संग-संग : सुभाष कपूर-डिंपल खरबंदा
हमसफर
-अजय ब्रह्मात्मज
जॉली एलएलबी के निर्देशक सुभाष कपूर ने पत्रकारिता से करिअर आरंभ किया। उन्हीं दिनों डिंपल से उनेी मुलाकात हुई। दोनों पहले दोस्त,फिर प्रेमी और आखिरकार पति-पत्नी बन गए। उनके सुखी दांपत्य का सीधा रहस्य है परस्पर विश्वास और एक-दूसरे की क्षमताओं को बढ़ावा देना। दोनों दिल्ली से मुंबई आ गए हैं।
मुलाकात और परिचय
सुभाष कपूर - पहली मुलाकात हमारी होम टीवी में हुई। जहां ये पहले से काम कर रही थीं। मुझे तारीख तक याद है। 2 जनवरी 1995 को हम मिले थे। करण थापर के साथ ऑफिस में मेरा पहला दिन था। पहले दिन जिन चार-पांच लोगों से मिला उनमें से एक डिंपल भी थीं। मुझे एक चीज बहुत स्ट्राइकिंग लगी थी। इनके टेबल पर जेम्स बांड की फिल्म ‘टुमोरो नेवर डाइज’ का दीवार से उखाड़ा पोस्टर लगा हुआ था। इन्होंने जिंस और जैकेट-टी शर्ट वगैरह पहन रखा था। गोरी-चिट्टी छोटे बालों की सुंदर लडक़ी को देख कर मैं दंग रह गया था। मैं तो हिंदी मीडियम से पढ़ कर आया था। ऐसी लड़कियां कहां देखता?
डिंपल - मैं करनाल की हूं। मेरा परिवार पहले वहीं था। बाद में हमलोग दिल्ली चले आए। तकरीबन 14 साल की उम्र में दिल्ली आए। एलएसआर कॉलेज में मैंने पढ़ाई की। शुरू से ही मुझे मीडिया में जाने का मन था। जर्नलिज्म की पढ़ाई कर मैंने पहले प्लस चैनल और होम टीवी में काम किया। मुझे याद है हमारी एक प्रोडयूसर मेखला देवा ने सुभाष से मिलवाया था। ये स्क्रिप्ट रायटर के तौर पर आए थे। मुझे इनकी पतली-दुबली कद-काठी याद है। गले में मफलर, घनी मूंछें और कुछ सोचती गहरी आंखें। मुझे लगा कि यह कोई गहरी सोच का हिंदीभाषी व्यक्ति है।
जब मुझे पता चला कि ये नुसरत फतह अली से मिलने जा रहे हैं तो मुझे बहुत गुस्सा आया। कल के छोकरे को यह मौका मिल रहा है।
सुभाष कपूर - हम नुसरत साहब से होटल में मिलने गए। वे गोश्त के बहुत शौकीन थे। मटन बिरियानी मंगवाई थी। मैंने भी छक कर खाया ।
डिंपल - फिर इन्होंने मिर्जा गालिब के घर पर एक स्टोरी की। मैं वह खुशनसीब थी, जिसे इन्होंने पहले वह स्टोरी दिखाई। वह बहुत ही अच्छी स्टोरी थी। होम टीवी की बेस्ट फीचर स्टोरी मानी गई थी। मुझे भी बहुत अच्छी लगी थी।
सुभाष - डिंपल की स्टोरी विजुअली बहुत स्ट्रांग मानी जाती थी। वह रेफरेंस पाइंट होती थी। अगर आप फीचर कर रहे हैं तो उसका लुक और सीन डिंपल की स्टोरी की तरह होना चाहिए। इनका विजुअलाइजेशन और कटिंग पैटर्न बहुत अच्छा हुआ करता था। वह मेरी पहली क्रिएटिव स्टोरी थी। मुझे भी लग रहा था कि अ'छा काम हुआ है।
डिंपल - बाद में तो ये बहुत मशहूर हो गए। करण थापर तक बात पहुंची। उन दिनों तकरीबन हर शो की स्क्रिप्ट सुभाष ही लिखने लग गए थे। मैं भी चकित थी कि यह लडक़ा बड़ी तेजी से ऊपर जा रहा है। थोड़ी सी ईष्र्या भी होती थी।
