एक शायर चुपके चुपके बुनता है ख्वाब - गुलजार



1994 में गुलजार से यह बातचीत हुई थी। तब मुंबई से प्रकाशित जनसत्‍ता की रविवारी पत्रिका सबरंग में इसका प्रकाशन हुआ था। गुलजार के जनमदिन पर चवन्‍नी के पाठकों के लिए विशेष...
: अजय ब्रह्मात्मज / धीरेंद्र अस्थाना
-     छपे हुए शब्दों के घर में वापसी के पीछे की मूल बेचैनी क्या है ?
0     जड़ों पर वापिस आना।
-     कविताएं तो आप लिखते ही रहे हैं। इधर कहानियों में भी सक्रिय हुए हैं?
0     कहानियां पहले भी लिखता रहा हूं। अफसाने शुरू में भी लिखे मैंने। मेरी पहली किताब कहानियों की ही थी। 'चौरस रात' नाम से प्रकाशित हुई थी। उसके बाद नज्मों की किताब 'जानम' आई थी। मेरी शाखों में साहित्य है। अब उम्र बीती... पतझड़ है, पतझड़ आता है तो पत्ते जड़ों पर ही गिरते हैं। थोड़ा- सा पतझड़ का दौर चल रहा है। मैंने सोचा... चलो फिर वहीं से शुरू करें। फिर से जड़ों पर खड़े होने की कोशिश कर रहा हूं।
-     इस कोशिश में अलग तर्ज की कहानियां लेकर आए हैं आप ?
0     कहानियां ही नहीं, इस बीच नज्में भी लिखता रहा। अफसाने लिखे मगर बहुत कम। यही कोई दो साल पहले बाकायदा अफसाना लिखना शुरू किया। 'माइकल एंजेलो' और 'विमल दा' के जीवन पर नए तर्ज की कहानियां पढ़ी होंगी आपने। पश्चिम में जीवनीपरक उपन्यास की परंपरा है। वान गॉग और दूसरे चित्रकारों के जीवन पर उपन्यास लिखे गए हैं। मैंने गालिब पर इतना काम किया था... सोचा भी था कि गालिब के जीवन पर उपन्यास लिखूंगा। पर उपन्यास लिखने का धैर्य नहीं है शायद। तो ये जीवनीपरक कहानियां शुरू कीं। इसकी परंपरा नहीं मिलती।
-     उपन्यास में तो पूरी जिंदगी होती है। क्या कहानियों में यह संभव है ?
0     कहानी... किसी एक घटना या क्षण पर होती है। सच्ची घटनाएं होती हैं। इसमें 'फिक्शन' नहीं होता... बस इतना है कि आप कितनी अच्छी तरह कहानी के रूप में उस घटना या क्षण का बयान करते हैं... किस हद तक खालिस नाटकीय अंदाज में कह सकते हैं। 'विमल दा' में वह प्रसंग है, जब मैं उनके साथ 'अमृत कुंभ संधाने' (अमृत कुंभ की खोज) का स्क्रिप्ट लिख रहा था। यह फिल्म नहीं बन सक। इसी प्रकार 'माइकल एंजेलो' की कहानी उस घटना पर है, जहां उसे यहूदा की तलाश थी और उसे कैसे यहूदा मिला।
-     क्या आप मानते हैं कि दृश्य माध्यम ने छपे शब्द को हाशिए पर फेंक दिया है?
0     छपे शब्द कम होते जा रहे हैं। यह सही है।
-     यह क्षणिक है या देर तक चलेगा ?
