दरअसल : पूरी तैयारी और धैर्य के साथ आएं
-अजय ब्रह्मात्मज
मुंबई और दूसरे शहरों में फिल्मों में आने और छाने के लिए आतुर महत्वाकांक्षी युवक-युवतियों से भेंट-मुलाकात होती रहती है। लंबे समय से फिल्मों पर लिखने, स्टार एवं डायरेक्टर के इंटरव्यू प्रकाशित होने से पाठकों को लगता है कि फिल्मी हस्तियों से हमारा नजदीकी रिश्ता है। रिश्ता जरूर है, लेकिन यह अधिकांश मामलों में प्रोफेशनल है। कभी उनकी जरूरत तो कभी हमारी चाहत ़ ़ ़ दोनों के बीच मेलजोल चलता रहता है। अगर हम साल में चार बार अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू करते हैं तो इसका मतलब यह कतई न समझें कि उनसे हमारा रिश्ता प्रगाढ़ हो गया है। मेरे जैसे और दो दर्जन से अधिक पत्रकार हैं, जिन्हें वे इंटरव्यू देते हैं। हां, कई बार अपने सवालों की वजह से हम उन्हें याद रह जाते हैं। अमिताभ बच्चन तो फिर भी हिंदी पत्र-पत्रिकाएं पढ़ लेते हैं। बाकी फिल्मी हस्तियों का हिंदी से अधिक लेना-देना नहीं रहता। वे पढ़ते नहीं हैं। वे देखते हैं कि हमने उन पर लिखा है। यही वजह है कि निरंतर लिखने के बावजूद हिंदी के फिल्म पत्रकारों की इंडस्ट्री में पैठ नहीं बन पाती। उसके लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है।
बहरहाल, निरंतर प्रकाशित होने से अनेक महत्वाकांक्षी पाठक हम से मिलना चाहते हैं। फिल्म इंडस्ट्री के तौर-तरीकों से नावाकिफ लोगों के लिए हम एक जरिया होते हैं। वे चाहते और मानते हैं कि किसी भी फिल्मी हस्ती से हम उनका परिचय करवा सकते हैं। उन्हें अपेक्षित काम दिलवा सकते हैं। किसी भी निर्देशक को कह देंगे तो वह उन्हें सहायक बना लेगा या अपनी फिल्म में रोल दे देगा। सच्चाई इस धारणा से कोसों दूर है। मैंने अक्सरहां लोगों को समझाया है कि ऐसा होता नहीं है। अगर कोई भी ऐसा भरोसा दे रहा है तो वह झांसा दे रहा है। अपना उल्लू सीधा करना चाह रहा है। मुंबई के उपनगरों के सस्ते रेस्तरां से लेकर कैफे तक में ऐसे अनेक ठगे कलाकार मिल जाएंगे, जिन्हें किसी ने मौके के अनुसार चूना लगाया हो। वादे टूटने की चपत तो सभी ने खाई है। लोग कहते हुए मिलते हैं कि मेरा सब कुछ तय हो गया था, लेकिन ऐन वक्त पर ़ ़ ़। जरूरत है कि ठहर कर इस ‘ऐन वक्त’ के बारे में सोचें। फिर आगे की रणनीति तय करें।
मुंबई आएं। जरूर आएं। यह मायानगरी है। सपनों की नगरी है। इस शहर में सभी के सपने पूरे होते हैं, लेकिन उसके लिए ठोस तैयारी और गहरा धैर्य हो। बगैर तैयारी हर महत्वाकांक्षा खोखली होती है। अगर कुछ करना और बनना है तो उस फील्ड की बारीकियों को सीखना होगा। पढ़-सीख कर आएं तो बेहतर ़ ़ ़ अन्यथा यहां पढऩे-सीखने की ललक बरकरार रखें। अनेक फिल्मकारों और कलाकारों ने काम करते हुए ही सीखा है। औपचारिक प्रशिक्षण से संबंधित क्षेत्र की बेसिक जानकारी मिल जाती है। पुरानी कहावत है कि नींव मजबूत हो तो इमारत भी बुलंद बनती है।
बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश आदि हिंदीभाषी इलाकों से आ रही प्रतिभाओं को सबसे पहले अपनी भाषा पर ध्यान देना चाहिए। स्थानीय बोली और उच्चारण के प्रभाव से शब्द सामथ्र्य होने के बावजूद भाषा लचर हो जाती है। कहीं भी किसी से मिलते समय सबसे पहले व्यक्तित्व और फिर भाषा का असर होता है। अगर आप पहली नजर में ही नहीं जंचेंगे तो बात आगे कैसे बढ़ेगी? बात आगे बढ़ी तो भ्रष्ट या दोषपूर्ण भाषा की वजह से भी आप छंट सकते हैं। फिल्म निर्माण के किसी भी क्षेत्र में सक्रिय होने के पहले व्यक्तित्व और भाषा को परिष्कृत करें।
हिंदी फिल्मों के लिए यह सुनहरा दौर है। हर प्रकार की फिल्में बन रही हैं। उनके लिए हर प्रकार की प्रतिभाओं की जरूरत है। ये प्रतिभाएं देश के विभिन्न इलाकों से ही आएगी। मुंबई को जरूरत है आप की, लेकिन क्या आप के पास मौके के अनुकूल तैयारी है?
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यह एक तरह से गाइड लाइन का काम करेगा। शुक्रिया।