अभिनय से पहले किरदार की गूंज सुनता हूं- इरफान
- दुर्गेश सिंह
बीस से अधिक निर्माता और कान के साथ ही संडैंस फिल्म समारोहों में ख्याति बटोर चुकी फिल्म द लंच बॉक्स 20 सितंबर को सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है। इरफान मुख्य भूमिका में हंै और पहली बार किसी फिल्म के प्रोड्यूसर भी। जिस तरह का सिनेमा वो कर चुके हैं चाहते तो इस फिल्म में अभिनय नहीं करते क्योंकि निर्देशक रितेश बत्रा उनके दोस्त नहीं थे। अब करण जौहर और यूटीवी फिल्म की इंडिया रिलीज की तैयारियों में व्यस्त हैं। आइए जानते हैं इरफान की कथनी कैसे तब्दील हुई करनी में:
- द लंचबॉक्स का साजन फर्नांडीस कहां मिला? इतना जीवंत अभिनय किसी अनुभव के बिना संभव नहीं होगा?
मैं मुंबई आया था तो मेरे अंकल यहीं एसिक नगर में रहते थे। मैं उन्हें सुबह उठकर अंधेरी स्टेशन के लिए बस पकड़ते हुए देखता था फिर वह अंधेरी से ट्रेन पकडक़र चर्चगेट जाते थे। चर्चगेट से फिर उन्हें बस पकडक़र अपने दफतर तक पहुंचना पड़ता था। यह प्रक्रिया वे बार-बार दुहराते थे। मैं सोचता कि एक आदमी पूरी जिंदगी इस अभ्यास को कैसे दुहरा सकता है। सुबह जब वह जाता है तो फ्रेश रहता है, शाम को लोकल ट्रेन से लौटने वाला हर चेहरा कैसा भयावह दिखता है। इसको आप तभी समझ पाएंगे जब आप मुंबई में लोकल ट्रेन में यात्रा करेंगे। साजन फर्नांडिस जिंदगी के इसी हिस्से से पनपा है। वह इसी भीड़ का हिस्सा है जो बस पकडऩे के लिए या ट्रेन में अपनी नींद को पकडऩे के लिए विंडो सीट की फाइट करते हैं। इसी कहानी का प्रतीक है साजन फर्नांडिस।
- और डब्बा वालों को लेकर हुई तमाम बातों के बीच कुछ नई बात पता चली?
मैं उनका सिस्टम जानना चाहता था। उनके बारे में बहुत सारी बातें मुझे हवा में पता थी कोई लिखत-पढ़त नहीं थी। मुझे इस किरदार को निभाते वक्त पता था कि उनके कोड वर्ड होते हैं लेकिन ये कोड वर्ड क्या होते हैं। यह मुझे पता फिल्म करने के दौरान पता चला। डिब्बों पर लिखे कोड वर्ड से वो इतना बड़ा ऑर्गेनाइजेशन चलाते हैं जो मेरे लिए हतप्रभ कर देने वाला होता है। मसलन किसी डब्बे पर एम लिखा है तो मालाड के किस इलाके में जाएगा उसका भी एक सब-कोड डब्बे पर लिखा होता है। कभी गलती से भी एक का डब्बा दूसरे के पास नहीं पहुंचता है। बिना छुट्टी और बिना किसी आलस के वे लगातार साल के हर दिन डब्बा पहुंचाते हैं।
- साहब बीवी गैंगस्टर, पान सिंह तोमर, डी डे और अब द लंच बॉक्स तक के सारे किरदार अलग हैं और उनके चेहरे बिल्कुल अनयुजुअल। कौन देता है ये सब लुक?
यार, मैं अपने चेहरे को सब्जेक्ट मानकर चलता हूं। मुझे नहीं लगता कि कोई एक आदमी ऐसा कर सकता है। मेरा मेक-अप मैन है जो मेरे साथ सालों से काम कर रहा है। मैं उसको हर किरदार के लिए निर्देशित करता हूं। अगर मुझे नहीं लगता कि मैं किरदार में नहीं आ पा रहा हूं तो काम करने से हिचकिचाता हूं। द लंच बॉक्स का भी यह किरदार निभाने से पहले मैंने रितेश से कहा था कि आप इस फिल्म के लिए नसीर साहब को कंसीडर करें क्योंकि किरदार उनकी आयु का है।
- लेकिन नेमसेक में आपने एज प्ले किया था और सारांश ने तो अनुपम खेर साहब की जिंदगी ही बदल दी?
