पीरियड फिल्‍म : डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी





डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी का एक महत्‍वपूर्ण आलेख। उनका यह आलेख हिंदी फिल्‍मों में पीरियड फिल्‍मों की पड़ताल करता है। अपने धारावाहिक और फिल्‍म से उन्‍होंने साबित किया है कि पीरियड को पर्दे पर मूर्त्‍त रूप देने मेंवे माहिर हैं। इतिहास,संस्‍कृति और कला परंपरा की समुचित समझ के कारण वे समकालीन पीढ़ी के विशेष निर्देशक हैं। यह आलेख भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित भारतीय सिनेमा का सफरनामा में संकलित है। 

-डॉ.चंद्रप्रकाश द्विेवेदी
 
भारतीय सिनेमा ने अपने इतिहास का प्रारंभ राजा हरिश्चन्द्र से किया था.

कारण था दादा साहेब फालके का भारत के मिथकीय, पौराणिक और ऐतिहासिक आख्यानों में विश्वास.साथ ही यह विश्वास की भारत को पौराणिक आख्यानों से प्रेरणा मिल सकती है। उन्होंने अपनी और भारत की पहली फिल्म के लिए पौराणिक आख्यान चुना और उसके पश्चात भी अपनी रचना की यात्रा में भी उन्होंने कई फिल्मों के लिए पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों को अपने चल चित्र की कथा के केंद्र में रखा।

कभी कभी मैं सोचता हूँ कि क्या भारतीय फिल्मों के पितामह दादा साहेब फाल्के के सामने भी वही आदर्श था जो नाट्यशास्त्र के रचयिता भारत मुनि के सामने था कि लोक रंजन के लिए समाज में बहुश्रुत, लोकप्रिय और प्रचलित कथा को नाट्य के केन्द्र में रखा जाये.

क्या दादा साहेब फाल्के ने स्वतंत्रता के पूर्व भारत की विलुप्त संस्कृत नाट्य परंपरा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जो अपनी चेतना और कथ्य में भारत के पुराणों को सुरक्षित रखे हुए थी ?

या यह महज एक संयोग था कि दादा साहेब ने अपनी पहली फिल्म के लिए एक पौराणिक आख्यान या कथा का प्रयोग किया.

क्या दादा साहेब भारतीय समाज में कथाकथन की उस खोयी हुई कड़ी को फिर से ढूंढ लाये थे पर अब एक नए माध्यम में – जिसे हम सिनेमा कहते हैं ?

सच चाहे जो भी रहा हो,भारत की स्वतंत्रता के साथ हमारे फिल्मकारों ने एक नए उत्साह के साथ भारत के सांस्कृतिक मूल्यों और उसकी धरोहर को चित्रांकित करने का प्रयास प्रारंभ किया.वे भूली बिसरी कहानियों को फिर से समाज के बीच में ले आए। सैकड़ों वर्षों की विदेशी आक्रांताओं की दासता के कारण हमारी संस्कृत और लोक नाट्य की परंपरा लुप्त हो गई थी।

अतीत का गौरव विस्मृत हो गया था.अतीत और वर्तमान के बीच की कड़ियाँ उध्वस्त हो गयी थी.

कई विदेशी और भारतीय विद्वानों ने भारत के इतिहास को ढूँढने का प्रयत्न किया.उसके परिणाम स्वरुप कुछ संस्कृत नाटक फिर से प्रकाश में आये पर मोटे तौर पर वह लोक जीवन का हिस्सा नहीं था.

अतीत और वर्तमान, भूत और भविष्य, को जोडनेवाली विस्मृत “स्मृतियों” को पुनर्जीवित करने के प्रयास में भारतीय सिनेमा ने भी अपना हाथ बंटाया.

भारत की स्वंतंत्रता के बाद कई सिनेमा के शिल्पकार नए संकल्प के साथ उभरे और देश ने कई पौराणिक और ऐतिहासिक चल चित्र देखे.  

इनमे रामायण,महाभारत जैसे महाकाव्य भी थे.तो झाँसी की रानी,सिकंदर, मुगले आज़म,आम्रपाली जैसी फ़िल्में जो इतिहास में अपनी ज़मीन तलाश कर रही थी.

महाकाव्यों की कथा भूमि से कई अलग अलग फ़िल्में भी बनी.भारतीय जन मानस की इन महाकाव्यों के चरित्रों में आस्था भी थी और सिनेमा के जादुई माध्यम में आकर्षण भी था. भारतीय समाज में सैकड़ों वर्षों से होती आ रही राम लीला अब नए रूप में परदे पर आयी.वैसे की कृष्ण लीला भी सिनेमा के नए रूप में दर्शकों के सामने आयी.इनमे से कई फ़िल्में लोकप्रिय भी हुई.

यहाँ स्मरण कराना आवश्यक समझता हूँ महाकाव्यों के आख्यान या इतिहास का सिनेमा में सृजन सिर्फ उत्तर भारत में ही नहीं हो रहा था बल्कि दक्षिण भारत में उसका आवेग उत्तर भारत की अपेक्षा ज्यादा था.एम्.जी.रामचंद्रन,एन.टी.रामाराव,अक्किनेकी नागेश्वर राव की अभिनय और सृजन की यात्रा में पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्मों का बड़ा योग दान था.

