं, वहां जा सकते हैं। इसके बारे में ज्यादा तो नहीं कह सकती क्योंकि मैं डिजिटल एकेडमी गई नहीं हूं तो पता नहीं वहां क्या सिखाया जाता है और क्या नहीं सिखाया जाता है। आप और भी तरीकों से सीख सकते हैं। आप किसी एडिटर को असिस्ट कर सकते हैं। मुझे लगता है कि एडिटर को असिस्ट करके सीखना बहुत-बहुत अच्छा तरीका है। वहां आप बिल्कुल मामले के बीचों-बीच होते हो। आप वहीं पर रहकर सब देख और कर रहे होते हो।
फ़िल्म रिव्यू जब भी होता है तो उसमें बहुत से समीक्षक फ़िल्म एडिटर के बारे में लिखते ही नहीं हैं। और जब भी लिखते हैं तो समझ भी नहीं पाते हैं कि फ़िल्म एडिटर ने किया क्या होगा क्योंकि उसको पता नहीं है कि रॉ स्टॉक कब मिला था? ब्रीफ कैसे किया था? पहले दिन से एडिटर शूट पर साथ थे? या लास्ट में उनको मटीरियल ही सिर्फ दिया गया? क्या आर्ग्युमेंट उनके और डायरेक्टर के बीच हुआ? तो आपने जब असल में उस चीज को एडिट किया है और आप उन असल हालातों को जानती हैं और आप जब देखती हैं कि कहीं जिक्र हुआ है नाम और इस तरह से हुआ है और ये कमेंट है जो फिट ही नहीं बैठ रहा है, ऐसा कुछ था ही नहीं जो लिखा गया है, ये आलोचनात्मक रूप से सही ही नहीं बैठ रहा है...। तो इन लिखी चीजों को आप कैसे लेती हैं? हमारे यहां एडिटिंग को लेकर कितनी समझ है और उसको कितना सही लिखा जा रहा है?
नहीं, ज्यादातर तो सही नहीं लिखा जाता है। बहुत ही कम रिव्यूज मैंने देखे हैं जहां कुछ उपयुक्त होता है मूवी के बारे में। ज्यादातर समीक्षक फ़िल्म के पेस और एडिटिंग को कनेक्ट करते हैं। कि गति अच्छी है तो एडिटिंग अच्छी है, नहीं है तो अच्छी नहीं है। लेकिन एडिटिंग सिर्फ गति के बारे में ही नहीं होती है। न ही ये सिर्फ बड़े कट्स के बारे में होती है। जैसे, कह देते हैं कि बड़े से कट्स थे, यहां से वहां हो गया, फास्ट हो गया बहुत ही...। तो न तो सिर्फ कटिंग होती है और न ही महज पेसिंग होती है। जैसे मैंने ‘कहानी’ की थी तो इतने सारे रिव्यूज में लिखा गया कि बड़ी अच्छी कटिंग है, लेकिन कटिंग से ही नहीं होता है। कई जगह बोला गया था कि इतनी ज्यादा तेज गति है कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। मुझे नहीं लगता कि ये दोनों चीजें एडिटिंग में किसी भी चीज का सही प्रतिनिधित्व हैं। ठीक है, ये दोनों चीजें अपने आप में कुछ हैं, लेकिन इन्हें ही सिर्फ एडिटिंग नहीं बोल सकते हैं। मैंने कई जगहों पर तो यह भी पढ़ा है कि एडिटिंग खराब थी पर फ़िल्म बहुत अच्छी थी। ... अब ये कैसे हो सकता है मुझे तो नहीं पता। पर ठीक है, क्योंकि मुझे लगता है कि एडिटिंग एक ऐसी चीज है जिसके बारे में ज्यादा पता होना भी नहीं चाहिए। जिन्हें रुचि है सिर्फ उन्हीं को पता होना चाहिए। आम आदमी या दर्शक को इतना ज्यादा पता होने की जरूरत नहीं है। सिनेमा को इतना ज्यादा अगर हम डीकंस्ट्रक्ट कर देंगे न, कि हर चीज ऑडियंस को पता है, मुझे लगता है फिर उसका जादू नहीं रहता है। फिर सिनेमा एक अलग ही चीज हो जाएगी। मैजिक होना जरूरी है। कि अब पता नहीं क्या हो रहा है, किसने क्या किया है एग्जैक्टली पता नहीं लेकिन मैं एक्टरों में बिलीव करती हूं। जो एक्टर डायलॉग बोल रहा है मुझे लग रहा है कि बहुत ही सच है। उस जादू को बनाए रखने के लिए मुझे यकीन करना होगा कि ये जो भी हो रहा है, सच है। जितना ज्यादा मुझे पता होगा कि पीछे की तरफ ये लेंस लगाया गया था, यहां से लाइट मारी थी, तो फिर मजा नहीं रहेगा ऑडियंस के लिए। ठीक है, जो लिख रहे हैं उन्हें लिखने देना चाहिए। वो जो भी लिखें कोई फर्क नहीं पड़ता है।
