यार मेरी जिंदगी... आनंद एल राय-हिमांशु शर्मा
तनु वेड्स मनु के बाद रांझणा के रूप में दूसरी खूबसूरत फिल्म देने के बाद यह जोड़ी चर्चा में है. फिल्मकार आनंद एल राय और लेखक हिमांशु शर्मा की दोस्ती के बारे में बता रहे हैं रघुवेन्द्र सिंह
वो बड़े भाग्यशाली होते हैं, जिनके हिस्से सच्ची दोस्ती आती है. और बात जब
फिल्म इंडस्ट्री जैसी एक अति व्यावहारिक और घोर व्यावसायिक जगह की हो, तो
फिर इसका महत्व शिव की जटा से निकली गंगा सा हो जाता है. हिमांशु शर्मा
2004 में मुंबई पहुंचे, लखनऊ से वाया दिल्ली होते हुए. दिल्ली के किरोड़ीमल
कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद वह एनडीटीवी में आठ महीने नौकरी कर चुके थे.
चैनल में वह बतौर लेखक कार्यरत थे. सच्चाई उनकी जुबान पर रहती थी. हकीकत को
वह बेलाग-लपेट मुंह पर ही बोल देते थे. उसका खामियाजा भी उन्हें उठाना
पड़ता था. ''मुझे कई प्रोड्यूसर्स ने यह कहकर निकाल दिया गया कि मैं बदतमीज
और डिस्ट्रैक्टिव हूं. हिमांशु बताते हैं. लेकिन उनकी यही खूबी आनंद एल
राय को भा गई. ''इससे पहली मुलाकात में ही मुझे समझ में आ गया था कि इसके
दिल में जो है, वही जुबान पर है." आनंद बताते हैं.
आनंद और हिमांशु की पहली भेंट एक कॉमन दोस्त के जरिए हुई थी. सिनेमा और
खाने में दोनों की समान रुचि है. दोनों की पसंदीदा रोमांटिक फिल्म गाइड है.
हिमांशु हंसते हुए कहते हैं, ''हमारी जोड़ी की स्ट्रेंथ खाना है. हामी
भरते हुए आनंद कहते हैं, ''हां, हम खाते बहुत हैं, लेकिन मुझे लगता है कि
हम इस वजह से साथ चल रहे हैं, क्योंकि यह राइटर जैसा राइटर नहीं है और मैं
डायरेक्टर जैसा डायरेक्टर नहीं हूं."
हिमांशु को आज तक नहीं पता कि वह फिल्म लेखन में क्यों आए. शायद इसीलिए उन्हें यह भी नहीं पता कि वह जिंदगियों को पन्ने पर उतारते कैसे हैं. ''मुझे जो अच्छा लगता है, मैं लिख देता हूं और फिर उम्मीद करता हूं कि दस में से पांच या छह लोग उसे पसंद करेंगे. क्योंकि मैं भी उन्हीं के बीच से आया हूं. मैं गोविंदा की फिल्में देखकर बड़ा हुआ हूं. मैं प्रशिक्षित लेखक नहीं हूं. हिमांशु साफगोई से कहते हैं. लेकिन आनंद राय को पता है कि आज वह फिल्ममेकिंग में क्यों हैं. औरंगाबाद (महाराष्ट्र) की बीएएम यूनिवर्सिटी में वह कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने यह सोचकर गए थे कि नित कुछ नया करने को मिलेगा. 1986 का एक किस्सा आनंद बताते हैं, ''कंप्यूटर इंडिया में आया ही था. मैं सोचता था कि कंप्यूटर इंजीनियर बनूंगा, तो जिंदगी में हमेशा नयापन रहेगा. पर पढ़ाई के दौरान मुझे एहसास हो गया कि इसमें मुझे क्रिएटिव स्पेस नहीं मिल रहा है."
