जयप्रकाश चौकसे के साथ अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत
-अजय ब्रह्मात्मज
जयप्रकाश चौकसे लगातार लिखते रहे हैं और जानकारी देने
के अलावा आप दिशा भी देते रहे कि कैसे फिल्मों को देखा जाए और कैसे समझा जाए। एक
पीढ़ी नहीं अब तो कई पीढिय़ां हो गई हैं जो उनको पढ़ कर फिल्मों के प्रति समझदार
बनी। हम उनका नाम रोजाना पढ़ते हैं, लेकिन बहुत सारे लोग उनके
बारे में जानते नहीं हैं।
-पहला सवाल यही कि आप अपने बारे में संक्षेप में
बताएं। कहां रहते हैं? कहां रहते थे? कहां से शुरुआत हुई?
0 खांडवा से आगे एक छोटा शहर
है बुरहानपुर। यह महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश का बॉर्डर टाउन है। मेरा जन्म बुरहानपुर
में हुआ है। उस समय वह एकदम छोटा शहर था। दस-पंद्रह हजार आबादी वाला शहर होगा,
लेकिन उस छोटे शहर में एजुकेशन की फैसीलिटी थी। कम पॉपुलेशन के बावजूद करीब सात-आठ
स्कूल थे। आगे जा कर कुछ समय बाद कॉलेज भी खुल गया था वहां। मेरे पिता व्यापारी थे,
पर एजुकेशन प्रति उनका लगाव बहुत गहरा था। हम चार भाई हैं। मैं सबसे छोटा हूं।
हमारे परिवार में नौकर इसलिए रखा था हमारे पिता जी ने कि वह साइकिल से लालबाग
रेलवे स्टेशन जाता था और अखबार खरीद कर लाता था। बुरहानपुर में रेलवे स्टेशन नहीं
है। पास का स्टेशन लालबाग है। हमारे गांव में अखबार भी नहीं आते थे। मेरे परिवार
में आता था अखबार।
- यह कब की बात होगी?
0 देखिए मेरा जन्म हुआ 1939 में। यह 44-45 की बात है। हमारे यहां सब
लोग बड़े शौक से अखबार पढ़ते थे। हमारे यहां कुछ ऐसा वातावरण था। जब मैं आठवीं
कक्षा पास हुआ तो मेरे बड़े भाई कमरे में आए। हमारे यहां कमरे भी इतने बड़े थे।
उन्होंने हमारे कमरे से जासूसी दुनिया और इस तरह की किताबें हटा दीं और मुंशी
प्रेमचंद , शरतचंद्र और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की
कहानियां रख दीं और कहा कि अब तुमको ये पढऩा है। अब तुम आठवीं पास कर गए हो। जब
मैंने स्कूल पास किया तो उन्होंने शेक्सपीयर और अंग्रेजी का साहित्य दिया। पढ़ऩे
का माहौल था। हम चारों भाई साथ में फिल्म भी देखने जाते थे। बड़े भाई ले जाते थे
फिल्म देखने के लिए और लौटते वक्त फिल्म पर गंभीर चर्चा होती थी। पिता जी को फिल्म
देखने पर कोई एतराज नहीं था। कभी-कभी वे चर्चा में शामिल हो जाते थे। फिल्मों के
बारे में मेरा अनुभव यह है कि बुरहानपुर में प्रकाश टॉकीज होती थी। दो आने का टिकट
वाला नीचे फर्श पर बैठता था। बेंच का टिकट चार आने का था और ऊपर बालकनी आठ आने का