लेकिन क्या ये संभव है कि एडिटर की वस्तुस्थिति जानी जा सके। क्योंकि फिल्म कैसे भी शूट हुई हो, कितना भी बुरा फुटेज हो, एडिटर उसे जादूगरी से बदल देता है। क्या उसका सही योगदान पता नहीं लगना चाहिए लोगों को। या बस एडिटर जानता है और डायरेक्टर उसे थैंक्स बोल देता है, इतना पर्याप्त है?
ये बहुत ही मुश्किल है कहना। मुझे लगता है कि अगर इंडस्ट्री में लोगों को पता चल जाए, इतना काफी है ताकि आपको और अच्छा काम मिलता रहे। उससे ज्यादा दर्शकों को बताना मेरे ख़्याल से इतना जरूरी नहीं है। सिडनी लुमिया (Sidney Lumet) ने कहा था या पता नहीं किसने कहा था कि, “एक संपादन कक्ष में क्या होता है, ये सिर्फ दो लोग जानते हैं, एक तो फ़िल्म का डायरेक्टर और एक एडिटर” (what happens in an editing room, only two people know, the director and the editor)। अगर आप बेहद अनुभवी एडिटर हैं तो फ़िल्म देखकर बता सकते हैं कि अच्छा ये हो सकता था और ये नहीं हुआ या ये बहुत अच्छा हुआ है। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि कोई तीसरा पक्ष इस विषय के बारे में जान सकता है या टिप्पणी कर सकता है।
आपने जितनी फ़िल्में अभी तक एडिट की हैं और उनका जो अंतिम नतीजा रहा है, क्या उनको और भी बहुत सारे तरीकों से एडिट किया जा सकता था, या वो ही बेस्ट रास्ते थे एडिट करने के?
मेरे लिए तो वही बेस्ट रास्ते थे। पर मैं आश्वस्त हूं कि आप उसको एडिट करते तो वो अलग होते, तीसरा कोई करता तो वो अलग होते। ये तो बहुत ही वस्तुपरक (subjective) है। जैसे, मैं जब दूसरी फ़िल्में देखती हूं और कभी बोर हो रही होती हूं फ़िल्म से तो फिर मैं एडिटिंग देखने लग जाती हूं। सोचती हूं कि मैं ऐसे करती, वैसे करती। तो ये बहुत अलग है। कोई भी ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही तरह से एडिट करे। पर मेरे लिए एक ही तरीका होता है। जैसे, आप और मैं बात कर रहे हैं तो मैं किस टाइम पर आपको देखूं और किस टाइम पर किसी और चीज को देखूं, मुझे ये बहुत ही ऑर्गेनिक लगता है। शायद आपको कुछ और ही लगे ऑर्गेनिक। आप तो मुझसे बहुत अलग इंसान हैं न। अलग परवरिश है, अलग अनुभव हैं तो उनके हिसाब से आप अपनी स्टोरीज बताएंगे। मैं अपने हिसाब से बताऊंगी तो वो कहीं से भी सेम हो ही नहीं सकती हैं। पर बात ये है कि जो भी मैं करती हूं मुझे वो ऑर्गेनिक लगता है। जब भी मुझे लगता है कि ये (तरीका) जबरदस्ती है तो फिर मैं उसके बारे में ज्यादा सोचती हूं। कुछ ऐसे थीम होते हैं जो आपको ऑर्गेनिकली नहीं आते हैं, अगर आपको बार-बार उन पर काम करना पड़ता है तो।
मैं जैसे कोई स्टोरी एडिट करता हूं तो मुझे एडिट करने से पहले पता नहीं होता है कि एडिट करने के बाद उसका स्वरूप मैं कैसा बना दूंगा लेकिन मुझे पता होता है कि जब भी मुझे ऐसी मुश्किल आएगी तो मैं उसका सामना ऐसे करूंगा। क्या आपका दिमाग भी वैसे ही चलता है या आपको एकदम पता होता है कि फ़िल्म ऐसी नजर आएगी?
