-अजय ब्रह्मात्मज
सन् 2004 में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म
समारोह गोवा पहुंचा। तय हुआ कि अब यह पहले की तरह बारी-बारी से दिल्ली और अन्य
शहरों में आयोजित नहीं होगा। दूसरे देशों के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के तर्ज पर
भारत का एक शहर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के लिए सुनिश्चित किया गया। गोवा
देश का प्रमुख पर्यटन शहर हे। समुद्र, मौसम और संभावनाओं के साथ गोवा अंतर्राष्ट्रीय
फिल्म समारोह का स्थायी आयोजन स्थल बना। पिछले दस सालों में गोवा में आयोजित
भारत के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की खास पहचान बन गई है। रोचक तथ्य है कि
आरंभिक सालों में गोवा के दर्शकों की संख्या कम रहती थी। अब बाहर से आए
प्रतिनिधियों की तुलना में गोवा के दर्शकों की भीड़ बढ़ गई है। देश’विदेश के प्रतिनिध तो आते ही हैं।
थोड़ा पीछे
चलें तो देश की आजादी के पांच सालों के बाद पहला अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह 1952
में मुंबई में आयोजित हुआ। भारत सरकार की इस पहल को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल
नेहरू का समर्थन प्राप्त था। मुंबई में आयोजित पहले फिल्म सामारोह में वे स्वयं
शामिल हुए थे। मुंबई के आयोजन के बाद मद्रास, दिल्ली और कोलकाता में भी इसका
आयोजन हुआ। उद्देश्य था कि देश के प्रमुख फिल्म निर्माण केद्रों में सक्रिय फिल्म
बिरादरी के सदस्य लाभान्वित हों। समारोह में देश-विदेश की महत्वपूर्ण फिल्मों
के प्रदर्शन का सिलसिला तभी से जारी है। फिल्म समारोह के आयोजन और फिल्म सोसायटी
की गतिविधियों से देश में युवा फिल्मकारों को प्रोत्साहन के साथ दृष्टिकोण भी
मिला। याद करें तो आरंभिक दशकों में अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह में ही विदेशों
की बेहतरीन सार्थक और कलात्मक फिल्में देखी जा पाती थीं। तब संचार और प्रदर्शन
के इतने साधन नहीं थे।
1913 से
निजी विशेषताओं के साथ विकसित हो रहे भारतीय सिनेमा में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म
समारोह के प्रभाव से नई गति और दिशा आई। हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं में
पारंपरिक किस्म से मुख्यधारा की फिल्में बनती रहीं, लेकिन उसके समानात्तर छोटी
धाराएं भी आ जुड़ीं। हिंदी में उसे पैरेलल सिनेमा के तौर पर जाना गया। अन्य
भाषाओं में आए इस परिवर्त्तन को इतिहासकारों ने न्यू वेव सिनेमा कहा। इन
परिवर्त्तनों से भारतीय सिनेमा की समसामयिकता और वास्तविकता बढ़ी। देश के
सामाजिक यथार्थ और विसंगतियों को नए फिल्मकारों ने पेश किया। उन्होंने फिल्मों
का नैरेटिव भारतीय रखा, किंतु चित्रण और फिल्मांकन में विदेशी प्रभावों का सुंदर
इस्तेमाल किया। बंगाल में सत्यजित राय महत्वपूर्ण संवेदनशील फिल्मकार के तौर
पर उभरे। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति और प्रतिष्ठा मिली। अन्य भाषाओं में भी
युवा फिल्मकारों ने परिपाटी तोड़ी। सभी ने मिल कर अपने समय को सिनेमाई अभिव्यक्ति
दी। सिनेमा की भिन्नता बढ़ी।
