फिल्म समीक्षा : रज्जो
किरदार और कंगना का कंफ्यूजन
-अजय ब्रह्मात्मज
देश में मोबाइल आने के बाद भी कहानी है 'रज्जो' की। वह कोठेवाली है। उसकी बहन ने फ्लैट खरीदने के लिए बचपन में उसे बेच दिया था। बताया नहीं गया है कि वह कहां से आई है। बचपन से मुंबई और रेडलाइट इलाके में रहने से उसकी बात-बोली में माहौल का असर है। रज्जो से चंदू का प्रेम हो जाता है। अभी-अभी ख्क् का हुआ पारस उम्र में बड़ी ख्ब् साल की रज्जो से भावावेश में शादी कर लेता है। निर्देशक विश्वास पाटिल मराठी भाषा के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। उन्हें साहित्य अकादमी और मूर्ति देवी पुरस्कार मिल चुके हैं। साहित्य की आधुनिक और व्यावहारिक समझ के बावजूद उनका यह चुनाव समझ से परे है। 'रज्जो' की कहानी दो-तीन दशक पहले मुंबई के परिवेश में प्रासंगिक हो सकती थी। अभी की मुंबई में इस फिल्म के सारे किरदार कृत्रिम और थोपे हुए लगते हैं।
स्पष्ट नहीं होने की वजह से पटकथा और चरित्रों के गठन में दुरूहता आ गई है। बेगम, रज्जो,चंदू, हांडे भाऊ आदि तीन-चार दशक पहले की फिल्मों से निकल आए चरित्र लगते हैं। अगर इन चरित्रों के द्वंद्व और संघर्ष के प्रति निर्देशक विश्वास पाटिल आश्वस्त थे तो उन्हें था के अनुकूल परिवेश की रचना करनी चाहिए थी। 'रज्जो' को पीरियड फिल्म का लुफ्त मिलना चाहिए था।
कंगना रनौत को 'रज्जो' के रूप में एक कंफ्यूज किरदार मिला है, इसलिए उनके अभिनय में भी कंफ्यूजन दिखाई देता है। क्लाइमेक्स के ठीक पहले के दृश्य में हांडे भाऊ के सामने वह संभलती हैं,फिर गिड़गिड़ाने लगती हैं और फिर तन कर खड़ी हो जाती हैं। दृश्य संयोजन और संपादन की लापरवाही से कंगना रनौत का प्रदर्शन और भाव विचलन हास्यास्पद हो गया है। नृत्य में उन्होंने अवश्य मेहनत की है, लेकिन उच्चारण दोष की वजह से अर्थपूर्ण भारी-भरकम संवादों में उनकी सीमा जाहिर होती है। 'रज्जो' वर्तमान परिवेश में अप्रासंगिक और साधारण फिल्म है।
* एक स्टार
अवधि : 137 मिनट
-अजय ब्रह्मात्मज
देश में मोबाइल आने के बाद भी कहानी है 'रज्जो' की। वह कोठेवाली है। उसकी बहन ने फ्लैट खरीदने के लिए बचपन में उसे बेच दिया था। बताया नहीं गया है कि वह कहां से आई है। बचपन से मुंबई और रेडलाइट इलाके में रहने से उसकी बात-बोली में माहौल का असर है। रज्जो से चंदू का प्रेम हो जाता है। अभी-अभी ख्क् का हुआ पारस उम्र में बड़ी ख्ब् साल की रज्जो से भावावेश में शादी कर लेता है। निर्देशक विश्वास पाटिल मराठी भाषा के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। उन्हें साहित्य अकादमी और मूर्ति देवी पुरस्कार मिल चुके हैं। साहित्य की आधुनिक और व्यावहारिक समझ के बावजूद उनका यह चुनाव समझ से परे है। 'रज्जो' की कहानी दो-तीन दशक पहले मुंबई के परिवेश में प्रासंगिक हो सकती थी। अभी की मुंबई में इस फिल्म के सारे किरदार कृत्रिम और थोपे हुए लगते हैं।
स्पष्ट नहीं होने की वजह से पटकथा और चरित्रों के गठन में दुरूहता आ गई है। बेगम, रज्जो,चंदू, हांडे भाऊ आदि तीन-चार दशक पहले की फिल्मों से निकल आए चरित्र लगते हैं। अगर इन चरित्रों के द्वंद्व और संघर्ष के प्रति निर्देशक विश्वास पाटिल आश्वस्त थे तो उन्हें था के अनुकूल परिवेश की रचना करनी चाहिए थी। 'रज्जो' को पीरियड फिल्म का लुफ्त मिलना चाहिए था।
कंगना रनौत को 'रज्जो' के रूप में एक कंफ्यूज किरदार मिला है, इसलिए उनके अभिनय में भी कंफ्यूजन दिखाई देता है। क्लाइमेक्स के ठीक पहले के दृश्य में हांडे भाऊ के सामने वह संभलती हैं,फिर गिड़गिड़ाने लगती हैं और फिर तन कर खड़ी हो जाती हैं। दृश्य संयोजन और संपादन की लापरवाही से कंगना रनौत का प्रदर्शन और भाव विचलन हास्यास्पद हो गया है। नृत्य में उन्होंने अवश्य मेहनत की है, लेकिन उच्चारण दोष की वजह से अर्थपूर्ण भारी-भरकम संवादों में उनकी सीमा जाहिर होती है। 'रज्जो' वर्तमान परिवेश में अप्रासंगिक और साधारण फिल्म है।
* एक स्टार
अवधि : 137 मिनट
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