बलराज साहनी- जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं: चंदन श्रीवास्तव
चंदन श्रीवास्तव का यह लेख तिरछी स्पेलिंग से संरक्षित किया गया है। उन्होंने इस लेख में चवन्नी चैप से उद्धरण लिए हैं।
-चंदन श्रीवास्तव
अभिनय महान कहलाएगा बशर्ते अभिनेता किरदार
को ऐसे निभाये कि उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित हो जाय, वह ना रहे, निभाया
गया किरदार ही रहे। इस पंक्ति को पढ़कर किसी को कबीर याद आ जायें तो क्या
अचरज- ‘जब मैं था तब हरि नहीं- अब हरि हैं हम नाहीं ’! अचरज कीजिए कि बलराज
साहनी के अभिनय की ऊंचाई को ठीक-ठीक इसी कसौटी पर महान ठहराया जाता है, यह
भूलते हुए कि कबीर का समय बलराज साहनी के समय से अलग है, और ठीक
इसीलिए 15 वीं सदी के भक्त का अपनी भाव-वस्तु से जो तादात्म्य संभव रहा
होगा वह शायद बीसवीं सदी के किसी अभिनेता का अपने किरदार के साथ संभव ना भी
हो । आख़िर चेतना का वस्तूकरण, व्यक्तित्व का विघटन, संवेदना का विच्छेद
जैसे पद बीसवीं सदी के मनुष्य को समझने-समझाने की गरज से आये थे। अचरज
कीजिए कि खुद बलराज साहनी ने भी अपनी तरफ़ से अभिनय की महानता की कसौटी
प्रस्तुत करने की कोशिश की तो किरदार के साथ अभिनेता के एकात्म को ज़रुरी
शर्त माना, भले ही अभिनय के दौरान उन्हें इससे तनिक अलग भी अनुभव हुआ हो।
इस आलेख का विषय बलराज साहनी के इस ‘अलग अनुभव ’ की तरफ़ संकेत मात्र करना
है, ताकि इस आम सहमति को तनिक प्रश्नाकुल होकर कुरेदा जा सके कि किरदार से
अभिनेता का एकात्म ही अभिनय की महानता की एकमात्र कसौटी है।
1
आम सहमति यही है कि ‘ बलराज साहनी कई
चेहरों वाला अभिनेता ’ थे। ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ कहने के पीछे मंशा
यह बताने की होती है कि “अधिकतर अभिनेता विभिन्न पात्रों के रोल करने पर भी
अपने ख़ुद के चेहरे को छिपा नहीं पाते हैं और सही अर्थों में उन पात्रों
को साकार करने में असमर्थ रहते हैं..” जबकि बलराज साहनी ने विभिन्न पात्रों
की भूमिका इस तरह निभायी कि “ ख़ुद की शख़्सियत को उन पात्रों में उजागर
नहीं होने दिया, इसीलिए वे पात्र इतने सजीव होकर होकर साकार हुए। ”(1) ।
बलराज साहनी के अभिनय के संदर्भ में ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ का रुपक
इतना प्रभावशाली है कि थोड़े हेर-फेर के साथ हर समीक्षक इस बात को दोहराना
जरुरी समझता है। मिसाल के लिए जन्मशती के इस साल में बलराज साहनी के अभिनय
की विशेषता को याद करते हुए एक सुधी समीक्षक ने उनकी तुलना यूनान के
पौराणिक पात्र प्रोतेउस से की क्योंकि एक तो वह किसी के पकड़ में नहीं आता
और आ भी जाय तो “ऐसी रफ़्तार से इतने वास्तविक-से चोले बदलने लगता है कि
पकड़नेवाला घबरा कर उसे छोड़ देता है और वह फिर फ़रार हो जाता
है। ”(2)कमोबेश ऐसी ही बात अपने इस सहोदर भाई के बारे में भीष्म साहनी भी
कहते हैं- “ बलराज की सफलता का राज था कि वे किसी किरदार को निभाते वक्त
उसमें अपना दिल ही नहीं, आत्मा भी झोंक देते थे। काबुलीवाला फ़िल्म करते
वक्त उन्होंने पठान काबुलीवाला के जीवन को नजदीक से जानने के लिए उसका गहन
अध्ययन किया। यही कारण है कि जब आप बलराज की किसी फ़िल्म को याद करते
हैं, तो बलराज याद नहीं आते वह किरदार याद आता है। हर किरदार अपने आप में