0     मुझे नहीं लगता कि यह बहुत दूर तक रहेगा। छपे शब्दों की अपनी जगह है... जड़ें हैं। यह प्रभाव वैसा ही है जैसे टीवी के आने पर फिल्म पर पड़ा था। फिल्मों पर टीवी का असर खत्म हो रहा है। इसलिए सिर्फ स्थान बना लेने की बात है। साहित्य की जड़ें इतनी गहरी हैं... उसकी उम्र इतनी लंबी है कि उसे अपनी जगह से नहीं हटाया जा सकता। उसे नहीं बदला जा सकता। फिल्म की उम्र सौ साल भी नहीं हुई, टीवी की उससे भी कम है... साहित्य की उम्र तो हजारों वर्ष है। और फिर दृश्य माध्यम को साहित्य का सहारा लेना पड़ता है। उस समय जब आप बात करते हैं तो साहित्य की कसौटी सामने होती है। उसी के आधार पर आप फिल्म और निर्देशन का मूल्यांकन करते हैं।
-     साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनती रही हैं। पर लेखक और निर्देशक में विवाद रहा है। आपके विचार से फिल्म निर्माण में कोई निर्देशक किस हद तक छूट ले ?
0     जहां तक छपे शब्दों को दृश्य में उतारने की जरूरत है, उससे ज्यादा छूट नहीं ली जा सकती। फिर आरोप भी नहीं लगते।
-     जैसे कि 'आंधी' पर कोई आरोप नहीं लगा था।
0     'आंधी' सही उदाहरण नहीं है, क्योंकि 'आंधी' साथ-साथ लिखी गई थी। मतलब मैं स्क्रिप्ट लिख रहा था और कमलेश्‍वर जी उपन्यास लिख रहे थे। बात ये हुई थी कि मैं कहानीकार नहीं हूं। मैंने उनसे कहा, आप कहानी लिखिए, मुझे उसमें से कुछ तथ्य (सामग्री) मिल  जाएगा। कमलेश्‍वरजी से जिस वक्त मुलाकात हुई, उस वक्त यह कहानी मेरे पास थी। कहानी नहीं... कहानी का आइडिया था मेरे पास।
-     'आइडिया' आपका है वह ?
0     जी हां! हम दोनों महाबलीपुरम गए थे। बातचीत के दरम्यान मैंने कहा कि एक विषय है मेरे पास। मुझे उस पर लिखना है। मैंने ही उनसे आग्रह किया कि चलिए एक साथ लिखते हैं। आप उपन्यास लिखिए। मैं स्क्रिप्ट लिख लेता हूं। मुझे आप से कुछ मिल जाएगा। भले ही मेरा लिखा आपके काम आए न आए। कमलेश्‍वर बड़े लेखक हैं। वे जब उपन्यास लिखने लगे तो मुझे कुछ और चरित्र मिल गए। उन्होंने डायरी के रूप में लिखा है। फिल्म में अलग 'फार्म' है। मेरी फिल्म 'खुशबू' को ले सकते हैं। यह शरतचंद्र के 'पंडित मोशाय' पर आधारित है। मैंने उस पुस्तक से आरंभ के तीन अध्याय और अंतिम अध्याय लिए। अगर पूरे उपन्यास पर फिल्म बनाता तो सात घंटे की फिल्म होती। मुझे दो घंटे की फिल्म बनानी थी। मैंने उपन्यास के मूल भाव में कोई तब्दीली नहीं की। मूल चरित्र वैसे ही हैं। फिल्म माध्यम में साहित्य कच्ची सामग्री बन जाता है। लेकिन अगर आप चरित्र ही बदल देंगे तो मूल लेखक नहीं बच पाएगा।
-     फिल्मकार और रचनाकार के तौर पर संतुलन कैसे रखते हैं आप ?