हां, नेमसेक को लेकर भी मैं श्योर नहीं था जैसा कि मैं साजन फर्नांडीस के किरदार को लेकर भी नहीं था। हॉलीवुड में मैंने अधिकतर एज ही प्ले किया है। एज प्ले करने की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आपको बुढ़ापे का अहसास होने लगता है। अनुपम खेर साहब के लिए मंै नहीं सोचता कि उन्होंने अपने शरीर के साथ इतना प्रयोग किया था। दरअसल वो उस रोल को अपनी बॉडी लैंग्वेज के हिसाब से ही निभा गए।
- फिर रितेश ने क्या कहा?
रितेश ने मना कर दिया। लेकिन इस फिल्म को लेकर मेहनताना भी कम था तो मैं इस प्रोजेक्ट से एक एक्च्युकिटीव प्रोड्यूसर के तौर पर भी जुड़ गया। फिर भी मुझे सोचना पड़ा क्योंकि साठ साल की उम्र की भंगिमाएं चेहरे पर लाना आसान नहीं था। मैं कभी भी एज प्ले करने में सहज नहीं रहता। मुझे नसीर साहब को लेकर हमेशा इस बात का भरोसा रहा है कि वे किरदारों की उम्र को बहुत जल्द डिफाइन कर लेते हैं। इसलिए मैंने उनके नाम का सुझाव भी दिया था। लेकिन जब बात नहीं बनी तो मैंने हां की और फिर मैं फंस गया। मुझे लगा कि अब इसे कैसे कर पाउंगा। मैं जब कोई फिल्म साइन करता हूं तो किरदार मेरे अंदर बजने लगता है। जब तक नहीं बजता तब तक यह स्पष्ट है कि आप किरदार को लेकर स्पष्ट नहीं हो। हर बार आपको जीरो से प्रारंभ करना पड़ता है। दुनिया में ऐसा कोई फॉम्र्युला नहीं बना जिसको आप हर किरदार में फिट कर दें। कई बार ड्रामा स्कूल में सिखाया जाता है कि आप स्क्रिप्ट खूब पढ़ो और अपनी लाइनों को खूब याद करो। वो सब तरीके मैंने खूब अपनाकर देखे मुझसे नहीं हुआ। एनएसडी का यही एक पक्ष मुझे समझ में नहीं आया और ना ही मैं अपने ऊपर लागू कर सका।
- तो फिर सफल अभिनेता की निशानी क्या है?
मेरी नजर में सफल अभिनेता वही है जो बिना बोले सिचुएशन में जिए। हमारे यहां अभिनेताओं को इतने संवाद दिए जाते हैं जबकि वेस्ट में इतना या ऐसा नहीं होता है। द वॉरियर करते वक्त और उसके बाद जो दूसरे देशों का सिनेमा मैंने किया वह करते वक्त मुझे पता चला कि यार बिना बोले ऐसे अभिनय किया जाता है। यहां तो च्यादातर मुझे निर्देशक कहते रहे कि तुम संवाद पर ध्यान दो।
- हम हिंदुस्तानी बोलते भी तो बहुत है। नेताओं के बयान, क्रिकेटरों के बयान, बाबाओं के बयान, सब बोलते रहे हैं। कहीं ये वजह तो नहीं कि यहां कि पब्लिक को संवाद बहुत पसंद है?
आपकी बात भी सही है। हम बोलते बहुत है। कोई एक थोड़ा सा भी काम करता है तो बोलता रहता है लेकिन सिनेमा के संदर्भ में थोड़ी सी बारीक समझ रखनी होगी। हमारा उद्भव पारसी थिएटर से हुआ है। पारसी थिएटर पूरा का पूरा मेलोड्रामा था और मेलोड्रामा का मतलब कि आप अपनी पंक्तियों को कैसे दुहराते हैं। आज भी हमारा सिनेमा उसी से प्रभावित है। पारसी नाटकों का अस्तित्व तो खत्म हो गया लेकिन आप अगर आज उसके अवशेष देखेंगे तो फिल्मों में पा जाएंगे। नाम नहीं लूंगा लेकिन बड़े-बड़े स्टार्स आज भी पारसी थिएटर को ही कर रहे हैं। हम रियलिस्टिक तो कभी रहे ही नहीं ना। बीच-बीच में बलराज साहनी, मोतीलाल या फिर दिलीप कुमार आ गए लेकिन पूरा ढर्रा बदला नहीं कभी।
- द लंचबॉक्स का साजन फर्नांडीस कहां मिला? इतना जीवंत अभिनय किसी अनुभव के बिना संभव नहीं होगा?