कतिपय आलोचक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के आयोजन पर सवाल खड़े करते हैं। उनकी नजर में विकासशील देश के लिए यह एक किस्म की फिजूजखर्ची है। उन्हें नहीं मालूम कि ऐसे समारोहों में प्रदर्शित फिल्मों से महात्वाकांक्षी युवा फिल्मकारों की सोच को उचित दिशा मिलती है। इन समारोहों की विभिन्न गतिविधियों में हिस्सा लेकर वे अपनी समझ विकसित करते हैं। सफल, अनुभवी और श्रेष्ठ फिल्मकारों से मिलना हमेशा लाभदायक होता है। यकीन न हो तो आज के सक्रिय फिल्मकारों अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज आदि के इंटरव्यू और बॉयोग्राफी पढ़ कर देख लें। ज्यादातर ऐसे समारोहों से ही प्रेरित होकर फिल्मों में आए। फिल्म इंस्टीट्यूट के छात्रों को तो फिल्म इतिहास, परंपरा और प्रवृत्ति की विधिवत शिक्षा मिलती है। संस्थागत
प्रशिक्षण से वंचित युवा और आकांक्षी फिल्मकारो के लिए ये समारोह ही प्रशिक्षण
केंद्र बने। गौर
करने पर पाएंगे कि अधिकांश फिल्मकार निजी प्रयास और अभ्यास से ही फिल्मों में आए। उन्होंने फिल्में देख कर ही तकनीकी बारीकियां सीखीं। आज संचार क्रांति के बाद घर बैठे पूरी दुनिया की फिल्में देखने की सुविधा के बावजूद फिल्म समारोह विचारों के आदान-प्रदान और सिनेमाई समझदारी बढ़ाने के अवसर देते हैं।
भारत के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की प्रेरणा और अनुभव से इन दिनों देश के विभिन्न शहरों में फिल्म फेस्टिवल के आयोजन हो रहे हैं। छोटे-बड़े पैमाने पर आयोजित फिल्म समारोहों ने लंबे समय तक महानगरों की हद में कैद गतिविधियों को आजादी दे दी है। अब विभिन्न प्रांतों के राजधानियों और छोटे शहरों में फिल्म समारोहों के आयोजन होने लगे हैं। छोटी संथाओं से
लेकर मीडिया समूह तक फिल्म समारोहों का आयेजन करने लगे हैं। उद्देश्य और स्वरूप में भिन्न होने पर भी वे अपने सम्मिलित प्रभाव से देश में सिनेमा की नई लहर पैदा करने में सफल रहे हैं। फिल्मों के इतिहासकार बता सकते हैं कि कैसे 21वीं सदी का भारतीय सिनेमा पहले से अधिक विकसित और व्यापक हुआ है। लंबे समय तक फिल्म परिवारों के कब्जे में रहा फिल्म इंडस्ट्री का कारोबार में स्वतंत्र और नए फिल्मकारों की हिस्सेदारी बढ़ी है। कहीं न कहीं यह अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के पिछले 43 आयोजनों का ही प्रभाव है।
पिछले सालों की तरह ही 44वें अंतर्राष्ट्रीय समारोह में भारतीय पैनोरमा और विदेशी फिल्मों के खंड हैं। इस साल लगभग 325 फिल्में प्रदर्शित होंगी। इंडियन पैनोरमा खंड में 26 फीचर और 16 नॉन फीचर फिल्में हैं। फीचर फिल्मों में हिंदी की सफल ‘भाग मिल्खा भाग’ और प्रशंसित ‘पान सिंह तोमर’ के साथ अन्य भाषाओं की भी फिल्में हैं। इस खंड में पिछले साल की प्रदर्शित 25 चुनिंदा फिल्मों को स्थान मिलता है। इस बार पान सिंह
तोमर की सीधी एंट्री मिली है। यह एक प्रकार से भारतीय सिनेमा के पिछले साल का शो केस होता है। इस साल देश के नॉर्थ-ईस्ट प्रदेशों की फिल्मों को विशेष रूप से रेखांकित किया जा रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों के 18 फिल्में प्रदर्शन के लिए चुनी गई हैं। पूर्वोत्तर राज्यों की फिल्मों के उद्घाटन समारोह में मेघालय के मुख्यमंत्री मुकुल संगमा शामिल होंगे। 