इसी तरह शोहराब मोदी ने ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से हिंदी फिल्म जगत में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया.

हिंदी फिल्मों में मुगले आज़म ने सिंहनाद किया.अपार लोकप्रियता ने मुगले आज़म को मील का पत्थर बना दिया.भारतीय और हिंदी सिने जगत के दो महान कलाकारों को इसने विशेष पहचान दी.ये थे पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार.मुगले आज़म इतिहास में अपनी कहानी की ज़मीन ढूँढने वाले के लिए चुनौती बन गयी.

मैंने कुछ वर्षों पहले ही मुगले आज़म का रंगीन संस्करण देखा.उसकी भव्यता कल्पना का वितान और विस्तार अतुलनीय है.

मेरी व्यक्तिगत दृष्टि में मुगले आज़म एक ऐतिहासिक काल में,कतिपय ऐतिहासिक महानायकों और चरित्रों के साथ अविस्मरणीय कल्पना का सृजन है.अनारकली की ऐतिहासिकता पर प्रश्न चिन्ह है.पर मुगले आज़म का अधिकतर कार्य व्यापार सलीम और अनारकली के प्रेम के संघर्ष,असफलता,त्याग और अनारकली के उत्सर्ग की कथा की काल्पनिक उड़ान है.

मुगले आज़म में पिता और पुत्र का संघर्ष है पर कथा में तत्कालीन समाज की स्थिति और उसका संघर्ष लुप्त है.देश की जिस दुर्दशा का वर्णन तुलसी के साहित्य में मिलता है उसका प्रतिबिम्ब फिल्म में नहीं है.कारण साफ़ है कथा कि भावभूमि प्रेम है,प्रेम की मीठी कल्पना है,इतिहास नहीं.

अपनी तमाम श्रेष्ठताओं के बावजूद यह फिल्म अपने समाज के इतिहास का लेखा जोखा नहीं हो पाती.क्यों कि कथा के मूल में चरित्रों का संघर्ष है.समाज का नहीं.

महान स्वप्नद्रष्टा और सफल निर्देशक के.आसिफ की कल्पनाशीलता, सृजनात्मकता, कौशल और उनके महान संघर्ष की गाथा है मुगले आज़म.पर यही हिंदी सिनेमा की इतिहास बोध की ओर इशारा भी करती है.

ऐतिहासिक कही जाने वाली फिल्मों में इतिहास कम और कल्पना का विस्तार ज्यादा रहा है.मुगले आज़म की इतिहास बोध की पृष्ठ भूमि में जब मैं आशुतोष गोवारिकर की जोधा अकबर, संतोष सिवन की अशोक और केतन मेहता की “द राईजिंग –मंगल पांडे” को देखता हूँ तो यही पाता हूँ कि ऐतिहासिक कही जाने वाली इन फिल्मों में प्रेम की संभावना को तो जरुर टटोला गया पर समाज की पीड़ा,उत्पीडन,आशा,आकांक्षा,समाज में हो रहे सामाजिक,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिवर्तन को अनदेखा कर दिया गया.कारण साफ़ है जोधा अकबर में भी सांप्रदायिक सौहार्द के नाम पर एक प्रेम कथा का विकास,अशोक में भी महान कहे जाने देवनाम प्रिय और प्रियदर्शी अशोक की अनसुनी,अनकही प्रेम कथा का सृजन और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक मंगल पांडे के जीवन में भी प्रेम के एक सूत्र को ढूँढने का प्रयास.मुगले आज़म से मंगल पांडे तक हमारे फिल्मकारों को प्रेम की भाव भूमि अधिक आकर्षित करती है बनिस्पत समाज के संघर्ष के.और यही वह ज़मीन है जहाँ इतिहास पीड़ित हो उठता है.हालाँकि ये सभी फ़िल्में सिनेमा के शिल्प के किसी न किसी पक्ष में उत्कृष्टता के नए मापदंड गढ़ रही थीं.जोधा अकबर अपनी भव्यता,सुंदरता,कला निर्देशन में उत्कृष्ट थी तो अशोक में संतोष सिवन अनदेखे बिम्बों के साथ प्रयोग कर रहे थे.अति सीमित साधनों में काल के निर्वाह करने का उन्होंने नया प्रयोग किया.वहीं मंगल पांडे भी अपनी विशालता और काल को जीवित करने के कौशल के लिए सराहनीय थी.

इसके ठीक विपरीत काल्पनिक कही जा सकने वाली ऐसी कई फ़िल्में रही हैं जिन्होंने अपने काल के समाज का इतिहास प्रस्तुत किया है.अपने समाज के संघर्ष को मुखरित किया है.मदर इंडिया और दो बीघा ज़मीन इसके उत्कृष्ट उदहारण हैं.