0     दोनों माध्यम अलग है, मगर उन दोनों में सक्रिय सृजनात्मक व्यक्ति तो मैं ही हूं। हां, फिल्म माध्यम के अपने तकाजे हैं। अगर आपको कहना हो, 'पच्चीस साल बाद उसने अपने बेटे को देखा तो उसने कहा' फिल्म में सिर्फ यह वाक्य कह कर आप नहीं निकल सकते आपको पच्चीस साल का वक्फा क्रिएट करना पड़ेगा। ये तकाजे हैं। कई सारी बातें साहित्य में 'विदिन द लाइंस' पूरी हो जाती हैं, लेकिन फिल्म में उन्हें क्रिएट करना पड़ता है। इस माध्यम में दूसरी अलग बात है कि निर्देशक खुद कुछ करता है। लेखक दूसरा है। 'स्क्रिनप्ले' दूसरा लिखता है। संवाद कोई और लिखता है। संगीतकार दूसरा है। कैमरामैन दूसरा है। अभिनय कोई और करता है। आप पूछेंगे, फिर निर्देशक क्या करता है? सिर्फ यह है कि अंतिम लक्ष्य उसके जहन में है। सभी सृजनात्मक लोगों के सुर को एक ठिकाने पर पहुंचाने का काम वह करता है। वह उन्हें भटकने नहीं देता। तमाम प्रकारों से अपने 'कंसेप्ट' का सृजन करवाता है। आठ आदमी मिलकर हांडी तैयार करते हैं, फिर भी वह हांडी अच्छी बने, यही कोशिश रहती है निर्देशक की।
-     किसी भी रचना को पसंद करने के क्या कारण होते हैं ?
0     कोई खास नाप-तौल तो नहीं है। जिस तरह का इंसान हूं मैं... मेरी पसंद-नापसंद सब उसमें शामिल है। यह सवाल कुछ ऐसा ही है कि मैं इस तरह के कपड़े क्यों पहनता हूं। आपके अंदर का इंसान चुनता है। अपने रंग भी वही चुनता है। जो बात, जो ख्याल आपके जहन में है, वही आप चुनते हैं। कहीं न कहीं आपकी अपनी शख्सियत उसमें शामिल है। जो चीज आपकी शख्सियत का हिस्सा नहीं है, वह आप सृजित नहीं कर सकते।
-     लेकिन शख्सियत अंदरूनी तो नहीं होती ?
0     शख्सियत अंदरूनी ही होती है।
-     मां-बाप, भाई-बहन, शिक्षक, समाज, दोस्त इन सबके बीच आपकी शख्सियत नहीं बनती क्यों ?
0     बिलकुल बनती है। ये तमाम लोग आपकी शख्सियत का हिस्सा हैं। उनके तनाव, उनकी खींचातानी, उनका लाड़ प्यार और परवरिश सब आपकी शख्सियत के हिस्से हैं। ये सब आपकी शख्सियत के बाहर नहीं हैं। ये हालात हैं। हालात बाहरी हो सकते हैं, पर आपकी शख्सियत तो अंदरूनी है। बाहरी हालात आपके अंदर शामिल होते हैं। अगर बाहर होते तो आप कभी का छटक देते। उनके असर तो अंदरूनी हो गए।
-     तो वे कौन से हालात थे, जिन्होंने आपको रचनाकार बनने के लिए प्रेरित किया ?
0     मैं उस पर उंगली  रखकर नहीं बता सकता। कोई जगह या क्षण नहीं बता सकता। मेरी परवरिश जिस तरह से हुई है, यह उसी का हिस्सा है। सारा का सारा उसी का 'रिफ्लेक्शन' है। चार पौधे एक जगह रखे हुए हों तो भी एक तरह से नहीं उगते एक ही जाति के हों तो भी नहीं। उनके कद, रंग और शाखों में फर्क हो जाता है। चाहे उन्हें एक ही सूरज मिलता हो। चाहे उन्हें एक ही तरह की हवा मिलती हो। मैं व्यापारी परिवार से हूं और अकेला हूं तो मुझे भी नहीं मालूम कि वह सूरज की किरण किधर से आई थी? लेकिन यह जरूर है कि वह तमाम धूप-छांव मेरे अंदर परावर्तित होती है।
-     ऐसा देखा गया है कि जो संवेदनशील और लोकप्रिय होते हैं, वे निजी जीवन में बहुत पीड़ित और अवसाद में डूबे रहते हैं। क्या वजह हो सकती है ?