रफ्ता रफ्ता आए करीब
डिंपल - होम टीवी के दिनों में ही सुभाष ने मुझे अपने दिल टूटने की कहानी सुनाई थी।
सुभाष - हां, मेरा दिल टूटा था। कहीं तो गुबार निकालना था। आज कल 24 साल के बच्चे बहुत बड़े हो जाते हैं। हम तो नौसीखिए थे। उस उम्र में दिल टूटने का दर्द बयान करने में बड़ा मजा आता है। आओ,प्यार के दो बोल बोलो। आओ,सहानुभूति जताओ। डिंपल से काफी बातें होती थी। हमने साथ में ज्यादा काम नहीं किए। हमारे बीच एक तार जुड़ चुका था। इनके सामने मैंने दिल के नाले खूब बहाए।
डिंपल - मेरे मन में इनके दिल टूटने को लेकर ज्यादा सहानुभूति नहीं थे। अगर इस उम्र में मोहब्बत करोगे तो दिल तो टूटेगा। अभी करिअर पर ध्यान देना चाहिए।
सुभाष - 23-24 साल का लडक़ा इश्क नहीं करेगा तो कब करेगा?
डिंपल - तब मुझे लगता था कि 27-28 की उम्र तक तो करिअर पर ही ध्यान देना चाहिए। सुभाष जितनी पॉलिटिक्स की बातें करते थे उससे मुझे लगता था कि ये किसी आईएस ऑफिसर के बेटे होंगे। इन्हें देश की राजनीति, छात्र राजनीति और बाकी चीजें मालूम थी। मुझे यह भी लग रहा था कि सुभाष पॉलिटिक्स में जाएंगे।
विचार-विमर्श
डिंपल-बाद में पता चला कि इनका संबंध माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से था। उस समय मेरा ब्रेनवॉश होना शुरू हुआ। ये सुहैल हाशमी के साथ मिलकर मेरे दिमाग की धुलाई करने लगे। सुहैल हम दोनों के शुभचिंतक, गाइड और फिलॉस्फर हैं। सुहैल के घर जाते थे हम लोग। डिनर और बहसें होती थी। इन दोनों ने मिल कर मुझ कांग्रेसी को कम्युनिस्ट बनाने की मुहिम शुरू कर दी।
सुभाष - लेफ्ट से मेरा संबंध कॉलेज के दिनों में बना। मैं तो कहूंगा कि अच्छा संयोग था वर्ना किसी कपड़े की दुकान पर ल_ा काट रहा होता। 1989 में मैंने कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज जाने के दूसरे या तीसरे दिन ही जन नाट्य मंच का एक स्ट्रीट थिएटर हो रहा था। सफदर हाशमी थे। मैंने उसके पहले कभी स्ट्रीट थिएटर नहीं देखा था। मैंने महाराणा प्रताप, शिवाजी और भगत सिंह के नाटक देखे थे। किसी समाजिक-राजनीतिक मुद्दे पर नाटक की कल्पना ही नहीं कर सकता था। सफदर ने ‘राजा का बाजा’ का मंचन किया था। उसे देख कर मेरी तो हवा उड़ गई। नाटक के बाद हम लोग सफदर से मिले। 15-20 मिनट में हम लोग ने साथ में चाय पी और बातें की। हमारी इच्छा देख कर सफदर ने नाटक करने के लिए बुला लिया। वहां से हमारा सफर शुरू हुआ।
