फट्टा टाकीज

उमेश पंत का यह लेख हम ने गांव कनेक्‍शन से चवन्‍नी के पाठकों के लिए साभार लिया है। 
 
-उमेश पंत 
लखनउ से 14 किलोमीटर उत्तर दिशा में काकोरी नाम का एक छोटा सा कस्बा है। इस कस्बे में संकरी सी रोड पर चलते हुए हैंडपंप के पीछे चूने से पुती हुई एक दीवार पर लकड़ी का एक पटला सा दिखता है। उस पटले पर एक फिल्मी पोस्टर चस्पा है जिसपर लिखा है 'मौत का खेल'। दीवार से सटे हुए गेट के अन्दर जाने पर सामने की दीवार पर रिक्शेवाली और फांदेबाज़ से लेकर रजनीकांत की बाशा और संजय दत्त की अग्निपथ जैसी फिल्मों के पोस्टर एक कतार से लगे हैं। फिल्मी पोस्टरों की कतार के नीचे अग्निशम के लिये दो सिलिन्डर दीवार पर लटके हुए हैं। कुछ आगे बढ़ने पर टीन की दीवारों और काली बरसाती की छत वाला एक बड़ा सा हौल नज़र आता है। यह हौल काकोरी और उसके आस पास के कई गांवों की 13 हज़ार से ज्यादा जनसंख्या के मनोरंजन का एक अहम साधन है। काकोरी और आसपास के इन गांवों में इसे फट्टा टॉकीज़  के नाम से जाना जाता है।

जीनिया वीडियो सिनेमा नाम के इस ग्रामीण मिनी सिनेमा हॉल को पिछले बीस सालों से चलाने वाले नियाज़ अहमद खान बताते हैं "हमने अपनी लड़की के नाम पर इसका नाम रखा। 1993 से यहां फल्में दिखाना शुरु किया।  शुरुआत में दर्शकों से एक फिल्म का 6 रुपये लेते थे। सन 2000 में हमने टिकिट 10 रुपये की कर दी। तब से अब तक हमने टिकट की कीमत नहीं बढ़ाई। हम चाहते हैं कि पब्लिक पे बोझ ना पड़े।"

टीन के बने इस बड़े से हॉल की ड्योढ़ी पर मोटी सी दरी का पर्दा लगा हुआ है।हॉल के अन्दर लगभग 70-80 कुर्सियां हैं । सामने दीवार पर लगे 6 बाई 4 के पर्दे पर फिल्में चलाई जाती हैं। इस हॉल की छत लकड़ी के फट्टों से मिलकर बनी है। यही वजह रही होगी कि इस तरह के मिनी सिनेमा हॉल फट्टा टॉकीज़ नाम से जाने जाते हैं।


इस छोटे से कस्बे में चल रहे फट्टा टॉकीज़ के का आर्थिक ढ़ांचा बड़ा रोचक है। हॉल के पीछे एक छोटा सा कमरा बना है। इस कमरे में बने लकड़ी के रैक पे एक डीवीडी प्लेयर रखा है। " 2008 तक हम रील से फिल्में चलाते थे। उसके बाद डीवीडी प्लेयर पर फिल्में चलाने लगे। डीवीडी प्लेयर के अलावा छोटे लैंस वाला प्रोजेक्टर यूज़ होता है। ये प्रोजेक्टर 30 से 35 हज़ार रुपये का आता है। हर 6 महीने में इस पा्रेजेक्टर का लैंस बदलना होता है। हम 6 महीने में नया प्रोजेक्टर खरीद लेते हैं। पुराने वाला कम दामों में बिक जाता है। दो जनरेटर भी हैं ताकि बिजली जाने पर भी शो चलता रहे। वीडियो पार्लर चलाने के लिए एक साल का लाईसेंस 6 हज़ार रुपये का बनता है।" नियाज़ बताते हैं।