44वां अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह पूर्वोत्तर राज्यों की फिल्मों के प्रदर्शन से उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ने का सार्थक प्रयास कर रहा है। इस साल शायर प्रेमी और तवायफ खंड में 28 चुनिंदा फिल्में प्रदर्शित होंगी। इन सभी फिल्मों का फोकस ऐसे किरदारों पर है, जो इन समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह दिवंगत प्रतिभाओं की श्रद्धांजलि और महान फिल्मकारों की स्मृति का भी अवसर होता है। इस साल दादा साहेब फालके पुरस्कार से सम्मानित प्राण को श्रद्धांजलि दी जाएगी। इस अवसर पर उनकी तीन प्रतिनिधि फिल्में ‘मधुमती’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘जंजीर’ प्रदर्शित की जाएगी। उम्मीद है कि उनकी फिल्मों से जुड़े मित्र और परिवार के सदस्य भी इस कार्यक्रम में शामिल होंगे। मनोज कुमार और बुद्धदेव दासगुप्ता का विशेष स्मरण और रेखांकन भी किया जाएगा। दोनों ही फिल्मकारों के योगदान को प्रकाशित करने के साथ नई पीढ़ी से उन्हें परिचित कराया जाएगा। इसी श्रेणी में दिवंगत ख्वाजा अहमद अब्बास की भी फिल्में दिखाई जाएंगी। गोवा में आयोजित इस बार के समारोह में सिनेमा के 100 साल पूरे होने के अवसर पर विशेष फिल्मी हस्तियों को शताब्दी पुरस्कार भी दिए जाएंगे। इस पुरस्कार से सम्मानित होने वाली हस्तियों में से एक वहीदा रहमान भी हैं।
अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की ओपनिंग फिल्म चेक गणराज्य की ‘द डॉ न जुआन’ है।
इसके निर्देशक जिरी मेंजल को इस साल लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से भी सम्मानित
किया जाएगा। उन्होंने ‘डॉन जुआन’ की मशहूर कहानी
को अपनी शैली में चेक भाषा में प्रस्तुत किया है। जिरी मेंजल की फिल्मों में
हास्य का अद्भुत पुट रहता है। उनकी सभी फिल्मों में कहानी का कॉमिकल निर्वाह
दर्शकों को शुद्ध मनोरंजन देता है। चेक गणराज्य के प्रमुख फिल्मकार जिरी मेंजल
लंबे समय तक थिएटर में भी एक्टिव रहे हैं। समारोह की समापन फिल्म ‘मंडेला
लांग वाक टू फ्रीडम’ है। नेल्सन मंडेला की 1994 में प्रकाशित
इसी नाम की आत्मकथा पर आधारित यह फिल्म उनके जीवन की प्रमुख राजनीतक घटनाओं और
संघर्ष को बुनती हुई चलती है। उनके व्यक्तिगत जीवन को भी फिल्म में दर्शाया गया
है। इसका निर्देशन जस्टिन चैडविक ने किया है। दक्षिण अफ्रीका की इस फिल्म के मुख्य
कलाकार इदरीस एल्बा और नाओमी हैरिस हैं।
गोवा
में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की एक बड़ा आकर्षण फिल्म बाजार है।
पिछले कुछ सालों में एनएफडीसी के प्रयासों से फिल्म बाजार की गतिविधियां तेज और
प्रभावोत्पादक हुई है। फिल्म बाजार की कुछ फिल्में विकसित होकर प्रदर्शित हुईं
और उन्हें दर्शकों की भरपूर सराहना मिली। ‘किस्सा’, ‘द लंच
बॉक्स’ जैसी फिल्में दर्शकों को याद होंगी। इन फिल्मों को
फिल्म बाजार से ही सहयोगी निर्माता और आवश्यक वित्तीय सहायता मिली। फिल्म
बाजार में हर साल युवा फिल्मकार अपनी निर्माणाधीन फिल्मों के साथ पहुंचते हैं।
वे अपनी फिल्मों की झलक और लुक दिखा कर सहयोगी निर्माता जुटाते हैं। इस कार्य में
फिल्म बाजार उन्हें सलाह-मशविरा, मार्ग दर्शन और प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है।
बताया जाता है कि फिल्म बाजार की लोकप्रियता बढ़ी है, क्योंकि पिछले कुछ सालों
में यहां लाई गई फिल्मों ने पूरी होने के बाद अनेक फिल्म समारोहों में हिस्सा
लिया और पुरस्कार बटोरे।
उम्मीद
की जा रही है कि 44 वां अतर्राष्ट्रीय फिल्म समरोह पिछले सालों की तरह ही गोवा
आए प्रतिनिधयों को सार्थक और सुखद सिनेमाई अनुभन देगा।
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