डिंपल - मेरे लिए तो एक लाइन की खबर थी कि सफदर की हत्या हो गई है। सुभाष ने मुझे सफदर के बारे में बताया। सुहैल के वे बड़े भाई थे और सुभाष उन्हें गुरू मानते थे। धीरे-धीरे मैं इनकी सोच की हो गई। सच्चाई यह है कि मैं फिल्ममेकिंग के कोर्स के लिए कनाडा जाने वाली थी। मैंने किसी और भावना को मन में जन्म नहीं लेने दिया था। तब तक सुभाष मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो गए थे। मेरी हर समस्या का निदान सुभाष थे। कुछ भी होने पर मैं पहला फोन सुभाष को ही करती थी। सुभाष बड़े ही तार्किक व्यक्ति हैं। किसी भी समस्या को वे तर्क से समझाते थे। मुझे ये बड़े संतुलित इंसान लगे। बाद में हमने टीवीआई की नौकरी की। उन दिनों साथ-साथ मंडी हाउस जाया करते थे। साथ में नाटक देखे, त्रिवेणी में बैठे। प्रदर्शनी देखी और अंत में इन्हें एसएफआई के ऑफिस में छोडक़र मैं घर चली जाती थी। इनकी दुनिया मुझे आकर्षित करती थी। किसी और के लिए लडऩे के लिए हमेशा तैयार। मैं तो ‘मी माई सेल्फ’ कल्चर की लडक़ी थी। इनके विचारों और भावनाओं ने असर दिखाना शुरू किया।
हुआ एहसास जब
सुभाष - शुरू में तो ऐसी कोई फीलिंग नहीं थी। दो-तीन सालों के दोस्ती के बाद यह लगने लगा था कि डिंपल को लेकर मैं सीरियस हूं। साथ ही यह भी पता था कि मेरा एहसास एकतरफा है। डिंपल कोई भाव दे नहीं रही थीं। फिर भी अच्छी दोस्ती थी और मैं यह दोस्ती खोना नहीं चाहता था। कुछ समय ऐसे भी कटे जब मैं तो इमोशनल हो चुका था, लेकिन इनके प्रति श्योर नहीं था। एक कशमकश सी रही। वजह यह थी कि डिंपल बहुत ही महत्वाकांक्षी लडक़ी थीं। कनाडा जाकर फिल्म मेकिंग सीखना चाहती थीं। वल्र्ड सिनेमा का इनका एक्सपोजर हम सब से ज्यादा था। उनकी सोच थी कि अभी करिअर बनाओ,बाद में इश्क-मोहब्बत के बारे में सोचो। डिंपल का फोकस हमेशा क्लियर रहा और मैं हमेशा आउट ऑफ फोकस रहता था। मोहब्बत बताने की मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी।
डिंपल - शुरू में तो मैं दोस्ती ही समझती रही। बाद में जरूर मैंने भी महसूस किया। मेरे आस-पास के लोग बोलने लगे थे कि तुम दोनों बहुत समय एक साथ बिताते हो। क्या चल रहा है? मैं मजाक में टाल देती थी। मैं उन्हें कहती थी कि मैं तो वैनकोवर जा रही हूं। एक दो करीबी दोस्त कभी तंज मारते थे। मैं समझ नहीं पा रही थी कि लोग ऐसा क्यों सोच रहे हैं। एक बार तो लगा कि जरूर सुभाष ने कुछ बोला होगा। उन्हीं दिनों टीवीआई बंद हो गया और हम सभी तारा पंजाबी में साथ काम करने लगे थे। बाद में सुभाष का कोई झगड़ा हो गया और वह छोड़ कर चले गए। उन्होंने कुछ बताया नहीं। मुझे गुस्सा आया कि मैं लेकर आई थी और मुझे ही नहीं बताया। मैंने सुभाष को फोन पर बहुत डांटा। तब बहुत इमोशनल और नाराज हो गई थी। फिर बाद में सोचा कि मैं क्यों इमोशनल हो रही हूं? फिर मुझे एहसास हुआ कि हमारे बीच दोस्ती से ज्यादा कुछ हो चुका है।
करिअर और कशमकश