अलग नजर आता है। अभिनेता बलराज गायब हो जाता है। वह अपनी पहचान को किरदार
में घुला देते थे। यह इस कारण होता था क्योंकि वे किरदार से गहरे स्तर पर
जुड़ जाते थे. बलराज कहते थे कि एक्टिंग सिर्फ कला नहीं है, यह एक विज्ञान
भी है.”(3)
भीष्म साहनी ने जिस बात को संक्षेप में
लिखा है, उसका विस्तार बलराज साहनी पर केंद्रित ख्वाजा अहमद अब्बास के एक
संस्मरण में मिलता है। इस संस्मरण में अभिनेता बलराज साहनी से जुड़ी कई
कहानियां हैं, ऐसी कहानियां जो अभिनय के प्रति बलराज साहनी की निष्ठा का
साक्ष्य तो हैं ही, पाठक के मन में अभिनेता बलराज के प्रति श्रद्धा-भाव
जगाती हैं। अब्बास साहब लिखते हैं- “ 1945 में इप्टा ने जब फ़िल्म धरती के
लाल बनायी, जिसमें सारे के सारे गैर-पेशेवर अभिनेता-अभिनेत्री थे, उसके लिए
लंबे-तड़ंगे तथा नफीस बलराज साहनी ने, जो बीबीसी में दो बरस काम करने के
बाद कुछ ही अर्सा हुए लंदन से वापस लौटे थे,खुद को ऐसे आधे-पेट खाकर गुजर
करते बंगाली किसान में बदला,जैसे वह अकाल के मारे लाखों किसानों में से ही
एक हों। वह महीनों तक सिर्फ एक वक्त खाकर गुजारा करते रहे थे ताकि कैमरे के
सामने उनकी अधनंगी देह,अपने भूख के मारे होने की गवाही दे। और हर रोज
कैमरे के सामने जाने से पहले वह अपनी धोती,समूचे शरीर और चेहरे पर भी,कीचड़
मिले पानी का छिडक़ाव कराते थे ताकि हर तरह से अकिंचनता प्रकट हो। ”(4)
‘दो बीघा ज़मीन’ के बारे में तो ख़ैर, यह
बात प्रसिद्ध है ही कि इस फ़िल्म के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी
कई हफ्ते तक कलकत्ता में रिक्शा खींचने वालों की बस्ती में रहे थे। यहां
उन्होंने रिक्शा खींचने के लिए खुद को प्रशिक्षित ही नहीं किया था बल्कि
रिक्शा खींचने वालों के तौर-तरीके भी सीखे थे। ‘दो बीघा ज़मीन ’ के किरदार
को निभाने के लिए बलराज साहनी ने क्या-क्या किया इसका एक ब्यौरा खुद बलराज
साहनी की जबानी सुनिए- “बम्बई शहर से बाहर जोगेश्वरी के इलाके में उत्तर
प्रदेश और बिहार के भैंसे पालने वाले भैया लोगों की बहुत बड़ी बस्ती है।
मैं अगले दिन से वहां के चक्कर लगाने लगा। मैं भैया लोगों के साथ
बैठता, उनकी बातें सुनता, उन्हें काम करते हुए देखता। वे कैसे चलते
हैं, क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, कैसे उठते-बैठते हैं- यह सब मैं बड़े
गौर से देखता और अपने मन में बैठाता। भैया लोगों को सिर पर गमछा लपेटने का
बहुत शौक होता है और हर कोई उसे अपने ही ढंग से लपेटता है। मैंने भी एक
गमछा खरीद लिया और घर में उसे सिर पर लपेटने का अभ्यास करने लगा। लेकिन वह
खूबसूरती पैदा न होती। मेरे सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी, जिसे हल करने
की मैंने पूरी कोशिश की। ‘दो बीघा जमीन’ में मेरी सफलता ज्यादातर इसी
अध्ययन का नतीजा है।”(5)
एक बार फिर से प्रसंग पर लौटते हुए बात
ख्वाजा अहमद अब्बास के संस्मरण की करें। अब्बास साहब ने तफ्सील से बताया है
कि बलराज साहनी द्वारा अभिनीत किरदार अगर प्रसिद्ध हुए तो इसलिए कि उनका
अभिनय कौशल “मानव व्यवहार के सहानुभूतिपूर्ण प्रेक्षण और यथार्थवाद के लिए
गहरे लगाव,ब्यौरों के प्रति तथा चरित्र व व्यक्तित्व एक एक-एक रग-रेशे के