नहीं, मुझे बिल्कुल नहीं पता होता है कि क्या होने वाला है। मुझे कहीं-कहीं आइडिया होते हैं कि इसको यहां पर ऐसे बदलकर और इंट्रेस्टिंग बनाया जा सकता है, लेकिन एक सटीक विजुअल तो मेरे दिमाग में नहीं होता है।
कोई अगर एडिटिंग पढ़ना चाहे तो क्या किताबें हैं या सब कुछ प्रैक्टिकल खेल है? या फ़िल्में ज्यादा से ज्यादा देखी जाएं और सीखा जाए?
बुक्स तभी हेल्प करती हैं जब आपको कुछ प्रैक्टिकल अनुभव होता है। जब मैं फ़िल्म स्कूल में थी और किताबें पढ़ रही थी तो मुझे एडिटिंग एक अलग ही चीज लगती थी लेकिन एक बार जब मैंने प्रैक्टिस करना शुरू किया और काम हाथ में लिया तो जो किताबों में पढ़ा था वो बिल्कुल ही अलग दिखने लगा। सबके अलग-अलग मतलब निकलने लगे। मैं यही कहूंगी कि एडिटिंग करत विद्या है। आप जो भी किताबें पढ़ते हैं आपको हेल्प जरूर करेंगी, बिल्कुल करेंगी लेकिन प्रैक्टिकल अनुभव या अपने हाथ से की एडिटिंग का मुकाबला कोई ज्ञान नहीं कर सकता।
अब आपको मूवीज देखने के लिए टाइम मिलता है या एडिटिंग में व्यस्त रहती हैं?
फ़िल्म देखना बहुत जरूरी है, मेरे को तो लगता है कि वही बेस्ट लर्निंग है। जब आप ऑडियंस के साथ फ़िल्म देखते हैं, उससे अच्छी लर्निंग कोई दूसरी नहीं है। वो करना तो जरूरी होता है। बिल्कुल करती हूं मैं।
आप महीने या साल में कितनी फ़िल्में देख लेती हैं?
मैं कोशिश करती हूं रोज एक फ़िल्म देखने की, कभी-कभी नहीं हो पाता है। पर हफ्ते में दो, तीन, चार तो देख ही लेती हूं।
कौन से फ़िल्म एडिटर दुनिया में ऐसे हैं जिनकी आप बहुत प्रशंसा करती हैं?
थेल्मा शूनमेकर (Thelma Schoonmaker – ‘ह्यूगो’, ‘रेजिंग बुल’, ‘द डिपार्टेड’) मुझे बहुत पसंद हैं। वॉल्टर मर्च (Walter Murch – ‘द गॉडफादर’, ‘द कॉन्वर्जेशन’, ‘अपोकलिप्स नाओ’, ‘द इंग्लिश पेशेंट’) की एडिटिंग पसंद हैं क्योंकि वे बेहद आर्टिक्युलेट हैं। इसके अलावा कुछ फ़िल्में मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं जिनके एडिटर्स का नाम मुझे नहीं पता। ‘ब्लैक हॉक डाउन’ (Pietro Scalia) है, ‘डाउट’ (Dylan Tichenor) है और भी बहुत सी हैं। मुझे लगता है कि एडिटिंग में भी एक्सपेरिमेंट करना बहुत जरूरी है जिस किस्म की भी स्टोरी आपके पास हो। नया एक्सपेरिमेंट फ़िल्म में कहीं छिपा होना चाहिए, मतलब ऑडियंस को कुछ नया महसूस होना चाहिए पर उनको हर चीज दिखनी नहीं चाहिए।
आपके जो समकालीन एडिटर हैं भारत में, उनमें से किसका काम अच्छा लगता है, जो नया कर रहे हैं?