ऐसी भी कई फ़िल्में रही जिसने इतिहास के किसी काल खंड को अपनी कथा कहने के लिए चुना पर वे ऐतिहासिक फ़िल्में नहीं थी न ही इतिहास की रचना उनका उद्देश्य. आशुतोष गोवारिकर की “लगान” इस श्रेणी की एक अति लोकप्रिय और सफल फिल्म थी.

शहीद भगत सिंह पर अलग अलग निर्देशकों द्वारा कई फ़िल्में बनी.इनमें कुछ स्तरीय फ़िल्में थी.पर सफलता के मापदंड पर कई फ़िल्में असफल रही.

भारत पाकिस्तान के विभाजन की पृष्ठ भूमि को लेकर भी कई फ़िल्में बनी.अनिल शर्मा की ग़दर एक अत्यंत सफल फिल्म थी जो विभाजन के इतिहास की पड़ताल तो नहीं करती पर उसके परिणाम की एक मार्मिक और साहसिक कथा कह जाती है.ग़दर ने सफलता का इतिहास रचा.मेरी दृष्टि ने ग़दर में उत्कृष्टता की ओर लक्ष्य करने वाली सभी संभावनाएं थी, पर संभवतः उसका स्वर और शैली अतिरंजना की शिकार हो गयी.

विभाजन के बाद के परिणामों से जूझते भारत के मुस्लिम समुदाय की त्रासदी और उनके सामने खड़ी चुनौतियों और उससे सामना करने के उनके संकल्प को दिखाने वाली एम्.एस.सथ्यू की “गर्म हवा” को कौन भुला सकता है. गर्म हवा मील का पत्थर है.पर यह फिल्म भी कुछ हद तक दूसरे हिंदी सिनेमा की तरह प्रेम के प्रहार से न बच सकी.

विभाजन की ही पृष्ठ भूमि पर बनी गोविन्द निहलानी की “तमस” (छः भागों में) तत्कालीन राजनीति,सामाजिक परिस्थितियां और विभाजन की त्रासदी से जूझते व्यक्ति और समाज का उत्कृष्ट लेखा जोखा है.भीष्म साहनी के उपन्यास पर बनी यह फिल्म अविस्मरणीय है.इसके अतिरिक्त कला निर्देशन,छायांकन,और अभिनय के मापदंडों पर तमस को मैं विभाजन की पर बनी फिल्मों में सबसे अग्रणी स्थान दूंगा.

इसके अतिरिक्त “ट्रेन तो पाकिस्तान” दीपा मेहता की “अर्थ” और चन्द्रप्रकाश द्विवेदी की “पिंजर” विभाजन की त्रासदी को अलग अलग रूपों में अभिव्यक्त करती हैं.

हाल ही में बनी राकेश ओमप्रकाश मेहरा की “भाग मिल्खा भाग” एक अति उल्लेखनीय फिल्म है जो अपनी कथा में एक खिलाडी के संकल्प,साहस,सफलता और पीड़ा की महान गाथा कहती है.यह खिलाडी है भारत के फ्लाईंग सिक्ख मिल्खा सिंह.अपने काल बोध के निरूपण की यह उत्कृष्ट फिल्म है.जिसमें विभाजन की पीड़ा और एक खिलाडी के अंतस पर उसके प्रभाव को जिस प्रकार से निर्देशक ने प्रस्तुत किया है वह अविस्मरणीय है.फरहान अख्तर के उत्कृष्ट अभिनय और पुरुषार्थ के लिए भी यह फिल्म लंबे समय तक याद की जायेगी. “भाग मिल्खा भाग” में भी प्रेम का तडका हिंदी फिल्मों की विवशता की ओर संकेत करती है.यहाँ यह उल्लेख करना भी उचित रहेगा की की अपनी अत्यंत सफल फिल्म “रंग दे बसंती” में राकेश ओमप्रकश मेहरा ने अतीत और वर्तमान के बीच की यात्रा कर दोंनों कालों का सुन्दर संगम किया है.

संजय लीला भंसाली की देवदास,ब्लेक,हम दिल दे चुके सनम,सांवरिया - ये सभी फ़िल्में उनके कौशल और उनके सौंदर्य बोध के कारण उल्लेखनीय हैं.इन सभी फिल्मों का कथ्य ऐतिहासिक नहीं है पर ये सभी किसी न किसी काल के बोध का आभास देती है.संजय लीला भंसाली का चित्र फलक इतना व्यापक होता है कि वे काव्यात्मकता के साथ चाहे न चाहे,किसी काल्पनिक ही सही - काल को ओढ़ लेती हैं. प्रेम और श्रृंगार उनकी अधिकतर फिल्मों की प्रेरणा रहा है.और वे अपने सौंदर्य बोध में अपना सानी नहीं रखते.

यहाँ मैं उन चार फिल्मों का उल्लेख करना आवश्यक समझाता हूँ जिन्होंने हिंदी सिनेमा को रेखांकित किया है.वे हैं कमल अमरोही की पाकीज़ा,गिरीश कर्नाड की उत्सव,मुज़फ्फर अली की “उमराव जान” और श्याम बेनेगल की जुनून.इन सभी फिल्मों में एक विशिष्ट काल का सृजन है.सभी कला के मापदंडों पर श्रेष्ठता के लिए स्पर्धा करते हैं.किसी में काव्यात्मकता,किसी में भव्यता,सभी में उत्कृष्ट अभिनय और निर्देशकीय कौशल. चारों फ़िल्में “पीरियड ड्रामा” के अनुपम उदहारण.