इस छोटे से हॉल का बाकायदा रजिस्ट्रेशन किया गया है। नियाज़ कहते हैं "हम महीने का 12 हज़ार रुपये मनोरंजन कर के रुप में देते हैं। 5 लेबरों को काम पर लगाया है। शहरों में वीडियो पार्लर चलाने के लिए जितना टैक्स लगता है उतना ही यहां देहातों में भी लगाया जाता है। देहात और गांवों में इतना खर्चा कोई उठा नहीं पाता इसलिये फट्टा टॉकीज़ के अब बंद होते जा रहे हैं।"

नियाज़़ अपनी ज़मीन पर ही ये वीडियो पार्लर चलाते हैं। उनका दर्शक वर्ग भी बंधा हुआ है।  "20 से 25 लोग ऐसे हैं जो लगातार आते हैं। गर्मियों में एक दिन के 4 शो चलते हैं। दिन के 12 बजे से रात के बार बजे तक तीन घंटे पर एक शो चलता है। लेकिन जाड़ों में आंखिरी शो नहीं चलता। गर्मियों में काफी भीड़ रहती है। गांवों में नौटंकी भी होती है। नौटंकी देखने आने वाले लोग पहले हमारे यहां नाईट शो देखते हैं और उसके बाद देर रात जब नौटंकी शुरु हो जाती है तो वो नौटंकी देखने चले जाते हैं।"

गांवों में जैसे जैसे डिश टीवी ने अपने कदम बढ़ाये वैसे वैसे इन छोटे छोटे वीडियो पार्लरों के दर्शक भी सिमटते चले गये और इसका सीधा असर काकोरी के इस वीडियो पार्लर पर भी पड़ा। "अब घर घर में टीवी और डीवीडी प्लेयर है इसलिये यहां आने वाले दर्शकों की संख्या में अंतर आया है । अपनी ज़मीन न होती तो हमें कोई मुनाफा ही न होता और हम भी बंद कर देते। मोहनलालगंज में भी हमने शुरुआत की लेकिन वहां अच्छा नहीं चला इसलिये बंद करना पड़ा। सन 2000 में यहां परदे पर सिनेमा देखने का बड़ा क्रेज़ था। 200 से 300 लोग रोज फिल्में देखते थे। अब 40-50 से ज्यादा लोग नहीं आते। पर अब भी काकोरी के आसपास के 65 गांवों से लोग यहां फिल्म देखने आ रहे हैं।" नियाज़ बताते हैं।

टीन और तिरपाल से बना फट्टा टॉकीज़   फोटो:उमेश पन्त  
स्थानीय सिनेमा यहां की जनता में ज्यादा लोकप्रिय नहीं है। कम बज़ट की हौरर फिल्में और बालिवुड की नयी फिल्में यहां के दर्शकों की चहेती हैं। नियाज़ बताते हैं "हाल ही में खिलाड़ी 786 और दबंग टू हमने चलाई थी। नई फिल्मों में हाउसफुल रहता है। यहां लोग हौरर फिल्में देखना ज्यादा पसंद करते हैं। पुरानी फिल्में चलती हैं तो उन्हें बुजुर्ग भी देखने आते हैं। मेरे हुज़ूर एक फिल्म चलाई थी उसमें काफी बुजुर्ग देखने आये थे।" नियाज़ हंसते हुए आगे बताते हैं "यहां या तो भूत चलता है या सलमान खान।"

शहरी परिवेश में फिल्मों पर भले ही लाख समीक्षाएं और अध्ययन किये जाते हों, पर यहां फिल्मों को देखने का एक मात्र मकसद मनोरंजन है। अभी अभी फिल्म देखकर लौटे राकेश 25 कहते हैं "हम मजदूरी का काम करते हैं, बीच में एक दो घंटे का टाईम निकलता है तो टाईमपास करने यहां आ जाते हैं। पहली फिल्म अपने पिताजी के साथ यहीं इसी हौल में देखी थी। फिल्म का नाम याद नहीं है। अमिताभ की थी शायद।"

कम संसाधनों के बावजूद ये हॉल अब भी दर्शकों के बीच अपनी जगह बनाये हुए है तो इसकी अपनी वजहें हैं। 10 रुपये के मामूली टिकट उनकी जेब पर कोई बड़ा फर्क नहीं डालता। दूसरा ये भी कि बड़े सिनेमाघर महंगे होने के साथ साथ दूर भी हैं। अवधेश कुमार 22 कहते हैं "लखनउ यहां से बहुत दूर पड़ता है। और उतना पैसा भी नहीं रहता। इसीलिये यहीं आकर देख लेते हैं।"