था। दो आने का टिकट लेकर दोस्तों के साथ पिक्चर देख रहा था। नेकर पहन रखी थी। बच्चे थे। छोटे थे।
मेरे को कुछ काटा। शोर मचा। उस समय इंटरवल हुआ था। रोशनी हुई। बिच्छू था। उसने
दो-तीन आदमियों को काटा था। उस बिच्छू को मार दिया गया। मेरे साथी मुझे टांगे में
बैठा कर घर ले आए। घर में पिताजी को बताया तो उन्होंने एक थप्पड़ मारा और कहा कि
थप्पड़ इसलिए नहीं मार रहा हूं कि तुम सिनेमा देखने गए थे। सिनेमा देखने के लिए तुम
मुझ से चार आने लेकर गए थे तो तुम दो आने का टिकट लेकर और नेकर पहन कर वहां बैठे। अगर
बेंच का टिकट लिया होता तो बिच्छू नहीं काटता। बाकी दो आने का क्या किया? मैंने कहा कि मुझे फिल्म देखते हुए बहुत भूख लगती है,इसलिए
मैंने मूंगफली खरीद लिए। फिर डॉक्टर को बुलाया गया। दवा दी गई। लेकिन जो बिच्छू
सिनेमा ने काटा उसका जहर अभी 74 साल की उम्र में भी दिल-ओ
दिमाग पर है। अभी तक मैं फर्स्ट शो का ऑडिएंश हूं। मैं लकी हूं कि उस जमाने में
ऐसा पारिवारिक वातावरण मिला। जहां फिल्में देखना और घर आकर फिल्मों पर गंभीर चर्चा
करना अच्छा माना जाता था। बुरा नहीं माना जाता था। सिनेमा पर कोई प्रतिबंध नहीं
था।
- पहली फिल्म कौन सी थी? जिस फिल्म का याद हो?
0 बिल्कुल याद है। नाडिया की
फिल्म था। उस फिल्म का नाम था ‘पंजाब मेल’। नाडिया ‘हंटरवाली’, ‘पंजाब मेल’ वगैरह-वगैरह फिल्में करती
थीं। हम उनके जबरदस्त फैन होते थे। जिस फिल्म का प्रभाव हम पर जबरदस्त है,वह ‘आवारा’ है। ‘आवारा’ का ड्रीम सिक्वेंश तो...
- बिच्छू ने किस फिल्म में
काटा?
0
‘पंजाब मेल’ में काटा।
- फिल्मों में क्या एट्रैक्ट
करता था उस जमाने में। जब आप बच्चे थे?
0 फिल्मों में एक्शन बहुत
अच्छा लगता था। उस जमाने में फिल्मों के बीच-बीच में कॉमेडी भी होते थे। बहुत मजा
आता था। रोमांटिक फिल्में देखना बाद में आने लगा था। एक्शन, मसाला, नाच और गाने। गाने ज्यादा
एट्रैक्ट करते थे। पहली बार ‘आवारा’ देखी तो मेरी उम्र होगी 12-13 साल की। मुझे उसकी कहानी
उतनी याद नहीं थी, लेकिन उसके गाने याद थे। जो फिल्में अच्छी
तरह समझ में आई और लगा कि ये खेल मजेदार है। इसमें शामिल होना चाहिए अच्छी तरह से।
जी जान से। वह थी ‘श्री 420’ ।
तब अच्छी तरह समझ में आया कि डायरेक्टर क्या कहना चाहता है। बहुत ही इंटरेस्टिंग
लगी पिक्चर। दो-तीन बार जा कर फिल्म देखी। हमारे परिवार में केदार शर्मा जी और
मेरे भाई दो-दो घंटे बहस करते थे। ऐसे वातावरण के वजह से फिल्मों में हमेशा इंटरेस्ट
बना रहा।
-
‘आवारा’ और ‘श्री 420’ के वजह से आप राजकपूर के बड़े प्रशंसक बने और बाद में उनके
करीब आए?