इतिहास के साथ उसका काल निश्चित होता है पर कालखंड में ऐतिहासिक कथा या चरित्र हो यह आवश्यक नहीं.योगानुयोग इन सभी फिल्मों में “प्रेम की भूमि” भी है.

मेरी दृष्टि में भविष्य के उन सिनेमाकारों के लिए इतिहास एक बड़ी चुनौती है जो इतिहास में अपनी कथा ढूंढ रहे हैं.ऐसी कथा जिसमे महानायक हो,और उसके समक्ष महान सामाजिक,राजनैतिक चुनौतियाँ भी हो.ऐसे ऐतिहासिक चरित्र जिन्होंने अपने महान पराक्रम से देश और समाज की दिशा बदल दी हो.इतिहास को नया मोड दे दिया हो.

यह भी संभव है कि महान संघर्ष और चुनौती भरे देश के काल खंड में काल्पनिक चरित्रों द्वारा समाज और देश की आशा अभिलाषा और उनके संघर्ष को वाणी दी जाये.

इतिहास सिर्फ ऐतिहासिक घटनाओं की तारीख और महानायकों की जय पराजय,उनके जन्म मृत्यु का उल्लेख नहीं है बल्कि उन अपरिलक्षित कारणों की विवेचना है जो जय पराजय,सफलता असफलता,उत्थान पतन, विकास विनाश,सृजन और ध्वंस् के मूल कारण में हैं.

समाज और देश को आईना दिखाता है इतिहास.समाज और सभ्यता के विकास या विनाश की कहानी है इतिहास.और जो दिखाई नहीं दे रहा वहीं कल्पना की आँखों से रचनाकार देखने का प्रयत्न करता है.और जो उसने देखा है उसी से वह अतीत को वर्तमान से जोडने की कोशिश करता है.काल के,इतिहास की उस न दिखाई देने वाली कड़ी को ढूँढने का प्रयास ही इतिहास में अपनी ज़मीन ढूँढने वाले फिल्मकारों के लिए चुनौती है.इसलिए जहाँ इतिहास चुप है वहीं साहित्यकार,फिल्मकार मुखर है.

क्या कारण है कि जिस भारतीय सिनेमा का प्रारंभ राजा हरिश्चंद्र से होता है उसी सिनेमा जगत में पुराण,इतिहास और प्राचीन भारतीय साहित्य पर वर्तमान में सिनेमा का अभाव है.यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है कि यदि एक दर्शक के रूप में हम सिनेमा में वर्चस्व रखने वाले पश्चिम की ओर देखें और खास कर अमेरीका की ओर तो हम पाते हैं कि उनके सिनेमा में अतीत की कथा,ऐतिहासिक या पौराणिक कथा या कल्पना लोक में विचरण करने वाले सिनेमा का अभाव नहीं है.रहस्य,रोमांच,शौर्य,दर्शन,प्रेम,युद्ध,उत्पीडन,मनुष्यता का शांति के लिए सतत संघर्ष,रंग भेद के विरुद्ध उस समाज का विद्रोह,जैसे कई विषयों पर वह समाज सिनेमा बनाता आ रहा है.द्वितीय विश्व युद्ध की त्रासदी को लेकर लगातार सिनेमा बन रहा है और वह सफल भी है.

क्या वहाँ का दर्शक हमारे यहाँ के दर्शक से भिन्न है ?

क्या हमारा सिनेमा किसी एक बिंदु पर आकर ठहर गया है ?

क्या हम प्रयोग से डर रहे हैं ?
क्या भारतीय सिने निर्देशक अतीत को वर्तमान से जोडने में असफल हो रहे हैं ?

या हम आत्म विस्मृत समाज है जो अतीत को दकियानुसी समझता है.या हम आत्म और अतीत की प्रताडना से ग्रस्त हैं.या भारत की मिटटी में हम अपनी जड़ें और पहचान नहीं ढूंढ रहे.

जिस देश के पास हजारों वर्षों का इतिहास और जिसके राष्ट्र जीवन में परंपरा और संस्कृति का अनवरत प्रवाह बह रहा है वह इस संकट से कैसे जूझ रहा है कि भारतीय इतिहास के कई महानायकों की कथा कहने में हमारा बाज़ार असमर्थ है.

विचित्र तथ्य यह है की भारतीय टेलीविज़न पर तो इतिहास और मिथक को लेकर कई प्रयोग हुए पर भारतीय सिनेमा वह साहस नहीं दिखा सका.

क्या भारतीय सिनेमा का लोकप्रिय “फोर्मुला” इसमें बाधा है.या हिंदी सिनेमा में प्रणय, प्रेम,और युवाओं की मांग और मानसिकता के अनुकूल सिनेमा ही हमारा सिनेमा है.क्या पलायनवादी सिनेमा ही हमारे सिनेमा का भविष्य है ?