प्रति आश्यचर्यजनक ईमानदारी ” से भरा था। अब्बास साहब लिखते
हैं- “काबुलीवाला में,रवींद्रनाथ टैगोर के रचे बहुत ही भोले पठान के प्यारे
से पात्र को साकार करने के लिए,उन्होंने रावलपिंडी में गुजरे अपने बचपन की
स्मृतियों को फिर से जगाया था,जहां सीमांत क्षेत्र से आने वाले पठान सहज
ही और रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा होते थे। इसके अलावा उन्होंने स्थानीय
पठानों से संपर्क कर उनसे उनकी बोल-चाल सीखी थी,उनका प्रिय साज़ रबाब बजाना
सीखा था और पश्तो के गीत गाना सीखा था। उन्होंने पठानों की हिंदुस्तानी की
बोल-चाल की ध्वनि और उसके लालित्य को सीखा था। ..वर्षों तक वह जहां भी
जाते थे, उनके चाहने वाले उनका स्वागत काबुलीबाला के बोलने के तरीके की
उनकी प्रस्तुति की नकल कर के किया करते थे। ” (6) । इसी तरह इप्टा के नाटक
आखिरी शमा में बलराज साहनी द्वारा अभिनीत मिर्जा गालिब के चरित्र के की
तैयारी के बारे में अब्बास साहब ने लिखा है कि “इस पात्र की प्रस्तुति को
पूर्णतम बनाने में.. उन्होंने अपने दोस्तों से देहली की उर्दू इस तरह सीखी
थी, वह इस जुबान में वैसे ही बोल सकते थे, जैसे गालिब बोलते रहे होंगे।
उन्होंने मुशाइरा शैली में शाइरी पढ़ने की नफीस कला भी घोंटकर पी ली थी।
गालिब के पात्र की उनकी प्रस्तुति इतनी विश्वसनीय तथा जीवंत थी कि गालिब के
एक महान पारखी तथा गालिब साहित्य के विद्वान ने कहा था: ‘‘जाहिर है कि
महान शायर को मैंने कभी देखा तो नहीं था, पर मैं इतना जरूर जानता हूं कि
गालिब ऐसे ही नजर आते,ऐसे ही शायरी पढ़ते और नाटक में चित्रित विभिन्न
हालात में उनकी ऐसी ही प्रतिक्रिया रही होती।’’(7)
2
बलराज साहनी के अभिनय के बारे में प्रचलित
ये सत्यकथाएं क्या एक अभिनेता के कौशल का साक्ष्य मात्र हैं, या इन कथाओं
की एक अंदरुनी राजनीति है? क्या इन कथाओं के भीतर एक प्रेरणा यह सिद्ध करने
की है कि अभिनय तभी श्रेष्ठ हो सकता है जब अभिनेता निभाये जा रहे किरदार
की वास्तविक ज़िंदगी में उतरकर उसके सुख-दुःख को भोगे? दूसरे शब्दों
में, क्या बलराज साहनी के अभिनय-कौशल को सिद्ध करने के लिए बहुधा उद्धृत की
जाने वाली इन कथाओं के भीतर एक मंशा यह साबित करने की होती है कि यह
कलाकार समाजवादी समाज-रचना के सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान था और उसकी
अभिनय कौशल एक तो इस निष्ठा का ही सबूत है और दूसरे उसका अभिनय-कौशल
समाजवादी समाज-रचना की दिशा में किया गया कृत्य होने के नाते महान है ? लग
सकता है कि यहां महानता की बड़ी और जटिल कथा का एक छोटे-से वाक्य में
लाघवीकरण हो रहा है, मगर ऊपर की कथाओं में इस प्रश्न का उत्तर हां में देने
के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। मिसाल के लिए, जिस सुधी समीक्षक ने बलराज
साहनी के अभिनय कौशल को सराहते हुए उसकी तुलना रुप बदलने वाले पौराणिक
पक्षी प्रोतेऊस से की है, उसने लिखा है कि नैचुरल एक्टिंग की यह सिफअत वैसे
तो अशोक कुमार और मोतीलाल में भी मौजूद थी, लेकिन “अशोक कुमार और मोतीलाल
की सीमा यह थी वे ऊँचे या दरमियानी समाजी दरजे से अलग दिख नहीं पाते
थे – उनमें आप उन्हें जो चाहे बना डालिए. उनके चेहरे सिर्फ़ ख़वास के
रहे, अवाम के न बन पाए. हिंदी सिनेमा की इस ख़ला को भरा बलराज साहनी ने.”