डिंपल-मैंने सुभाष को बताया कि मेरा एफटीआईआई में एडमिशन हो गया है। मैं टॉप 5 में चली गई थी। सुभाष ने तब यही कहा था कि फिल्में तो मैं वैसे ही बना लेंगे। तुम एफटीआईआई जाकर क्या करोगी? जिंदगी के चार साल और गुजर जाएंगे। फिल्में कब बनाओगी? फिर समझाया हम सभी मिलकर मुंबई चलेंगे। सुभाष मुझे सपना दिखाते रहे। सुभाष ने मुझे कंवेंश कर दिया। दिल्ली में एक और कंपनी मैंने ज्वॉइन की। वहां भी सुभाष को बुलाया। उन्हीं दिनों सुभाष ‘रामलीला’ नाम की डाक्यूमेंट्री कर रहे थे। उस शो के दौरान ही हम दोनों ज्यादा करीब आए। एक दिन इनकी बीमार होने के बावजूद मैंने लगभग आदेश देते हुए ऑफिस में बुलाया। मुझे बाद में एहसास हुआ कि मैंने कुछ ज्यादती कर दी। 103 बुखार में इन्हें देख कर मुझे तिलमिलाहट हुई। मेरी एक दोस्त ने कहा भी कि तू झूठ-मूठ का कंफ्यूजन क्रिएट कर रही है। सच्ची बात नहीं बता रही है।
सुभाष - आखिरकार मैंने पहल की और इंडिया गेट पर टहलने के दौरान अपनी दिल की बात कह दी। ढाई सालों से जो बात अंदर कुलबुला रही थी वह आखिर फूट ही पड़ी। इंडिया गेट के सामने मैदान में टहलते-टहलते मैंने कह ही दिया आप बुरा मत मानिएगा मैं यह बात कहना चाहता हूं कि ‘आई एम इन लव विद यू।’ यह सन 2000 की बात है। 20 अप्रैल 2001 को हमारी शादी हुई। उस दौर में प्रेमी-प्रेमिका के चुनाव में हम यह नहीं देखते थे। हम उसका बैकग्राउंड, करिअर और फ्यूचर के बारे में अधिक नहीं सोचते थे। हम लोगों के कई साथियों ने शादी करते समय ऐसा नहीं सोचा। तब मोहब्बत में शर्तें नहीं हुआ करती थीं। डिंपल अपर मिडिल क्लास की थी। मैं लोअर मिडिल क्लास से आता था। लेकिन कभी इस तरह की बातें नहीं हुईं।
डिंपल - हम दोनों पहले ही बहुत अच्छे दोस्त हो गए। मुझे सुभाष के परिवार के बारे में पहले से मालूम था। ज्यादातर चीजें मालूम थीं। मैं सारा श्रेय अपने पिता को देना चाहूंगी। मुझे एक क्षण को नहीं लगा कि मेरे पापा क्या कहेंगे? उनकी तरफ से मुझे हमेशा आजादी मिली हुई थी। वे मेरे फैसलों पर भरोसा करते थे। मैं निश्चित थी कि पापा से बात करूंगी तो समर्थन ही मिलेगा। करीबी दोस्तों से शेयर किया कि हमलोग ऐसा सोच रहे हैं। सभी ने समर्थन किया। मुझे थोड़ी-बहुत चिंता मां की थी। मैंने तय कर लिया था कि मुझे इसी माहौल में सुभाष के साथ रहना है। सुभाष ने जब बताया कि इनका बैंक बैलेंस 80 हजार रुपए है तो मैं चकित रह गई।
सुभाष - इनको यकीन ही नहीं हुआ। शादी की बात पक्की हो गई। डिंपल ने यों ही एक बार पूछा कि शादी तो हो जाएगी, लेकिन पैसे-वैसे हैं क्या? फिर मैंने बताया कि मेरे पास तो 85 हजार रुपए हैं। ये सोच रही थी कि दसेक हजार ही होगी। मैंने अपने शादी के लिए इक_े कर रखे थे।
डिंपल - जब मैंने पिताजी को बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि यह तो मैं सोच ही रहा था। शादी ही करनी है तो सुभाष क्यों नहीं? वे एक अलग जोन में थे।
विवाह और परस्पर विश्वास
