बहुपयोगी संवाद माध्यम है सोशल मीडिया
संचार माध्यमों के विकास, प्रसार और बढ़ती भूमिकाओं को स्वीकार और अंगीकार करने
के बावजूद सात साल पहले तक किसी ने कल्पना नहीं की थी कि सोशल मीडिया का अंतर्जाल
हमारी सोच, समझ, दृष्टिकोण, विचार और राजनीति को इस कदर प्रभावित करेगा। सोशल
मीडिया नेटवर्क ने सभी यूजर्स को अभिव्यक्ति का सशक्त उपकरण दे दिया है। इसकी
विशेषता पारस्परिकता है। इसमें स्वतंत्रता अंतर्निहित है। अगर आप मोबाइल और
कंप्यूटर के जरिए इंटरनेट से जुड़े हुए हैं तो अपनी सुविधा और रुचि से सारे संसार से
संपर्क बनाए रख सकते हैं अर्द्धशिक्षित भारतीय समाज में सोशल मीडिया की महत्व और
भूमिका के संबंध में फिलहाल सर्व सहमति नहीं है। कभी यह अत्यंत उपयोगी और आवश्यक
माध्यम प्रतीत होता है तो कभी हर तरफ शोर मचने लगता है कि इस से समाज का नुकसान हो
रहा है। हर नए माध्यम और आविष्कार की तरह सोशल मीडिया अभी परीक्षण और परिणाम के
दौर से ही गुजर रहा है।
अंतरराष्ट्रीय मापदंड और आंकड़ों की तुलना में अभी भारत
में इंटरनेट यूजर्स की संख्या आबादी के अनुपात में कम है, लेकिन सिर्फ संख्या की बात करें तो यह कई देशों की
जनसंख्या से अधिक है। 1 अरब 20 करोड़ की आबादी में लगभीग 10 प्रतिशत इंटरनेट यूजर्स
हो गए हैं। पिछले साल ही 41 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। आंकड़ों के मुताबिक इंटरनेट के
वायरलेस कनेक्शन में तेज प्रगति है यानी मोबाइल के जरिए इंटरनेट के इस्तेमाल की
आदत और संख्या बढ़ रही है। देश में अभी 3जी भी ढंग से प्रचलित नहीं हुआ है। 4जी आने
के बाद की स्थिति की हम कल्पना कर सकते हैं। इंटरनेट यूजर्स की कुल संख्या टीवी
दर्शकों की एक चौथाई तक पहुंच चुकी है। अगले चार सालों में यह 60 प्रतिशत हो
जाएगी। उल्लेखनीय तथ्य है कि यह बढ़ोतरी मुख्य रूप से मझोले और छोटे शहरों से हो
रही है। आमदनी के लिहाज से 2 लाख प्रतिवर्ष से कम आय के समूह में किशोर और युवक
तेजी से सोशल मीडिया की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं। सभी सर्वेक्षणों में पाया गया है कि
इंटरनेट यूजर्स में सबसे बड़ा आयु समूह 15 से 24 साल का है।
इस परिदृश्य में सोशल मीडिया के व्यापक प्रभाव और
महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सोशल मीडिया हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन
के सभी क्षेत्रों और आयामों में हस्तक्षेप कर चुका है। यथास्थिति बदलने में सोशल
मीडिया की भूमिका निर्णायक होती जा रही है। मिस्र में हुए राजनीतिक बदलाव का मूल
आधार सोशल मीडिया रहा है। अपने ही देश में पिछले साल अन्ना आंदोलन और अभियान को
सोशल मीडिया के समर्थन से भारी जनमत मिला। पिछले ही साल दिल्ली के निर्भया कांड
में जागरुकता के साथ सामूहिकता फैलाने में सोशल मीडिया ने अग्रगामी भूमिका निभायी।
निष्क्रिय और अनिर्णय के द्वंद्व में उलझी सरकार को जनरुचि के अनुसार फसले लेने के
लिए बाध्य किया।
सोशल मीडिया नेटवर्क में भारत में फेसबुक सबसे अधिक