(8)
भीष्म साहनी अपने सहोदर भाई के अभिनय-कौशल
को जब याद करते हैं तो यह जोड़ना जरुरी समझते हैं कि “ इससे ( किरदार के
साथ एकात्म) बढ़कर भी शायद एक चीज थी, वह था बलराज का सामाजिक सरोकार। वे
किसी किरदार को उसके सामाजिक संदर्भो से जोड़ कर देखते थे. उन्होंने
मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया ”। और अपनी बात की पुष्टि में एक
वाक़ये का ज़िक्र करते हैं कि कैसे ‘दो बीघा ज़मीन” की शूटिंग के दौरान
बलराज साहनी मुलाकात कलकत्ते में बिहार से आये एक रिक्शेवाले से हुई और
उन्होंने उसे फ़िल्म की कहानी सुनाई तो वह यह कहकर रोने लगा कि- “यह तो
बिल्कुल मेरी कहानी है. उसके पास भी दो बीघा ज़मीन थी, जो उसने एक जमींदार
के पास गिरवी रखी थी और वह उसे छुड़ाने के लिए पिछले पंद्रह साल से कलकत्ता
में रिक्शा चला रहा था. हालांकि उसे उम्मीद नहीं थी कि वह उस ज़मीन को कभी
हासिल कर पायेगा. इस अनुभव ने उन्हें बदल कर रख दिया। उन्होंने ख़ुद से कहा
कि ‘मुझ पर दुनिया को एक गरीब, बेबस आदमी की कहानी बताने की जिम्मेदारी
डाली गयी है, और मैं इस जिम्मेदारी को उठाने के योग्य होऊं या न होऊं, मुझे
अपनी ऊर्जा का एक-एक कतरा इस जिम्मेदारी को निभाने में खर्च करना
चाहिए ’।(9)
और ख्वाजा अहमद अब्बास के जिस संस्मरण का
जिक्र आलेख में ऊपर आया है वह तो लिखा ही गया है इस पैरोकारी के साथ
कि- “अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है जो ‘‘जन कलाकार’’ के ख़िताब का
हकदार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन
साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से
बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से
कायम करने के लिए समर्पित किए थे। ” फ़िल्म के पर्दे पर बलराज साहनी का
चेहरा ‘ख्वास का नहीं अवाम का चेहरा ’ बन सका तो इसलिए कि ‘उन्होंने
मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया था ’- ख्वाजा अहमद अब्बास का उपरोक्त
संस्मरण शायद इस बात को सबसे दमदार ढंग से प्रस्तुत करता है। उनका तर्क
है- “ बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे।
आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता
है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में
उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड
यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां
उगलती बंदूकों को सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर
जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस
चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया
था। ”(10)
समाजवादी सिद्धांतों के प्रति निष्ठा ने
बलराज साहनी को श्रेष्ठ अभिनेता बनने की ज़मीन मुहैया करायी, ऐसा सिर्फ
उनके अभिनय को सराहने वाले सुधी समीक्षक ही नहीं बल्कि ख़ुद बलराज साहनी भी
मानते हैं, लेकिन किसी घोषणा के अंदाज में नहीं बल्कि उस संयम के साथ जो
उनके अभिनय की एक खास पहचान है। वे लिखते हैं- “यह कहना कि कलाकार को हर
समय अपनी कला का ही ध्यान रहता है, और देश या समाज की समस्याओं से वे
बिल्कुल अलग रहते हैं, बड़ी भारी भूल है। अभिनेता जनता के सामने जीवन नहीं
पेश करता,दूसरों के जीवन की तस्वीर पेश करता है। हमलोग फ़िल्म में मैंने एक
पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान का पार्ट अदा किया, दो बीघा जमीन में एक दुःखी
