दरअसल : ‘बेशर्म’ और ‘बॉस’ के समान लक्षण
-अजय ब्रह्मात्मज
इस महीने रिलीज हईं ‘बेशर्म’ और ‘बॉस’ समान वजहों से याद की जाएंगी। भविष्य में ट्रेड पंडित इनके साक्ष्य से उदाहरण देंगे। निर्माता-निर्देशक भी अपनी योजनाओं में इनका खयाल रखेंगे। दोनों फिल्में लालच के दुष्परिणाम का उदाहरण बन गई हैं। कैसे?
‘बेशर्म’ के निर्माता रिलाएंस और निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप ने तय किया कि 2 अक्टूबर को मिली गांधी जयंती की छुट्टी का उपयोग करें। 2 अक्टूबर को बुधवार था। उन्होंने शुक्रवार के बजाए बुधवार को ही ‘बेशर्म’ रिलीज कर दी। 3 दिनों के वीकएंड को खींच कर उन्होंने पांच दिनों का कर दिया। साथ ही यह उम्मीद रखी कि रणबीर कपूर की ‘बेशर्म’ देखने के लिए दर्शक टूट पड़ेंगे। दर्शक टूटे। पहले दिन फिल्म का जबरदस्त कलेक्शन रहा। अगर वही कलेक्शन बरकरार रहता या सफल फिल्मों के ट्रेंड की तरह चढ़ता तो ‘बेशर्म’ चार-पांच दिनों में ही 100 करोड़ क्लब में पहुंच जाती। ऐसा नहीं हो सका। फिल्म का कलेक्शन पांच दिनों में 40 करोड़ के आसपास ही पहुंचा।
दो हफ्ते के बाद फिर से बुधवार आया। इस बार बकरीद थी। बकरीद की भी छुट्टी थी। लिहाजा वॉयकॉम और अक्षय कुमार ने अपनी फिल्म ‘बॉस’ की रिलीज दो दिन पहले कर ली। फिल्म बुधवार को रिलीज हुई। पहले दिन 12 करेाड़ के लगभग कलेक्शन रहा। अगले दिन से ‘बेशर्म’ की तरह ही ‘बॉस’ का भी कलेक्शन गिरा। इस फिल्म ने भी पांच दिनों के वीकएंड में 40 करोड़ के आसपास का ही कारोबार किया।
दोनों फिल्में महंगी थी। दोनों में पॉपुलर स्टार थे। दोनों का बेहतरीन प्रचार हुआ था। दोनों मसाला एंटरटेनमेंट थीं। इन दिनों इसका चलन बढ़ा हुआ है। आमिर, सलमान, शाहरुख, अजय सभी इस मसाला एंटरटेनमेंट की बहती कमाई से अपनी तिजोरी भर चुके हैं। अक्षय कुमार को भी पहले लाभ हुआ है। रणबीर कपूर ने ‘ये जवानी है दीवानी’ से 100 करोड़ क्लब में दस्तक दी थी। अभी वे इस क्लब का आनंद उठाते कि उन्हें क्लब से बाहर निकलना पड़ा। हालांकि इससे उनकी पापुलैरिटी में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है, लेकिन स्टारडम तो प्रभावित हो गया। उन्हें फिर से जोर लगाना पड़ेगा। अगली फिल्म ‘बांबे वेलवेट’ या उसकी रिलीज के पहले उन्हें किसी और फिल्म से 100 करोड़ क्लब में आना पड़ेगा। दरअसल, हमारे पापुलर स्टारों ने खुद के लिए ही मुसीबत खड़ी कर ली है। कामयाब स्टार की अगली कतार में रहने के लिए यह जरूरी हो गया है। अभी सारे स्टारों का जोर कमाई पर है। क्रिएटिव संतोष कमाई के बाद आता है। सभी बेशर्मी से खुलेआम कहते हैं कि आखिरकार फिल्म का बिजनेस मायने रखता है। एप्रीसिएशन से क्या होता है?
‘बेशर्म’ और ‘बॉस’ इस बात के भी उदाहरण हैं कि मसाला मनोरंजन के जोनर का अधिकतम दोहन हो चुका है। सलमान खान ने एक इंटरव्यू में कहा था कि दर्शक मसाला मनोरंजन से ऊब जाएंगे और फिर हमें कुछ और करना होगा? उनका अनुमान सही निकला। लोग सचमुच ऊब चुके हैं। मुझे तो लगता है कि प्रभु देवा के निर्देशन में आ रही ‘आर ़ ़ ़ राजकुमार’ इस जोनर की आखिरी बड़ी कोशिश होगी। उस फिल्म के साथ ‘वांटेड’ से आरंभ हुआ चक्र पूरा हो जाएगा। ‘बेशर्म’ और ‘बॉस’ की असफलता निर्माताओं के लिए सबक है। दोनों ही फिल्मों ने दर्शकों की परवाह नहीं की। कहीं न कहीं दोनों फिल्में निर्देशक की खामखयाली और निर्माताओं की अल्पदृष्टि से इस हाल में पहुंची।
गौर करें तो दर्शक दोनों ही फिल्मों को पहले दिन देखने गए। दूसरे दिन से उनकी संख्या में आई गिरावट सबूत है कि फिल्म उन्हें पसंद नहीं आईं। वे दोबारा थिएटर नहीं गए। बाहर निकल कर उन्होंने फिल्म की बुराई भी की। आम तौर पर चालू किस्म की फिल्मों को भी पॉजीटिव माउथ पब्लिसिटी मिल जाती। ‘बेशर्म’ और ‘बॉस’ के प्रति दर्शकों का रवैया निगेटिव रहा। उन्होंने बता और जता दिया कि अब बहुत हो गया। उनकी नाखुशी का परिणाम दिख गया।
लेकिन क्या हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों के सिर पर सवार कामयाबी का भूत उतरेगा? अगर वे ठहर कर सोचें तो उन्हें इस से छुटकारा लेना ही होगा। अच्छी बात है कि सीमित बजट में बनी बेहतरीन फिल्में दर्शकों को उम्दा बिजनेस देने के साथ निर्माताओं को लाभ भी दे रही है। ‘लंचबॉक्स’ और ‘शाहिद’ अपनी सीमाओं में सफल फिल्में हैं। दोनों संवेदनशील और यथार्थपरक भी हैं। निश्चित ही मुख्यधारा के फिल्मकारों को ऐसी फिल्मों से कुछ सीखना चाहिए।
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