0     मुझे तो नहीं लगता। ऐसा कोई फार्मूला नहीं है कि उससे यह समझ लिया जाए। ऐसा क्यों है, यह भी मुझे नहीं मालूम। आप अपने व्यक्तिगत दुख, तकलीफें, सुख, खुशियां इन सबको लेकर सृजित करते हैं, लेकिन अगर दूसरों के सुख-दुख आपको अपना हिस्सा न लगें तो आप सृजन कैसे करेंगे? जाहिर है जब आप दूसरों के दुख-दर्द महसूस कर रहे हैं तो आप में दुख की मिकदार (मात्रा) ज्यादा है। इसी प्रकार सुख और खुशी भी ज्यादा है। आपकी भावनात्मक क्षमता साधारण आदमी से ज्यादा है, इसलिए सृजनात्मक आदमी साधारण आदमी से ज्यादा बड़ा घड़ा लगता है, क्योंकि उसमें समाता ज्यादा है। दर्द चुभता है, इसलिए सृजन करवाता है। दूसरी बात कि जिसे आप दुखी समझ रहे हैं आप कहते हैं कि उसके साहित्य में बड़ा दुख है, पर क्या आपको मालूम है कि वह वाकई दुखी नहीं है। क्योंकि वह उसमें से रस लेता है। उससे ज्यादा संतोष पढ़ने वाले को नहीं हो सकता। वह जिस तरह का सुख हासिल करता है, क्या आप उसे महसूस कर सकते हैं? वह उम्दा सुख है।
-     एक चीज और तंग करती है, जो लोग सृजनात्मक व्यक्तित्व के हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे दूसरों को लेकर बहुत भावुक हैं, बहुत संवेदनशील हैं। दूसरों की तकलीफ को ज्यादा गहराई से समझते  हैं। ऐसे लोग ज्यादातर अपने परिवार के साथ अन्याय कर जाते हैं। वे अपने परिवार के सदस्यों की तकलीफ को उस तीव्रता से नहीं महसूस कर पाते। ऐसा क्यों हो जाता है ?
0     एक तो यह है कि मैं पूरी तरह से इससे सहमत नहीं हूं, लेकिन इसका मुकम्मिल जवाब भी मेरे पास नहीं है। ये भी हो सकता है कि उन्हें व्यक्तिगत चीजें, परिवार के लोग छोटे लगते हों। उस दुख के सामने, जो वह परे देख रहा है या बाहर देख रहा है, अपना या अपने परिवार का दुख छोटा लगता हो। यह भी वजह हो सकती है। साधारण आदमी को लगता हो कि यह तो अपने परिवार के प्रति बहुत क्रूर है। हम भूल जाते हैं कि उसके सामने तकलीफ का बड़ा मंजर है। सिर्फ कला ही क्यों, दूसरे क्षेत्र में भी यही बात है। स्वतंत्रता सेनानियों के साथ यही बात थी। क्रांतिकारियों के साथ भी यही होता है। देश और समाज के लिए वे घर-परिवार, मां-बाप, भाई  को छोड़ देते हैं। लोग कहते हैं कि कितना गैर-जिम्मेदार है, मगर वह देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर देता है। लेकिन मां जब भगत सिंह की मां बन जाए तो फिर दुख नहीं होता। भगत सिंह की मां ने तो खुद भेजा था कि जा बेटा तू जिस मां के लिए लड़ रहा है, वह  मुझसे बड़ी है। ऐसा हो तब दुख नहीं होगा। लेकिन जिनके अंदर स्वार्थ होगा, जो छोटे होंगे, उनमें ऐसी क्षमता नहीं होती। तभी आपको वे बड़े क्रूर लगते हैं।
-     क्या हर आदमी के पास कुछ ऐसी चीजें होती हैं, जिनमें वह किसी को सहभागी नहीं बनाता। डायरी में भी नहीं लिखता।  क्या आप भी ऐसा सोचते हैं ?