किसान का, औलाद में एक घरेलू नौकर का, सीमा में एक विद्वान समाज सेवक
का, टकसाल में करोड़पति का और काबुली वाला में एक मुफलिस पठान का। सब रोल
एक दूसरे से जुदा थे। अगर मैं किसानों, मजदूरों, पठानों वग़ैरह का जीवन
क़रीब से जाकर नहीं देखता तो कभी यह संभव नहीं हो सकता था कि मैं यह पार्ट
अदा कर सकता। अगर उन्हें क़रीब से देखना उचित था तो उनके जीवन की आर्थिक
सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को जानना और समझना भी मेरा फ़र्ज़ था, तभी
मैं उनके दिलों की धड़कनों को अपनी आंखों और अपने शब्दों में अभिव्यक्त कर
सकता था, वरना बात अधूरी रह जाती। ” (11)
3
“जीवन की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक
समस्याओं को” जाने-समझे बगैर किसी अभिनेता के लिए किरदार को निभा पाना संभव
नहीं- इस निष्कर्ष पर बलराज साहनी कैसे पहुंचे ? क्या इस वजह से कि
अभिनेता बनने के बावजूद उनका खुद के बारे में ख्याल यही रहा कि वे प्राथमिक
रुप से एक साहित्यकार हैं ? शायद हां, क्य़ोंकि वे अपने साहित्यकार होने और
अभिनेता होने को अनिवार्य-संबंध की एक कड़ी के रुप में देखते थे। इस बात
को अलग-अलग रुपों में उन्होंने स्वीकार किया है कि “अगर मैं साहित्यकार ना
होता तो इतना अच्छा अभिनेता नहीं बन पाता..”। (12) । फ़िल्म-अभिनेता बनने
के पीछे जो कारण उन्होंने गिनाये हैं उसमें एक है पैसों की तंगी तो दूसरा
है, साहित्य की दुनिया से बेवजह ठुकरा दिए जाने का मलाल। अपने बारे में वे
किंचित गर्व से बताते हैं कि विलायत(बीबीसी लंदन में एनाऊंसर की नौकरी के
लिए) जाने से “पहले मेरी कहानियां ’हंस’ में बाकायदा प्रकाशित होती रहती
थी. मैं उन भाग्यशाली लेखकों में से था, जिनकी भेजी हुई कोई भी रचना
अस्वीकृत नहीं हुई थी। ” बीबीसी में नौकरी के दौरान उन्होंने एक भी कहानी
नहीं लिखी और जब भारत लौटने पर इस “टूटे अभ्यास” को जारी रखने के
लिए उन्होंने एक कहानी हंस पत्रिका में भेजी तो वह लौटा दी गई। ख़ुद
उन्हीं के शब्दों में- “मेरे स्वाभिमान को गहरी चोट लगी. इस चोट का घाव
कितना गहरा था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके बाद मैंने
कोई कहानी नहीं लिखी .चेतन के फ़िल्मों में काम करने के निमन्त्रण ने जैसे
इस चोट पर मरहम का काम किया. फ़िल्मों का मार्ग अपनाने का कारण यह अस्वीकृत
कहानी भी रही। (13)
फ़िल्मों में अभिनय करते हुए पच्चीस से
ज़्यादा बरसों के गुजर जाने के बावजूद अपने बारे में उनकी मान्यता यही रही
कि वे प्राथमिक रुप से एक लेखक हैं। अपने “फिल्मी जीवन की पचासवीं
वर्षगांठ” पर उन्होंने लिखा कि देश के बंटवारे के काऱण मुझे पिता के
धन-दौलत के आश्रय से वंचित रहना पडा और पांवों पर खड़ा होने की मजबूरी ने
मुझसे जो कई काम करवाये( मिसाल के लिए फ़िल्म डिवीजन की डाक्यूमेंटरी
फ़िल्मों में कमेंटरी बोलना, विदेशी फ़िल्मों की हिन्दी डबिंग में भाग
लेना, गुरुदत्त द्वारा निर्देशित फ़िल्म बाजी की पटकथा और संवाद लिखना) और
फ़िल्मों में काम करना भी इसी मजबूरी का हिस्सा था। फ़िल्म बाज़ी के सफल
होने के बाद इस फ़िल्म के निर्माता चेतन आनंद ने उन्हें एक फ़िल्म की कथा
लिखने और उसे निर्देशित करने का न्योता दिया था और उन्होंने लिखा है कि-“आज
मुझे अफसोस होता है कि चेतन आनंद की इतनी अच्छी पेशकश मैंने क्यों ना