0 जी हां, उनके करीब आना तो किस्मत की बात मानी जा सकती है। प्रशंसक
मुझे ‘श्री 420’ ने
बनाया। ‘आवारा’ दोबारा
देखी। पहली बार गाने अच्छे लगे। ड्रीम सिक्वेंस, और ‘घर आया मेरा परदेसी़’ । राजकपूर का नाचना-गाना
बहुत अच्छा लगता था। लेकिन बाद में रिपीट में देखी तो सही समझ में आया। जैसे-जैसे
मेरी पढ़ाई पूरी होती गई,मेरी फिल्मों के प्रति रुचि बढ़ती गई और परिवार का हमेशा
सहयोग मिलता गया। फिर 56 में सागर यूनिवर्सिटी चला
गया पढऩे के लिए। वहां विट्ठल भाई पटेल से दोस्ती हो गई। वे भी सागर यूनिवर्सिटी
में पढ़ते थे। सीनियर थे। वहां पर उन्होंने कवि सम्मेलन में शैलेंद्र को बुलाया
था। फिर मुलाकात भी करायी। बाद में मैं एमए करने के लिए इंदौर आया। इंदौर में भी
फिल्में देखने का आनंद आता रहा।
- एमए किस विषय में किया आप ने?
0 इंग्लिश में। नौकरी भी उसी
में लगी। मेरी पत्नी ने भी साथ में एमए किया। पढ़ाई के वक्त मोहब्बत हुई। पढ़ाई के
बाद नौकरी मिलते ही शादी भी हो गई। फिर बाद में 69 में
हमने हिंदी में एमए किया।
-सिनेमा पर कब लिखना शुरू किया?
0 सिनेमा पर पहला लेख लिखा मैंने
1966 में लिखा।
- किस अखबार के लिए लिखा था।
0 अखबार नहीं,माधुरी मैग्जीन
के लिए लिखा था। अरविंद कुमार एडिटर होते थे। एक राजकपूर पर छापा और एक शैलेंद्र
पर छापा।
- लिखने का और भी रुझान था या
सिर्फ फिल्मों पर ही लिखते रहे ?
0 वे दो लेख इसलिए लिख दिए कि
एक फिल्म की शूटिंग सागर के नजदीक के गांव में हुई थी। विट्ठल भाई ने मुझे सागर
बुला लिया था। सात-आठ दिन की शूटिंग है तुम राजकपूर जी के साथ ही रहो। खाने पीने
के शौकीन हैं। विट्ठल भाई पीते भी नहीं है,
खाते भी नहीं।
शूटिंग का अरेजमेंट सब विट्ठल भाई ने किया था। उस समय मैंने खर्चा भी बहुत कुछ
अपने पास से किया। मुझे राज साहब के साथ आठ दिनों तक रहने का मौका मिला। किताबों
की बात मैंने उनसे की। फिर बाद में मैंने उन्हें डिस्कवर किया। राज साहब ने कहा था, मुझे पढ़े-लिखे लोगों को साथ रखना बड़ा अच्छा लगता है। क्या
पढ़ा है आप बताइए। पढ़ कर सुना दीजिए।
वे खुद पढ़ते
नहीं थे। सुनना पसंद करते थे। उनको पसंद था कि पढ़े-लिखे लोगों के संगत में रहें। आप
उनके रायटर देखिए न? ख्वाजा अहमद अब्बास, इंदर राज आनंद,
11.20
उपेन्द्र नाथ अश्क, सब
पढ़े-लिखे लोग। राजेन्द्र सिंह बेदी उनके दोस्त थे। सागर में उन्होंने 1965 में शूटिंग
की है। उसके बाद से राज साहब से बहुत अच्छे संबंध हो गए। फिर ‘तीसरी कसम’ के प्रीमियर में मिले थे
दिल्ली में। फिर राज साहब के निमंत्रण पर उनके जन्म दिन के अवसर पर मैं और विट्ठल
भाई जाता रहे। मुलाकातें होती रहीं। मेरे लिखने का यह बैकड्रॉप है। नियमित लिखना
तो मैंने बाद में शुरू किया।
- मेरा सवाल ये था कि फिल्मों
के अलावा जैसे आम तौर पर कोई कहानी, कविताएं लिखने का रुझान ?
