दरअसल : पहले किरण, अब करण
-अजय ब्रह्मात्मज
खबर आई है कि इरफान और नवाजुद्दीन सिद्दिकी की फिल्म ‘लंचबॉक्स’ अगले महीने भारत के थिएटरों में रिलीज होगी। यह फिल्म मशहूर निर्माता-निर्देशक करण जौहर को बहुत अच्छी लगी है। संयोग ऐसा था कि करण जौहर के साथ ही मैंने यह फिल्म देखी थी। फिल्म के इंटरवल और समाप्त होने पर करण जौहर ‘लंचबॉक्स’ के निर्देशक रितेश बत्रा से जिस दिलचस्पी के साथ बात कर रहे थे उसी से लगा था कि उन्हें फिल्म बहुत पसंद आई है। उस शो में शेखर कपूर भी थे। वे भी इस फिल्म को देख कर आह्लादित थे। ‘लंचबॉक्स’ इस साल कान फिल्म फेस्टिवल में भी सराही गई थी। हाल फिलहाल में ऐसी अनेक फिल्में आईं हैं जिन्हें विभिन्न फेस्टिवल में अच्छी सराहना मिली है। फिर भी स्टार वैल्यू के अभाव में ये फिल्में आम थिएटर में रिलीज नहीं हो पा रही हैं। इंडस्ट्री में कानाफूसी चलने लगी है कि पैरेलल सिनेमा की तरह फिर से ऐसी फिल्मों का दौर आ गया है जिन्हें हम केवल फेस्टिवल में ही देखते हैं। वास्तव में यह कानाफूसी फिल्म इंडस्ट्री की बेरूखी जाहिर करती है। करण जौहर ने ‘लंचबॉक्स’ के वितरण की पहल दिखा कर अच्छा उदाहरण दिया है।
पिछले महीने जुलाई में किरण राव की कोशिश से आनंद गांधी की फिल्म ‘शिप ऑफ थीसियस’ पांच शहरों के 23 सिनेमा घरों में रिलीज हुई। वीकएंड में इस फिल्म का कलेक्शन लगभग 25 लाख रुपए रहा। हालांकि यह रकम मेन स्ट्रीम फिल्मों की तुलना में छटाक भर भी नहीं है। फिर भी यह खुश होने का समय है कि ऐसी फिल्में रिलीज हो पा रही हैं। ‘शिप ऑफ थीसियस’ अपनी तरह का पहला प्रयास है। यह फिल्म बड़े स्तर पर सिंगल शो में भी रिलीज होती तो और ज्यादा दर्शकों तक पहुंचती। अपनी सीमित रिलीज के बावजूद इस प्रयास से बेहतर सिनेमा के प्रदर्शन की उम्मीद जगी है। इस उम्मीद को करण जौहर की पहल ने पुख्ता कर दिया है।
पिछले कुछ सालों में स्वतंत्र निर्माताओं के प्रयास से महत्वाकांक्षी निर्देशक अपनी सोच को फिल्म का रूप दे पा रहे हैं। समस्या इनके वितरण और प्रदर्शन की है। विश्व स्तर पर ऐसी फिल्मों को फायनेंसियल सपोर्ट भी मिल रहा है। फिल्में बन जाती हैं, लेकिन भारतीय वितरकों की अरुचि से ऐसी फिल्में लंबे समय तक डब्बे में पड़ी रह जाती है। उन्हें केवल फेस्टिवल में ही हम देख पाते हैं। यह स्थिति सचमुच निराश करती है। किरण राव और करण जौहर जैसे मेनस्ट्रीम फिल्मी हस्तियों के हस्तक्षेप से अगर यह नया ट्रेंड जोर पकड़े तो छोटी मगर सार्थक फिल्मों के लिए अच्छी बात होगी।
यहां हम थोड़ी देर के लिए मेनस्ट्रीम निर्देशकों के आलस्य को भूल भी सकते हैं। आखिर ‘शिप ऑफ थीसियस’ और ‘लंचबॉक्स’ जैसी फिल्मों के निर्माण का फैसला स्थापित फिल्ममेकर क्यों नहीं ले पाते हैं? अगर शुरू से ही ऐसी फिल्मों को उनका सपोर्ट मिले तो छोटी और अच्छी अच्छी फिल्मों की संभावना बढ़ जाएगी। अभी तो यह हो रहा है कि छोटे कलाकार कुछ रच रहे हैं और बड़ा व्यापारी आकर उन पर अपनी मोहर लगा दे रहा है। इन फिल्मों के वितरण से उनकी शोहरत में सकारात्मक इजाफा हो रहा है। सच्चाई यह है कि ऐसी फिल्मों को मूर्त रूप देने में कथित छोटे निर्देशकों को अनेक मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। क्या हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के मेनस्ट्रीम फिल्मकार उनकी मुश्किलें कम नहीं कर सकते?
Comments
Sandeep