फिल्म समीक्षा : शाहिद
गैरमामूली शख्सियत का सच
-अजय ब्रह्मात्मज
-अजय ब्रह्मात्मज
शाहिद सच्ची कहानी है शाहिद आजमी की। शाहिद आजमी ने मुंबई में गुजर-बसर
की। किशोरावस्था में सांप्रदायिक दंगे के भुक्तभोगी रहे शाहिद ने किसी भटके
किशोर की तरह आतंकवाद की राह ली, लेकिन सच्चाई से वाकिफ होने पर वह लौटा।
फिर पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया। सालों की सजा में
शाहिद ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। बाहर निकलने पर वकालत की पढ़ाई की। और फिर
उन बेकसूर मजलूमों के मुकदमे लड़े, जो सत्ता और समाज के कानूनी शिकंजे में
लाचार जकड़े थे।
शाहिद ने ताजिंदगी बेखौफ उनकी वकालत की और उन्हें आजाद आम जिंदगी दिलाने में
उनकी मदद की। शाहिद की यह हरकत समाज के कुछ व्यक्तियों को नागवार गुजरी।
उन्होंने उसे चेतावनी दी। वह फिर भी नहीं डरा तो आखिरकार उसके दफ्तर में ही
उसे गोली मार दी। हंसल मेहता की फिल्म 'शाहिद' यहीं से आंरभ होती है और
उसकी मामूली जिंदगी में लौट कर एक गैरमामूली कहानी कहती है।
'शाहिद' हंसल मेहता की साहसिक क्रिएटिव कोशिश है। अमूमन ऐसे व्यक्तियों
पर दो-चार खबरों के अलावा कोई गौर नहीं करता। इनकी लड़ाई, जीत और मौत
नजरअंदाज कर दी जाती है। गुमनाम रह जाती है। भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों
के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया और समझ जारी रहने की वजह से ही ऐसा होता है।
'शाहिद' में एक संवाद है कि सिर्फ अपने नाम और मजहब की वजह से फहीम जेल
में है। अगर उसका नाम सुरेश, जैकब या कुछ और होता तो उस पर शक नहीं किया
जाता। देश की यह अफसोसनाक सच्चाई है कि विभाजन के बाद से हिंदू-मुसलमान
समुदाय के बीच ठोस सद्भाव कायम नहीं हो सका। ताजा उदाहरण मुजफ्फरनगर में
हुए दंगे हैं। इस पृष्ठभूमि में 'शाहिद' सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं रह
जाती। यह समुदाय, समाज और देश की कहानी बन जाती है।
हिंदी फिल्मों के नायक मुसलमान नहीं होते। यह भी एक कड़वी सच्चाई है। हर
साल सैकड़ों फिल्में बनती हैं। उनमें मुसलमान किरदार भी होते हैं, लेकिन
उन्हें ज्यादातर निगेटिव शेड्स में दिखाया जाता है। दशकों पहले मुस्लिम
सोशल बनते थे, जिनमें पतनशील नवाबी माहौल का नॉस्टेलजिक चित्रण होता था।
तहजीब, इत्र, शायरी, बुर्के और पर्दे की बातें होती थीं। उन फिल्मों में भी
मुस्लिम समाज की सोशल रिएलिटी नहीं दिखती थी। सालों पहले 'गर्म हवा' में
विभाजन के बाद भारत से नहीं गए एक मुसलमान परिवार की व्यथा को एम एस सथ्यू
ने सही ढंग से पेश किया था। संदर्भ और स्थितियां बदल गई हैं, लेकिन सोच और
समझ में अधिक बदलाव नहीं आया। 'शाहिद' एक अर्थ में कमोबेश 'गर्म हवा' की
परंपरा की फिल्म है।
सीमित बजट और संसाधनों से बनी 'शाहिद' कोई मसाला फिल्म नहीं है। तकनीकी
गुणवत्ता की भी कमियां दिख सकती हैं, लेकिन मानवीय मूल्यों के लिहाज से यह
उल्लेखनीय फिल्म है। विषम परिस्थितियों में एक व्यक्ति के संघर्ष और जीत को
बयान करती यह फिल्म हमारे समय का पश्चाताप है। हंसल मेहता ने इसे
अतिनाटकीय नहीं होने दिया है। वे दर्शकों की सहानुभूति नहीं चाहते।
उन्होंने शाहिद को मजबूर और बेचारे युवक के तौर पर नहीं पेश किया है।
साधारण परिवार का सिंपल युवक शाहिद जिंदगी के कुछ संवेदनशील मोड़ों से
गुजरने के बाद एक समझदार फैसला करता है। वह वंचितों के हक में खड़ा होता है
और इस जिद में मारा भी जाता है।
राज कुमार फिल्म की शीर्षक भूमिका में हैं। उन्होंने शाहिद के डर, खौफ,
संघर्ष, जिद और जीत को बखूबी व्यक्त किया है। वे हर भाव के दृश्यों में
नैचुरल लगते हैं। फिल्म की कास्टिंग जबरदस्त है। शाहिद के भाइयों, मां और
पत्नी की भूमिकाओं में भी उपयुक्त कलाकारों का चयन हुआ है। फिल्म के
कोर्ट रूम सीन रियल हैं। 'जॉली एलएलबी' के बाद एक बार फिर हम कोर्ट रूम की
बहसों को बगैर डायलॉगबाजी और सौगंध के देखते हैं।
'शाहिद' मर्मस्पर्शी और भावुक कहानी है। फिल्म के अंतिम प्रभाव से आंखें
नम होती हैं, क्योंकि हम सत्ता और समाज के हाथों विवश और निहत्थे व्यक्ति
की हत्या देखते हैं। यह फिल्म सिहरन देती है। खौफ पैदा करती है। हिंदी
सिनेमा के वर्तमान मनोरंजक दौर में लकीर से अलग होकर एक सच कहती है।
अवधि-112 मिनट
**** चार स्टार
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