0 देखिए, ये रुझान मुझे कभी नहीं रहा। मैंने फिल्मों पर ही हमेशा लिखा
है। 1991 में जब मैं ‘नवरंग’ एडिट करता था भास्कर के लिए,उसी
अखबार ने मुझे एक स्टेनो दिया था।
डिस्ट्रीब्यूशन के ऑफिस में आ कर बैठता था। नवरंग से पंद्रह-बीस हजार रुपए
हो जाता था। मेरा ड्यूटी तीन बजे है
तो मैं वहीं
आकर बैठ जाता था। मुझे लगा कि यह मोफत की तनख्वाह ले रहा है। मैंने उसे नॉवेल
डिक्टेट करना शुरू किया। चार-छह महीने में वह नॉवेल पूरा हो गया। जो 2004 में ‘डरावा’ के नाम से छपा है। डरावा एक मिठाई है जो खाली बुरहानपुर में
मिलती है। उपन्यास की थीम है एक मिठाई की दुकान। उसके परिवार के माध्यम से छोटे
शहर में सामाजिक परिवर्तनों की सत्तर साल की कहानी है। 1939 से शुरू होता है वह नॉवेल और 1991 के बाबरी मस्जिद विध्वंस पर खत्म होता है।
- ऑटोबायग्रॉफिकल है।
0 उसमें काफी एलीमेंटस है और
बुरहानपुर शहर का भी वर्णन है। शहर में जो तब्दीलियां होती है,वह कहीं भी देखी जा सकती
है। मिठाई के दुकान पर जब हम बच्चे थे तो केले के पत्ते में मिठाई बेचता था। सेकेंड
वर्ल्ड वार के समय जर्मन सिल्वर निकला तो वह
आ गया। फिर बाद में स्टेनलेस स्टील आ गया। जो चीजें बदलती है,वे सामाजिक चीजें भी इंडीकेट
करती हैं। यह नॉवेल 2004 में पब्लिश हुआ है। मैंने
कहानियां कुछ नहीं लिखी है। फिल्म का लेखन ज्यादा किया है।
- फिल्मों के लेखन के प्रति आप
कब नियमित हो गए।
0 नई दुनिया में जब तक रहा तो राहुल बारपुते संपादक थे।
वे फिल्मों को ज्यादा जगह देते नहीं थे। सीमित जगह देते थे। उस सीमित जगह में एक
देव मुंशी थे,वे लिखा करते थे। उनके जाने के बाद ताम्रक़र साहब आ गए। तो मैं और ताम्रक़र
साहब। ताम्रक़र जी नियमित लिखते थे। मेरा नियमित नहीं था। कभी महीने में एक तो कभी दो लेख आते थे।
- विषय क्या होते थे?
0 सिनेमा।
- सिनेमा का क्या?
0 रिव्यू और फिल्म के बारे
में। सिनेमा मेरे लिए सिर्फ सिनेमा नहीं है। दर्शक क्या प्रतिक्रिया देता है ? उससे मुझे लगता कि समाज का मूड किस तरफ इशारा करता है। किसी
दृश्य में यों ही तालियां नहीं बजती। किसी गाने को यों ही पसंद नहीं किया जाता।
उसके पीछे जरूर कोई बात होती है,जो लोगों के दिलों को छू रही होती है। जैसे बाबरी मस्जिद के बाद एक
मेहुल कुमार की पिक्चर आई थी। उसमें एक इंस्पेक्टर के मौत की सीन है और नाना
पाटेकर का डायलॉग है। वो कहता है इंस्पेक्टर घबराओ मत सब न्याय होगा। दिल्ली से
अफसर आने वाला है। दिल्ली क्या करती है, वह तो खामोश बैठी रहती है।
दिल्ली क्या करती है सुनते ही तालियां बजी थीं। सिनेमा के दर्शकों की प्रतिक्रिया
में मुझे हमेशा समाज का डेवलपमेंट और रूल समझ में आता है। भारतवर्ष के अवचेतन को