हिमांशु को आज तक नहीं पता कि वह फिल्म लेखन में क्यों आए. शायद इसीलिए उन्हें यह भी नहीं पता कि वह जिंदगियों को पन्ने पर उतारते कैसे हैं. ''मुझे जो अच्छा लगता है, मैं लिख देता हूं और फिर उम्मीद करता हूं कि दस में से पांच या छह लोग उसे पसंद करेंगे. क्योंकि मैं भी उन्हीं के बीच से आया हूं. मैं गोविंदा की फिल्में देखकर बड़ा हुआ हूं. मैं प्रशिक्षित लेखक नहीं हूं. हिमांशु साफगोई से कहते हैं. लेकिन आनंद राय को पता है कि आज वह फिल्ममेकिंग में क्यों हैं. औरंगाबाद (महाराष्ट्र) की बीएएम यूनिवर्सिटी में वह कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने यह सोचकर गए थे कि नित कुछ नया करने को मिलेगा. 1986 का एक किस्सा आनंद बताते हैं, ''कंप्यूटर इंडिया में आया ही था. मैं सोचता था कि कंप्यूटर इंजीनियर बनूंगा, तो जिंदगी में हमेशा नयापन रहेगा. पर पढ़ाई के दौरान मुझे एहसास हो गया कि इसमें मुझे क्रिएटिव स्पेस नहीं मिल रहा है."
आनंद अपनी बात खत्म करते कि हिमांशु ने उन पर यह मीठा सा इल्जाम लगा दिया,
''एक लडक़ा, जो इंजीनियरिंग करके देश की सेवा करता, आपने उसकी सीट खा ली
सर. जवाब में आनंद ने कहा, ''मैं भी तो देश की सेवा कर रहा हूं.
इंजीनियरिंग का इस्तेमाल मैं फिल्ममेकिंग में कर तो रहा हूं. तू कहता है
नहीं है कि यार, आप टाइम डिवीजन कमाल का करते हो." मुंबई आने के बाद आनंद
अपने बड़े भाई रवि राय के साथ काम करने लगे, जो टीवी में सक्रिय थे. आनंद
ने पहला टीवी सीरियल सोनी के लिए थोड़ा है थोड़े की जरूरत है डायरेक्ट
किया. फिर बाद में, भाई के साथ मिलकर उन्होंने पंद्रह से अधिक टीवी शोज का
निर्माण किया.
2006 में आनंद और हिमांशु ने मिलकर अपना पहला कदम बढ़ाया. स्ट्रेंजर के रूप में इस जोड़ी का पहला काम सामने आया, लेकिन दर्शकों ने इसे अपनाने से इंकार कर दिया. नाकामयाबी हाथ लगी. इसकी जिम्मेदारी आनंद खुद पर लेते हैं. ''मैं दर्शकों को कहानी सुनाना भूल गया. मैं उन्हें यह दिखाने लगा कि देखो, मैं क्या-क्या दिखा सकता हूं. मैं खुद को कहानी सुनाने लगा था." स्ट्रेंजर को वे सबक के तौर पर लेते हैं, ''उस फिल्म ने मुझे सिखाया कि फिल्म का दर्शकों से कम्युनिकेशन होना चाहिए."
इस फिल्म के बाद हिमांशु और आनंद बेरोजगार हो गए. हिमांशु ने अपना रास्ता अख्तियार कर लिया. वह टशन फिल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर जुड़ गए. बकौल आनंद, ''यह मुझे छोडक़र चला गया था." हिमांशु जवाब देते हैं, ''छोडक़र मतलब? रोटी खाएं या ना खाएं?" आनंद हंसते हुए कहते हैं, ''जब ये टशन कर रहा था, तब भी हमने बहुत आइसक्रीमें साथ खाईं बैठकर." फिर वह दार्शनिक अंदाज में कहते हैं, ''सफलता-असफलता, दोनों आने के बाद नॉर्मल होने में वक्त लेती हैं. मुझे भी संभलने के लिए टाइम चाहिए था. मेरे पास पैसों की कमी आ गई थी. उस वक्त मैंने जी कैफे के लिए बॉम्बे टॉकिंग नाम की अंग्रेजी सीरीज बनाई. उसके लिए अच्छा-खासा पैसा मिला. फिर मुझे लगा कि अब एक-डेढ़ साल टेंशन नहीं है."
