फिल्‍म समीक्षा : फटा पोस्‍टर निकला हीरो

दोहराव की शिकार
-अजय ब्रह्मात्‍मज
समय का दबाव ऐसा है कि समर्थ और साहसी निर्देशक भी लकीर के फकीर बन रहे हैं। 'घायल', 'दामिनी' और 'अंदाज अपना अपना' के निर्देशक को 'अजब प्रेम की गजब कहानी' के बाद 'फटा पोस्टर निकला हीरो' में देखते हुए सवाल जागता है कि प्रतिभाएं साधारण और चालू क्रिएटिविटी के लिए क्यों मजबूर हो रही है? ऐसा नहीं है कि 'फटा पोस्टर निकला हीरो' निकृष्ट फिल्म है, लेकिन यह राजकुमार संतोषी के स्तर की फिल्म नहीं है। मजेदार तथ्य है कि इस फिल्म का लेखन और निर्देशन उन्होंने अकेले किया है।

'फटा पोस्टर निकला हीरो' आठवें-नौवें दशक की फार्मूला फिल्मों की लीक पर चलती है। एक भ्रष्ट पलिस ऑफिसर की ईमानदार बीवी है। पति के फरार होने के बाद वह ऑटो चलाकर बेटे को पालती है। उसका सपना है कि बेटा ईमानदार पुलिस आफिसर बने। बेटे का सपना कुछ और है। वह हीरो बनना चाहता है। संयोग से वह मुंबई आता है और फिर उसकी नई जिंदगी आरंभ होती है। इस जिंदगी में तर्क और कारण न खोजें।
राजकुमार संतोषी ने पुरानी फिल्मों में प्रचलित मां और बेटे की कहानी चुनी है। फिल्म में स्टॉक सीन हैं, जिन्हें घिसा-पिटा भी कहते हैं। उन दृश्यों में सजावट और एक्टिविटी में थोड़ी तब्दीली कर दी गई है। पूरी कोशिश है कि दर्शकों को चखे हुए हर मसाले का स्वाद मिले। फिल्म में इन दिनों के फैशन के हिसाब से बहादुरी और एक्शन के प्रसंग हैं। इन प्रसंगों में शाहिद कपूर ने पापुलर हीरो की तरह जवांमर्दी दिखाई है, लेकिन उनकी कद-काठी और चेहरे का साथ नहीं मिल पाता। हमेशा लगता है कि कुछ छूट रहा है। कुछ मिसिंग है।
फिल्म में जरूरत से ज्यादा गाने और आगे-पीछे की दृश्यों से उनकी संगति भी नहीं बैठती। एक गाना खत्म हुआ, कुछ सीन हुए और फिर एक गाना आ गया। फिल्म का हीरो पोल डांस करते हुए आयटम सॉन्ग भी गाता है। इसे भी नएपन के तौर पर पेश किया जा सकता है। इंटरवल तक यह फिल्म लंबे सिक्वेंस की वजह से ऊब पैदा करती है। इंटरवल के बाद द्वंद्व पैदा होता है। फिर सहयोगी किरदार एक्टिव हो जाते हैं। संतोषी ने इन सहयोगी भूमिकाओं में मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, सौरभ शुक्ला और जाकिर हुसैन जैसे उम्दा कलाकारों से अच्छा काम लिया है। उनकी सही टाइमिंग और कॉमिकल अप्रोच से फिल्म कहीं-कहीं इटरेस्टिंग हो जाती है। इन दृश्यों में फिल्म हंसाती भी है।
पूरा फोकस शाहिद कपूर पर होने की वजह से इलियाना डिक्रूज को ढंग से फ्रेम में रखा ही नहीं गया। अपने किरदार के चरित्र की तरह वह अस्थिर रहती हैं। पद्मिनी कोल्हापुरे गायब हो चुकी रोती-बिसूरती मां को पर्दे पर वापस ले आई हैं, जो हमेशा बेटे को कर्तव्यनिष्ठ होने का पाठ पढ़ाती रहती हैं।
'फटा पोस्टर निकला हीरो' में राजकुमार संतोषी किसी प्रकार की चालाकी या ढोंग नहीं करते। सहज तरीके से वे ढाई-तीन दशक पुरानी शैली और संरचना की फिल्म आज के दर्शकों के लिए पेश कर देते हैं।
अवधि-146 मिनट
** दो स्‍टार

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