सिनेमा के माध्यम से समझने की कोशिश करनी चाहिए।
- भारतीय समाज में सिनेमा इतना
पॉपुलर मीडियम है और आप इंदौर में रहे हैं। इंदौर के ही परिवेश में आपने सिनेमा देखना
शुरू किया। इंदौर के ऑडिएंश का सिनेमा से किस तरह का रिलेशन है? वह दूसरे राज्यों के ऑडिएंश से किस तरह अलग है? सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि उसी ऑडियेंश ने आपको गढ़ा है।
- इंदौर इस मायने में अलग है
कि जिस जमाने में हम वहां पढ़ते थे,उस जमाने में इंदौर शहर में आठ-दस कॉटन मील थीं।
मजदूरों का एक वर्ग सिनेमा का स्थायी दर्शक था। गणेश चतुर्थी पर छुट्टी होती थी,
क्योंकि मीलों में झांकियां निकलती थी। दस मील की दस बड़ी-बड़ी झांकियां होती थी।
पूरी रात शहर जागता रहता था। उस समय इंदौर में चौबीसों घंटे शो होते थे। पहला शो
सुबह 6 बजे, साढ़े
सात बजे, साढ़े नौ बजे...उन दो दिनों में
छुट्टियों का असर रहता था। मॉर्निंग शो के परंपरा इंदौर में थी। हमारे जैसे कॉलेज
के विद्यार्थी को मॉर्निंग शो देखने में सहुलियत होती थी। उस शो में मील के मजदूर
जो रात के पाली में काम कर के घर लौट रहे होते थे वे पिक्चर देखते हुए घर जाते थे।
इंदौर के जनता में रिक्शा चलाने वाले, मील के मजदूर रहते थे। कम्युनिस्ट
लोग उन्हें सर्वहारा कहते हैं। इनके साथ बैठ कर हमने बहुत फिल्में देखी हैं।
- जिसको चवन्नी छाप कह सकते
हैं।
0 जी हां, चवन्नी छाप आप कह सकते हैं।
- ये कह सकते हैं कि आपके
फिल्मों का सौदर्यबोध लगभग चवन्नी छाप दर्शकों वाला है। वहां से विकसित हुआ है जो
आम दर्शक है उसके लिए। उसमें आभिजात्य रुचि या वे सारी चीजें नहीं है।
0 हमारे सोच-विचार में दर्शकों
की प्रतिक्रिया का बहुत असर है। अगर कुछ गुढ़ है,अगर कोई सामाजिक संकेत है तो उसे
पकडऩे की कोशिश करता हूं। लेकिन यह शौक कमर्शियल सिनेमा से आया है। बाद में सिनेमा
के बारे में किताबें पढ़ी। वह अलग बात है। अपने आपको सुधारने की कोशिश की है।
सिनेमा से जो मेरा ये मोह है ये अभी भी जैसा का तैसा कायम है। आज भी शुक्रवार को
साढ़े नौ वाला शो सिनेमैक्स में जा कर देखता हूं।
- दैनिक भास्कर का जो आपका
कॉलम है ‘पर्दे के पीछै’। वह कितने सालों से लगातार चल रहा है?
0
18 साल हो गए
है। अठारह सालों में एक दिन का भी गैप नहीं हुआ है। 18 साल में मेरी तीन सर्जरी हुई है। सर्जरी के पहले चार आर्टिकल
भिजवा दिए हैं। फिर आईसीयू से प्रायवेट वार्ड में आया वहां से लिख कर भेजना शुरू
किया। अठारह साल में मैंने अच्छा लिखा या बुरा लिखा ये बात छोड़ दीजिए। लेकिन
बेधडक़ लिखा। अठारह साल में कॉलम लिखते-लिखते मैं बेहतर इंसान बना हूं। ऐसा महसूस
करता हूं।
- इस प्रक्रिया को बताएं,कैसे?