डी वी डी प्लेयर की मदद से परदे पर चलती हैं फिल्में   फोटो:उमेश पन्त
देश में हर साल सैकड़ों की तादात में फिल्में बनती हैं और सिनेमाई परदों से हफ्ते भर या ज्यादा हुआ तो दो हफ्ते में उतर जाती हैं। ऐसे में पुरानी फिल्मों को इस तरह के छोटे टॉकीज़ ने आज भी जि़न्दा रखा है। तभी तो अवधेश कहते हैं "राजेश खन्ना की रोटी हमें सबसे अच्छी फिल्म लगी। पुराने हीरो की फिल्में देखनी ज्यादा अच्छी लगती हैं। दर्द भरे गीत फिल्म हों तो वो अच्छे लगते हैं।"

गांवों में दिखाया जाने वाला ये सिनेमा बौलीवुड की नई पुरानी फिल्मों के अलावा, हिन्दी में डब की हुई विदेशी फिल्मों से लेकर बी ग्रेड फिल्मों के लिये भी एक बाज़ार पैदा करता है। यहां दिखाई जाने वाली ज्यादातर फिल्मों में मौजूद उत्तेजक दृश्यों की वजहकर महिलाएं और लड़किया आमतौर पर यहां आना पसंद नहीं करती। "साल 2000 तक तो यहां महिलाओं के बैठने के लिये अलग लेडीज़ क्लास भी था। तब लोग भी ज्यादा आते थे। लेकिन अब यहां फिल्में देखने आने वालों में सारे लड़के ही होते हैं। त्यौहारों के मौके पर शादीशुदा लोग अपनी पत्नियों के साथ भी आते हैं पर अमूमन महिलाएं बहुत कम आती हैं।" नियाज़ बताते हैं।

नियाज़ के बेटे फहद खान इस टॉकीज़ को चलाने में उनकी मदद करते हैं। वो बताते हैं कि "फिल्मों के अलावा लोगों को क्रिकेट देखने का भी बहुत शौक है।  मैच के टाईम यहां सबसे ज्यादा भीड़ रहती है। तब हाल फुल रहता है। अभी 20-20 मैच हुए थे तो हमने डिश से जोड़कर बड़े परदे पर मैच चलाया था। दूर दूर से लोग देखने आये थे। फाईव पाईन्ट वन के साउन्ड सिस्टम में मैच देखने का अपना ही मज़ा आता है। वैसे गर्मियों में लोगों के आने की एक और वजह रहती है। गर्मी से परेशान लोग कुछ घंटे कूलर और पंखे की हवा खाने के लिये ही सही यहां आ जाते हैं। कई तो फिल्म देखते देखते सो ही जाते हैं।" फहद मुस्कुराते हुए कहते हैं

देशभर के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में सिनेमा देखने के ऐसे कई छोटे छोटे ठिकाने हैं जिनका सम्बन्ध बाॅक्स आॅफिस से दूर दूर तक नहीं है। मल्टीप्लेक्स के इस ज़माने में शहरों से सिंगल स्क्रीन भले ही गायब होते जा रहे हों पर बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्यों में ऐसे छोटे टॉकीज़ अब भी आंखिरी संासें ले रहे हैं। महाराष्ट्रा में ऐसे मिनी सिनेमाघरों का इतिहास 60 साल से ज्यादा पुराना रहा है। वहां के गांवों में बाकायदा ट्रकों पर टैन्ट और फिल्में दिखाने के लिए ज़रुरी संसाधन लादकर एक गांव से दूसरे गांव जाकर फिल्में दिखाने वाले टॉकीज़ आज भी मौजूद हैं। एक वक्त था जब वहां ऐसे 300 से ज्यादा टैन्ट टॉकीज़ हुआ करते थे। अब उनमें से 50 के आसपास बचे रह गये हैं।