0     ऐसा कुछ नहीं है, जो मेरी शख्सियत से छुप जाए। लेकिन अगर मैंने चार दिन खाना नहीं खाया तो कोई वजह नहीं है कि आपको बताऊं। मैंने चार दिन ज्यादा खाया है तो कोई वजह नहीं है कि आपको बताऊं। लेकिन बाकी जो मेरे अंदर है, वह मेरे हर काम में झलकता है। उसको लिखकर बताने की जरूरत नहीं होती। घटनाएं व्यक्तिगत नहीं होतीं और कोई जरूरी नहीं कि हर घटना लिखी जाए।
-     निर्मल वर्मा ने एक जगह लिखा है कि बहुत सारी चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें आदमी अपने साथ छिपाकर ले जाता है।
0     हां, हो सकता है, कोई जेवर छिपाकर ले जाता हो। कहा है न,
दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
दिल में ऐसे संभालता हूं गम
जैसे जेवर संभालता है कोई।
-     अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं आप ?
0     बता नहीं सकता। मैं अपनी यात्रा से खुश हूं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मैंने कुछ हासिल कर लिया हो। ये भी नहीं है कि मैं नाकामयाब हूं। मायूस नहीं हूं कि यह नहीं कर पाया, वह नहीं कर पाया। बहुत सी चीजें नहीं करता हूं। कई चीजें कर भी लीं। मेरा सफर तसल्ली से भरा है। यह सफर मुकम्मिल नहीं है। कोई उपलब्धि जैसी बात भी नहीं है।
-     फिल्म का वर्तमान माहौल कैसा है ?
0     माहौल अच्छा नहीं है। हर आदमी एक समान प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। ऐसा नहीं है कि यह मेरी व्यक्तिगत राय है। दर्शक बेजार हैं। बनानेवाले भी बेजार हैं। वे इसलिए बेजार हैं कि उन्होंने समझौते कर लिए हैं। कहते हैं कि हम करें क्या ?
-     हां, बाजार की बात कही जाती है?
0     कतई नहीं, कोई बाजार किसी से कहने नहीं जाता कि आप यह कीजिए।
-     यह भी तर्क है कि समाज में यही हो रहा है ?
0     यह सच भी है। इस बात में झूठ नहीं है। फिल्मों में समाज ही व्यक्त होता है। उससे आप अलग नहीं कर सकते। समाज में उतना ही सेक्स और हिंसा है। सिर्फ इतना है कि 'क्रिएटर (फिल्मकार पढ़ें) की अपनी जिम्मेदारी क्या है ? जिम्मेदारी से गुरेज करना अच्छा नहीं लगता। आप तो 'क्रिएटर' हैं। आप प्रभावित करते हैं। मूल्य गिर गए हैं। लोग लातें मार रहे हैं तो आप भी जाते-जाते एक लात मार गए तो आप किस बात के 'क्रिएटर' हैं? यह कमी नेताओं में भी है। ऐसा नहीं कह सकते कि सिर्फ फिल्मों में खराबी है, बाकी समाज बड़ा सुथरा है। जब सारी बस्ती का यह हाल है तब किसी एक घर की ओर उंगली उठाकर आप कैसे कह सकते हैं कि यह घर बड़ा गंदा है।
-     लेकिन फिल्मों का प्रभाव क्षेत्र बड़ा है, इसलिए उम्मीद स्वाभाविक है।
0     वही... जिम्मेदारी के एहसास की बात है। जो लोग प्रभावित करते हैं, उन्हें यह जिम्मेदारी संभालनी चाहिए, लेकिन जब आप उनसे कहेंगे तो वे पूछेंगे कि हमारे नेता क्या कर रहे हैं? हमारी राजनीति का क्या हो रहा है?  क्या फिल्म ही इस बात की मुजरिम है? मेडिकल, शिक्षा... क्या ये सब कम महत्वपूर्ण हैं? सिर्फ एक को अलग करके दोषी बनाना ज्यादती जरूर है।
-     लोकप्रियता और कलात्मकता दो श्रेणियां हैं, उनमें...