मैं मुंबई आया था तो मेरे अंकल यहीं एसिक नगर में रहते थे। मैं उन्हें सुबह उठकर अंधेरी स्टेशन के लिए बस पकड़ते हुए देखता था फिर वह अंधेरी से ट्रेन पकडक़र चर्चगेट जाते थे। चर्चगेट से फिर उन्हें बस पकडक़र अपने दफतर तक पहुंचना पड़ता था। यह प्रक्रिया वे बार-बार दुहराते थे। मैं सोचता कि एक आदमी पूरी जिंदगी इस अभ्यास को कैसे दुहरा सकता है। सुबह जब वह जाता है तो फ्रेश रहता है, शाम को लोकल ट्रेन से लौटने वाला हर चेहरा कैसा भयावह दिखता है। इसको आप तभी समझ पाएंगे जब आप मुंबई में लोकल ट्रेन में यात्रा करेंगे। साजन फर्नांडिस जिंदगी के इसी हिस्से से पनपा है। वह इसी भीड़ का हिस्सा है जो बस पकडऩे के लिए या ट्रेन में अपनी नींद को पकडऩे के लिए विंडो सीट की फाइट करते हैं। इसी कहानी का प्रतीक है साजन फर्नांडिस।
- और डब्बा वालों को लेकर हुई तमाम बातों के बीच कुछ नई बात पता चली?
मैं उनका सिस्टम जानना चाहता था। उनके बारे में बहुत सारी बातें मुझे हवा में पता थी कोई लिखत-पढ़त नहीं थी। मुझे इस किरदार को निभाते वक्त पता था कि उनके कोड वर्ड होते हैं लेकिन ये कोड वर्ड क्या होते हैं। यह मुझे पता फिल्म करने के दौरान पता चला। डिब्बों पर लिखे कोड वर्ड से वो इतना बड़ा ऑर्गेनाइजेशन चलाते हैं जो मेरे लिए हतप्रभ कर देने वाला होता है। मसलन किसी डब्बे पर एम लिखा है तो मालाड के किस इलाके में जाएगा उसका भी एक सब-कोड डब्बे पर लिखा होता है। कभी गलती से भी एक का डब्बा दूसरे के पास नहीं पहुंचता है। बिना छुट्टी और बिना किसी आलस के वे लगातार साल के हर दिन डब्बा पहुंचाते हैं।
- साहब बीवी गैंगस्टर, पान सिंह तोमर, डी डे और अब द लंच बॉक्स तक के सारे किरदार अलग हैं और उनके चेहरे बिल्कुल अनयुजुअल। कौन देता है ये सब लुक?
यार, मैं अपने चेहरे को सब्जेक्ट मानकर चलता हूं। मुझे नहीं लगता कि कोई एक आदमी ऐसा कर सकता है। मेरा मेक-अप मैन है जो मेरे साथ सालों से काम कर रहा है। मैं उसको हर किरदार के लिए निर्देशित करता हूं। अगर मुझे नहीं लगता कि मैं किरदार में नहीं आ पा रहा हूं तो काम करने से हिचकिचाता हूं। द लंच बॉक्स का भी यह किरदार निभाने से पहले मैंने रितेश से कहा था कि आप इस फिल्म के लिए नसीर साहब को कंसीडर करें क्योंकि किरदार उनकी आयु का है।
- लेकिन नेमसेक में आपने एज प्ले किया था और सारांश ने तो अनुपम खेर साहब की जिंदगी ही बदल दी?
हां, नेमसेक को लेकर भी मैं श्योर नहीं था जैसा कि मैं साजन फर्नांडीस के किरदार को लेकर भी नहीं था। हॉलीवुड में मैंने अधिकतर एज ही प्ले किया है। एज प्ले करने की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आपको बुढ़ापे का अहसास होने लगता है। अनुपम खेर साहब के लिए मंै नहीं सोचता कि उन्होंने अपने शरीर के साथ इतना प्रयोग किया था। दरअसल वो उस रोल को अपनी बॉडी लैंग्वेज के हिसाब से ही निभा गए।
- फिर रितेश ने क्या कहा?