2006 में आनंद और हिमांशु ने मिलकर अपना पहला कदम बढ़ाया. स्ट्रेंजर के रूप में इस जोड़ी का पहला काम सामने आया, लेकिन दर्शकों ने इसे अपनाने से इंकार कर दिया. नाकामयाबी हाथ लगी. इसकी जिम्मेदारी आनंद खुद पर लेते हैं. ''मैं दर्शकों को कहानी सुनाना भूल गया. मैं उन्हें यह दिखाने लगा कि देखो, मैं क्या-क्या दिखा सकता हूं. मैं खुद को कहानी सुनाने लगा था." स्ट्रेंजर को वे सबक के तौर पर लेते हैं, ''उस फिल्म ने मुझे सिखाया कि फिल्म का दर्शकों से कम्युनिकेशन होना चाहिए."
इस फिल्म के बाद हिमांशु और आनंद बेरोजगार हो गए. हिमांशु ने अपना रास्ता अख्तियार कर लिया. वह टशन फिल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर जुड़ गए. बकौल आनंद, ''यह मुझे छोडक़र चला गया था." हिमांशु जवाब देते हैं, ''छोडक़र मतलब? रोटी खाएं या ना खाएं?" आनंद हंसते हुए कहते हैं, ''जब ये टशन कर रहा था, तब भी हमने बहुत आइसक्रीमें साथ खाईं बैठकर." फिर वह दार्शनिक अंदाज में कहते हैं, ''सफलता-असफलता, दोनों आने के बाद नॉर्मल होने में वक्त लेती हैं. मुझे भी संभलने के लिए टाइम चाहिए था. मेरे पास पैसों की कमी आ गई थी. उस वक्त मैंने जी कैफे के लिए बॉम्बे टॉकिंग नाम की अंग्रेजी सीरीज बनाई. उसके लिए अच्छा-खासा पैसा मिला. फिर मुझे लगा कि अब एक-डेढ़ साल टेंशन नहीं है."
हिमांशु तनु वेड्स मनु की स्क्रिप्ट के साथ 2008 में आनंद के पास लौटे.
''इसने जब मुझे कहानी सुनाई, तो मुझे लग गया कि यह कहानी वर्क करेगी." आनंद
बताते हैं. तनु वेड्स मनु ने न केवल इन्हें सफल लेखक-निर्देशक के तौर पर
स्थापित किया, बल्कि इसमें केंद्रीय भूमिका निभाने वाली कंगना रनौत के
करियर के लिए टर्निंग पॉइंट फिल्म साबित हुई. ऐसा ही कुछ आलम रहा इस जोड़ी
की हालिया आई फिल्म रांझणा का. इसने बॉक्स-ऑफिस पर सौ करोड़ रुपए की आमदनी
तो की ही, सोनम कपूर को दमदार अभिनेत्री और तमिल सिनेमा के सुपरस्टार धनुष
को हिंदी क्षेत्र में लोकप्रिय बना दिया. और तनु वेड्स मनु एवं रांझणा की
एक विशेषता, जिसने सबका ध्यान खींचा, वह इसके कथानक की उत्तर भारतीय
पृष्ठभूमि रही. पहले कानपुर और फिर बनारस को इस जोड़ी ने जस का जस पर्दे पर
उतार दिया. आनंद कहते हैं, ''हम इन शहरों में टूरिस्ट बनकर नहीं जाना
चाहते. हमने स्थानीय लोगों की नजर से इन शहरों को दिखाया." दोबारा अपनी
फिल्म का कथानक यूपी चुनने के बाबत आनंद कहते हैं, ''जो आपके हिस्से का है,
पहले उसे दिखा लें. फिर हम भी शायद फ्लाइट पकडक़र यूरोप चले जाएंगे."
हिमांशु अपना मत रखते हैं, ''हम जियोग्राफी के हिसाब से कहानी नहीं लिखते
हैं. मुझे लगता है कि कहानी खुद ब खुद बता देती है कि उसे क्या जियोग्राफी
चाहिए."