कहीं ऐसा तो नहीं है कि दर्शकों की ऐतिहासिक और पौराणिक चल चित्रों से अपेक्षा के मापदंड पर हम खरे नहीं उतर रहे ?

आज विश्व के श्रेष्ठ चलचित्र हमारे रसिक दर्शकों के लिए उपलब्ध हैं.दर्शक का कला बोध और अभिरुचि निरंतर बदल रही है.तकनीक के निरंतर विकास ने चित्रों का रूप बदल दिया है.असंभव लगने वाले बिम्बों का सृजन हो रहा है.ईश्पेशियल इफेक्टस् ने सपनों को नई उड़ान और आकाश दिया है.

विश्व सिनेमा में निरंतर हो रहे परिवर्तन और प्रयोग की पृष्ठभूमि अथवा परिदृश्य में भारतीय सिनेमा कहाँ है ?

मैंने अपने ऐतिहासिक सिनेमा बनाने के कुछ असफल प्रयत्नों में पाया कि न हमारा बाज़ार अभी भी ऐतिहासिक सिनेमा के लिए तैयार नहीं है.न ही लोकप्रिय कलाकार इतिहास और मिथक को लेकर उत्साहित हैं.जहाँ एक बड़ा कारण लागत है, वहीं दूसरा कारण मुझे पौराणिक या ऐतिहासिक बिम्बों,चरित्रों और समाज के चित्रण में समय के साथ विकास का अभाव दिख रहा है.

दूसरे शब्दों में लोकप्रिय कलाकार “केलेंडर आर्ट” का हिस्सा या दीवार पर लटके केलेंडर नहीं बनना चाहते.

क्या है यह केलेंडर आर्ट ?

केलेंडर आर्ट के जनक राजा रवि वर्मा ने अपने चित्रों के लिए पौराणिक चरित्रों या मिथकीय स्त्री पुरुषों का चुनाव किया.उन्होंने अपनी कल्पना से एक पौराणिक पात्रों और सृष्टि की रचना अपने सुन्दर चित्रों में की.

हमारे देवी,देवताओं,महाकाव्यों के पात्रों और प्राचीन भारत के कई ऐतिहासिक स्त्री पुरुषों की कल्पना को राजा रवि वर्मा ने अपने रंगों और कूची से की.भारतीय जन मानस पर उसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे चित्र आज भारतीय जनमानस की चेतना का हिस्सा हो गए हैं.राजा रवि वर्मा के बिम्बों का आधार “टेम्पल आर्ट” या मंदिरों के शिल्प रहे हैं.कुल मिलकर राजा रवि वर्मा ने प्राचीन भारतीय शिल्प कला को ही अपने चित्रों का आधार बनाया.इसके अतिरिक्त कुछ चित्रों में उन्होंने अपने समाज की लोक संस्कृति/सभ्यता को भी जोड़ दिया.यह ठीक वैसा ही है जैसे कुछ मुग़ल कालीन चित्रों में हम कृष्ण को मुग़ल कालीन वेशभूषा में देखते हैं.

पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर  काम करने वाले हमारे आरंभिक निर्देशकों ने राज रवि वर्मा की चित्र सृष्टि ( केलेंडर आर्ट ) और मंदिरों की दीवारों पर उकेरे गए शिल्पों से ही प्रेरणा ली.

इसमें संदेह नहीं कि मूर्ति कला में दिखाई देने वाली सभ्यता या लोक जीवन अपने काल का प्रतिनिधित्व करता है.भरहुत,साँची,खजुराहो,कोणार्क के मंदिर और दूसरे प्राचीन स्मारक अपने काल के जन जीवन की झांकी प्रस्तुत करते हैं.उस काल का साहित्य या वांग्मय भी उसका समर्थन करता है.परन्तु मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि मंदिरों के शिल्प, स्तूपों पर उकेरी गयी आकृतियाँ उस काल के जीवन को अपनी सम्पूर्णता के साथ अंकित नहीं करती.

महाकाव्यों के समाज,दर्शन,तत्त्व ज्ञान,शिक्षा,उद्योग,और राजनीति को समझने के लिए महाकाव्यों में वर्णित जीवन में भी झांकने की भी जरूरत है.उसी प्रकार किसी भी काल खंड के जीवन को समझने के लिए उस काल में लिखी गयी रचना,साहित्य,धर्मं ग्रन्थ इत्यादि की पड़ताल करना भी जरुरी है.

हमारे सिनेमाकारों ने केलेंडर आर्ट या टेम्पल आर्ट से बिम्ब तो ले लिए पर जीवन की सच्चाइयों (social realities) पर बहुत कम ही उनका ध्यान गया.

हमने वेदों में वर्णित देवताओं को तो चित्रों में अंकित कर दिया पर वैदिक समाज की वास्तविक स्थिति,उनका संघर्ष,उनकी समाज  व्यवस्था,उनका दर्शन,उनके उद्योग,आवागमन उनका दैनंदिन जीवन पीछे छूट गया.रामायण और महाभारत के पात्रों को हमने चित्रों में गढ़ लिया पर महाकाव्यों में ही दर्शाये गए जीवन को हम पूरी प्रमाणिकता के साथ अंकित नहीं कर पाए.