शुक्रगुज़ारी के साथ क़बूल की ” क्योंकि बलराज साहनी के ही शब्दों
में- “लेखक और निर्देशक बनना मेरे जैसे आलसी स्वभाव के व्यक्ति को ज़्यादा
रास आता। ”(14)
खुद को प्राथमिक तौर पर लेखक मानने वाले
बलराज साहनी के लिए साहित्य का उद्देश्य है- “असलियत के सामने आईना रख
देना ” यानी जीवन की हू-ब-हू तस्वीर पेश करना। इस सोच के अनुकूल वे
नाटको-फ़िल्मों और उनमें किए जाने वाले अभिनय के बारे में भी यही मानते थे
कि उसमें कुछ भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए जो “कहीं भी वास्तविकता और
असलियत पर अत्याचार ” सरीखा हो। कविताई में जिसे अतिशयोक्ति कहा जाता
है, वही फ़िल्मों में मेलोड्रामा कहलाता है- अगर इस पंक्ति को ठीक मानें तो
कहा जा सकता है कि बलराज साहनी ने अपने लिए अभिनय की जो निजी कसौटी तय की
थी वह हिन्दी फ़िल्मों की इतिहास-प्रदत्त या कह लें स्वभावगत विशेषता यानी
मेलोड्रामेटिक बनावट के प्रतिपक्ष में तैयार की हुई कसौटी है। यह अकारण
नहीं है कि एक तरफ वे कंपनियों के पेश किए हुए नाटकों को कलात्मकता से
शून्य रचना मानते हैं क्योंकि सामूहिक जीवन के मामले में “अंदर से
खोखली” और बाहर के सामाजिक जीवन से बहुत गहरे ना जुड़े होने के कारण ऐसी
रचना पेश नहीं कर पायीं जिनका “ असलियत से संबंध” हो और अपने दौर की
फ़िल्मों को अलिफ़-लैला नुमा “उन्हीं पुराने दकियानूसी नाटकों के
रुपांतरण ” मानकर उनके “दीर्घजीवी होने पर” वह शुबहा करते हैं। अलिफ़-लैला
यानी फैंटेसी की दुनिया अगर अपने को अतिशयोक्ति(मेलोड्रामा) में साकार
करती हो, तो इसके लिए बलराज साहनी के व्याकरण में कोई जगह नहीं जान पड़ती।
कम से कम अपनी तरफ से उन्होंने अभिनय की जो कसौटी प्रस्तुत की है, उसको
पढ़कर तो यही लगता है।
गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से अंग्रेज़ी
साहित्य में एम.ए. और फिर शांतिनिकेतन में थोड़े दिन तक अंग्रेज़ी-साहित्य
का अध्यापन करने वाले बलराज साहनी अभिनय का प्रतिमान प्रस्तुत करना हो तो
शेक्सपीयर के नाटक हैमलेट के तीसरे अंक को याद करते हैं जिसमें नायक हैमलेट
बादशाह के दरबार में नाटक पेश करने वाले अभिनेताओं को उपदेश देते हुए कहता
है- “देखो स्टेज पर खड़े होकर इस तरह बोलो कि सुनने वालों को रस आये, यह
नहीं कि उनके कान फट जायें। तुम अभिनेता हो, ढिंढोरची नहीं। और देखो, हाथ
को कुल्हाड़े की तरह मार-मारकर हवा को मत चीरना। अभिनेता को चाहिए कि वह
अपने मन को हमेशा काबू में रखे,चाहे उसके अन्दर भावनाओं के तूफान क्यों ना
उठ खड़े हों। जो अभिनेता अपनी भावनाओं को क़ाबू में रखकर उन्हें संयम से
व्यक्त नहीं कर सकता, उसे चौराहे पर खड़ा करके चाबुक मारना चाहिए।..”
“..और देखो फीके भी मत पड़ जाना। अंडर
ऐक्टिंग करना भी अच्छा नहीं होता। ख़ुद अपनी समझ-बूझ को अपना उस्ताद बनाओ
और उसी के अनुकूल चलो। अपने चाल-ढाल को, अपने संकतो के शब्दों के अनुकूल
बनाओ और शब्दों को संकेतों के अनुकूल और बराबर ख्याल रखो कि कहीं भी
वास्तविकता और असलियत पर अत्याचार ना हो। अगर कहीं भी अतिशयोक्ति से काम
लिया तो नाटक का सारा मनोरथ ही खत्म हो जाएगा।। याद रखो, सैकड़ों वर्षों से
नाटक का मनोरथ एक ही रहा है और भविष्य में भी वही रहेगा- असलियत के सामने
आईना रख देना ताकि अच्छाई अपना रुप देख सके, उतार-चढ़ाव भी उस आईने में साफ
दिखाई दें..”
