जयदीप साहनी से बातचीत
-अजय ब्रह्मात्मज
कुछ महीने पहले ‘शुद्ध देसी रोमांस’ फिल्म के नामकरण की घोषणा के साथ बताया गया था कि यह ‘चक दे इंडिया’ के लेखक जयदीप साहनी की लिखी फिल्म है, जिसे मनीष शर्मा निर्देशित कर रहे हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लेखकों को यह गरिमा और प्रतिष्ठा नहीं मिलती। जयदीप साहनी ने इसे हासिल किया है। शुरू में राम गोपाल वर्मा और फिर यशराज फिल्म्स के साथ जुड़े जयदीप साहनी ने कुछ सात (‘जंगल’, ‘कंपनी’, ‘बंटी और बबली’, ‘खोसला का घोसला’, ‘चक दे इंडिया’, ‘आजा नच ले’ और ‘राकेट सिंह’) फिल्में लिखी हैं। ‘शुद्ध देसी रोमांस’ उनकी आठवीं फिल्म होगी। इस फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत, परिणीति चोपड़ा और वाणी कपूर हैं।
- ‘शुद्ध देसी रोमांस’ का बीज विचार कहां से आया?
0 मैंने इसका रफ ड्राफ्ट लिखा था। मैंने आदित्य चोपड़ा को दिखाया। मनीष शर्मा को भी फिल्म पसंद आई। और काम शुरू हो गया। यह फिल्म झटके में शुरू हो गई। पहली बार मैंने रोमांटिक कॉमेडी लिखी है। हां, गानों में रोमांस करता रहा हूं। ‘सलाम नमस्ते’, ‘आ जा नच ले’, ‘रब ने बना दी जोड़ी’ आदि में गाने लिखे हैं।
- रोमांटिक कामेडी का ख्याल क्यों और कैसे आया?
0 ‘रॉकेट सिंह’ के बाद मूड चेंज करना था। कह लें कि खुद को बहला रहा था तो ये कैरेक्टर मिल गए। रघु, गायत्री और तारा के मिलने पर मैं उनकी उंगलियां पकड़ कर बढ़ता गया। उन्होंने मेरी यात्रा करवा दी। मैंने न ज्यादा फिल्में देखी हैं और न रोमांस का ज्यादा अनुभव किया है। सच कहूं तो मुझे रोमांस कॉमिकल ही लगता है। खुद करो तो ठीक ़ ़ ़ दूसरों के रोमांस के किस्सों में हंसी आती है।
- फिर कैसे बात बनी? कहते हैं कि रोमांस गहरा भाव है?
0 रायटर हूं। फीलिग्स और फितरत के लेवल पर जानता हूं। मैंने चुनौती के तौर पर लिया। अंडरवल्र्ड पर फिल्म लिखते समय भी तो पता नहीं था। मैं उनकी जिंदगी से वाकिफ नहीं था। ‘चक दे इंडिया’ लिखते समय भी स्पोटर््स और हाकी के बारे में पढ़ा। बाकी जोनर में जैसी हिम्मत दिखाई थी,वैसी हिम्मत के साथ रोमांटिक कामेडी में लग गया। असल सहारा किरदारों और अपने लोगों का होता है। आसपास से परिचय हो तो सब हो जाता है। बाकी फिल्मी चालाकियां तो करनी ही पड़ती है,जबकि वे मुझे अच्छी नहीं लगतीं।
- ‘शुद्ध देसी रोमांस’ को जयपुर ले जाने का इरादा कैसे बना?
0 पहले दिन और पहले पेज से ही जयपुर की कहानी बनी। मेरी मजबूरी है कि मैं हिंदी में ही लिख सकता हूं। हिंदी की बोलियों में वैरायटी खोजता हूं। ‘चक दे इंडिया’ में देश के अलग-अलग इलाकों के लहजे में हिंदी थी। खालिस हिंदी मुझे जेल की तरह लगती है। मैं चाहता हूं कि हर बार एक नया इलाका और लहजा हो। इस बार मेरे किरदार जयपुर के हैं। इनमें मुझे मुक्ति मिली। ‘शुद्ध देसी रोमांस’ में मारवाड़ी-मेवाड़ी का रंग और मिश्रण मिलेगा। इन्हें अच्छी तरह समझने के लिए जयपुर गया। वहां अपने किरदारों के साथ रहा।
- क्या रघु, गायत्री और तारा से भी मुलाकात हुई?
