धर्मयुग की पत्रकारिता से संवाद लेखन में मुड़ गया-संजय मासूम
संजय मासूम ने पहली फिल्म 'जोर' से ही जोरदार दस्तक दी। उनकी अगली फिल्म 'कृष 3' नवंबर में आ रही है। संजय ने यहां संवाद लेखन के प्रति अपने झुकाव,चुनौती और स्थिति की बातें की हैं।
-काफी व्यस्त हो गए हैं आप?अभी क्या-क्या काम चल रहा है?
0 अभी राजश्री की फिल्म ‘सम्राट एंड कंपनी’ खत्म की। उसकी शूटिंग शुरू हुई है। साथ ही यूटीवी की एक फिल्म है। कुणाल देशमुख उसके डायरेक्टर हैं। उसमें इमरान हाशमी और परेश रावल हैं। इसी महीने उसके डायलॉग खत्म किए हैं। वह अक्टूबर के एंड फ्लोर पर जा रही है। उसके बाद दो फिल्मों की रायटिंग शुरू करनी है। एक प्रवीण निश्चल और ई ़ निवास की फिल्म है। उसके बाद एक और इमरान हाशमी की फिल्म है। उसकी रायटिंग करनी है। पांच-छह जगहों में बातचीत चल रही है।
- ज्यादातर डायलॉग रायटिंग ही चलती है या स्क्रिप्ट रायटिंग, कहानी ...
0 अभी राजश्री की फिल्म ‘सम्राट एंड कंपनी’ खत्म की। उसकी शूटिंग शुरू हुई है। साथ ही यूटीवी की एक फिल्म है। कुणाल देशमुख उसके डायरेक्टर हैं। उसमें इमरान हाशमी और परेश रावल हैं। इसी महीने उसके डायलॉग खत्म किए हैं। वह अक्टूबर के एंड फ्लोर पर जा रही है। उसके बाद दो फिल्मों की रायटिंग शुरू करनी है। एक प्रवीण निश्चल और ई ़ निवास की फिल्म है। उसके बाद एक और इमरान हाशमी की फिल्म है। उसकी रायटिंग करनी है। पांच-छह जगहों में बातचीत चल रही है।
- ज्यादातर डायलॉग रायटिंग ही चलती है या स्क्रिप्ट रायटिंग, कहानी ...
0 अभी तक संवादों पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन अब धीरे-धीरे सोच रहा हूं कि लेखन को थोड़ा सा विस्तार दिया जाए। हालांकि स्क्रीनप्ले लिखने की पहले भी कोशिश की है। डायलॉग में एक पहचान मिल गई है तो लोग डायलॉग की बात करते हैं। उसके चक्कर में स्क्रीनप्ले रह जाता है। अभी मैं एक फिल्म करूंगा जिसमें स्क्रीनप्ले भी कर रहा हूं। कमाल की बात है कि स्क्रीनप्ले भी ऐसी फिल्म का करने जा रहा हूं जो कि मर्डर मिस्ट्री है। हू डन इट फिल्म है।
- इधर कौन सा काम अच्छा हुआ,जिनसे बड़ी उम्मीदें हैं?
0 अभी तो सबसे ज्यादा उम्मीद हमलोग लगा कर बैठे हैं ‘कृष 3’ से और इस लेवल पर क्या होगा यह पता नहीं, लेकिन इतना भरोसा है कि दर्शकों को फिल्म पसंद आएगी। फिल्म बहुत अच्छी बनी है। हर विभाग ने मेहनत की है तो मुझे लगता है कि रिजल्ट बहुत अच्छा आएगा। ‘कृष 3’ से उम्मीद है। अगले साल आएगी यशराज की ‘गुंडे’ जिसमें मैंने को-राइट किया है डायरेक्टर के साथ। वह भी अच्छी फिल्म है। ‘शातिर’ है।
- कैसा लग रहा है? जो सोच कर चले थे, उस मंजिल के तरफ कितना आगे बढ़ गए हैं या मंजिल मिल गई?