बहुत सारे हैं। श्रीकर सर (A. Sreekar Prasad – ‘राख़’, ‘वानाप्रस्थम’, ‘फिराक़’, ‘दिल चाहता है’) हैं। वो कितनी सारी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं। दीपा (Deepa Bhatia – ‘हज़ार चौरासी की मां’, ‘देव’, ‘तारे जमीं पर’, ‘काई पो चे’) है, आरती (Aarti Bajaj – ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘जब वी मेट’, ‘रॉकस्टार’, ‘पान सिंह तोमर’) है। ये बहुत अलग तरह का काम कर रही हैं। बहुत रोचक।
आपकी ऑलटाइम फेवरेट मूवीज कौन सी हैं, इंडियन और विदेशी?
ये तो बहुत ही मुश्किल सवाल है, इसका मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं होता है क्योंकि ये नाम बदलते रहते हैं। मुझे बहुत सारी फ़िल्में अलग-अलग टाइम पर अच्छी लगती हैं। जैसे, मुझे ‘गरम हवा’ बहुत अच्छी लगी थी। जब देखी थी तो हिल गई थी। फिर कुछ और देखने की इच्छा बाकी न रही। मुझे ‘परिंदा’ बहुत अच्छी लगती है, ‘मिस्टर इंडिया’ बहुत अच्छी लगती है, ‘जाने भी दो यारों’, ‘अंदाज अपना-अपना’, फिर... ‘दीवार’ बहुत अच्छी लगती है। एक टाइम था जब ‘हम आपके हैं कौन’ बहुत अच्छी लगती थी। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ बहुत अच्छी लगती है। अलग-अलग फेज में अलग-अलग पसंद होती हैं। फ़िल्म स्कूल जाकर वर्ल्ड सिनेमा को देखा। किश्लोवस्की की फ़िल्में बहुत अच्छी लगने लगीं। तब कुछ खास किस्म की फ़िल्मों को ही मैं ज्यादा एंजॉय कर पाती थी। अब ऐसा है कि कोई भी फ़िल्म अगर मुझे एंगेज करती है तो मुझे अच्छी लगती है। कोई परवाह नहीं कि स्लो है या उसमें कुछ और है... अगर आप मुझे थाम कर रख सकते हो तो मुझे बहुत अच्छी लगती है। मैं किसी फ़िल्म को पसंद करने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करना पसंद नहीं करती हूं। फ़िल्म में कोई न कोई जुड़ाव होना चाहिए जो मुझे दिखा रही हो।
डायरेक्टर्स में अभी कौन अच्छा काम कर रहे हैं?
वे जिनके साथ आपने काम किया है और वे जिनका सिर्फ काम देखा है। मैं तो उन्हीं के साथ काम करती हूं जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं तो पूछना ही बेकार है। दिबाकर (बैनर्जी), सुजॉय (घोष), मनीष (शर्मा) जिनके साथ मैंने अब तक काम किया है। ‘इश्किया’ में अभिषेक चौबे।, मुझे मजा आया। अनुराग बासु का काम भी बहुत पसंद है। वह बहुत अच्छे डायरेक्टर और स्टोरी टेलर हैं। फिर अनुराग कश्यप हैं, जोया (अख़्तर) है... मुझे जोया का काम बहुत पसंद है।
सभ्यताओं के बसने के बाद से ही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आप प्रेरणा किसे मानते हैं? या इंस्पिरेशन होना कितना बुरा है या अच्छा है? जैसे आपने अनुराग बासु का नाम लिया तो ‘बर्फी’ को लेकर काफी रहा कि जो सीन्स थे वो दूसरी फ़िल्मों से थे। अभी स्पष्ट नहीं है कि डिबेट किस तरफ जानी चाहिए क्योंकि एक तरह से तो सारी फ़िल्में इंस्पायर्ड ही हैं। कुछ भी मौलिक या ऑरिजिनल तो एक लिहाज से है ही नहीं। ‘बर्फी’ आई तो कुछ लोग बिल्कुल सपोर्ट में खड़े हो गए कि नहीं, अनुराग ने पुरानी फ़िल्मों को श्रद्धांजलि दी, कुछ कहते हैं कि नहीं, उन्होंने अपनी तरफ से क्या प्रयास किया था। फ़िल्म स्कूल में ये डिबेट तीन सालों में जरूर रही होगी। आपकी सोच क्या है?