0 हां, ऐसे जवान लोग मिले। यह किसी एक व्यक्ति की आपबीती नहीं है। सभी महसूस कर रहे हैं कि रिश्तों के प्रति यंग जनरेशन का रवैया बहुत बदला हुआ है। इस बदलाव को हम फिल्मों में नहीं देख पा रहे हैं। पिक्चरें पीछे रह गई हैं, यूथ आगे बढ़ गए हैं। अभिभावक और समाजशास्त्री महसूस कर रहे हैं। लेकिन फिल्ममेकर अभी तक पुराने ढर्रे में फंसे हैं। यूथ की चिंता, परेशानी, दुविधा फिल्मों में नहीं आ रही है। फिल्में भी ट्रैडिशन का पालन करती हैं। अफसोस की बात है कि बगैर हादसों के हम आम जिंदगी के किरदारों को फिल्म तो क्या टीवी पर भी नहीं देखते। रघु, गायत्री और तारा को इसी कोशिश में पर्दे पर ले आया हूं।
- यह छटपटाहट क्यों है?
0 अगर मैं आम जिंदगी के किरदारों को नहीं ला सकता तो इंजीनियर ही बेहतर था न? मेरे किरदार एक फ्लक्स में हैं। रास्ता ढूढने की कोशिश कर रहे हैं। दस पंद्रह साल पहले केबल रिवोल्यूशन आया था। अब इंटरनेट है। कोई उधर ध्यान नहीं दे रहा। बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों तक में यूथ को ब्राडबैंड की सुविधा मिल गई है। बेचैन और जागरुक यूथ इंटरनेट के जरिए पूरी दुनिया से संपर्क साध रहा है। अभिभावक उसे स्पेस नहीं देंगे तो वह इंटरनेट से स्पेस आउट कर जाएगा। दूरी का दायरा और आयाम बदल गया है। पीढिय़ों का अंतराल पहले भी था। अभी वह भयानक हो चुका है। ‘बंटी और बबली’ के समय गुलजार ने तब के यूथ को अच्छी तरह व्यक्त किया था - छोटे-मोटे शहरों से, खाली बोर दोपहरों से हम तो झोला उठा के चले। तब महत्वाकांक्षाएं छोटे शहरों से बड़ी हो गई थीं। महत्वाकांक्षाएं प्रकाश की गति से आई और अवसर की रफ्तार भारतीय रेल की रही ़ ़ ़ इसकी वजह से जबरदस्त मायग्रेशन हुआ। इसे हमने सभी क्षेत्रों में ‘धौनी इफेक्ट’ के रूप में देखा। आप देखें कि सभी जबह छोटे शहरों से आए यूथ ही कमांड कर रहे हैं।
- जयपुर जैसे शहर को छोटा शहर कहना उचित है क्या?
0 मुझे तो नहीं लगता। मालूम नहीं मार्केटिंग और प्लानिंग के लोग किस हिसाब से छोटे-बड़े का भेद करते हैं। जयपुर के बापू बाजार का साधारण व्यापारी भी तीन भाषाओं में बात कर लेता है। पांच करेंसी के रेट जानता है। यह 40 सालों से वल्र्ड टूरिस्ट मैप पर है। कैसे कह रहे हैं छोटा शहर। पर्यटकों से मिल रहा यूथ बहुत एक्सपोज्ड है। इंदौर या लखनऊ ही ले लें। एक चीज जरूर है कि इन शहों में पुराना और नया कल्चर साथ-साथ चल रहा है। गड्मगड भी हो रहा है। सभी उसमें गोते लगा रहे हैं। डुबकियां खा रहे हैं। आर्ची का कार्ड पर पुरानी हिंदी फिल्मों के रोमांटिक गाने लिखे-भेजे जा रहे हैं। लव और रोमांस बदल गया है। पुराना छूटता नहीं, क्योंकि भावनात्मक सुरक्षा है। नया आकर्षित करता है, क्योंकि उसमें रोमांच है। यूथ दो कश्तियों में चल रहा है। दूसरी तरफ अभिभावकों का ढोंग और पाखंड बढ़ गया है। खुद को आधुनिक कहते हैं, लेकिन पोंगापंथी बने हुए हैं। सामंती मानसिकता है और उस पर हिंदी फिल्मों से मिली रूढिय़ां है। ये रूढिय़ां सामंत वाद की तरह हमारी रगों में बहती हैं।
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