0 सोच कर तो नहीं चला था मैं। दरअसल थोड़ा सा पहले जाना पड़ेगा मुझे इस सवाल का जवाब देने के लिए। मैं मुंबई आया था ‘धर्मयुग’ की पत्रकारिता करने। साहित्य के करीब की वैचारिक पत्रकारिता भी कह सकते हैं। वहां पत्रकारिता करने में मजा आया। धर्मयुग बंद हो गई और मजबूरी में हमें नवभारत टाइम्स शिफ्ट किया गया। नवभारत टाइम्स की पत्रकारिता यानी दैनिक पत्रकारिता में मेरी रुचि थी। अगर दैनिक पत्रकारिता करनी होती तो मैं इलाहाबाद में ही करता। खबरें आज भी वही हैं। सिर्फ जगह और तारीख बदल जाती है। शीर्षक तो वही रहता है ‘एक युवती का शव बरामद’। परिवार साथ में है। बच्चे हैं। जिम्मेदारी है तो कोई ऐसा डिसीजन तुरंत ले नहीं सकते। एक बैचेनी थी कि कुछ करें। इस मामले में खुशकिस्मत हूं कि मेरी रचनात्मकता को फिल्म के जरिए मौका मिला। पहली फिल्म ही बहुत बड़ी फिल्म थी। इस तरह से मैंने सोचा नहीं था मैंने कि मंजिल क्या होगी और क्या सफर होगा? शुरू की कुछ फिल्में नहीं चली, लेकिन मुझे नियमित तौर पर काम मिलता रहा । मैं ईमानदारी से अपनी प्रतिभा और क्षमता केहिसाब से काम करता रहा। आज यह जरूर लगता है कि बतौर लेखक एक पहचान बना पाया हूं और दर्शकों के बीच मेरे संवादों की पहचान बन चुकी है।
- पहली फिल्म कौन सी थी?
0 मेरी पहली फिल्म ‘इंडियन’ थी। वह फिल्म नहीं बन पाई थी। उसमें सनी देओल साहब और ऐश्वर्या राय थे। वह फिल्म बनी नहीं। ‘जोर’ मेरी पहली रिलीज फिल्म थी । सनी देओल, सुष्मिता सेन, ओमपुरी, मिलिंद गुनाजी काम कर रहे थे। उस समय के हिसाब से बड़ी फिल्म थी। उसमें मेरे डायलॉग पसंद भी किए गए। बस वहां से सफर शुरू हुआ।
- लेकिन डायलॉग रायटिंग ही क्यों चुना आप ने?
0 मैंने नहीं चुना कि संवाद लिखना है। संवाद के लिए भाषा आनी चाहिए। भाषा के साथ उस पर नियंत्रण आना चाहिए। यह मुझे थोड़ा आसान सा लगा। मुझे लगा कि मैं भाषा जानता हूं। धर्मयुग के दिनों में लिखे लेखों पर अच्छे फीडबैक मिलते थे। मुझे लगा कि यह काम ज्यादा बेहतर तरीके से कर पाऊंगा। पहली फिल्म में लोगों ने पहचाना कि कुछ बात है, कुछ थॉट लेकर आया है यह लेखक। मुझे लगा कि ठीक है जो काम पसंद किया जा रहा है,उसी पर आगे बढ़ते हैं। उस तरह धीरे-धीरे संवाद तक ही रह गया।
- संवाद वास्तव में है क्या? ये सिर्फ हिंदी फिल्मों में डिवीजन है। अंग्रेजी फिल्मों में यह डिवीजन नहीं है। अपने यहां कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग रायटर सब अलग-अलग होते हैं। एक आम आदमी को समझाएं तो क्या है यह चीज?
0 मुझे लगता है कि हमारे यहां सिनेमा का फैलाव बहुत है। उसके दायरा बहुत व्यापक हैं। ऑडियेंश भी काफी फैला हुआ है। अगर आप आज की दौर का बात करें तो भी मल्टीप्लेक्स है,सिंगल स्क्रीन है, पढ़े-लिखे, कम पढ़े लिखे, अनपढ़ सभी फिल्में देखते हैं। उन तक भी बात पहुंचनी चाहिए। इस तरह से मुझे लगता है कि यह रेंज बहुत बड़ा है। उसकी वजह से लोगों को इनवॉल्व करना पड़ता है। कहानी,पटकथा और संवाद तीनों काम के विशेषज्ञ हैं। विदेशों में कहानी सुनाने की भाषा और चरित्र की भाषा एक ही रहती है। उन्हें संवाद लेखक की जरूरत नहीं पड़ती। अपने यहां संवाद लेखन के लिए ऐसे आदमी को चुना जाता है,जो भाषा जानता है। वहां फिर डायलॉग का खेल शुरू होता है। यह काम थोड़ा चुनौतीपूर्ण होता है। जिंदगी में सब की भाषा भले ही हिंदी है, लेकिन सब का लहजा अलग होता है।तरीका अलग होता है। शब्दों को बोलने का अंदाज अलग होता है। डायलॉग रायटिंग करते समय समस्या आती है कि हर चरित्र ऐसा नहीं लगे कि एक जैसा ही बात कर रहा हो। सब अलग-अलग दिखें, उनकी अलग शैली हो,उनकी अलग भाषा हो।