मैं निजी तौर पर दूसरे लोगों के काम से चीजें लेने के पक्ष में नहीं हूं। प्रेरणा अलग चीज होती है, ट्रिब्यूट अलग चीज होती है। जैसे ‘द अनटचेबल्स’ (The Untouchables, 1987) में ब्रायन डी पाल्मा ने ‘ओडेसा स्टेप्स सीन’ (फ़िल्म ‘बैटलशिप पोटयेमकिन’, 1925 का एक आइकॉनिक दृश्य) को ट्रिब्यूट दी थी। उस तरह के स्टेप्स लिए थे जहां उनकी फाइट होती है। वो अलग चीज है लेकिन कोई सीन कहीं से उठा लेना और उसे अपना बताना एक अलग चीज है। मुझे नहीं पता, पर ये ओपन डिबेट है। अगर मैं एक फ़िल्ममेकर हूं तो मैं ये नहीं करूंगी। मैं जानबूझकर या इरादतन किसी के सीन्स को उठाकर हूबहू वैसे यूज नहीं करूंगी। पर किसी फ़िल्ममेकर को मुझे ट्रिब्यूट देनी है तो.. जैसे ‘कहानी’ में सत्यजीत रे को ट्रिब्यूट है कि विद्या खिड़की के पास खड़ी हैं और वहां से देवी को गुजरते देखती हैं, वो बिल्कुल ट्रिब्यूट है ‘चारुलता’ को, लिफ्टेड नहीं है। जैसे खिड़की में चलकर मदारी को देखती है चारुलता और ऐसे ही विद्या देवी को गुजरते हुए देखती है। मेरे लिए ये उचित ट्रिब्यूट है। लेकिन मैं किसी पर टिप्पणी नहीं कर सकती क्योंकि ‘बर्फी’ के कौन से दृश्य कहां से हैं और क्या माजरा है, इसकी जांच मैंने की नहीं है इसलिए जानती नहीं कि उसमें जो है वो क्या है। लेकिन एक फ़िल्ममेकर के तौर पर और व्यक्तिगत रूप से मैं जानती हूं कि अनुराग बासु कहानी कहने की एक विशेषता रखते हैं।
फ़िल्म एडिटिंग में अभी क्या चुनौतियां हैं? क्या इनवेंशन और इनोवेशन की कमी हम में और हॉलीवुड में भी है, क्योंकि एक जॉनर की फ़िल्म आती है तो उनमें समान तरह का पेस और प्रस्तुति होती है? जैसे एक्शन और स्टंट वाली फ़िल्मों में एडिटिंग का उनका एक अलग ही फॉर्म्युला बना हुआ है। एडिटिंग की दुनिया में भीतरी बहस अभी क्या चल रही है?