प्राचीन भारत के इतिहास को समझने के लिए अनेक शोध हुए.कला और जीवन के प्रत्येक अंग से सम्बंधित इतिहास और साहित्य का विकास हुआ.भवन कला,पुरातत्व शास्त्र,वेश भूषा,लिपि,प्राचीन बौद्ध,जैन और विदेशी ग्रंथों में वर्णित भारत को ढूँढा गया.
इतिहास की पुस्तकें बढती गयी, इतिहास का साहित्य में फिर से सृजन होता गया,इतिहास का उत्खनन होता गया पर प्राचीन भारत के बिम्ब राजा रवि वर्मा के चित्रों या मंदिर कला के शिल्पों में स्थिर हो गए.

उन चित्रों में दिखाए गए संसार का नयी खोजों के प्रकाश में में परिवर्तन नहीं हुआ,उसका विकास नहीं हुआ.उन बिम्बों पर बहस नहीं हुई,उन्हें चुनौती देना तो दूर रहा.

संक्षेप में मेरी व्यक्तिगत राय में हमारे सिनेमा के पौराणिक या ऐतिहासिक कहे जाने वाले प्राचीन भारत के बिम्ब अभी भी राजा रवि वर्मा के ही हैं.हमारी कल्पना या काल की तथाकथित वास्तविकता राजा रवि वर्मा के चित्रों सी जड़ हो गयी है.

यह जडता नए सिनेमाकारों के लिए बड़ी चुनौती है.

हमारे पास वैदिक काल के बिम्ब के सन्दर्भ उपलब्ध नहीं है पर वैदिक साहित्य में जीवन का हर रूप वर्णित है.नए फिल्मकारों को उन्हें अब सिनेमा में उकेरना है.हमारे पास रामायण और महाभारत के बिम्ब उपलब्ध नहीं है पर दोंनों ही महाकाव्यों में वर्णित जीवन और इन महाकाव्यों पर लिखे गए साहित्य, प्रबंध,निबंध इत्यादि हमें सच्चाई के नजदीक ले जाने में मदद कर सकते हैं.

बुद्ध के काल का सजीव वर्णन हमें बौद्ध ग्रंथों में मिलता है.इसी प्रकार प्राचीन भारत के जन जीवन का वर्णन हमें प्राचीन साहित्य में मिलता है.

जब से बुद्ध और बुद्ध कथा पाषाणों में उकेरी जाने लगी तब से हमें तत्कालीन जीवन की झांकी का एक पहलू मिल जाता है.समकालीन साहित्य और समकालीन शिल्प कला के बीच सामंजस्य स्थापित कर हमारे नए सिनेमाकार नए बिम्ब गढ़ सकते हैं.

हमारे पास मुग़ल कालीन स्थापत्य भी है,चित्र कला भी है और मुग़ल कालीन साहित्य भी है.

आज़ादी के पहले और बाद के इतिहास का लेखा जोखा पन्नों में भी है और कुछ चित्रों में भी है.

आवश्यकता है कि हम चरित्रों के उसके समाज और देश का भी चित्र प्रस्तुत करें.और आज हमारे पास जन जीवन के इतिहास को समझने के लिए प्रचुर शोध सामग्री उपलब्ध है.जरुरत है शिल्प कला,चित्र कला के सौंदर्य बोध और फिल्म कला के सौदर्य बोध में सामंजस्य बैठाने की.

आज के सिनेमा के राजा रवि वर्मा के पास शोध के स्तर वह सब कुछ उपलब्ध है जो महान चित्रकार और कलाशिल्पी राजा रवि वर्मा के पास नहीं था.आज हमारे साथ कला इतिहासकार,पुरातत्व शास्त्री,लिपि शास्त्री,और डिजिटल पेंटर भी हैं.









आज हम प्राचीन पाटलिपुत्र या राजगृह के काल विशेष को प्रमाणिकता के साथ फिल्म में निरुपित कर सकते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अतिरिक्त, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांत,समकालीन साहित्य और अब पुरातत्व के अवशेष हमारी सहायता कर सकते हैं.

