बुरा शब्द नहीं है ‘बेशर्म’-अभिनव सिंह कश्यप


-अजय ब्रह्मात्मज
- ‘बेशर्म’ का क्या आयडिया है?
0 न सम्मान का मोह न, अपमान का भय। पिछली बार मेरी फिल्म से ‘दबंग’ की नई परिभाषा बनी। इस बार ‘बेशर्म’ की नई परिभाषा बनेगी। ‘बेशर्म’  बुरा शब्द नहीं है। कभी-कभी बेशर्म होना अच्छा होता है।
- क्या अनुमान था कि ‘दबंग’ बड़ी फिल्म हो जाएगी?
0 मैं तो छोटे आयडिया पर काम करता हूं। मेरे पिता जी अकड़ू और जिद्दी थे। नौकरी में जो पसंद नहीं आता था, उसे नहीं करते थे। हमेशा उनकी पोस्टिंग आड़ी-तिरछी जगह पर हो जाती थी। लोग उन्हें दबंग टाइप आदमी कहते थे। चूंकि पापा मेरे हीरो थे और उन्हें दबंग कहा जाता था। मेरे लिए दबंग हमेशा अच्छा शब्द रहा है। अखबार और न्यूज चैनल में गुंडों के लिए दबंग शब्द का इस्तेमाल होता था। उस फिल्म में मैं यही बताना चाह रहा था कि दबंग का मतलब होता है-किसी  से नहीं दबना।
- तो ‘बेशर्म’ की भी नई परिभाषा गढ़ी जाएगी?
0 मैंने एक कहावत से बात शुरू की थी कि ‘सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग?’ आजू-बाजू वाले कुछ न कर रहे हों और आप कुछ करने चलो तो पहले सभी मना करते हैं। वे हतोत्साहित भी करते हैं। फिर भी आप करते रहो तो कहेंगे बड़ा बेशर्म आदमी है। किसी की सुनता नहीं है। आत्मविश्वास से कुछ करने पर अगर कोई बेशर्म भी कहे तो क्या फर्क पड़ता है। इस फिल्म के जरिए मैं बताऊंगा कि व्यक्ति की सही पहचान उसे दिए गए संबोधन या विशेषण से नहीं, उसके काम से होती है। काम अच्छा हो तो संबोधन और विशेषण के अर्थ बदल जाते हैं। मेरी फिल्म का यही धागा है।
- फिल्म की क्या कहानी है?
0 हमारा हीरो चोर है। चोरी करते समय उसे कभी ख्याल नहीं आया कि वह कुछ गलत कर रहा है। एक दिन गलती से जब वह अपने ही किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचा देता है तो उसे एहसास होता है कि चोरी करने के बाद वह कहीं रुकता नहीं है,इसलिए उसे लोगों के नुकसान का मालूम ही नहीं है। एहसास होने के बाद वह अपनी गलतियों को सुधारने निकलता है। पहले वह बेशर्मी से लोगों का नुकसान करता था। अब वह बेशर्मी से लोगों का फायदा कराता है।
- इस फिल्म में रणबीर कपूर के साथ उनके माता-पिता नीतू सिंह और ऋषि कपूर को लेने की क्या ठोस वजह रही?
0 सच कहूं तो यह मार्केटिंग गिमिक है। रणबीर कपूर फिल्म के लिए चुन लिए गए थे। फिल्म में दो अधेड़ उम्र के किरदार थे। उन किरदारों के लिए वे दोनों मुझे उचित लगे। हर व्यक्ति यहां डिफरेंट काम करना चाहता है। मैं अपनी कास्टिंग में डिफरेंट हो गया। मुझे लगा कि मीडिया को मेरी फिल्म के बारे में लिखने-दिखाने के लिए एक पाइंट मिल जाएगा। ‘दबंग’ में मीडिया ने हमें पूरा सपोर्ट किया था। अपने देश में भीड़तंत्र है। भीड़ को सिनेमाघर में घुसाने के लिए युक्ति लगानी पड़ती है।
- तो इसी युक्ति के तहत नीतू सिंह और ऋषि कपूर आए?