सबसे बड़ी बहस तो यही होती है कि आधे लोग (एडिटर या फ़िल्ममेकर) ये यकीन रखते हैं कि दर्शकों को ये देखना है तो हम ये करेंगे और आधे लोग ये यकीन रखते हैं कि आपको क्या पता दर्शकों को क्या चाहिए, आप तो दर्शक क्रिएट कीजिए। एडिटिंग में भी सवाल आता है, मैं जिस सवाल का रोज सामना करती हूं कि ये फ़िल्म किसके लिए है? ये फ़िल्म डायरेक्टर अपने लिए बना रहे हैं कि दर्शकों के लिए बना रहे हैं? वो ऑडियंस कौन है? क्या मैं फ़िल्म रिलीज से पहले पता कर सकती हूं कि वो दर्शक कौन हैं? क्या मेरी ये रींडिग सही है या मैं सिर्फ अपने पास्ट एक्सपीरियंस से जा रही हूं। क्योंकि हम देखते हैं कि दर्शक हर बार अलग तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। तो आपकी जो स्टडी है, किस बात पर बेस्ड है। और सबसे ज्यादा मुझे लगता है कि फ़िल्मों में करप्शन भी इसी बिंदु पर प्रवेश करता है। क्योंकि आपको लगता है कि फ़िल्में ये बन रही हैं क्योंकि दर्शकों को ये देखना है, ये तो एक बहुत ही आसान-सहज सोच बना दी गई है। मतलब आप ये फ़िल्म बना रहे हैं क्योंकि आपको ये फ़िल्म बनानी है, कौन देखता है कौन नहीं देखता है ये तो बाद की बात है। ये जो ‘ऑडियंस’ शब्द है न जो फ़िल्मों को गवर्न करता है, सबसे बड़ी डिबेट तो यही चलती है, अंदरूनी भी और बाहरी भी। मतलब कि कौन है ये दर्शक, जिन्हें आप परोस रहे हैं। जैसे, अनुराग, दिबाकर या छोटी फ़िल्में जो बना रहे हैं, क्या ये किन्हीं दर्शकों को केटर कर रहे हैं या इन्होंने अपने दर्शक ख़ुद बनाए। क्योंकि ऐसी फ़िल्में भी पसंद करते ही हैं कुछ लोग। सिर्फ ऐसा नहीं है कि लोग बड़ी फ़िल्में ही पसंद करते हैं। ‘विकी डोनर’ जैसी फ़िल्म को भी तो दर्शक मिले हैं तो क्या उन्होंने पहले से सोचा होगा। क्या दर्शकों को पहले से पता होगा। ऐसा नहीं होता है तो मतलब ये एक आसान सी टर्म है जो फॉर्म्युला में डालकर यूज कर ली जाती है। मुझे लगता है कि ये सबसे बड़ी और मौजूदा वक्त में चल रही डिबेट है। मेरे को आज छह साल हो गए हैं कि छह साल में मेरे पास तो कोई जवाब आज तक नहीं आया है कि आप एडिटिंग जो कर रहे हैं तो किसके लिए कर रहे हैं? कि आप बोर न करें, तो किसको बोर न करें? मतलब कौन बोर हो रहा है? फ़िल्ममेकर बोर हो रहा है देखते हुए या ऑडियंस बोर होगी जिसने फ़िल्म अभी तक देखी ही नहीं है।
इतनी फ़िल्मों की एडिटिंग आपने की है तो आखिरी नतीजे के लिहाज से अपनी कौन सी फ़िल्म की एडिटिंग से आप बहुत खुश हैं, संतुष्ट हैं?