उनकी पेशकश में चुनौती है कि – “जरा इन
पंक्तियों की कसौटी पर आप अपने देखे हुए नाटकों और फ़िल्मों को परखिए और
देखिए कि वे किस हद तक पूरी उतरती हैं..” (15)
4
आलेख के इस आख़िरी भाग में आइए, देखने की
कोशिश करें कि क्या बलराज साहनी के सिनेमाई अनुभव के भीतर कोई फांक
है, दूसरे शब्दों में क्या उनके सिनेमाई अनुभव का कोई हिस्सा अभिनय के बारे
में तय किए गए अपने ही प्रतिमान को नकारता हुआ-सा प्रतीत होता है ? इस
सिलसिले में पहली बात “स्वाभाविक अभिनय” से जुड़ती है। भले ही बलराज साहनी
की मान्यता यह रही हो कि ‘अभिनय अगर स्वाभाविक हो तो उसे हर कोई पसंद करता
है ’(और यह मान्यता बहसतलब है) लेकिन ऐसा कहने के साथ-साथ यह जोड़ना भी
ज़रूरी समझते हैं कि “स्वाभाविक अभिनय एक तरह से भ्रांति पैदा करने वाली
चीज है, क्योंकि दर्शकों को स्वाभाविक लगने वाला अभिनय करते समय हो सकता
है, अभिनेता को कई अस्वाभाविक बातें करनी पड़ें। उसका दृष्टिकोण दर्शक के
दृष्टिकोण से भिन्न होता है…”।(16) प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या
दृष्टिकोण का यह अलगाव निभाये गए किरदार से दर्शक का एकात्म स्थापित करने
में कहीं से बाधक नहीं होता ? और दूसरी बात, कलाकार अगर अपने अभिनय को
स्वाभाविक बनाने के लिए कुछ अस्वाभाविक चीजें करता है तो फिर इस
अस्वाभाविकता का उस भोगे हुए यथार्थ से क्या रिश्ता है जिसे खुद बलराज
साहनी ने अभिनय की प्रामाणिकता के लिए जरुरी माना है ?
इस प्रश्न का सही उत्तर तो खैर हमेशा
अनिर्णय की स्थिति में रहेगा कि लोकप्रियता किसी कला की महानता की एकमात्र
कसौटी है या नहीं , परंतु यह बात मान ली जानी चाहिए कि कला अगर स्वान्तः
सुखाय नहीं है तो फिर उसे लोक-स्वीकृति की तलब हमेशा लगी रहेगी। यह बात कम
से कम फ़िल्म सरीखे जन-माध्यम के लिए तो कही ही जा सकती है क्योंकि इसका
विराट दर्शक-वर्ग ‘अज्ञातकुलशील’ होता है और फ़िल्म बनाने वाले के सामने
हमेशा इस बात की चुनौती होती है कि वह इस ‘ अज्ञातकुलशील ’ दर्शक की रुचि
का कोई औसत मान निकालकर उस पर खड़ा उतरने की कोशिश करे। अभिनेता के
दृष्टिकोण और दर्शक के दृष्टिकोण में अंतर स्वीकार करने वाले बलराज साहनी
जब फ़िल्म की लोकप्रियता के बारे सोचते हैं, तो आश्चर्यजनक तौर पर अभिनय के
बारे में तय किए गए अपने ही प्रतिमान से बिल्कुल अलग बात कहते हैं, कुछ
ऐसी बात जो असलियत के सामने आईने रखने वाले उनके यथार्थवाद की जगह अतिरंजना
और अतिशयोक्ति को प्रतिष्ठित करता प्रतीत होता है। मिसाल के
लिए, अभिनय-कला शीर्षक निबंध में एक जगह उनका कहना है-“हम पढ़े-लिखे
अभिनेता पुराने अभिनेताओं पर नाक-मुंह चढ़ाते हैं। हम कहते हैं कि उनका
अभिनय स्वाभाविक नहीं था, उनमें बनावट होती थी, और वे बात को बहुत ज्यादा
बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे। लेकिन उनके अभिनय का सही मूल्यांकन करने के लिए
हमें यह देखना चाहिए कि उनका दर्शकों पर कैसा प्रभाव पडता था। वे जो भाव
अभिव्यक्त करते थे, वे प्रायः सच्चे होते थे, और उनकी अभिनय शैली बहुत
प्रभावशाली होती थी। बाल-गंधर्व जैसे अभिनेता अपनी शैली के बहुत बड़े
उस्ताद थे। आगा हश्र के नाटक दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। ” (17)
बात बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाय, सच्चाई तो भी
रह सकती है, ऐसी प्रभावशील सच्चाई जो मंत्रमुग्ध कर दे- ऐसा अनुभव बलराज
साहनी को कई बार हुआ। इसका एक साक्ष्य उनकी आत्मकथा के शुरुआती कुछ पन्नों
पर ही मौजूद हैं। अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए वे लिखते हैं उन दिनों
मैंने ‘हीर-रांझा’ और ‘अनारकली’ नाम की फिल्में देखी थीं और अनारकली के
