फिल्म समीक्षा : वार छोड़ ना यार
कोशिश हुई बेकार
-अजय ब्रह्मात्मज
ऐसी फिल्में कम बनती हैं, लेकिन ऐसी बचकानी फिल्में और भी कम बनती हैं।
फराज हैदर ने भारत-पाकिस्तान के बीच विभाजन के बाद जारी पीढि़यों की
तनातनी और युद्ध के माहौल को शांति और अमन की सोच के साथ मजाकिया तौर पर
पेश किया है। फराज हैदर का विचार प्रशंसनीय है, लेकिन इस विचार को रेखांकित
करती उनकी फिल्म 'वार छोड़ ना यार' निराश करती है।
सीमा के आर-पार तैनात भारत-पाकिस्तान के कप्तानों के बीच ताश का खेल
होता है। हंसी-मजाक और फब्तियां कसी जाती हैं। तनाव बिल्कुल नहीं है। बस
जुड़ाव ही जुड़ाव है। इस जुड़ाव के बीच दोनों देशों को विभाजित करते कंटीले
तार हैं। युद्ध की संभावना देखते ही एक चैनल की रिपोर्टर रुत दत्ता सीमा पर
पहुंच जाती है। युद्ध की विभीषिका से परिचित होने पर वह दोनों देशों के
सैनिकों की भावनाओं की सच्ची रिपोर्टिग करती है। जन अभियान आरंभ हो जाता
है। दोनों देशों को युद्ध रोकना पड़ता है।
फराज हैदर के पास जावेद जाफरी और शरमन जोशी जैसे बेहतरीन कलाकार थे।
उन्होंने स्क्रिप्ट की सीमाओं में ही कुछ बेहतर प्रदर्शन की कोशिश की है।
छिटपुट दृश्यों में संजय मिश्र और सोहा अली खान भी अच्छे लगते हैं। इस
फिल्म की सबसे बड़ी दिक्कत पटकथा में विचार को पिरोना रहा है।
लेखक-निर्देशक इसमें सक्षम नहीं रहे हैं।
कुछ तरकीबें अच्छी जैसे दिलीप ताहिल को तिहरी भूमिका में सत्ता के
प्रतिनिधि के तौर पर दिखाना प्रतीकात्मक प्रयोग है। सत्ता का एक ही चेहरा
होता है। युद्ध भड़काने के लिए चीन की पहल नहीं जमीं और चीनी सामानों का
बहिष्कार तो बिल्कुल सरलीकरण है। फिल्म में गानों की गुंजाइश नहीं थी।
उन्हें जबरदस्ती गूंथा गया है।
*1/2 डेढ़ स्टारअवधि-152 मिनट
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