हिमांशु इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि हिंदी फिल्मों ने गांव-कस्बों का
सही चित्रण पर्दे पर नहीं किया है. उनके अनुसार, ''हमने रोमांटिसाइज बहुत
किया है. हरिया खेत में काम कर रहा है, ट्यूबेल चल रहा है, बीवी खाना लेकर
आती है. वह मुक्के से प्याज तोड़ता है, चटनी के साथ रोटी खाता है. सर,
पॉइंट ये है कि हरिया बहुत दुखी है. वो खेत में काम करके बर्बाद हो गया है.
असली हालत बहुत खराब है. सही चित्रण नहीं हुआ है फिल्मों में." और आनंद
अपनी फिल्मों की एक सच्चाई बयां करते हैं, ''हमारे किरदार असली बातें करते
हैं. आप जैसे हो, वैसे ही पेश आ जाओ. जिंदगी आसान हो जाएगी. जिसे प्यार
करना होगा, वह कर लेगा. जिसे दुत्कारना होगा, वह दुत्कार देगा. एनर्जी मत
वेस्ट करो कि आओ, मुझे प्यार करो."
रांझणा में कुंदन और जोया की प्रेम कहानी जिस तरीके से आकार लेती है, उस पर
कुछ लोगों ने सवाल उठाए. कुंदन के जोया की राह में बार-बार आने को लोगों
ने छेडख़ानी का नाम दिया. यह बात हिमांशु और आनंद दोनों को समझ से परे लग
रही है. हिमांशु कहते हैं, ''स्टॉकिंग बहुत हार्श शब्द है. किस पल बचपन
वाली जोया डरी हुई नजर आती है? उल्टा वह पलटकर बोलती है कि थप्पड़ मार
देंगे. सारी रंगबाजी निकल जाएगी दो मिनट में. पर वह कहीं डरी नहीं है."
आनंद सवाल उठाते हैं, ''ऐसा आरोप लगाने वालों से मैं पूछना चहता हूं कि डर
में क्या था? क्या शाहरुख करें, तो आपको मंजूर है वो? तब आपको अच्छा लगता
है?" हिमांशु अपनी बात को विस्तार देते हैं, ''कम कपड़े पहनाकर आइटम नंबर
करवाने से बेहतर है कि एक निगेटिव कैरेक्टर बना दो. ये ज्यादा इज्जत वाला
काम है. कम कपड़े पहनकर आइटम नंबर करवाना बेहतर लगता है आपको? वहां पर
उंगली नहीं उठाते आप?"
आनंद राय के करीबियों से आप बात करें, तो सब उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वह सब पर भावनात्मक अत्याचार करते हैं. हिमांशु हंसते हुए कहते हैं, ''मैं जीता-जागता उदाहरण हूं. पिछले पांच साल से यह इंसान मुझे कहीं जाने नहीं दे रहा है." आनंद अपनी हंसी रोकते हुए कहते हैं, ''मैं प्यार से दुनिया चलाता हूं. और यह लोगों की चॉइस होती है. प्यार में एक्सप्लॉएट होना लोगों को अच्छा लगता है. मुझे ऐसा करके बुरा नहीं लगता है." आनंद-हिमांशु एक-दूसरे की टांग खिंचाई एवं मजा लेने का मौका गंवाते नहीं हैं, लेकिन जरूरत पडऩे पर एक-दूसरे के लिए निस्वार्थ भाव से खड़े भी रहते हैं. इनकी दोस्ती को समझना है, तो आप रांझणा के कुंदन और मुरारी की दोस्ती को देख लें.