0     यह श्रेणी किसने बनाई। श्रेणियां आप बना रहे हैं। व्यावसायिक हित तो दोनों के हैं। सिनेमा 'आर्ट फॉर लाइफ' है। फर्क यह है कि एक वास्तविक है और दूसरी फैंटेसी है। दोनों अपनी भूमिका निभा रहे हैं। जिम्मेदारी है कि क्या आप अपने वक्त को रिकार्ड कर रहे हैं, क्योंकि अगर रिफार्म नहीं कर रहे हैं तो रिकार्ड तो कीजिए। किसी भी कला की यह भूमिका है। अब जो लोग (फिल्मकार) रिकार्ड नहीं कर रहे हैं, वे समाज को दोषी ठहराते हैं। दरअसल वे फास्टफूड बेच रहे हैं। एक जिम्मेदार और दूसरा गैर जिम्मेदार सिनेमा है।
-       आपके लिखने का समय क्या  होता है?
0     नज्म तो कहीं भी हो जाती है। बस सुर लगनी चाहिए। बाकी काम तो क्लर्क की तरह करता हूं। साढ़े दस बजे ऑफिस में बैठता हूं। शाम में चार बजे यहां से निकलता हूं। आप किसी पेशे में हैं तो पेशेवर तो होना ही पड़ेगा।
-     लेखक और कलाकार को समाज में सर्वोच्च माना जाता है। आपकी राय?
0     मैं थोड़ा असहमत हूं। आप लेखक को सर्वोच्च कैसे कह सकते हैं? क्या वैज्ञानिक कम ऊंचा होता है? क्या भाभा का कद छोटा है? उन्होंने तो कुछ नहीं लिखा। कुछ नहीं गाया बजाया। यह खुद को आसन पर बिठाकर पूजने जैसी बात है। इनसे बचना चाहिए। हमें खुले दिमाग का होना चाहिए। लेखक और कलाकार पर जिम्मेदारी ज्यादा है, क्योंकि आप अधिक संवेदनशील और ज्यादा काबिल हैं। लेकिन एड़ियां उठाने की जरूरत नहीं है। दो एड़ियों पर चलने की जरूरत नहीं है। अगर कहें कि बगीचा होगा, फूल होंगे, तब कविता करेंगे तो नहीं चलेगा। कविता लिखना आपकी सामाजिक जिम्मेदारी है। बर्नाड शॉ, टैगोर, मुंशी प्रेमचंद सभी नियमित रूप से लिखते थे। नहीं लिखते थे तो सोचते थे। लिखना उन लोगों की जिम्मेदारी थी। जिसको अपनी जिम्मेदारी का एहसास है, वह ऐसा नहीं करता कि मूड आएगा तो काम करेंगे। गालिब ने भी ऐसा नहीं किया। रविशंकर और भीमसेन जोशी आज भी सात-आठ घंटे रोज रियाज करते हैं।
-     ज्यादातर किताबें बोस्की (गुलजार की बेटी) को ही समर्पित हैं?
0     वह मेरा मरकज (केंद्र) है। ।
-     आपकी ज्यादा नज्में संबंध, एहसास और संवेदना पर हैं, क्यों?
0     इसमें पुरानी नज्में शामिल हैं। मैने लिखा भी है कि 'कुछ और नज्में' में कुछ और नज्में शामिल कीं तो यह किताब बनी। इसमें कुछ बाद की भी नज्में हैं। 'एक पता', 'गौतम बुद्घ', 'शहर का मोंटाज, अखबार' और 'दंगे' ...ये सब दंगे के बाद की नज्में हैं। उन्हें शामिल किया है।
-     क्या मानवीय रिश्ते का एहसास कम हुआ है? 'अखबार' आदि में कुछ और मिजाज है?
0     'अखबार' वगैरह आज की नज्में हैं। ये नहीं है कि मैं जानबूझकर राजनीतिक चीजें लिखने की कोशिश कर रहा हूं। इनमें भी वही एहसास और संवदेना है। केवल स्वर और चिंताएं बदल गई हैं।
-     लगता है कि आपकी सामाजिक चिंताएं बढ़ी हैं?