- डायलॉग में पंच क्या होता है? कई बार इतना पंच आता है कि वह पंचर हो जाता है।
0पंच जरूरी है। पंच का मतलब यह है कि जो बात कही जा रही है उसे तारीफ के साथ सुनें। मतलब सुनते हुए मुंह से तारीफ भी निकले। जाहिर सी बात है कि सिनेमा देख रहे हैं तो लोग सीटी बजाते हैं, ताली बजाते हैं। आप सुनें तो वाह के साथ सुनें। दिल में वह बात लगे। वाह क्या बात कही है। मुस्कराहट आ जाए। पंच इसलिए जरूरी होता है। मैंने ‘कृष 3’ लिखी तो मेरी कोशिश थी कि पंच डाल के करें। राकेश जी ने मुझे कहा था कि अगर किसी सीन में लोगों हंसाना है तो हंसाना है। रुलाना है तो रुलाना है। उसमें कोई समझौता नहीं। बिना नाटकीय हुए पंच आ जाए तो कमाल का हो।
- कुछ लोगों को शिकायत है कि फिल्म बनाते हैं हिंदी में लेकिन बोल-व्यवहार की भाषा अंग्रेजी हो गई है?
0 यह बात तो सही है। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं है कि इरादतन ऐसा किया जा रहा हो। जो रायटर आ रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि अंग्रेजी की है। वे अंग्रेजी में सोचते हैं तो अंग्रेजी में ही लिख रहे हैं। नए एक्टर्स की पृष्ठभूमि अंग्रेजी स्कूलों और अंग्रेजी माहौल की है। विदेशों से पढ़ कर आ रहे हैं। उनको भी अंग्रेजी पढऩे में ही ज्यादा समझ में आता है। वह हिंदी को रोमन में पढ़ते हैं। यह इरादतन नहीं है। रितिक रोशन आज के जनरेशन का हीरो हैं, लेकिन उन्हें डायलॉग देवनागरी में ही चाहिए। पर एक माहौल ऐसा बन गया है नो डाउट। रायटिंग का, स्क्रीनप्ले रायटिंग का डिसक्रिप्शन रायटिंग का सारा काम अंग्रेजी में ही होता है। क्योंकि अंग्रेजी में सोचने वाले ही काम कर रहे हैं। इसके बावजूद समझ लें कि भले ही अंग्रेजी कितनी भी हावी हो जाए, व्यापक लोगों तक पहुंचने वाले सिनेमा की भाषा हिंदुस्तानी ही रहेगी।
- नए लेखकों को क्या टिप्स देंगे? वे कैसे तैयारी करें?
0 सबसे बड़ी और पहली बात कि पढऩा जरूरी है। फिल्म की रायटिंग करनी है तो फिल्मों को देखना, फिल्मों को जानना, फिल्मों के बारे में पढऩा बहुत जरूरी है। जिस तरह की फिल्में बन रही हैं,उनको लगातार देखते रहना बहुत जरूरी है। यह समझते रहना बहुत जरूरी है कि दर्शकों को क्या पसंद आ रहा है, क्या नहीं आ रहा है? फिल्मों के प्रोसेस से जुडऩा जरूरी है। भाषा तो आनी चाहिए। गलतफहमी में रह के कोई कोशिश नहीं करनी चाहिए। आपको एहसास होना चाहिए कि आप किस लेवल के रायटर हैं। कितनी प्रतिभा है? जैसे मैं कहूं कि ‘कॉकटेल’ जैसी फिल्म मैं नहीं लिख सकता।
- इधर कौन सा काम अच्छा हुआ,जिनसे बड़ी उम्मीदें हैं?
0 अभी तो सबसे ज्यादा उम्मीद हमलोग लगा कर बैठे हैं ‘कृष 3’ से और इस लेवल पर क्या होगा यह पता नहीं, लेकिन इतना भरोसा है कि दर्शकों को फिल्म पसंद आएगी। फिल्म बहुत अच्छी बनी है। हर विभाग ने मेहनत की है तो मुझे लगता है कि रिजल्ट बहुत अच्छा आएगा। ‘कृष 3’ से उम्मीद है। अगले साल आएगी यशराज की ‘गुंडे’ जिसमें मैंने को-राइट किया है डायरेक्टर के साथ। वह भी अच्छी फिल्म है। ‘शातिर’ है।
- कैसा लग रहा है? जो सोच कर चले थे, उस मंजिल के तरफ कितना आगे बढ़ गए हैं या मंजिल मिल गई?