रुप में अभिनेत्री सुलोचना के सौन्दर्य से अभिभूत हो उठा था। अनारकली को
जिन्दा दफ्न करने के दृश्य को याद करके मैं रो उठा था। अनारकली की दर्दनाक
मौत की पीड़ा में छटपटाते बलराज की हालत यह थी -“ यदि मुझसे कोई कहता कि
यह सब तो सिनेमा के ट्रिक का मामला है और कोई भी ईंट सुलोचना के चेहरे को
ढंकने के लिए नहीं रखी गई तो मैं उसे थप्पड़ मार देता, जहां तक मेरा सवाल
है, सुलोचना मर चुकी थी और मेरे लिए जीवन में कोई आनंद शेष नहीं रह गया
था..लेकिन सुलोचना तो जिन्दा थी और कई फिल्मों में उसने मेरे साथ काम भी
किया। जब भी मैं उसके प्रति अपने इस किशोरवय के प्रेम का जिक्र करता तो वह
इसे हंसी में उड़ा देती। आज जबकि मैं खुद एक फ़िल्म स्टार हूं तो उसकी इस
हंसी का मतलब समझ सकता हूं लेकिन तो भी यह ख्याल मैं अपने दिल से नहीं
निकाल पाता कि किसी दिन उससे कहूंगा कि वह सिर्फ मूर्खतापूर्ण आसक्ति भर
नहीं था बल्कि प्रेम का मेरा पहला सच्चा अनुभव था..। ” (18)
और दूसरा साक्ष्य है फ़िल्म ‘दो बीघा
जमीन” की लोकप्रियता के संबंध में की गई उनकी टिप्पणी। इस फ़िल्म से जुड़ी
यादों को बलराज साहनी अपनी “आखिरी सांसों तक सहेजकर” रखना चाहते थे। बावजूद
इसके इस फ़िल्म का यथार्थवाद उन्हें खटकता था। उन्हें मलाल रहा कि दो बीघा
जमीन को जैसी सराहना बुद्धिजीवियों में मिली वैसी आम जनता के बीच नहीं। और
इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने इस फ़िल्म में दो दोष गिनाये हैं। एक तो
यह कि इस फ़िल्म का नायक कभी भी “उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज
बुलंद नहीं करता, जिसका उसे सामना करना होता है , ” और दूसरे यह कि “ वह
अपने दोस्तों और सहकर्मियों को खुद से दूर कर देता है ” जबकि एक औसत दर्शक
जो खुद को हीरो के जूते में रख कर देखना चाहता है। वह कभी भी “ खुद को इस
तरह के आत्मपीड़क और अंतर्मुखी हीरो के साथ जोड़ कर देखना ” नहीं चाहेगा।
इस दोष का जिम्मेदार वे सारी प्रगतिशील कला और साहित्य की उस आदत को मानते
हैं जो “विदेशी मूल्य और वाद पर खड़ा उतरना चाहते हैं ना कि उन मूल्यों
पर, जो हमारी अपनी धरती की उपज हैं। दो बीघा जमीन की तकनीक भी विश्व
प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक की फ़िल्म बाइसिकिल थीफ और उसमें प्रदर्शित किये
गये यथार्थवाद से प्रभावित थी। यही वह कारण था कि रूसियों ने भले ही दो
बीघा जमीन के बारे में अच्छी बातें कहीं, लेकिन उन्होंने अपनी सारी प्रशंसा
और सम्मान राजकपूर की फ़िल्म आवारा के लिए सुरक्षित रख लिया, बल्कि वे
आवारा के प्रति दीवाने से हो गये।.. हालांकि हमने उम्मीद की थी समाजवाद के
इस मक्का में लोग कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और उन्नत कला को सम्मान
देंगे , लेकिन रूसियों को आवारा के प्रति उनकी दीवानगी के लिए कसूरवार नहीं
माना जा सकता। खास तौर से यह देखते हुए कि आवारा में कितने बेजोड़ तरीके
से भारतीय जीवन की धड़कन को पकड़ा गया है।” (19)
इस विन्दु पर संस्कृति-मनोविज्ञानी सुधीर
कक्कड़ की याद आना लाजिमी है जो लिखते हैं कि सिनेमा भारतीय उपमहाद्वीप में
रहने वाले लोगों के साझा स्वप्नों(फैंटेसी) का वाहक है और एक ऐसा वैकल्पिक
जगत मुहैया कराता है, जहां हम यथार्थ से अपने पुराने संघर्ष को जारी रख
सकते हैं। हमारे फ़िल्म-जगत में फ़िल्म दर फ़िल्म स्वप्नों की ऐसी भारी
मात्रा में नियमितता आश्चर्य में डालती है। एक तरह से जिंदगी की वास्तविक
समस्याओं के ऐसे जादुई हल, भारतीय जनमानस में गहरी जमी ऐसे समाधानों की
इच्छा की ओर इशारा करते हैं।.. कोई भी समझदार भारतीय यह नहीं मानता कि
सिनेमा में वास्तविक जिंदगी का अंकन होता है। ” (20)
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