0     उम्र के साथ-साथ, जिम्मेदारी के साथ, एहसास के साथ, तालीम के साथ हर शख्स में यह परिपक्वता आती है। मैं आज वह नहीं हूं, जो बारह साल पहले था। पहले भी सामाजिक चीजें लिखी हैं। अब उनकी मात्रा बढ़ गई है।
-     समकालीन साहित्य से जुड़ाव कैसा है?
0     हिंदी, उर्दू, पंजाबी, कन्नड़, बंगला, मराठी, हिंदुस्तान की दूसरी भाषाओं में जो लिखा जा रहा है, उसके संपर्क में रहता हूं। बगैर संपर्क के तो हिंदुस्तानी शायरी का चेहरा नजर नहीं आ सकता।
-     आपकी शायरी में बिंब ज्यादा हैं? क्या यह फिल्मों का असर है?
0     हां, मुझे लगता है कि फिल्म का असर है मेरी नज्मों पर। यह फार्म में भी है। स्क्रिनप्ले, सीन वगैरह आ जाते हैं। बिंब भी हैं। कई सारे असर हैं। मैं कई जगह फासला बनाने के लिए पंक्ति लंबी कर देता हूं। फिल्म में जो लय होती है, वह लय स्वभाव में आ जाती है... इसलिए उसका असर तो आएगा ही।
-     कुछ नज्में 'पोर्ट्रेट' शीर्षक से हैं। उनकी क्या खासियत है?
0     'पोर्ट्रेट' है... पेंटिंग है। शब्दों से चित्र बनाने की कोशिश की है। इसमें चेहरे का विवरण नहीं है। इसमें व्यक्तित्व है। मैं चेहरे को नहीं, बल्कि चरित्र को बाहर निकालना चाहता हूं। कुछ कोशिश की थी मैंने।
-     त्रिवेणियां भी हैं?
0     यह तो मेरी फार्म है। 'सारिका' से शुरू हुई थी।
-     इसमें खास बात क्या है?
0     शुरू में बच्चन साहब को सुनाई थी मैंने। उन्होंने जापान के 'हाइ कू' फार्म के बारे में बताया था। कुछ  वैसी कोशिश है। कुछ शब्दों में एक बिंब और सोच को प्रकट करने की कोशिश है। इसमें पहले दो मिसरे स्पष्ट होते हैं। एक मुकम्मिल शेर होता है और तीसरा मिसरा आने पर शेर का मानी बदल जाता है। उसकी छवि बदल जाती है। मैंने त्रिवेणी नाम खासकर रखा। त्रिवेणी का गुप्त मिसरा सरस्वती नदी की तरह है। इसमें शोखी और गंभीरता दोनों है।
-     आपकी शायरी में चांद, रात, एहसास आदि शब्द बार-बार आते हैं। इसकी कोई खास वजह?
0     चांद और रात बहुत ज्यादा है। अब तो मैं चांद से परेशान हो गया हूं। हर बार अलग रूप में आता है चांद।
यह बहुरूपिया है
रोज रूप बदलकर आता है
फिर यह आएगा, दो हफ्ते तक आएगा
आता है,
खामखां लोगों को रात भर जगाता है
लोगों की छतों से सीटी बजाता गुजरता है
इस बार निकले
तो इसे गिरफ्तार ही  कर लो।
-     आप खुद की शायरी को किस पंरपरा से जोड़ते हैं?
0     मेरी शायरी उर्दू की परंपरा से हटी हुई है। ऐसा लोगों ने लिखा भी है। नज्म की ऐसी परंपरा नहीं है। उर्दू में। रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी नज्में थीं। उर्दू की नज्म बड़ी है। उसमें दर्शन है, लेकिन छोटी-छोटी घटनाएं, व्यक्तिगत स्तर की नज्में उर्दू में नहीं हैं। वह अलग है। मुझे ऐसा लगता है। मैंने अपनी तरफ से बेसाख्ता लिखा है। जैसा महसूस किया, वैसा लिखा।
-     किसी से प्रभावित हुए आप ?