प्रचलित है। उसके बाद ट्विटर का स्थान आता है। गूगल प्लस के साथ सोशल मीडिया और
इंटरनेट उपयोग की एक अच्छी पैकेजिंग आ जाती है, इसलिए वह धीरे से अगली कतार में आता दिख रहा है।
लिंकेडिन, ऑरकुट और दूसरे सोशल
मीडिया नेटवर्क भी यूजर्स के लिए उपयोगी साबित हो रहे हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पारस्परिकता
सोशल मीडिया नेटवर्क ने हर यूजर्स को अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता दी है। हालांकि भारतीय संविधान से यह स्वतंत्रता देश के हर नागरिक को
मिली हुई है, किंतु कुछ सालों
पहले तक अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त मंच और साधन नहीं थे। आम तौर पर
पत्र-पत्रिकाओं और दूसरे संचार माध्यमों से आवाज उठाई जाती थी। उसकी अपनी सीमाएं
और पाबंदियां थीं। गौर करें तो बलवती इच्छा के बावजूद कई बार आम आदमी की
अभिव्यक्ति नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दब कर रह जाती थी। न कोई उन्हें
सुनता था और न ध्यान देता था। अभी स्थिति यह है कि मुंबई के उपनगर में अपने कमरे
में बैठी एक लड़की कोई बात कहती है और सत्ता की गलियारे तक में उसकी प्रति ध्वनि
सुनाई पड़ती है। कान खड़े हो जाते हैं और कानून चौकन्ना... पिछले कुछ सालों में
अभिव्यक्ति के ऐसे अनेक उदाहरण मिले हैं जो कभी सत्ता तो कभी संस्थाओं को नागवार
गुजरे हैं। व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप की गणना ही नहीं की गई है। उन्हें संज्ञान
में भी नहीं लिया गया है।
सोशल मीडिया नेटवर्क ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
स्वरूप बदल दिया है। पहले की तरह अंकुश, नियंत्रण और शर्त्तें नहीं रह गई हैं। आप अपने कंप्यूटर या मोबाइल से
इंटरनेट कनेक्ट करें किसी भी सोशल मीडिया साइट पर जाएं और अपने विचार, भाव या प्रतिक्रिया व्यक्त कर दें। सोशल
मीडिया में कोई संपादक नहीं होता। आप जो भी लिखते और कहते हैं, वह एक साथ सारी दुनिया के लिए उपलब्ध होता है।
अब यह आप के विचार के मर्म और प्रासंगिकता पर निर्भर करता है कि उसे कैसा प्रसार
मिलता है। सोशल मीडिया ने अंकुश तोड़ दिए हैं। अभिव्यक्ति की इस बेरोक स्वतंत्रता
से कई बार सत्ताधारियों को अपनी चूल हिलती दिखती है और वे नियमन एवं पाबंदियों की
बातें करने लगते हैं। सोशल मीडिया की वजह से फैल रहे अभिव्यक्ति के दावानल से
स्थापित ताकतों को खतरा है। सोशल मीडिया धारणा और विश्वास बदलने में बड़ी भूमिका
निभा रहा है। भारतीय संदर्भ में अभी पर्याप्त सर्वेक्षण और अध्ययन उपलब्ध नहीं है।
पांच सालों के बाद अध्ययन और विश्लेषण से वास्तविक रूप में समझ में आएगा कि सोशल
मीडिया कैसे नियामक परिवर्तन का कारण बना।
पारस्परिकता इसकी दूसरी बड़ी विशेषता है। कुछ भी एकतरफा
और एकांगी नहीं रह जाता। अगर कोई राजनीतिक या अन्य महत्वपूर्ण हस्ती ट्विटर,फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया नेटवर्क के मंच पर
