फिल्म समीक्षा : सिंह साहब द ग्रेट
- अजय ब्रह्मात्मज
अनिल शर्मा और सनी देओल की जोड़ी ने 'गदर एक प्रेमकथा' जैसी कामयाब फिल्म
दी है। दोनों ने फिर 'अपने' में साथ काम किया, इस फिल्म में धर्मेन्द्र और
बाबी देओल भी थे। अनिल शर्मा ने एक बार फिर सनी देओल की छवि का उपयोग किया
है। सनी का ढाई किलो का मुक्का अब साढ़े तीन किलो का हो चुका है। 'सिंह
साहब द ग्रेट' में बार-बार सिख धर्म के गुरुओं और सरदार होने के महत्व का
संदर्भ आता है, लेकिन अफसोस की बात है कि इस परिप्रेक्ष्य के बावजूद 'सिंह
साहब द ग्रेट' के लिए साहब के वैचारिक महानता पर्दे पर अत्यंत हिंसक रूप
में नजर आती है। हालांकि वह 'बदला नहीं बदलाव' से प्रेरित हैं।
'सिंह साहब द ग्रेट' की कहानी भ्रष्टाचार के खिलाफ कटिबद्ध एक कलक्टर
की है। कलक्टर भदौरी नामक इलाके में नियुक्त होकर आते हैं। वहां उनकी भिड़ंत
स्थानीय सामंत भूदेव से होती है। भूदेव के करोड़ों के अवैध कारोबार को
रोकने और रेगुलट करने की मुहिम में वे स्वयं साजिश के शिकार होते हैं।
उन्हें जेल भी हो जाती है। सजा कम होने पर जेल से छूटने के बाद वे सीधे
भूदेव से बदला लेने नहीं आते। अपने जेलर मित्र के सुझाव पर बदलाव की मुहिम
शुरू करते हैं। इस मुहिम में वे जब जमीन पर पांव रखते हैं तो स्लो मोशन में
धूल उड़ती है। वे जब मुक्का मारते हैं तो व्यक्ति हवा में गुलाटियां मारता
हुआ भूलंठित होता है। इन दिनों चल रहे एक्शन फिल्मों की सारी तरकीबें फिल्म
में आजमायी गई हैं। सामंती स्वभाव के भूदेव और कलक्टर की टकराहट दशकों
पुरानी कथा लगती है,जो आज के परिवेश में गढ़ी गई है।
'बदला नहीं बदलाव' का विचार बहुत अच्छा है। इस उत्तम विचार को कहानी
में परिणत करने में अनिल शर्मा जैसे प्रसंग और घटना बुनते हैं, वे सब 'सिंह
साहब द ग्रेट' को एक्शन फिल्म में बदल लेते हैं। वही सनी देओल का
चीखना-चिंघाड़ना, साढ़े तीन किलो का मुक्का चलाना और गुंडो को गमछे की तरह
लहराना कुछ दर्शकों को पसंद आ सकता है। अनिल शर्मा ऐसे दर्शकों को संतुष्ट
करने में कुछ ज्यादा ही व्यस्त रह गए हैं, इसलिए बाकी चरित्र और फिल्म की
कहानी अस्त-व्यस्त हो गई है। साथ ही सनी देओल के प्रति उनका अतिरिक्त लगाव
दृश्यों के बोझिल होते विस्तार में दिखता है। ट्रेन का प्रेम प्रसंग और बहन
की शादी में बीवी, अस्पताल और डायलॉगबाजी का दृश्य लंबे और निरर्थक हो गए
हैं। सनी देओल सौंपे गए काम को पूरी ईमानदारी से अंजाम देते हैं, लेकिन सोच
और प्रस्तुति में आए अंतर से अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता। दूसरे भाषा के
प्रति ऐसी लापरवाही। माफ करें अनिल को अनिलवा या देओल को देओलवा कहने मात्र
से पूरबिया भाषा नहीं हो जाएगी। उस लहजे का अपना ग्रामर और उच्चारण है।
प्रकाश राज बेहतरीन अभिनेता हैं। हिंदी फिल्मों को अमरीश पुरी का
सशक्त उत्तराधिकारी मिल गया है। दिक्कत यह है कि सभी निर्देशक उन्हें एक
जैसी ही भूमिकाएं दे रहे हैं। वे टाइपकास्ट होते जा रहे हैं। 'सिंह साहब द
ग्रेट' में वे सनी देओल के मुकाबले जोरदार हैं, लेकिन एक समय के बाद सब कुछ
देखा-सुना लगने लगता है। इन दोनों की भिड़ंत में निर्देशक बाकी किरदारों के
विकास और निर्वाह पर अधिक ध्यान नहीं दे पाए हैं।
अनिल शर्मा ने सनी देओल को सरदार बनाने के साथ दाढ़ी-पगड़ी देकर उनकी
उम्र छिपाने का सुंदर यत्न किया है। बिना दाढ़ी-पगड़ी के दृश्यों के
क्लोजअप में सनी देओल की उम्र झांकने लगी है। फिल्म में महिला चरित्रों को
नाच-गाने के अलावा एक दो इमोशनल दृश्य दे दिए गए हैं। यशपाल शर्मा और मनोज
पाहवा जैसे समर्थ अभिनेताओं को साधारण भूमिकाओं में देखना अच्छा नहीं लगता।
अवधि- 150 मिनट
** 1/2
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