क्या हिमांशु किसी दूसरे फिल्मकार के लिए लिखेंगे या आनंद किसी दूसरे लेखक की कहानी पर फिल्म बनाएंगे? यह बड़ा मुश्किल सवाल है, लेकिन आनंद जवाब देते हैं, ''मैं करना चाहूंगा, लेकिन नहीं कर पा रहा हूं. एक कंफर्ट लेवल बन गया है. मुझे इसके कैरेक्टर्स की आदत पड़ गई है." हिमांशु जवाब में कहते हैं, ''इनके बाद मैं किसी दूसरे डायरेक्टर की बजाए खुद के लिए लिखना चाहूंगा. मैं ऐसे काम नहीं कर सकता कि ये कॉन्सेप्ट है, इसे डेवेलप कर दो. ये कहानी में होना चाहिए और ये हटा दो." हिमांशु आगे कहते हैं, ''मैं अपने लिए लिखता हूं. ये अलग बात है कि आनंद जी को मेरा लेखन अच्छा लगता है." प्रतिक्रिया में आनंद कहते हैं, ''हिमांशु की यह बात मुझे पसंद है कि यह बेधडक़ लिखता है. इसकी कहानी में एक टेक होता है. इसकी राइटिंग ओरिजिनल है, जो आज के समय में बहुत कम देखने को मिलती है." और वे आगे कहते हैं, ''मुझे खुद के अंदर कभी राइटर नहीं दिखा. मेरी कमजोरी यह रही है कि मुझे अपने कैरेक्टर्स से प्यार हो जाता है. उसी को मैंने अपना प्लस बनाने की कोशिश की है."
रांझणा के बाद हिमांशु क्या लिख रहे हैं? इसका जवाब हिमांशु देते कि आनंद ने कहा, ''मैंने कुछ दिन पहले इसके घर पर जैपेनीज फिल्मों की डीवीडी देखी." और फिर दोनों ठहाका मारकर हंसने लगे.
आनंद राय के करीबियों से आप बात करें, तो सब उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वह सब पर भावनात्मक अत्याचार करते हैं. हिमांशु हंसते हुए कहते हैं, ''मैं जीता-जागता उदाहरण हूं. पिछले पांच साल से यह इंसान मुझे कहीं जाने नहीं दे रहा है." आनंद अपनी हंसी रोकते हुए कहते हैं, ''मैं प्यार से दुनिया चलाता हूं. और यह लोगों की चॉइस होती है. प्यार में एक्सप्लॉएट होना लोगों को अच्छा लगता है. मुझे ऐसा करके बुरा नहीं लगता है." आनंद-हिमांशु एक-दूसरे की टांग खिंचाई एवं मजा लेने का मौका गंवाते नहीं हैं, लेकिन जरूरत पडऩे पर एक-दूसरे के लिए निस्वार्थ भाव से खड़े भी रहते हैं. इनकी दोस्ती को समझना है, तो आप रांझणा के कुंदन और मुरारी की दोस्ती को देख लें.
क्या हिमांशु किसी दूसरे फिल्मकार के लिए लिखेंगे या आनंद किसी दूसरे लेखक की कहानी पर फिल्म बनाएंगे? यह बड़ा मुश्किल सवाल है, लेकिन आनंद जवाब देते हैं, ''मैं करना चाहूंगा, लेकिन नहीं कर पा रहा हूं. एक कंफर्ट लेवल बन गया है. मुझे इसके कैरेक्टर्स की आदत पड़ गई है." हिमांशु जवाब में कहते हैं, ''इनके बाद मैं किसी दूसरे डायरेक्टर की बजाए खुद के लिए लिखना चाहूंगा. मैं ऐसे काम नहीं कर सकता कि ये कॉन्सेप्ट है, इसे डेवेलप कर दो. ये कहानी में होना चाहिए और ये हटा दो." हिमांशु आगे कहते हैं, ''मैं अपने लिए लिखता हूं. ये अलग बात है कि आनंद जी को मेरा लेखन अच्छा लगता है." प्रतिक्रिया में आनंद कहते हैं, ''हिमांशु की यह बात मुझे पसंद है कि यह बेधडक़ लिखता है. इसकी कहानी में एक टेक होता है. इसकी राइटिंग ओरिजिनल है, जो आज के समय में बहुत कम देखने को मिलती है." और वे आगे कहते हैं, ''मुझे खुद के अंदर कभी राइटर नहीं दिखा. मेरी कमजोरी यह रही है कि मुझे अपने कैरेक्टर्स से प्यार हो जाता है. उसी को मैंने अपना प्लस बनाने की कोशिश की है."
रांझणा के बाद हिमांशु क्या लिख रहे हैं? इसका जवाब हिमांशु देते कि आनंद ने कहा, ''मैंने कुछ दिन पहले इसके घर पर जैपेनीज फिल्मों की डीवीडी देखी." और फिर दोनों ठहाका मारकर हंसने लगे.
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