सुभाष - हम दोनों शादी की संस्था में यकीन करते थे। तब भी यह सवाल उठा था कि शादी क्यों? मैं पलट कर पूछता था कि शादी क्यों नहीं? कभी यह ख्याल नहीं आया कि लिवइन या ट्रायआउट किया जाए। हमलोग 1996 में मिले और शादी 2001 में किए तो 6 साल हमलोग मिलते रहे थे। हम दोनों एक दूसरे का बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे। डिंपल को हमारी जिंदगी और आयडॉलॉजी पसंद आ गई थी। किसी होड़ से बाहर की जिंदगी उन्हें पसंद थी। मेरे नजदीकी लोगों में डिंपल पहली लडक़ी थी जिन्होंने मुझे एहसास दिलाया कि तुम कुछ कर सकते हो। अपने काम में मैं सफल था। लोग तारीफ करते थे, लेकिन डिंपल ने स्पेशल होने का एहसास दिलाया। मेरे जीवन,करिअर और काम को लेकर फोकस इनकी वजह से आया। मैं स्पष्ट था कि इस संबंध से मुझे क्या मिलेगा? डिंपल ने ही बताया था कि मैं फिल्म भी लिख सकता हूं। मैंने सोचा नहीं था कि ‘मिर्जा गालिब’ और ‘रामलीला’ पर स्टोरी बनाऊंगा। डिंपल ने मुझे गाइड करने के साथ आत्मविश्वास दिया।
डिंपल - हम दोनों कुछ करना चाहते थे। एक दूसरे से हिम्मत मिल रही थी। मैंने शादी से तीन महीने पहले नौकरी छोड़ दी। उस समय अच्छे-खासे पैसे मिल रहे थे।
सुभाष - तब इनकी सैलरी 45 हजार थी। मैं तो 20 हजार रुपया कमाता था।
डिंपल - शादी के बाद हमने दिल्ली में अपना कारोबार शुरू किया।
सुभाष - 2001 में ‘रामलीला’ बनी थी। मैं उसे अपनी शादी का तोहफा मानता हूं। उस फिल्म ने कुछ अवॉर्ड जीते। मुझे भरोसा हुआ और डिंपल ने उसे गहरा किया। सिनेमा में फ्यूचर हो सकता था। तब मैं आज तक में नौकरी की कोशिश कर रहा था। तब तक शादी हो चुकी थी। डिंपल नौकरी छोड़ चुकी थी। एक असमंजस चल रहा था कि क्या किया जाए? प्रोडक्शन कंपनी खोल ली थी और थोड़ा-बहुत काम कर रहे थे। उन दिनों सभी कोई नौकरी छोड़ कर अपना काम शुरू कर रहे थे।
अहम फैसला
डिंपल - उस दौरान सुभाष ने एक स्क्रिप्ट पर काम करना शुरू किया। किसी दोस्त के लिए यह काम कर रहे थे। मैं उसे पढ़ती जा रही थी। मैं कहती भी थी कि तुम कमाल लिख रहे हो। बिल्कुल फिल्म है। मैं शब्दों को चित्रों में देख सकती हूं। किसी समय मैं फिल्म मेकिंग का कोर्स करना चाहती थी। सुभाष ने जब आधी स्क्रिप्ट लिखी। इसी प्रकार एक और स्क्रिप्ट की पंद्रह-सोलह सीन लिखे। फिर मुझे लगा कि कितना अच्छा लिख रहे हैं सुभाष। मैंने ही कहा कि तुम तो स्क्रिप्ट लिख सकते हो।
सुभाष - रायटर तो मैं पहले से ही अच्छा माना जाता था। यह एहसास नहीं था कि फिल्म भी लिख सकता हूं। डिंपल अप्रत्यक्ष रूप से मेरा इरादा मजबूत कर रही थी।
डिंपल - 2004 में हमारा बेटा हुआ। तब इनकी अच्छी कमाई चल रही थी। इन्हें लग रहा था कि जीवन बहुत अच्छा चल रहा है। हमने एक बड़ा सा घर ले लिया था। बेटा हो चुका था। सुभाष ने कहा भी कि फिलहाल मुंबई नहीं जाते हैं। यहां अच्छा चल रहा है इसी को मजबूत करते हैं। मुझे याद है सुभाष किचन के स्लैब पर बैठे हुए थे और मैं कुछ काम कर रही थी। मुझे अपने शब्द याद है मैंने कहा था - सुभाष तुम इस साल बहुत भाग्यशाली रहे। हो सकता है अगले साल तुम्हारे हाथ कोई प्रोजेक्ट न आए। बाद में अफसोस करोगे कि मुंबई भी नहीं गए और यहां भी काम बंद हो गए। अब तुम्हें मुंबई जाना चाहिए।