अब आवश्यकता है कि हम कहानी के साथ पार्श्व भूमि के शिल्पों पर भी काम करें. पश्चिम का फिल्मकार अपने पौराणिक आख्यानों पर काम करते समय दोनों विशेषताओं पर ध्यान देते हैं। उदहारण के लिए हम टेन कमांडमेंट्सया “बेनहर”  देखें। दशकों पुरानी ये फिल्में आज भी नवीन लगती हैं। किसी भी दृष्टि से हम आज भी इन दो फिल्मों के स्तर को नहीं छू पा रहे हैं। उन्होंने देश, काल और परिस्थिति में अपने पौराणिक कथानक को इस तरह बाँध दिया है कि अब उसमें बहुत बड़े परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती.क्लियोपेट्राके चरित्र को लेकर पश्चिम में दो फिल्में और एक लघु धारावाहिक बन चुका है। तीनों को क्रमशः देखें तो हर रचना पहले से बेहतर और नए अनुसन्धान के साथ प्रस्तुत की गयी है है। ज़ाहिर है कि यह निरंतर अभ्यास का परिणाम है और नया सिनेमाकार पिछली रचना को चुनौती देता दिखाई पडता है.  रोम और रोमन साम्राज्य को केंद्र में रखकर कई फ़िल्में और लघु धारावाहिक बने हैं और जितनी बार हम रोम को देखते हैं, हर बार एक नया अध्याय जुड़ता जाता है।

क्या हम कभी हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ को इतिहास में स्थापित कर पाएंगे ? 

किसी भी राज्य का आधार अर्थ होता है। अर्थ कहां से आता होगा ?  क्या हम कभी महाभारत या किसी पौराणिक फिल्म में उद्योग, व्यवसाय और  कृषि से अर्थ का आवागमन देख पाएंगे ? क्या हम किसी भी फिल्म में कृषि और कर की व्यवस्था को भी देख पाएंगे ? क्या हम कभी युद्धिष्ठिर या दुर्योधन को खेतों के बीच देख पाएंगे ? क्या यातायात के माध्यम से “कर” के तौर पर अनाज किसी छोटे से ग्राम से राजधानी तक कैसे पहुंचता होगा, देख पाएंगे ?

क्यों भागवत में मथुरा और गोकुल के बीच में निरंतर प्रवास हो रहा है ?  क्यों गोकुल से दूध,दही और गोधन मथुरा जा रहा है?  अर्थ उपार्जन के साधन, व्यवसाय,उद्योग,उत्तरापथ और दक्षिणापथ पर फ़ैल रहा उद्योग और साम्राज्य,और  समाज सिनेमा से नदारद है.

मुझे लगता है कि अभी भी हमारा पौराणिक और ऐतिहासिक कहा जा सकने वाला सिनेमा कुछ अपवादों को छोड़कर,वास्तविकता और प्रमाणिकता से  दूर है।

प्रश्न है इतिहास क्यों बनता है?

इतिहास बनने के अनेक कारण होते हैं.असामान्य अथवा भीषण सामाजिक परिस्थितियां, समाज के सामने बड़ी चुनौतियां, महान संघर्ष जो पूरी सभ्यता से अपने प्रश्नों के उत्तर और बड़े परिवर्तन की मांग रहा हो और ऐसे वातावरण जब एक महानायक पैदा होता है, जो महान श्रम और महान पराक्रम करता है। महान स्थितियों और महान व्यक्तित्वों के योग से इतिहास रचा जाता है.
बुद्ध को ही लीजिए.
बुद्ध के आने के पहले वैदिक व्यवस्था से किस तरह से समाज में निराशा है। समाज परिवर्तन की मांग कर रहा है। बुद्ध के समकालीन कई विचारक हैं। एक ओर आत्मा का दर्शन ले याज्ञवलक्य खड़ा है तो दूसरी ओर  मक्कली गोशाल भी अपना मत प्रवर्तन कर रहा है.लोकायत भी है.चार्वाक दर्शन भी है.महावीर का भी दर्शन भी प्रचलित हो रहा है  और ऐसे बौद्धिक मंथन के युग में बुद्ध भी आते हैं.वे “धम्म” को लेकर आगे बढ़ते हैं। विचारों में जितनी विविधता है और जो परस्पर संघर्ष है। क्या वह हमारे सिनेमा में अभिव्यक्त हुआ?

भारत की बौद्धिक परंपरा की एक झलक भी हमारे सिनेमा में नहीं आयी.हमारा सिनेमा बड़ा होता जा रहा है.सफल होता जा रहा है पर क्या वह गहरा हो रहा है ?

हाल का ही उदाहरण दूंगा। लाइफ ऑफ पाईनाम की एक फिल्म आती है.यह एक  असाधारण परिस्थियों में समुद्र में फंसे एक युवक की कहानी है। 272 दिन एक व्यक्ति अथाह समुद्र के बीच में है। समुद्र में जीने के लिए उसका संघर्ष.प्रकृति और उसके(मनुष्य ) बीच क्या संबंध है? प्रकृति में विश्वास और उसके प्रति समर्पण - को लेकर कितना बड़ा दर्शन लेकर निर्देशक एंग ली दर्शकों के सामने आते हैं.ऐसा दर्शन जो पूरी मनुष्यता के लिए,सर्वकालिक और मेरी दृष्टि में पूरी तरह से भारतीय भी.

क्या हमारे सौ साल के इतिहास में ऐसी फिल्म है ?

मैं कहना चाहूँगा कि,जो देश दर्शन के लिए जाना जाता है उसके पास ऐसी कोई दार्शनिक फिल्म नहीं है. हमने दर्शन,विचार,समाज के संघर्ष,संघर्ष से विकास की यात्रा को कभी सिनेमा का विषय नहीं माना.