है तो आप अपनी बात उस ते पहुंचा सकते हैं। देखा जा रहा है कि महत्वपूर्ण हस्तियां
अपने फॉलोअर्स से सीधा संवाद स्थापित कर रही हैं। उनकी जिज्ञासाओं के जवाब दे रही
हैं। इन मंचों पर स्टेटस अपडेट करते ही प्रतिक्रियाएं आने लगती हैं। सोशल मीडिया
की इस पारस्परिकता का फायदा प्रोफेशनल व्यक्ति,व्यावसायिक उपक्रम और प्रशासनिक संस्थाएं उठा रही हैं।
मार्केटिंग का यह सस्ता और विश्वसनीय टूल भी बनता जा रहा है।
फिल्मों का संदर्भ
मेरा संबंध फिल्मों एवं फिल्म
पत्रकारिता से है। पिछले चार-पांच सालों में फिल्म इंडस्ट्री में सोशल मीडिया के
प्रभाव से गुणात्मक परिवर्तन आए हैं। सभी जानते हैं कि फिल्मों का वीकएंड कलेक्शन
और बिजनेस कितना महत्वपूर्ण हो चुका है। इस बिजनेस को बड़े स्तर पर सोशल मीडिया
निर्धारित कर रहा है। आरंभिक चर्चा से दर्शकों को थिएटर में बुलाने का सहयोगी काम
सोशल मीडिया कर देता है। फिल्मी हस्तियां और प्रोडक्शन हाउस अपने व्यवसाय और छवि
के हित में धड़ल्ले से सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं। अधिकांश लोकप्रिय
सितारे सोशल मीडिया नेटवर्क पर सक्रिय है। कुछ फिल्मों की रिलीज या सुविधानुकूल
अवसरों पर सक्रिय हो जाते हैं। यह एक ऐसा माध्यम है, जहां नियमितता जरूरी है। फिर भी अगर आप कुछ समय के लिए
अंतर्ध्यान होकर पुनः अवतरित होते हैं तो भी कोई शिकायत नहीं करता। फिर से परस्पर
संवाद कायम हो जाता है। हर बात करोड़ों यूजर्स तक पहुंचती है। फिल्म स्टारों के
ट्विट हजारों की संख्या में रिट्विट होते हैं। उनके स्टेटस की शेयरिंग का भी यही
आलम है।
सोशल मीडिया नेटवर्क के
सार्थक और बहुआयामी उपयोग के केस स्टडी हैं अमिताभ बच्चन। आरंभ में इस मीडिया से
अनभिज्ञ होने के वजह से वे संकोच में थे। उन्हें सोशल मीडिया गैरजरूरी और निजता को
उजागर करने वाला माध्यम लगता था। फिर 1823 दिन पहले (13 अप्रैल, 2013) के ब्लॉग पर आए। देखते ही देखते उनका
ब्लॉग लोकप्रिय हुआ और रोजाना लाखों पाठक उनसे जुड़ने लगे। किसी भी दिन उनके ब्लॉग
पर 500-1000 टिप्पणियां रहती हैं। उनके विचारों को प्रशंसक शेयर करते हैं।
पत्र-पत्रिकाएं और न्यूज चौनल उनके ब्लॉग, ट्विट और फेसबुक के स्टेटस से खबरें बनाते हैं। अमिताभ बच्चन को आज अपने बयान,
सफाई या प्रशंसकों के लिए किसी अन्य
मीडिया की जरूरत नहीं रह गई है। ट्विटर पर उनके 48 लाख से अधिक फॉलोअर हैं। फेसबुक
पर उनके पेज को लाइक करने वालों की संख्या 38 लाख से अधिक है। अधिकांश
पत्र-पत्रिकाओं के इतने पाठक नहीं होते। वे नियमित रूप से अपने ब्लॉग, ट्विट, फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया साइट को अपडेट करते हैं।
अपने विचारों को प्रकट करने के साथ वे प्रशंसकों (विस्तारित परिवार) की भावनाओं को
भी शेयर करते हैं।
और फिर सिर्फ अमिताभ बच्चन ही
क्यों? सारे लोकप्रिय स्टार सोशल
मीडिया साइट पर हैं। कुछ अपनी व्यस्तता,अनभिज्ञता और प्रमाद की वजह से सोशल मीडिया में निष्क्रिय हैं, लेकिन वे इस मीडिया के प्रभाव से नावाकिफ नहीं
