फिल्म समीक्षा : क्लब 60
-अजय ब्रह्मात्मज
संजय त्रिपाठी की 'क्लब 60' मुख्य किरदार तारीक के दृष्टिकोण से चलती
है। तारीक और सायरा (फारुख शेख और सारिका) के जीवन में एक बड़ा वैक्यूम आ
गया है। समय के साथ सायरा संभल जाती हैं, लेकिन तारीक लंबे समय तक अपने गम
से उबर नहीं पाते। ऐसे में उनकी मुलाकात मस्तमौला मनुभाई से हो जाती है।
'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' मुहावरे को चरितार्थ करते मनुभाई की आत्मीयता
से उन्हें पहले खीझ होती है। तारीक और सायरा सी एकांत जिंदगी में न केवल
मनुभाई प्रवेश करते हैं, बल्कि उन्हें अपने साथ 'क्लब 60' तक ले जाते हैं।
'क्लब 60' साठ की उम्र पार कर चुके नागरिकों का एक क्लब है, जहां वे
अपने खाली समय को खेल और मेलजोल में बिताते हैं। मनसुख भाई के साथ हम 'क्लब
60' के सदस्यों से मिलते हैं। इन सदस्यों में मनसुखानी, सिन्हा, ढिल्लन,
और जफर भी हैं। इनकी दोस्ती की धुरी है मनसुख भाई। उनके पहुंचते ही क्लब
में रवानी आ जाती है। धीरे-धीरे पता चलता है कि सभी की जिंदगी में गम हैं।
वे अपने-अपने गमों को धकेल कर खुश रहने की कोशिश करते हैं। सबकी अपनी आदतें
हैं। उन आदतों को लेकर दोस्तों के बीच नोंक-झोंक होती है और हंसी-मजाक के
साथ जिंदगी चलती रहती है। नए दोस्तों के गम से परिचित होने पर तारीक महसूस
करते हैं कि वे अपनी तकलीफ को लेकर कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गए हैं।
बाकी किरदारों की जिंदगी को करीब से देखने पर उन्हें सबक मिलता है कि 'सुख
या दुख से जिंदगी का कद नहीं मापना चाहिए।'
बुजुर्गो के अंतस में झांकती यह फिल्म किरदारों की तकलीफों को छूती
हुई एक रोशन कथा बुनती है, जो जिंदगी और आशा की सलाह देती है। संजय
त्रिपाठी ने 'क्लब 60' में समाज के ऐसे किरदारों को प्रमुखता दी है,
जिन्हें हिंदी फिल्में मुख्य रूप से नजरअंदाज करती रही हैं। हमने बुजुर्गो
को समाज और फिल्मों से बाहर कर दिया है। महानगर मुंबई के ये बुजुर्ग किसी न
किसी कारण से अपनी संतानों से अलग या दुखी हैं। स्थिति भयावह है, लेकिन
इतनी भी नहीं। संजय त्रिपाठी के किरदारों में एक-दो परिवार से सुखी और
खुशहाल भी हो सकते थे। इस कमी से 'क्लब 60' अपने उद्देश्य में बड़ी होने के
बावजूद एकांगी हो जाती है।
संजय त्रिपाठी ने 'क्लब 60' में अनुभवी प्रौढ़ कलाकारों को चुना है।
इस चुनाव से उन्हें भारी मदद मिली है। फारुख शेख और सारिका फिल्म के आधार
हैं तो रघुवीर यादव सभी को जोड़ने की महत्वपूर्ण कड़ी। उन्होंने गुजराती
मनुभाई को वाचाल, हाइपर और लाउड रखा है। यह फिल्म की जरूरत भी थी, क्योंकि
फिल्म के अंतिम दृश्यों में आकर उनके इस लाउडनेस की जानकारी मिलती है। शरत
सक्सेना, टीनू आनंद, सतीश शाह और विनीत कुमार ने अपने किरदारों को बखूबी
निभाया है।
फिल्म की पटकथा थोड़ी चुस्त रहती और कुछ अन्य रोचक नाटकीय प्रसंग रहते
तो प्रभाव गहरा होता। सारिका के अलावा अन्य महिला किरदारों और कलाकारों को
अधिक महत्व नहीं दिया गया है। यहां संजय त्रिपाठी उसी सामाजिक सोच के शिकार
हो गए हैं, जहां महिलाओं की भूमिका सिमटी और संक्षिप्त होती है।
चंद कमियों के बावजूद संजय त्रिपाठी का यह साहसिक प्रयास है। निश्चित
ही इस फिल्म में युवा दर्शकों की अधिक रुचि नहीं होगी, लेकिन आम दर्शकों की
सराहना ही ऐसे प्रयासों को मजबूत करेगी।
अवधि - 137 मिनट
*** तीन स्टार
*** तीन स्टार
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