0 मैं किरदारों की कहानियां लिखता हूं। एक किरदार की पूरी जर्नी लिखने के बाद उसके पैकेज की तैयारी चलती है। उसमें एक ऐसे अच्छे पुलिस वाले का रोल था जिसके रिटायर्मेंट में सिर्फ दो महीने बचे हैं। उस समय ऋषि कपूर की अपनी उम्र भी 60 साल छूने जा रही थी। ऋषि कपूर को कहानी सुनाई वे राजी हो गए। उनके साथ एक हवलदार का भी किरदार था। ऋषि कपूर के हां कहने पर मैंने नीतू सिंह के बारे में सोचा। मैंने उस हवलदार को फीमेल बना दिया। फिल्म में दोनों पति-पत्नी के रोल में आ गए। यह ट्रैक किसी आयटम की तरह इंटरेस्टिंग बन गया है। इनके नाम चुलबुल और बुलबुल हैं।
- इन दिनों मार्केटिंग का दबाव बढ़ गया है। यह कितना जरूरी लगता है?
0 बिल्कुल जरूरी है। मीडिया और मार्केटिंग के जरिए ही फिल्म के बारे में जिज्ञासा बनाई जाती है। कुछ तो ऐसा हो कि दर्शक आपकी फिल्म के लिए उत्सुक हों। उन्हें ‘बेशर्म’ की जानकारी हो। एक जैसे एफर्ट के बाद अलग रिजल्ट पाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। पापुलर स्टार हों तो पहुंच बढ़ जाती है। मैं तो पब्लिक के लिए फिल्म बनाता हूं।
- मशहूर होने के बाद पब्लिक से कितना टच रह जाता है?
0 मैं तो रखता हूं। मैं पुराने परिचितों से बातें करना कम पसंद करता हूं। वे खुलकर सामने नहीं आते। जो मुझे नहीं पहचानते, उनसे खूब बातें होती है। मैं खूब घूमता हूं। राह चलते लोगों से दोस्ती कर लेता हूं। उनकी जिंदगी के बारे में सुनता हूं। आप जानते हैं कि मैं धरती से जुड़ा इंसान हूं और मुझे धरती के लोग ही अच्छे लगते हैं। मैं सबकी सुनता हूं। अपनी राय कम जाहिर करता हूं।
- इस बीच अभिनव सिंह कश्यप के लिए चीजें कितनी आसान हुई हैं?
0 मेरी चुनौतियां कम हो गई हैं। ‘दबंग’ के बाद मेरे लिए रास्ते खुल गए हैं। अब लोगों की उम्मीद पर खरे उतरने की चुनौती है। कामयाबी के बाद बन गए कंफर्ट को बरकरार रखना जरूरी हो गया है। अब हर फिल्म के साथ सफल होना होगा।
- फिल्म के पोस्टर पर जितने लोग खुश हुए थे, लगभग उतने ही लोग प्रोमो देख कर बिदके हैं। क्या वजह हो सकती है?
0 आप जिनके बिदकने की बात कर रहे हैं, वे सभी सोशल मीडिया के लोग हैं। यह एक वर्चुअल कम्युनिटी है। यहां आप किसी से मुखातिब नहीं होते तो बोलने की हिम्मत आ जाती है। सोशल मीडिया पर इस हिम्मत का दुरूपयोग ही होता है। मैंने देखा है कि लोग बुराई खुल कर करते हैं और तारीफ करने में कंजूसी बरतते हैं। मैंने बहुत गौर से इसका अध्ययन किया। यूट््यूब पर जाकर देखा तो पाया कि एक-एक आदमी ने चालीस-चालीस कमेंट दिए हैं। मुझे लगता है कि ऐसे लोग किराए पर रखे गए हैं। फिल्म रिलीज होने के बाद ही पता चलेगा कि वास्तविकता क्या है?
- कुछ लोग सवाल करते हैं कि अनुराग कश्यप की तरह आप भी सार्थक फिल्में क्यों नहीं बनाते?
0 सार्थक फिल्मों के लिए मेरे परिवार ने एक सदस्य दे दिया है। आप क्या चाहते हैं कि सभी नारे लगाते रहे। अब अनुराग की समझ में भी आ गया है कि लोग उसका इस्तेमाल करते रहे हैं। इधर वह अपने घर-परिवार और फिल्मों पर सही ध्यान दे रहा है। मैं हमेशा से जैसी फिल्में बनाना चाहता था वैसी ही फिल्में बना रह हूं।





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बेशर्म में भी तो शर्म छिपा हुआ है।

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