सुभाष - तब बेटा छोटा था। मैं सोच रहा था कि थोड़ा दिल्ली और थोड़ा मुंबई करते हैं। एक बार जब सब कुछ ठीक हो जाए तो शिफ्ट कर जाएंगे। यह भी दिमाग में था कि गुलाल थोड़ा बड़ा हो जाए तो चले जाएंगे।
डिंपल - गुलाल के पौने दो साल के होने पर हम मुंबई चले आए। सुभाष ने पहली फिल्म ‘से सलाम इंडिया’ साइन कर ली। तब हम चले। हम लोग सोच-समझ कर आए,फिर भी एक दांव तो था ही। ख्याल था कि कोई स्क्रिप्ट मिल जाए या संवाद लेखन मिल जाए, कॉरपोरेट करने का भी इरादा था। दिल्ली में एक प्रोजेक्ट मिलते-मिलते रह गया। थोड़ी निराशा भी थी। अभी लगता है कि हमें दिल्ली नहीं रुकना था,इसीलिए हमें वह काम नहीं मिला। अगर वह काम मिल जाता तो दो साल तक हिलते ही नहीं।
सुभाष - कहीं से भी यह योजना नहीं थी कि मुझे डायरेक्टर बनना है। बनना चाहता था,लेकिन प्लानिंग नहीं थी। मैंने क्रिकेट पर एक स्क्रिप्ट लिखी। डिंपल ने स्क्रिप्ट को अच्छी तरह समझाने के लिए उसका एवी प्रजेंटेशन तैयार किया। मैं उसे पिच कर रहा था। सभी उसे देख कर दंग रह जाते थे। बाद में धीरे-धीरे लोगों ने कहना शुरू किया कि आप ही क्यों नहीं डायरेक्ट कर लेते। डिंपल ने दिल्ली में एक कॉरपोरेट को दिखाया। उन्हें बहुत पसंद आई। वे रिबॉक और दूसरे स्पॉन्सर की बात करने लगे। डिंपल ने यह बात बताई तो यहां मैंने निर्माताओं को बताया। वे खुश हो गए। उनके हौसले बढ़े। वे निर्माण के लिए तैयार हो गए और मैं डायरेक्टर बन गया। मेरे डायरेक्टर बनने में डिंपल के पांच मिनट के एवी का बहुत बड़ा रोल है। मुझे नहीं लगता कि मैंने बहुत ज्यादा स्ट्रगल किया है।
डिंपल - दो-ढाई साल की अनिश्चितता जरूरी रही। पता नहीं था कि क्या होने वाला है। ‘फंस गए रे ओबामा’ के आने के पहले कुछ भी स्पष्ट नहीं था। उस दो साल में मैं काम कर रही थी। मैं बीएजी फिल्म्स में नौकरी की। तब सुभाष ‘जॉली एलएलबी’ लिख रहे थे।
अनिश्चय में भी अटल
सुभाष - ‘से सलाम इंडिया’ फ्लॉप होने के बाद मुंबई में टिके रहना एक मुश्किल फैसला था। तब दिल्ली वापस नहीं जा सकते थे। लगता था कि ऐसे कैसे चले जाएंगे? उन दिनों डिंपल का काम करना मुझे बुरा भी लग रहा था। हमलोग दिल्ली छोड़ कर आए थे तब दस-बारह लोग हमारे लिए काम कर रहे थे। यही तय हुआ कि डिंपल नौकरी करेगी और मैं स्क्रिप्ट लिखूंगा और डायरेक्शन की कोशिश करूंगा। बच्चा छोटा था। उसे डेकेअर में छोडऩा पड़ता था। कई बार हम दोनों को देर हो जाती थी। वह अकेला महसूस करता था। तब लगता था इस बिचारे का क्या कसूर है? ऐसे पलों में थोड़े कमजोर भी हुए हमलोग।
