फिल्म समीक्षा : बुलेट राजा
देसी क्राइम थ्रिलर
-अजय ब्रह्मात्मज
तिग्मांशु धूलिया 'हासिल' से अभी तक अपनी फिल्मों में हिंदी मिजाज के
साथ मौजूद हैं। हिंदी महज एक भाषा नहीं है। हिंदी प्रदेशों के नागरिकों के
एक जाति (नेशन) है। उनके सोचने-विचारने का तरीका अलग है। उनकी संस्कृति और
तहजीब भी थोड़ी भिन्न है। मुंबई में विकसित हिंदी सिनेमा की भाषा ही हिंदी
रह गई है। संस्कृति, लोकाचार, बात-व्यवहार, परिवेश और प्रस्तुति में इसने
अलग स्वरूप ले लिया है। प्रकाश झा, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप और
तिग्मांशु धूलिया की फिल्मों में यह एक हद तक आ पाती है। तिग्मांशु धूलिया
ने बदले और प्रतिशोध की अपराध कथा को हिंदी प्रदेश में स्थापित किया है।
हालांकि मुंबइया सिनेमा (बॉलीवुड) के दुष्प्रभाव से वे पूरी तरह से बच नहीं
सके हैं, लेकिन उनके इस प्रयास की सराहना और प्रशंसा करनी होगी। 'बुलेट
राजा' जोनर के लिहाज से 'न्वॉयर' फिल्म है। हम इसे 'पुरबिया न्वॉयर' कह
सकते हैं।
इन दिनों हिंदी फिल्मों में लंपट, बेशर्म, लालची और लुच्चे नायकों की
भीड़ बढ़ी है। 'बुलेट राजा' के राजा मिसरा को गौर से देखें तो वह इन सब से
अलग तेवर का मिडिल क्लास का सामान्य युवक है। वह 10 से 5 की साधारण नौकरी
करना चाहता है, लेकिन परिस्थितियां ऐसे बनती हैं कि उसके हाथों में बंदूक आ
जाती हैं। आत्मविश्वास के धनी राजा मिसरा के दिन-दहाड़े गोलीकांड से सभी
आतंकित होते हैं। जल्दी ही वह प्रदेश के नेताओं की निगाह में आ जाता है।
उनकी राजनीतिक छत्रछाया में वह और भी संगीन अपराध और हत्याएं करता है। एक
स्थिति आती है कि उसकी हरकतों से सिस्टम को आंच आने लगती है। उसे हिदायत दी
जाती है तो वह सिस्टम के खिलाफ खड़ा हो जाता है। राजा मिसरा आठवें दशक के
एंग्री यंग मैन विजय से अलग है। वह आज का नाराज, दिग्भ्रमित और दिल का
सच्चा युवक है। दोस्ती, भाईचारे और प्रेम के लिए वह जान की बाजी लगा सकता
है।
राजा मिसरा के जीवन में दोस्त रूद्र और प्रेमिका हैं। इनके अलावा उसका
मध्यवर्गीय परिवार भी है, जिसके लिए वह हमेशा फिक्रमंद रहता है। राजा
मिसरा आठवें दशक के विजय की तरह रिश्तों में लावारिस नहीं है। रूद्र की
हत्या का बदला लेने से जब उस रोका जाता है तो स्पष्ट कहता है, 'भाई मरा है
मेरा। बदला लेने की परंपरा है हमारी। यह कोई कारपोरेट कल्चर नहीं है कि
अगली डील में एडजस्ट कर लेंगे।' तिग्मांशु अपने फिल्मों के चरित्रों को
अच्छी तरह गढ़ते हैं। इस फिल्म में ही रूद्र, सुमेर यादव, बजाज, मुन्ना और
जेल में कैद श्रीवास्तव को उन्होंने हिंदी प्रदेश की समकालीन जिंदगी से उठा
लिया है। शुक्ला, यादव और अन्य जातियों के नामधारी के नेताओं के पीछे कहीं
न कहीं हिंदी प्रदेश के राजनीतिक समीकरण को भी पेश करने की मंशा रही होगी।
तिग्मांशु का ध्येय राजनीति के विस्तार में जाना नहीं था। कई प्रसंगों में
अपने संवादों में ही वे राजनीतिक टिप्पणी कर डालते हैं। अगर भाषा की
विनोदप्रियता से वाकिफ न हों तो तंज छूट सकता है। मुंबई, कोलकाता और चंबल
के प्रसंग खटकते हैं।
सैफ अली खान ने राजा मिसरा के किरदार में चुस्ती, फुर्ती और गति दिखाई
है। अगर उनके बातों और लुक में निरंतरता रहती तो प्रभाव बढ़ जाता। उम्र और
अनुभव से वे देसी किरदार में ढलते हैं। जिम्मी शेरगिल को कम दृश्य मिले
हैं, लेकिन उन दृश्यों में ही वे अपनी असरदार मौजूदगी से आकर्षित करता है।
सुमेर यादव की भूमिका में रवि किशन मिले दृश्यों में ही आकर्षित करते हैं।
छोटी और महत्वपूर्ण भूमिकाओं में राज बब्बर, गुलशन ग्रोवर आदि अपनी
भूमिकाओं के अनुकूल हैं। यहां तक कि चंकी पांडे को भी एक किरदार मिला है।
सोनाक्षी सिन्हा बंगाली युवती के किरदार को निभा ले जाती हैं। विद्युत
जामवाल का एक्शन दमदार है।
फिल्म का गीत-संगीत थोड़ा कमजोर है। देसी टच और पुरबिया संगीत की ताजगी
की कमी महसूस होती है। 'तमंचे पर डिस्को' खास उद्देश्य को पूरा करता है और
'डोंट टच' में माही गिल का नृत्य बॉलीवुड के आयटम नंबर से प्रभावित है। इस
फिल्म की खूबी परतदार पटकथा और स्थितिजन्य संवाद हैं।
अवधि: 138 मिनट
**** चार स्टार
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