हैं। यकीन करें देर-सबेर वे सभी एक्टिव होंगे और अपने प्रशंसकों से सीधा संवाद
करेंगे। कुछ महीने पहले शाहरुख खान ने ट्विटर पर अपने अपडेट बंद कर दिए। 9 जनवरी
को आखिरी ट्विट में उन्होंने लिखा ‘दुख
की बात है कि मैं इतने ज्यादा फैसले, राय, धार्मिक असहिष्णुता
और अंधी राष्ट्रभक्ति के बारे में पढ़ रहा हूं। मैं सोचता था कि यह मंच संकीर्णता
कम करेगा, लेकिन नहीं।‘ याद करें तो उन्होंने अपने खान होने की
मुश्किलों और द्वंद्वों के बारे में एक लेख लिखा था। उसकी प्रतिक्रिया में इंटरनेट
यूजर्स ने उन्हें धर दबोचा था। उकता कर उन्होंने ट्विट करना ही बंद कर दिया। इस
माध्यम के अंतर्निहित खतरे भी हैं, क्योंकि
यह किसी प्रकार की पाबंदी और नियंत्रण में नहीं है। बेरोकटोक प्रतिक्रियाएं
उद्वेलित कर सकती हैं। व्यक्तिगत स्तर पर बेचौन कर सकती है।
फिल्मों के संदर्भ में सोशल
मीडिया ने बिजनेस को बड़े स्तर पर प्रभावित करना शुरू कर दिया है। पहले दर्शक फिल्म
समीक्षकों की राय पढ़ कर फिल्म देखने या न देखने का निर्णय करते थे। ट्विटर और
फेसबुक ने फिल्म संबंधी धारणा का लोकतांत्रीकरण कर दिया है। अब हर दर्शक समीक्षक
है। वह ट्विटर या फेसबुक के जरिए अपनी राय जाहिर कर देता है। सिनेमाघर में बैठने
के साथ उनके ट्विट आरंभ हो जाते हैं। उनके ट्विट दर्शकों की इच्छा निर्धारित करने
लगते हैं। फिल्म व्यवसाय में कभी ‘मुंहामुंही‘
(वर्ड ऑफ माउथ) से फिल्में चलती थीं या
गिरती थीं। अब यह काम ट्विटर करने लगा है। निर्माता-निर्देशक रिलीज के दिन चल रहे
ट्विट से भांप लेते हैं कि उनकी फिल्म का क्या होने वाला है?
सोशल मीडिया नेटवर्क के
मनोवैज्ञानिक स्वरूप को भी समझने की जरूरत है। पूरे विश्व से ट्विटर के जरिए संवाद
कर रहा व्यक्ति उस क्षण खुद को फिल्म के स्टार, क्रिटिक या अन्य प्रभावी व्यक्तियों से कम नहीं समझता।
उसके ट्विट जनमत बनाते हैं। सवाल उठता है कि इस जनमत को कैसे नाथा जाए? उसे कैसेट एक धार या दिशा दी जाए? कई बार निर्माता-निर्देशक आरोप लगाते हैं कि
निगेटिव रिव्यू या ट्विट की वजह से उनके दर्शक बिदक गए। फिल्म इंडस्ट्री की
खेमेबाजी मशहूर है। विभिन्न खेमों के व्यक्ति प्रतिस्पर्द्धा में एक-दूसरे के
खिलाफ सक्रिय हो जाते हैं। वे सोशल मीडिया का बेजा फायदा उठाते हैं।
तकनीकी युग के नए परिवेश में
हमें सोशल मीडिया की बहुआयामी भूमिका को समझते हुए कदम उठाने होंगे। सोशल मीडिया
पर किसी प्रकार की पाबंदी फासीवादी सोच होगा। समाज के शिक्षित, बौद्धिक और संवेदनशील होने के साथ सोशल मीडिया
के सकारात्मक पक्षों का हम सदुपयोग कर पाएंगे। फिलहाल यह संक्रांति का दौर है। एक
नया माध्यम हमारे दैनंदिन जीवन का हिस्सा बन रहा है। हम अपने परिजनों और दोस्तों
को कुछ बताने के पहले सोशल मीडिया पर स्टेटस बदल कर अपनी भावना व्यक्त कर देते
हैं। यह इतना निजी, करीबी और
विश्वसनीय माध्यम हो चुका है।
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