डिंपल - एक समय तो सुभाष ने भी बॉयोडाटा बनाना शुरू कर दिया था।
सुभाष - उस दौर में एक अच्छी बात हुई कि गहन निराशा में भी मैं किसी और रास्ते नहीं गया। उस दौरान मैंने तीन फिल्में लिखीं। मेरे लेखन का पहला बाउंसिंग बोर्ड डिंपल होती हैं। कई बार रात को दो बजे उन्हें जगा कर मैं अपनी स्क्रिप्ट सुनाता हूं। मैं अकेला लिखता हूं। अपनी स्क्रिप्ट ढेर सारे लोगों को नहीं सुनाता हूं। सही या गलत यह मेरा तरीका है। मेरी पहली श्रोता और दर्शक डिंपल होती हैं। डिंपल कभी खुश करने के लिए कुछ नहीं कहती हैं।
नियामक हैं डिंपल
सुभाष - प्रोडक्शन कंपनी खोलने का विचार डिंपल का था। सारे जरूरी फैसले डिंपल ने ही लिए हैं।
डिंपल - अपनी महत्वाकांक्षा को किनारे करने का कोई अफसोस नहीं है मुझे। फिल्म इंडस्ट्री के रवैए से मैं परिचित हूं। यहां एक औरत को काम मिलना बहुत मुश्किल है। पुरुषों को फिर भी काम मिल जाता है। पंद्रह साल की उम्र से मैं फिल्म इंडस्ट्री को फॉलो कर रही हूं। मेरा परिवार फिल्मप्रेमी है। मुझे लग रहा था कि सुभाष को जो मौका मिल रहा है उसका सही इस्तेमाल होना चाहिए। उस समय मैंने सोचा कि अपनी महत्वाकांक्षा बाद में कभी पूरी कर लूंगी। मैं पृष्ठभूमि में रह कर बहुत खुश हूं। सुभाष के हर काम को मैं अपनी संयुक्त पहचान मानती हूं। सुभाष की स्क्रिप्ट पर फीडबैक दे कर मैं खुश रहती हूं। ‘फंस गए रे ओबामा’ और ‘जॉली एलएलबी’ में मैंने कुछ सुझाव दिए थे। सुभाष ने उन्हें माना था। अपनी इस योगदान से मैं खुश हूं। कल के बारे में कौन जानता है।
सुभाष - कल की खिडक़ी हमेशा खुली रहेगी। इस बारे में हम बात नहीं करते हैं, लेकिन हम यह देख रहे हैं कि सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो कल डिंपल भी कुछ लेकर आ सकती है। बच्चे की जिम्मेदारी थोड़ी कम हो जाए। बाकी चीजें जम जाएं। पिछले चार सालों में डिंपल ने मुझे पूरी आजादी और मदद दी है। मेरी जिंदगी के सारे अहम फैसले डिंपल ही करती हैं। मैं उस पर अमल करता हूं।
परिवार और सामंजस्य
सुभाष - हमारा बड़ा मजेदार रिश्ता है। डिंपल के परिवार में मैं ज्यादा प्रिय हूं। और मेरे परिवार में डिंपल को बहुत पसंद किया जाता है। मेरे जीवन के नियमित और महत्वपूर्ण फैसले डिंपल ही लेती हैं। विचार भी यही ले आती हैं। हम दोनों को बीच-बीच में भगवान तंग करता है।
डिंपल - सुभाष नास्तिक हैं। ईश्वर में विश्वास नहीं करते। मेरी परवरिश अलग है। मैं कहती हूं कि गुलाल को अभी हर तरह की जानकारी दो। बाद में वह तय करेगा कि उसे आस्तिक होना है या नास्तिक। मैं बहुत आध्यात्मिक किस्म की हूं। मैं उसे मंदिर और गुरुद्वारे सभी जगह ले जाती हूं। बाद में वह तय करेगा। मैं बताऊं कि सुभाष को जितने मंत्र याद हैं, उतने किसी धार्मिक व्यक्ति को भी याद नहीं होगा।