रितेश ने मना कर दिया। लेकिन इस फिल्म को लेकर मेहनताना भी कम था तो मैं इस प्रोजेक्ट से एक एक्च्युकिटीव प्रोड्यूसर के तौर पर भी जुड़ गया। फिर भी मुझे सोचना पड़ा क्योंकि साठ साल की उम्र की भंगिमाएं चेहरे पर लाना आसान नहीं था। मैं कभी भी एज प्ले करने में सहज नहीं रहता। मुझे नसीर साहब को लेकर हमेशा इस बात का भरोसा रहा है कि वे किरदारों की उम्र को बहुत जल्द डिफाइन कर लेते हैं। इसलिए मैंने उनके नाम का सुझाव भी दिया था। लेकिन जब बात नहीं बनी तो मैंने हां की और फिर मैं फंस गया। मुझे लगा कि अब इसे कैसे कर पाउंगा। मैं जब कोई फिल्म साइन करता हूं तो किरदार मेरे अंदर बजने लगता है। जब तक नहीं बजता तब तक यह स्पष्ट है कि आप किरदार को लेकर स्पष्ट नहीं हो। हर बार आपको जीरो से प्रारंभ करना पड़ता है। दुनिया में ऐसा कोई फॉम्र्युला नहीं बना जिसको आप हर किरदार में फिट कर दें। कई बार ड्रामा स्कूल में सिखाया जाता है कि आप स्क्रिप्ट खूब पढ़ो और अपनी लाइनों को खूब याद करो। वो सब तरीके मैंने खूब अपनाकर देखे मुझसे नहीं हुआ। एनएसडी का यही एक पक्ष मुझे समझ में नहीं आया और ना ही मैं अपने ऊपर लागू कर सका।
- तो फिर सफल अभिनेता की निशानी क्या है?
मेरी नजर में सफल अभिनेता वही है जो बिना बोले सिचुएशन में जिए। हमारे यहां अभिनेताओं को इतने संवाद दिए जाते हैं जबकि वेस्ट में इतना या ऐसा नहीं होता है। द वॉरियर करते वक्त और उसके बाद जो दूसरे देशों का सिनेमा मैंने किया वह करते वक्त मुझे पता चला कि यार बिना बोले ऐसे अभिनय किया जाता है। यहां तो च्यादातर मुझे निर्देशक कहते रहे कि तुम संवाद पर ध्यान दो।
- हम हिंदुस्तानी बोलते भी तो बहुत है। नेताओं के बयान, क्रिकेटरों के बयान, बाबाओं के बयान, सब बोलते रहे हैं। कहीं ये वजह तो नहीं कि यहां कि पब्लिक को संवाद बहुत पसंद है?
आपकी बात भी सही है। हम बोलते बहुत है। कोई एक थोड़ा सा भी काम करता है तो बोलता रहता है लेकिन सिनेमा के संदर्भ में थोड़ी सी बारीक समझ रखनी होगी। हमारा उद्भव पारसी थिएटर से हुआ है। पारसी थिएटर पूरा का पूरा मेलोड्रामा था और मेलोड्रामा का मतलब कि आप अपनी पंक्तियों को कैसे दुहराते हैं। आज भी हमारा सिनेमा उसी से प्रभावित है। पारसी नाटकों का अस्तित्व तो खत्म हो गया लेकिन आप अगर आज उसके अवशेष देखेंगे तो फिल्मों में पा जाएंगे। नाम नहीं लूंगा लेकिन बड़े-बड़े स्टार्स आज भी पारसी थिएटर को ही कर रहे हैं। हम रियलिस्टिक तो कभी रहे ही नहीं ना। बीच-बीच में बलराज साहनी, मोतीलाल या फिर दिलीप कुमार आ गए लेकिन पूरा ढर्रा बदला नहीं कभी।
- रितेश बत्रा की पहली फिल्म, पैसे भी नहीं मिले उतने। क्या कहना है निर्देशक के बारे में?
रितेश दुनिया का सबसे ऑनेस्ट और अर्नेस्ट आदमी है। मुझे जो रास्ता मिला फिल्म में घुसने का वो उसकी नैरेशन के जरिए ही मिला।
दर्शक जब फिल्म देखेंगे तो पाएंगे कि एक ऐसा आदमी जो सीधी बात कह रहा है वो इतना इमोशनल कैसे हो सकता है। रितेश जैसे लोग कम हैं।
रितेश दुनिया का सबसे ऑनेस्ट और अर्नेस्ट आदमी है। मुझे जो रास्ता मिला फिल्म में घुसने का वो उसकी नैरेशन के जरिए ही मिला।
दर्शक जब फिल्म देखेंगे तो पाएंगे कि एक ऐसा आदमी जो सीधी बात कह रहा है वो इतना इमोशनल कैसे हो सकता है। रितेश जैसे लोग कम हैं।
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