0 सोच कर तो नहीं चला था मैं। दरअसल थोड़ा सा पहले जाना पड़ेगा मुझे इस सवाल का जवाब देने के लिए। मैं मुंबई आया था ‘धर्मयुग’ की पत्रकारिता करने। साहित्य के करीब की वैचारिक पत्रकारिता भी कह सकते हैं। वहां पत्रकारिता करने में मजा आया। धर्मयुग बंद हो गई और मजबूरी में हमें नवभारत टाइम्स शिफ्ट किया गया। नवभारत टाइम्स की पत्रकारिता यानी दैनिक पत्रकारिता में मेरी रुचि थी। अगर दैनिक पत्रकारिता करनी होती तो मैं इलाहाबाद में ही करता। खबरें आज भी वही हैं। सिर्फ जगह और तारीख बदल जाती है। शीर्षक तो वही रहता है ‘एक युवती का शव बरामद’। परिवार साथ में है। बच्चे हैं। जिम्मेदारी है तो कोई ऐसा डिसीजन तुरंत ले नहीं सकते। एक बैचेनी थी कि कुछ करें। इस मामले में खुशकिस्मत हूं कि मेरी रचनात्मकता को फिल्म के जरिए मौका मिला। पहली फिल्म ही बहुत बड़ी फिल्म थी। इस तरह से मैंने सोचा नहीं था मैंने कि मंजिल क्या होगी और क्या सफर होगा? शुरू की कुछ फिल्में नहीं चली, लेकिन मुझे नियमित तौर पर काम मिलता रहा । मैं ईमानदारी से अपनी प्रतिभा और क्षमता केहिसाब से काम करता रहा। आज यह जरूर लगता है कि बतौर लेखक एक पहचान बना पाया हूं और दर्शकों के बीच मेरे संवादों की पहचान बन चुकी है।
- पहली फिल्म कौन सी थी?
0 मेरी पहली फिल्म ‘इंडियन’ थी। वह फिल्म नहीं बन पाई थी। उसमें सनी देओल साहब और ऐश्वर्या राय थे। वह फिल्म बनी नहीं। ‘जोर’ मेरी पहली रिलीज फिल्म थी । सनी देओल, सुष्मिता सेन, ओमपुरी, मिलिंद गुनाजी काम कर रहे थे। उस समय के हिसाब से बड़ी फिल्म थी। उसमें मेरे डायलॉग पसंद भी किए गए। बस वहां से सफर शुरू हुआ।
- लेकिन डायलॉग रायटिंग ही क्यों चुना आप ने?
0 मैंने नहीं चुना कि संवाद लिखना है। संवाद के लिए भाषा आनी चाहिए। भाषा के साथ उस पर नियंत्रण आना चाहिए। यह मुझे थोड़ा आसान सा लगा। मुझे लगा कि मैं भाषा जानता हूं। धर्मयुग के दिनों में लिखे लेखों पर अच्छे फीडबैक मिलते थे। मुझे लगा कि यह काम ज्यादा बेहतर तरीके से कर पाऊंगा। पहली फिल्म में लोगों ने पहचाना कि कुछ बात है, कुछ थॉट लेकर आया है यह लेखक। मुझे लगा कि ठीक है जो काम पसंद किया जा रहा है,उसी पर आगे बढ़ते हैं। उस तरह धीरे-धीरे संवाद तक ही रह गया।
- संवाद वास्तव में है क्या? ये सिर्फ हिंदी फिल्मों में डिवीजन है। अंग्रेजी फिल्मों में यह डिवीजन नहीं है। अपने यहां कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग रायटर सब अलग-अलग होते हैं। एक आम आदमी को समझाएं तो क्या है यह चीज?
