मुंबई से मायूस लौटे थे मुंशीजी

यह लेख डोइच वेले से चवन्‍नी के पाठकों के लिए साभार लिया गया है। इसे लखनऊ के सुहेल वहीद ने लिखा है और संपादन अनवर जे अशरफ ने किया है।लेख के अंत में उनकी फिल्‍म 'हीरा मोती' का एक गीत भी है- कौन रंग मुंगवा....

मुंबई से मायूस लौटे थे मुंशीजी

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी फिल्मों में हाथ आजमाया, उनकी कृतियां पर कई फिल्में भी बनीं फिर भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली. वे चकाचौंध से प्रभावित होकर मुंबई नहीं गए. उन्हें आर्थिक हालात ने वहां पहुंचाया.
प्रेमचंद की 133 वीं जयंती ऐसे साल में है, जब हिन्दी सिनेमा अपना सौवां साल मना रहा है.
बात 1929 की है. प्रेमचंद एक साल भी मुंबई में नहीं रुक पाए. नवल किशोर प्रेस की मुलाजमत खत्म हो चुकी थी और सरस्वती प्रेस घाटे में चला गया था. पत्रिका हंस तथा जागरण भी जबर्दस्त घाटा झेल रहे थे. तब उन्हें एक ही रास्ता सूझा. मुंबई की मायानगरी का जहां वे अपनी कहानियों का अच्छा मुआवजा हासिल कर सकते थे. लेकिन कामयाबी हाथ न लगी.
जब उन्होंने मुंबई जाने की ठानी तब तक वे लोकप्रिय हो चुके थे. इसीलिए अजंता सिनेटोन में उन्हें फौरन काम मिला तो प्रख्यात लेखक जैनेंद्र कुमार को लिखा, "बंबई की एक फिल्म कंपनी मुझे बुला रही है. तनख्वाह की बात नहीं ठेके की बात है. आठ हजार रुपये सालाना. अब मैं इस हालत पर पहुंच गया हूं जब इसके सिवा कोई चारा नहीं रह गया है, या तो वहां चला जाऊं या अपने नॉवेल को बाजार में बेचूं." मुंबई पहुंच पत्नी को खत लिखा, "कंपनी से इकरारनामा कर लिया है. साल भर में छह किस्से लिख कर देने होंगे. छह किस्से लिखना मुश्किल नहीं."
अचानक मिले पैसे
हालांकि मुंबई पहंचने से पहले ही उनके उपन्यास सेवा सदन पर बाजारे हुस्न नाम से फिल्म बनने का एग्रीमेंट हो चुका था. 14 फरवरी 1934 को उन्होंने जैनेंद्र कुमार को लिखा, "सेवा सदन का फिल्म हो रहा है. इस पर मुझे साढ़े सात सौ मिले... साढ़े सात सौ."
फिल्मों में कामयाब नहीं रहे प्रेमचंद
प्रेमचंद के बेटे अमृत राय लिखते हैं, "महालक्ष्मी सिनेटोन ने ये रकम देकर सेवा सदन हासिल की." निर्देशन नानू भाई को दिया जो घटिया फिल्में बनाने के लिए मशहूर थे. उन्होंने इसका उर्दू नाम बाजारे हुस्न रखा और वही घटिया नाच गाने वाली ठेठ बंबइया फिल्म बना दी. इसे देख प्रेमचंद ने कथाकार उपेंद्र नाथ अश्क को लिखा, "यहां के डायरेक्टरों की जहनियत ही अनोखी है. बाजारे हुस्न ने सेवासदन की मिट्टी ही पलीद कर दी."
दो तरह के लेखक
फिल्म निर्माता आसिफ जाह कहते हैं, "फिल्म इंडस्ट्री में दो तरह के लेखक हैं. एक जो यहां के संघर्ष से बने और बहुत मशहूर हुए, दूसरे जो मशहूर होकर आए जैसे राही मासूम रजा, प्रेमचंद वगैरा. इनमें से राही मासूम रजा को ही कामयाबी नसीब हुई. बाकी सब प्रेमचंद की तरह वापस चले गए."
इसके बाद प्रेमचंद की कहानी मिल मजदूर पर गरीब मजदूर बनी. ( मजदूर स्‍वतंत्र फिल्‍म थी। यह उनकी किसी कहानी पर आधारित नहीं थी। प्रेमचंद ने इसकी कहानी और संवाद लिखे थे। - चवन्‍नी) इसमें प्रेमचंद ने एक रोल भी किया. फिल्म सेंसर से कई सीन काटे जाने के बाद रिलीज हुई. पूरे पंजाब में इसे देखने मजदूर निकल पड़े. लाहौर के इंपीरियल सिनेमा में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मिलिट्री तक बुलानी पड़ी. ये फिल्म जबर्दस्त हिट हुई और सरकार के लिए मुसीबत बन गई. दिल्ली में इसे देख एक मजदूर मिल मालिक की कार के आगे लेट गया. नतीजा कि इस पर प्रतिबंध लग गया.
मायूसी में वापसी
इन घटनाओं से प्रेमचंद इतने आहत हुए कि मार्च 1935 में मुंबई छोड़ बनारस लौट गए. वापसी के बाद भी उनकी कहानियों पर फिल्में बनती रहीं लेकिन सफल नहीं रहीं. उनके उपन्यास चैगान हस्ती पर रंग भूमि बनी. इसके 13 साल बाद कृष्ण चोपड़ा ने 1959 में उनकी कहानी दो बैलों की कथा पर हीरा मोती बनाई. ये फिल्म कामयाब रही. इसमें शैलेंद्र के गीत लोकप्रिय हुए. सलिल चैधरी का संगीत भी सबको भाया. फिर 1963 में गोदान पर बनी पसंद नहीं की गई. हीरा मोती के बाद कृष्ण चोपड़ा ने 1966 में ऋषिकेष मुखर्जी के साथ मिलकर गबन बनाई.
प्रेमचंद की रचनाओं पर बच्चों के लिए भी कई फिल्में बनीं. प्रसिद्ध लेखक पत्रकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी कहानी ईदगाह पर चिल्डेन फिल्म सोसाइटी से ईद मुबारक फिल्म बनाई. जगदीश निर्मल ने कुत्ते की कहानी के डायलॅाग और स्क्रीनप्ले लिखे. उनकी एक और कहानी कजाकी पर भी फिल्म सोसाइटी ने फिल्म बनाई. अमृत राय के मुताबिक उनकी ही एक कहानी पर सैलानी बंदर भी बनी. प्रेमचंद की उर्दू कहानी शतरंज की बाजी पर सत्यजीत राय ने 1977 में शतरंज के खिलाड़ी बनाई.
गरीब मजदूर से लेकर कफन तक प्रेमचंद की कहानियों पर 13-14 फिल्में बनीं. लेकिन वे हिंदी फिल्म उद्योग से जुड़ नहीं सके. उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के बारे में लिखा, "सिनेमा में किसी तरह के सुधार की उम्मीद करना बेकार है. ये उद्योग भी उसी तरह पूंजीपतियों के हाथ में है जैसे शराब का कारोबार." प्रेमचंद के वंशजों में से एक और लमही पत्रिका के संपादक विजय राय के मुताबिक प्रेमचंद में समाज सुधार का जज्बा तो था "लेकिन फिल्मों में ये सब कहां चलता है. इसी कारण वे क्षुब्ध हुए."
रिपोर्टः सुहेल वहीद, लखनऊ
संपादनः अनवर जे अशरफ

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