बहुत मुश्किल है कहना। ‘कहानी’ में काम करने में हम लोगों को बहुत मजा आया था क्योंकि ये वाकई में एक बहुत प्यारी और छोटी सी फ़िल्म थी। लेकिन मुझे उतना ही मजा ‘एलएसडी’ में आया था, मुझे उतना ही मजा ‘बैंड बाजा बारात’ में आया था, उतना ही मजा ‘इश्किया’ में भी आया था और ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ मेरी पहली फ़िल्म थी तो मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। अलग-अलग फ़िल्म से अलग-अलग याद जुड़ी हुई है। ‘जब तक है जान’ जब मैंने की थी तो यश जी के साथ काम करने का मेरा पहला अनुभव था। वो अपने आप में बहुत ही बड़ी बात थी मेरे लिए। मैं तो दूरदर्शन पर उनकी फ़िल्में देखकर बड़ी हुई हूं तो मैं तो कभी सोच ही नहीं सकती थी कि मेरे पास बैठकर वो मुझसे इस तरह से बात कर रहे होंगे। तो हर फ़िल्म की अपनी एक खुशी है। ‘कहानी’ में ये मजा आया कि इतनी सारी डॉक्टुमेंट्री किस्म की फुटेज थी। उसे शूट करके एक अलग ही परत बनाई गई फ़िल्म में, जिसका मुझे गर्व है।
संगीत का इस्तेमाल दर्शक को इमोशनली क्यू (उसके भावों को एक निश्चित दिशा में कतारबद्ध करना) करने के लिए किया जाता है। कुछ कहते हैं कि ये बहुत बासी तरीका है, वहीं सत्यजीत रे की फ़िल्में भी संगीत का जरा अलग लेकिन इस्तेमाल लिए होती थीं। जैसे फ़िल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ी ट्रैजेडी हुई तो वीणा या सितार उसी भाव में बजकर क्यू करेगा कि भई बड़ा दुख का मौका है। क्या आप इसे बासी तरीका मानती हैं या नहीं मानती हैं? क्या ये हर फ़िल्म के संदर्भ पर निर्भर करता है?
बिल्कुल निर्भर करता है। जैसे अगर आप ‘एलएसडी’ जैसी फ़िल्म बना रहे हैं जो फाउंड फुटेज पर बनी है। कि ये किसी ने एडिट नहीं की है, ये किसी ने शूट नहीं की है। ये किरदारों ने ही शूट की है और उन्होंने ही बनाई है। उसमें अगर मैं बैकग्राउंड म्यूजिक डालती हूं तो अपने संदर्भ या कथ्य को ही हरा रही हूं। वहीं अगर मैं ऐसी फ़िल्म बना रही हूं जिसके बारे में मैं पहले बिंदु से ही कह रही हूं कि ये तो काल्पनिक है, कि मुझे तो पता नहीं है कि ये सच है कि झूठ है, जिसका किसी जिंदा व्यक्ति से किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं है.. तो ऐसी स्थिति में संगीत के साथ मैं जैसा करना चाहूं कर सकती हूं। अगर मुझे किसी बिंदु पर लग रहा है कि यहां ये संगीत लाकर दर्शकों को मैन्युपुलेट कर सकती हूं और अगर उस मैन्युपुलेशन से मुझे कोई नैतिक दिक्कतें नहीं हैं तो करूंगी। इन दिनों मैं कई ऐसे निर्देशकों से मिलती हूं जिन्हें संगीत नैतिक तौर पर गलत मैन्युपुलेशन लगता है। मेरे लिए ये डिबेटेबल है। क्योंकि मुझे लगता है संगीत ही क्यों, आप डायलॉग्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं, आप कट्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं... मतलब कुछ खास कैमरा शॉट्स भी तो मैन्युपुलेशन है न। मुझे संगीत मैन्युपुलेशन नहीं लगता है, पर ये नहीं होना चाहिए कि पांच सौ वॉयलिन बज चुके हैं और जो इमोशन आपके विजुअल में नहीं है आप उसे ही अपने म्यूजिक में डाल रहे हैं तो उस पर मैं सवाल जरूर उठाऊंगी। अगर आप संगीत से किसी दृश्य को सहयोग कर रहे हैं, अगर संगीत से मुझे किसी और ही दुनिया में लेकर जा सकते हैं, विजुअल और म्यूजिक से अगर आप एक तीसरे दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे हैं तो कोई आपत्ति नहीं है।
Namrata Rao is an Indian film editor. She Started with Dibaker Banerjee's Oye Lucky! Lucky Oye! in 2008. Later on she edited films like Ishqiya (2010), Love Sex aur Dhokha (2010), Band Baaja Baaraat (2010), Ladies vs Ricky Bahl (2011), Kahaani (2012), Shanghai (2012) and Jab Tak Hai Jaan (2012). For Kahaani she received 60th National Film Award for Best Editing. Now she's doing the editing of Maneesh Sharma's Shuddh Desi Romance, slated to release on September 13, this year. - See more at: http://filamcinema.blogspot.in/2013/07/blog-post.html#sthash.GE0PFnen.dpuf
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