फिल्म समीक्षा : लुटेरा
-अजय ब्रह्मात्मज
आप किसी भी पहलू से 'लुटेरा' का उल्लेख करें। आप पाएंगे कि
चाहे-अनचाहे उसकी मासूमियत और कोमलता ने आप को भिगो दिया है। इस प्रेम
कहानी का धोखा खलता जरूर है,लेकिन वह छलता नहीं है। विक्रमादित्य मोटवाणी
ने अमेरिकी लेखक ओ हेनरी की कहानी 'द लास्ट लीफ' का सहारा अपनी कहानी कहने
के लिए लिया है। यह न मानें और समझें कि 'लुटेरा' उस कहानी पर चित्रित
फिल्म है। विक्रम छठे दशक के बंगाल की पृष्ठभूमि में एक रोचक और उदास प्रेम
कहानी चुनते हैं। इस कहानी में अवसाद भी है,लेकिन वह 'देवदास' की तरह दुखी
नहीं करता। वह किरदारों का विरेचन करता है और आखिरकार दर्शक के सौंदर्य
बोध को उष्मा देता है। अपनी दूसरी फिल्म में ही विक्रम सरल और सांद्र
निर्देशक होने का संकेत देते हैं। ठोस उम्मीद जगते हैं।
फिल्म बंगाल के माणिकपुर में दुर्गा पूजा के समय के एक रामलीला के आरंभ
होती है। बंगाली परिवेश,रोशनी और संवादों से हम सीधे बंगाल पहुंच जाते
हैं। विक्रम बहुत खूबसूरती से बगैर झटका दिए माणिकपुर पहुंचा देते हैं।
फिल्म की नायिका पाखी रायचौधरी (सोनाक्षी सिन्हा)को जिस तरह उसके पिता
वात्सल्य के साथ संभाल कर कमरे में ले जाते हैं,लगभग वैसे ही दर्शकों को
संभालते हुए विक्रम अपनी फिल्म में ले आते हैं। आप भूल जाते हैं कि थोड़ी
देर पहले थिएटर में आने के समय तक आप 2013 की यातायात समस्याओं को झेल रहे
थे। याद भी नहीं रहता कि आप की जेब में मोबाइल है और आप को बेवजह देख लेना
चाहिए कि कहीं कोई मैसेज तो नहीं आया है।
फिल्म सीधे बंगाल की धरती पर विचरती है। हम इस समाज और इसके किरदारों
को सत्यजित राय की अनेक फिल्मों में देख चुके हैं। विक्रम यहां सत्यजित राय
की शैली का युक्तिपूर्ण और सामयिक इस्तेमाल कर अपने किरदारों को पेश कर
देते हैं। फिर उनके हिंदी संवादों से हम हिंदी फिल्मों की सिनेमाई दुनिया
में आ जाते हैं। 'लुटेरा' का पीरियड और परिवेश चुभता नहीं है। निश्चित ही
इसके लिए फिल्म के प्रोडक्शन डिजायनर और कॉस्ट्यूम डिजायनर समत अन्य
तकनीशियनों को भी धन्यवाद देना होगा कि उनकी काबिलियत से यह फिल्म
संपूर्णता को छूती नजर आती है।
फिल्म में पाखी के पिता भीलों के राजा की कहानी सुनाते हैं,जिसकी जान
तोते में बसती थी। पाखी की जान का रिश्ता पत्ती से बन जाता है। फिल्म का यह
रोचक दृष्टांत है। पाखी के शांत और सुरम्य जीवन में किसी मोहक राजकुमार की
तरह वरूण (रनवीर सिंह) प्रवेश करता है। अचानक पाखी के मन की की थिर झील
में हिलोरें उठने लगती हैं। भावनाओं की कोमल कोपलें फूटती हैं। वरूण भी इस
प्रेम को स्वीकार करता है। पाखी के पिता को भी वरूण अपनी बेटी के लिए
होनहार और उपयुक्त लगता है।
दोनों के परिणय सूत्र में बंधने-बांधने की तैयारियां शुरू होती हैं कि ़
़ ़इस कि के बाद फिल्म मोड़ लेती है। यहां से विक्रम कहानी और चरित्रों को