0 मुझे लगता है कि हमारे यहां सिनेमा का फैलाव बहुत है। उसके दायरा बहुत व्यापक हैं। ऑडियेंश भी काफी फैला हुआ है। अगर आप आज की दौर का बात करें तो भी मल्टीप्लेक्स है,सिंगल स्क्रीन है, पढ़े-लिखे, कम पढ़े लिखे, अनपढ़ सभी फिल्में देखते हैं। उन तक भी बात पहुंचनी चाहिए। इस तरह से मुझे लगता है कि यह रेंज बहुत बड़ा है। उसकी वजह से लोगों को इनवॉल्व करना पड़ता है। कहानी,पटकथा और संवाद तीनों काम के विशेषज्ञ हैं। विदेशों में कहानी सुनाने की भाषा और चरित्र की भाषा एक ही रहती है। उन्हें संवाद लेखक की जरूरत नहीं पड़ती। अपने यहां संवाद लेखन के लिए ऐसे आदमी को चुना जाता है,जो भाषा जानता है। वहां फिर डायलॉग का खेल शुरू होता है। यह काम थोड़ा चुनौतीपूर्ण होता है। जिंदगी में सब की भाषा भले ही हिंदी है, लेकिन सब का लहजा अलग होता है।तरीका अलग होता है। शब्दों को बोलने का अंदाज अलग होता है। डायलॉग रायटिंग करते समय समस्या आती है कि हर चरित्र ऐसा नहीं लगे कि एक जैसा ही बात कर रहा हो। सब अलग-अलग दिखें, उनकी अलग शैली हो,उनकी अलग भाषा हो।
- डायलॉग में पंच क्या होता है? कई बार इतना पंच आता है कि वह पंचर हो जाता है।
0पंच जरूरी है। पंच का मतलब यह है कि जो बात कही जा रही है उसे तारीफ के साथ सुनें। मतलब सुनते हुए मुंह से तारीफ भी निकले। जाहिर सी बात है कि सिनेमा देख रहे हैं तो लोग सीटी बजाते हैं, ताली बजाते हैं। आप सुनें तो वाह के साथ सुनें। दिल में वह बात लगे। वाह क्या बात कही है। मुस्कराहट आ जाए। पंच इसलिए जरूरी होता है। मैंने ‘कृष 3’ लिखी तो मेरी कोशिश थी कि पंच डाल के करें। राकेश जी ने मुझे कहा था कि अगर किसी सीन में लोगों हंसाना है तो हंसाना है। रुलाना है तो रुलाना है। उसमें कोई समझौता नहीं। बिना नाटकीय हुए पंच आ जाए तो कमाल का हो।
- कुछ लोगों को शिकायत है कि फिल्म बनाते हैं हिंदी में लेकिन बोल-व्यवहार की भाषा अंग्रेजी हो गई है?
0 यह बात तो सही है। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं है कि इरादतन ऐसा किया जा रहा हो। जो रायटर आ रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि अंग्रेजी की है। वे अंग्रेजी में सोचते हैं तो अंग्रेजी में ही लिख रहे हैं। नए एक्टर्स की पृष्ठभूमि अंग्रेजी स्कूलों और अंग्रेजी माहौल की है। विदेशों से पढ़ कर आ रहे हैं। उनको भी अंग्रेजी पढऩे में ही ज्यादा समझ में आता है। वह हिंदी को रोमन में पढ़ते हैं। यह इरादतन नहीं है। रितिक रोशन आज के जनरेशन का हीरो हैं, लेकिन उन्हें डायलॉग देवनागरी में ही चाहिए। पर एक माहौल ऐसा बन गया है नो डाउट। रायटिंग का, स्क्रीनप्ले रायटिंग का डिसक्रिप्शन रायटिंग का सारा काम अंग्रेजी में ही होता है। क्योंकि अंग्रेजी में सोचने वाले ही काम कर रहे हैं। इसके बावजूद समझ लें कि भले ही अंग्रेजी कितनी भी हावी हो जाए, व्यापक लोगों तक पहुंचने वाले सिनेमा की भाषा हिंदुस्तानी ही रहेगी।
- नए लेखकों को क्या टिप्स देंगे? वे कैसे तैयारी करें?
0 सबसे बड़ी और पहली बात कि पढऩा जरूरी है। फिल्म की रायटिंग करनी है तो फिल्मों को देखना, फिल्मों को जानना, फिल्मों के बारे में पढऩा बहुत जरूरी है। जिस तरह की फिल्में बन रही हैं,उनको लगातार देखते रहना बहुत जरूरी है। यह समझते रहना बहुत जरूरी है कि दर्शकों को क्या पसंद आ रहा है, क्या नहीं आ रहा है? फिल्मों के प्रोसेस से जुडऩा जरूरी है। भाषा तो आनी चाहिए। गलतफहमी में रह के कोई कोशिश नहीं करनी चाहिए। आपको एहसास होना चाहिए कि आप किस लेवल के रायटर हैं। कितनी प्रतिभा है? जैसे मैं कहूं कि ‘कॉकटेल’ जैसी फिल्म मैं नहीं लिख सकता।
Comments