सुभाष - मतभेद के छोटे-मोटे मुद्दे होते हैं। कोई बड़ी लड़ाई नहीं होती है।
डिंपल - आखिरी लड़ाई डेढ़ महीने पहले हुई थी। मेरा मूड ऑफ हो गया था।
सुभाष - हारने और मनाने का काम मेरा होता है।
डिंपल - ऐसी बात नहीं है। कई बार मैं भी मान लेती हूं। मैं थोड़ी तुनक मिजाज हूं। किशोर उम्र से ही मेरा यह स्वभाव बन गया है। परिवार में बुजुर्गों की कही बातें नहीं मानती थी। हमेशा से नियम तोड़ती आई हूं। ऐसा नहीं करती तो कहीं और होती। ऑफिस में भी लोग डरते थे।
सुभाष - बिल्कुल सही। किसी से भी जरा सी भी गलती हो जाए तो उसकी पैंट उतर जाती थी।
डिंपल - हां, मैं काम को लेकर थोड़ी ज्यादा अग्रेसिव रहती थी। अभी भी उस मूड में आ जाती हूं। कई बार परिवार और क्रिएटिव मुद्दों पर सुभाष को डांट देती हूं। पांच-पांच फ्रेम के लिए लड़ती हूं।
सुभाष - अच्छी बात है कि डिंपल की एक ओपिनियन रहती है। उस पर बहस होती है।
खूबियां एक-दूसरे की
सुभाष - डिंपल नि:स्वार्थ भाव से दूसरों की मदद करती हैं। डिंपल दूसरों की ताकत पहचान लेती हैं। इनमें देने की जबरदस्त ताकत है। नाते-रिश्तेदारों के साथ बहुत अ'छी तरह निभाती हैं। मुझ में यह क्वालिटी नहीं है। मैं आत्मकेंद्रित व्यक्ति हूं।
डिंपल - सुभाष बेहद तार्किक और संतुलित व्यक्ति हैं। किसी भी स्थिति को अच्छी तरह समझते हैं। सरलता इनके स्वभाव में अंतर्निहित हैं। ये एकाग्र भाव से कोई काम कर सकते हैं। अभी बेटे की परवरिश में काफी मदद करते हैं। हर पिता को ऐसा होना चाहिए। मुश्किल स्थितियों से उबरना इन्हें आता है।
सुझाव
डिंपल - मैं युवा लडक़े-लड़कियों से यही कहूंगी कि सबसे पहले तो शादी की संस्था में यकीन करना चाहिए। शादी के साथ दाम्पत्य में कुछ मूल्य आते हैं। उसे अपनाना चाहिए। शादी के दिखावे पर न जाएं।
सुभाष - शादी करने पर एक-दूसरे के साथ और ढंग से चलना पड़ता है। इसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। मैं मानता हूं कि किसी भी दाम्पत्य में दोनों समान नहीं होते। किसी एक का ज्यादा योगदान होता है। मेरे संदर्भ में वह योगदान डिंपल का है। हर चीज बराबर-बराबर हो यह किताबी बात लगती है। दो लोगों के साथ रहने में सबसे पहले यह मालूम होना चाहिए कि दूसरे के साथ क्या खुशी मिलती है? दूसरे को भी पता होना चाहिए कि उसे मैं क्यों अच्छा लगता हूं? जब तक लेना-देना नहीं होगा तब तक सब कुछ ठीक नहीं होगा। परस्पर लेन-देन बहुत महत्वपूर्ण है।
डिंपल - लड़कियों को देखना चाहिए कि उसका प्रेमी अच्छा इंसान हो। यह बात पुरानी लग सकती है। पहली डेटिंग में ही आप देख लें कि वह बैरा से किस तरह बात कर रहा है। यकीन करें भविष्य में वह आपसे भी वैसा ही बात करेगा। आपके परिवार के सभी सदस्यों के प्रति उसकी हमदर्दी हो। वह मेरे मां-बाप को आदर दे।
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