फिल्‍म समीक्षा : डी डे

D Day-अजय ब्रह्मात्‍मज
निखिल आडवाणी की 'डी डे' राष्ट्रीय स्वप्न और भारत का पलटवार के तौर पर प्रचारित की गई है। पड़ोसी देश में छिपे एक मोस्ट वांटेड आतंकवादी को जिंदा भारत लाने की एक फंतासी रची गई है। इस फंतासी में चार मुख्य किरदार भारतीय हैं। वे पाकिस्तान के कराची शहर से आतंकवादी इकबाल उर्फ गोल्डमैन को भारत लाने में जिंदगी और भावनाओं की बाजी लगा देते हैं। उनकी चाहत, मोहब्बत और हिम्मत पर फख्र होता है, लेकिन फिल्म के अंतिम दृश्यों में इकबाल के संवादों से जाहिर हो जाता है है कि फिल्म के लेखक-निर्देशक की सोच क्या है? फिल्म की शुरुआत शानदार है, लेकिन राजनीतिक समझ नहीं होने से अंत तक आते-आते फिल्म फिस्स हो जाती है।
अमेरिकी एंजेंसियों ने मोस्ट वांटेड ओसामा बिन लादेन को मार गिराया और उसके बाद उस पर एक फिल्म बनी 'जीरो डार्क थर्टी'। भारत के मोस्ट वांटेड का हमें कोई सुराग नहीं मिल पाता, लेकिन हम ने उसे भारत लाने या उस पर पलटवार करने की एक फंतासी बना ली और खुश हो लिए। भारत का मोस्ट वांटेड देश की व‌र्त्तमान हालत पर क्या सोचता है? यह क्लाइमेक्स में सुनाई पड़ता है। निश्चित ही यह लेखक-निर्देशक ने तय किया है कि इकबाल क्या बोलेगा? बोलते-बोलते वह बरखा, राजदीप और अर्णब जैसे राजनीतिक टीवी पत्रकारों का भी नाम लेता है। यहां आकर पूरी कोशिश हास्यास्पद और लचर हो जाती है। गनीमत है कि वह वहीं रूक गया। वह यह भी कह सकता था कि फिर मुझ पर एक फिल्म बनेगी और सारे फिल्म समीक्षक रिव्यू लिखेंगे।
'डी डे' एक फंतासी है। भारत के मोस्ट वांटेड को पकड़ कर भारत लाने का राष्ट्रीय स्वप्न (?) निर्देशक निखिल आडवाणी ने फिल्म में पूरा कर दिया है। इस मिशन के लिए रॉ की तरफ से चार व्यक्ति नियुक्त किए जाते हैं। चारो लंबे अर्से से कराची में हैं। वे मोस्ट वांटेड को घेरने और करीब पहुंचने की यत्‍‌न में लगे हैं। अखबार की खबरों को थोड़े उलटफेर से दृश्यों और घटनाओं में बदल दिया गया है। उनमें इन चारों व्यक्तियों को समायोजित किया गया है। कैसा संयोग है कि भारतीय रॉ एजेंट विदेशों में सीक्रेट मिशन पर जाते हैं तो पाकिस्तानी लड़कियों से प्रेम करने लगते हैं। यहां तो कथाभूमि ही पाकिस्तान की है। दोनों नायक प्रेम करते हैं। एक का तो पूरा परिवार बस जाता है और दूसरा एक तवायफ से प्रेम करने लगता है। अपने मिशन में भी वे मोहब्बत को नहीं भूलते। मिशन और इमोशन के द्वंद्व में उलझा कर उनसे एक्टिंग करवाई गई है। इरफान, अर्जुन रामपाल, श्रीस्वरा और श्रुति हसन ने लेखक-निर्देशक की दी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। उनके उम्दा अभिनय से ही फिल्म की थीम को नुकसान पहुंचा है, क्योंकि इस स्पाई थ्रिलर में जबरदस्ती रोमांस, कमिटमेंट और प्रेम थोपा गया है। हुमा कुरेशी इसलिए कमजोर पड़ी हैं कि उन्हें इस मिशन में किसी से मोहब्बत करते नहीं दिखाया गया है। उनकी पहले ही शादी करवा इी गई है और बताया गया है कि ड्यूटी की वजह से उनका दांपत्य खतरे में है।
'डी डे' ऐसी उलझनों की वजह से साधारण फिल्म रह गई है। इस साधारण फिल्म में इरफान, अर्जुन रामपाल और अन्य उम्दा कलाकारों की प्रतिभा की फिजूलखर्ची खलती है। सवाल उठता है कि केवल मोस्ट वांटेड को भारत लाने की कहानी दर्शकों को पसंद नहीं आती क्या? लेखक-निर्देशक की दुविधा ही फिल्म को कमजोर करती है।
अवधि-150 मिनट
** 2.5 ढाई स्टार

Comments

Unknown said…
band Baja di d day ki
sujit sinha said…
पता नहीं इस देश में कहानियां बिना प्रेम प्रसंग के मुकम्मल क्यों नहीं समझी जाती और इस चक्कर में अच्छी कोशिशें भी व्यर्थ जाती है |

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को