जमशेदपुर  में रहने वाले सोहम मित्रा 19, अक्सर काम के सिलसिले में बिहार और झारखंड के सीमावर्ती इलाकों में जाते रहते हैं। वो बताते हैं कि "झारखंड और बिहार की सीमा से लगे इन्टीरियर इलाके खासवान में पहली बार उन्होंने इस तरह के टैंट वाले सिनेमाघर में फिल्म देखी। वहां के लोग इसे गोशाला कहते हैं। मैदान के बीच में एक तम्बू लगा होता है जिसके अन्दर कपड़े के स्क्रीन पर प्रोजेक्टर से फिल्म दिखाई जाती है। 500 मीटर के इलाके में आने वाले लगभग 4 गांवों के लोग इस जगह फिल्म देखने आते हैं। शनिवार और रविवार को इस मैदान में सब्जी मंडी लगती है। इस वजह से इन दिनों फिल्म देखने वालों की संख्या बढ़ जाती है। इस तम्बू में यही कोई 25 सीट होंगी। यहां कुर्सियों पर बैठने के 20 रुपये और ज़मीन पर बैठने के 5 रुपये लगते हैं।" सोहम बताते हैं।


 क्या है तम्बू कीज़ का इतिहास


मुम्बई के तम्बू टॉकीज़ का इतिहास यही कोई 60 साल पुराना रहा है। अमित मधेशिया और सर्ली अब्राहम ने मुम्बई के इन तम्बू टॉकीज़ पर अपनी फोटो डाक्यूमेंट्री और शोध पत्र तैयार किया जिसमें उन्होंने इनके इतिहास में झांकने की कोशिश की। उनके शोध के मुताबिक मुम्बई के एक फुटपाथ पे एक पारसी सेकन्ड हैन्ड प्रोजेक्टर बेच रहा था तो आस पास के कुछ किसानों, वकीलों और बिजली का काम करने वाले लोगों ने मिलकर इन्हें खरीद लिया। इन लोगों ने आस पास के गांवों में टैंट लगाकर इन प्रोजेक्टरों की मदद से आध्यात्मिक फिल्में गांव वालों को दिखाना शुरु किया। इन तम्बुओं के अन्दर जाने से पहले लोगों को अपनी चप्पलें बाहर उतारनी होती थी।

धीरे धीरे इस तरह के माहौल में एक साथ फिल्में देखना उन गांवों की संस्कृति का हिस्सा बनने लगा। आध्यात्मि फिल्मों से अलग इन तम्बुओं में अब बालिवुड फिलमों के साथ साथ स्थानीय सिनेमा भी दिखाया जाने लगा। पूरे महाराष्टा में 300 से ज्यादा तम्बू टाकीज़ चलने लगे। 

इस तरह के टॉकीज़ की संख्या बढ़ने के साथ साथ इनकी आपसी प्रतिस्पर्धा भी बढ़ने लगी। अपनी ओर ध्यान खींचने के लिये इन्होंने सारी तिकड़में भिड़ानी शुरु कर दी। लाउडस्पीकर पर उंची आवाज़ में संगीत बजाने से लेकर, आकर्षक पोस्टरों और बड़े बड़े होर्डिंग्स तक इनके तामझाम का हिस्सा बनने लगे।
इन तम्बू टॉकीज़ की खास बात ये थी कि यहां महिलाएं भी भारी मात्रा में फिल्में देखने आती थी। बल्कि वो दर्शकदीर्घा का एक अहम हिस्सा थीं। 9 से 12 का शो बाकायदा महिलाओं से पटा रहता था।

जब सीडी और डीवीडी ने बाज़ार में दस्तक दी तो तम्बू टॉकीज़ का ये बड़ा बाज़ार सिमटने लगा। और अब देशभर में बहुत कम ऐसे टॉकीज़ बचे हैं और जो बचे भी हैं वो भी अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष ही कर रहे हैं। 

Comments

unique , as usual ......waah kya approach hai aapkee .....un logon ke reporting jo chakaachaundh kee is duniyaa ke liye exist hee nahee karte ....ajay ji ......saadhuwaad

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को