भारत की भूमि में विषयों और व्यक्तियों की कमी नहीं है। वैदिक युग में न संघर्ष, न कथा, न विचार और न दर्शन का अभाव है.वहाँ प्रेम का हर कोण भी है.विचित्र संयोग है कि लाइट ऑफ एशियानामक फिल्म ब्लैक एंड ह्वाइट के युग में बनती है। आजादी के 66 साल बाद भी हम बुद्ध पर एक फिल्म बनाने में असमर्थ है.जब कि बुद्ध आज पहले से ज्यादा प्रासंगिक और वैश्विक हैं.

 इतिहास के पन्नों में महान नायकों का अभाव नहीं है.

क्या चाणक्य,चंद्रगुप्त,पाणिनि,पतंजलि,प्रियदर्शी अशोक, धर्म विवर्धन कुणाल, हर्षवर्धन  कनिष्क,समुद्रगुप्त,गुप्तकालीन चन्द्रगुप्त को हम भारतीय सिनेमा में देख पाएंगे ?
कब हमें याज्ञवल्क्य,शंकाराचार्य, मंडन मिश्र,बाण भट्ट,नागार्जुन,नागसेन,कालिदास,भास,भवभूति,वात्स्यायन आकर्षित करेंगे ?

क्या दक्षिण भारत में संगम काल में रचित महाकाव्य सिनेमा का विषय नहीं होंगे ?

तक्षशिला, मोहन जोदाड़ो,नालंदा,विक्रमशिला,ने भारत का चरम देखा है.कई कहानियां उनके इतिहास के गर्भ में छिपी हुई हैं. भारत के विभिन्न ऐतिहासिक काल जिन्होंने विकास और विनाश दोंनों देखें हैं में भी काल्पनिक कहानियों के माध्यम से सभ्यता,संस्कृति,और दर्शन का उद्घाटन हो सकता है.न आख्यानों की कमी है,न ग्रंथो की. कथा सरित्सागर, वृहद्कथा मंजरी, जातक कथाएं,कल्हण की राजतरंगिणी में समाज के इतिहास और मनोरंजक कहानियों का अभाव नहीं है.

भारत में आये चीनी यात्रियों के यात्रा वृतांत भारत की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं.किस तरह से बौद्ध दर्शन और योग दर्शन/सूत्र भारत से बाहर गया। किस तरह से भारत और चीन के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ। आज हम बोरोबदुर और बाली के हृदय में बसे भारत की बात करते हैं। विश्व का सबसे बड़ा मंदिर हमें बाली में दिखता है। क्या उसका निर्माण रातों-रात हो गया?  ज़ाहिर है भारत और उनके बीच में सांस्कृतिक आदान-प्रदान की एक बृहत् परंपरा रही होगी। पर यह सब हमारे सिनेमा का हिस्सा अभी तक नहीं बना है.अजंता एलोरा, महाबलिपुरम,विजय नगर साम्राज्य के के भग्नावशेषों, में कोणार्क के सूर्य मंदिर  और खजुराहो के मंदिरों के मिथुन शिल्पों में रोमांच से भर देने वाली  कई रोचक कहानियां दबी हुई हैं.  

अब ज़रा विश्व सिनेमा में इजिप्त को लेकर जिज्ञासा को ही देख लीजिए.पिरामिड और ममी को लेकर कई फ़िल्में पश्चिम में बन चुकी हैं पर जिस देश के कण-कण में इतिहास है वह अपने इतिहास के प्रति उदासीन है.एक पर्वत को काट कर कैलाश मंदिर बनाया जाता है। हम उसकी काल्पनिक कथा भी कहें तब भी हमारे पास कितना कुछ है। खजुराहो के मंदिर तीन सौ वर्षों में बनते हैं। उनके निर्माण के पार्श्व में कौन सा दर्शन है.कैसा है वह समाज जो मिथुन मूर्तियों को मंदिरों की दीवारों पर स्वीकार करता है. उसके पीछे का कौन सा साम्राज्य है?  कौन हैं वे लोग हैं?  कौन हैं हाथ हैं,जो उसकी रचना कर रहे है.भारत के पास विश्व को देने के लिए महान कहानियां हैं, अद्भुत कहानियां हैं।   

भारत ऐसा देश है जिसमें लोग मन के पार भी जा चुके हैं। वह क्या विद्या है?  क्या है वह कला- जहां व्यक्ति सुख-दुख से परे जा सकता है। मेरी राय में भारत का सिनेमा मोटे तौर पर अभी भी भारतीय दर्शक की मनोरंजन की मांग को ही पूरा करा रहा है.वह कला के रूप में विकसित नहीं हुआ है.

इतिहास,मिथक,पौराणिक कथाएं आधुनिक समाज,युवाओं और बाज़ार को आकर्षित नहीं करती की हमारी धारणा को अमेरिका झूठलाता रहता है।  

महात्मा गाँधी पर हमें महान फिल्म अमेरीका ही तो देता है.




Comments

Unknown said…
वाह बहुत ही सारगर्भित आलेख

Unknown said…
वाह बहुत ही सारगर्भित आलेख

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