0     मुझ पर असर बहुत सारे हैं। इसलिए किसी एक का नहीं कह पाता। उर्दू से लें तो गालिब से तामील ली है। नूनमीन राशिद और फैज का असर अलग है। आधुनिक कविता से मेरा परिचय कराने वाले और राह दिखाने वाले पंजाबी और उर्दू के शायर सुखबीर हैं। सुखबीर पहला शख्स है, जिसकी वजह से मैं रवायती शायरी में नहीं फंसा। उस आदमी की बहुत बड़ी देन है। अमृता जी हैं। नवतेज हैं। सुखबीर की वजह से मायकोवस्की, नाजिम हिकतम, डब्ल्यूएच आडेन से परिचय हुआ। फिर पाब्लो नेरूदा को पढ़ा। टैगोर को बंगाली में पढ़। टैगोर तो क्लासिक हैं। मगर जब जीवनानंद दास और सुभाष मुखोपाध्याय को पढ़ा तो आंखें चौधियां गई। फिर शिव कुमार राय (सत्यजित राय के पिता), कविता में ध्वनि पैदा करते थे। कहते हैं 'चांद देखो, डूबे गेलो, गोब, गोब, गबास...' लगता है मानो कुछ डूब रहा हो।
-     हिंदी में सबसे अधिक किसे पढ़ा है आपने?
0     हिंदी में कम पढ़ा है मैंने। क्योंकि हिंदी बहुत बाद में सीखी मैंने। मैं उर्दू माध्यम से पढ़ा और फौरन ही लगन लग गई थी बंगाल से। मैट्रिक में अनुवाद पढ़ लिए थे मैंने टैगोर के।
-     आपको किस भाषा का शायर माना जाए?
0     क्या जरूरत है? आप सिर्फ शायर मान लीजिए। हिंदुस्तान का शायर मान लीजिए। मैं जिस भाषा में लिखता हूं, वह कहां की है। हिंदी वाले मुझे हिंदी का मानते हैं तो उर्दू वाले उर्दू का। आप क्यों मुझे कठघरे में डालना चाहते हैं। मुंशी प्रेमचंद को क्या कहेंगे आप? और फिर क्या जरूरी है कि एक ही भाषा में लिखें आप? मैं अगर किसी और भाषा में भी लिखूं तो क्या कहेंगे?
-     लेकिन हिंदी या उर्दू में से किसी भी साहित्य में आपको उचित जगह नहीं मिली, क्या इसकी तकलीफ नहीं होती?
0     बहुत पारंपरिक दृष्टि से सोच रहे हैं आप। आप यह देखिए कि मुझे शायर की जगह मिली या नहीं? मुझे किस भाषा में जगह मिली या नहीं मिली। यह कोई समस्या नहीं है।
-     लेकिन फिल्मों में होने का असर तो पड़ा है?
0     हां, उसका नुकसान जरूर हुआ। हिंदी-उर्दू की समस्या अलग है, लेकिन यह जरूर है कि फिल्मों की वजह से मेरी शायरी को गंभीरता से नहीं लिया गया। यह पूर्वग्रह है मेरे यहां। फिल्म वाले मुझे साहित्य का आदमी समझते हैं और साहित्य वाले फिल्मों का। यह समस्या है,  मगर बहुत अस्वाभाविक नहीं है।

Comments

Seema Singh said…
फकीराई,सूफियाना मिजाज के आदरणीय गुलजार साहब के भीतर -बाहर झांकता लेख,पुराना होकर भी उनके चाहने बालों के लिए अपनी सार्थकता के साथ गुलजार है यहाँ उनके मिजाज के तमाम रुपहले पहलुओं पर,उनसे बहुत कुछ कहलाने की कोशिश करता है,बहुत अच्छा,बहुत सून्दर, बहुत उम्दा ,गुलजार साहब को जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ इस आशा और उम्मीद से कि जल्द ही उनके रुब -रु की ताजा- तरीन भेंट-मुलाक़ात के बाकये को चवन्नी चैप में । …. ;क्या गुलजार साहब इस गुजारिश को पूरा करेंगे ?

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