अलग दिशा और उठान में जाते हैं। उन्होंने दोनों प्रमुख कलाकारों के साथ
बाकियों को भी हुनर दिखाने के अवसर दिए हैं।
विक्रम की 'लुटेरा' सोनाक्षी सिन्हा और रनवीर सिंह के करियर की
उल्लेखनीय फिल्म रहेगी। इन दिनों फिल्मों की तमाम प्रतिभाएं कथित मनोरंजन
की भेड़चाल में छीजती जा रही हैं। यहां एक फिल्म में दो युवा प्रतिभाओं को
अपनी प्रतिभा की सधनता दिखाने का मौका मिला है। गौर करें तो रनवीर सिंह
अपनी पिछली फिल्मों के चरित्रों के मिजाज के विस्तार में हैं,लेकिन इस बार
उनका चरित्र जटिल और द्वंद्व में उलझा है। रनवीर ने अत्यंत सहजता से वरूण
उर्फ नंदू उर्फ आत्मानंद त्रिपाठी के चरित्र को निभाया है। सोनाक्षी
सिन्हा के बारे में धारणा रही है कि पॉपुलर स्टारों के सहारे वह बॉक्स ऑफिस
की बेजोड़ हीरोइन रही हैं। उनके आलोचक भी स्वीकार करेंगे कि उन्होंने
'लुटेरा' में अपनी अनछुई और अनजान प्रतिभा को उजागर किया है। विक्रम की
फिल्म ने उन्हें तराशा और तपाया है। सोनाक्षी ने पाखी को जिया है। अन्य
कलाकार भी उल्लेखनीय हैं।
पाखी के जमींदार पिता के रूप में बरूण चंदा उल्लेखनीय हैं। हिंदी
फिल्मों में किरदारों के बारे में बताने के लिए कुछ सीन खर्च करने पड़ते
हैं। बरूण दा की उपस्थिति मात्र से उन दृश्यों की बचत हो गई है। आदिल हुसैन
फिर से प्रभावशाली भूमिका में नजर आते हैं। आरिफ जकारिया,दिब्येन्दु
भट्टाचार्य,विक्रांत मैसी और दिव्या दत्ता अपेक्षाकृत छोटी और जरूरी
भूमिकाओं में संग योगदान करते हैं। इस फिल्म की एक प्रासंगिक खासियत है।
फिल्म देखते समय आप ने संवादों पर धान ही नहीं दिया होगा। फिल्म में
डॉयलॉगबाजी नहीं है। सारे भाव-अनुभाव सहज शब्दों में संप्रेषित होते हैं।
संवाद लेखक अनुराग कश्यप का योगदान सराहनीय है। साथ ही फिल्म के एक खास
दृश्य में बाबा नागार्जुन की कविता 'अकाल और उसके बाद' का युक्तिगत उपयोग
उसे हिंदी मिजाज देता है। सभी भाषाओं में दो किरदारों को भाव की एक ही जमीन
पे लाने के लिए लेखक-निर्देशक कविताओं का इस्तेमाल करते रहे हें। हिंदी
फिल्मों में भी हम अंग्रेजी की कविताएं या अशआर सुनते रहे हैं। अनुराग
कश्यप ने बाबा नागार्जुन की की कविता 'कई दिनों तक चूल्हा रोया,चक्की रही
उदास' से पाखी और वरूण के बीच प्रेम का संचार कराया है। बाबा की कविता के
इस्तेमाल के लिए टीम लुटेरा को अतिरिक्त बधाई।
फिल्म के गीत-संगीत और सिनेमैटोग्राफी का जिक्र होना ही चाहिए। अमित
त्रिवेदी और अमिताभ भट्टाचार्य की जोड़ी ने भावपूर्ण और परिवेशात्मक संगीत
देता है। केवल मोनाली ठाकुर के स्वर में 'संवार' की 'सवार' ध्वनि खलती है।
फोटोग्राफी में महेंद्र शेट्टी के सटीक एंगल और विजन से फिल्म की खूबसूरती
बढ़ गई है। और हां फिल्म के निर्माताओं को धन्यवाद कि उन्होंने ऐसे
विध्वंयात्मक मनोरंजन के दौर में विक्रमादित्य की सोच को संबल दिया।
अवधि-187 मिनट
**** 1/2 साढ़े चार स्टार
Comments
apne kisi film ko 4+ diya tha...