0 क्या होता है कि जब मैं
लिखना शुरू करता हूं तो मैं सोचता हूं कि मैं फिल्म की कहानी, उसका सार बता दूं तो उसका कोई मतलब नहीं है। लोग तो देखने ही
वाले हैं। इस फिल्म के सामाजिक संकेत क्या है?
इसकी बात करें
और इस समय समाज का वातावरण क्या है? और ये फिल्म किस तरह वहां
फिट बैठ रही है। उस पर बहुत ही गंभीर रूप से सोचते हुए विचार मैं करता हूं तो कुछ
मुझे अर्थ भी अच्छे मिलने लगे हैं। जब मैंने लिखना शुरू किया और दर्शकों के चिट्ठियां
मिलती रहीं, प्रतिक्रियाएं मिलती रही तो मन में
बड़ी प्रसन्नता हुई कि लोग आपको पढ ऱहे
हैं। जैसे ही यह भाव पैदा हुआ तो जवाबदारी का भाव पैदा हो गया कि आपको सोच-समझ कर
विचार कर लिखना है। ऐसे ही कोई हल्की-फुल्की कोई बेहद बाहियात बात नहीं जानी चाहिए।
जो आपका कॉलम पढ़ रहे हैं,वे सिनेमा, समाज और साहित्य के बारे में
भी पढ़ें। उनको पढ़ कर भी सतह के नीचे जानने की आदत पड़ जाए, ऐसा कुछ हो। जिम्मेदारी के भाव से। सुबह उठ कर मैं मॉर्निंग
वॉक पर जाता हूं। वॉक पर पहले पांच-दस मिनट ईश्वर के नाम लेने में निकलते हैं। उसके
बाद सोचता हूं कि आज क्या लिखना है? एक घंटा के बाद वॉक से आता
हूं। फिर अखबार देख के जवाबदारी के साथ लिखता हूं। जब तक वह कॉलम पूरा नहीं हो
जाता है,तब तक बाकी कोई काम नहीं करता। इसलिए यह नियमित जाता है और ग्यारह साढ़े
ग्यारह बजे तक लिख कर तैयार हो जाता है। अगर सोचें कि तीन बजे तक लिख कर भेज देंगे
तो हो सकता है कि कुछ और काम में बिजी हो जाएं। मेरा पहला काम कॉलम लिखना है। मेरे
लिए यह बिल्कुल रिलीजन की तरह है।
- यह कब शुरू हुआ था? किस तारीख को?
0 भास्कर इंदौर शुरू हुआ 1984-85 में। मुझे रिव्यू लिखने के लिए व्यवस्थित किया गया था।
क्योंकि नई दुनिया में विश्लेषण लिखने में बहुत कंट्रीब्यूट किया करता था। उसे
साल-डेढ़ साल करने के बाद बंद कर दिया। फिर 1987 में सुधीर अग्रवाल आए
इंचार्ज बन के। उन्हें पता चला मेरे बारे में,
उन्होंने मुझे
बुलबाया। उन्होंने आधा पृष्ठ दिया लिखने के लिए। वह सिलसिला चलता रहा तीन साल तक।
फिर सुधीर अग्रवाल ने कहा कि आप नवरंग का संपादन करो। नवरंग अगर अखबार साइज का
होगा तो चार पेज पेज का होगा। अगर टैबलाइड साइज का होगा तो आठ पेज का होगा। यह
संपादन मैंने तीन सालों तक किया। उसके बाद नवरंग किसी तकनीकी वजह से भोपाल या
दिल्ली शिफ्ट हो गया। सुधीर अग्रवाल से मैंने कहा कि मेरा काम तो अब खत्म हो गया।
उन्होंने कहा कि देखिए आप सैलरी हम से लेते रहिए बगैर काम करते हुए। ऐसा सिलसिला
चार-पांच महीना तक चलता रहा। फिर उन्होंने बुलाया और कहा कि आप डेली पांच सौ-सात
सौ शब्द का कॉलम लिखिए। मैंने कहा कि यह तो महीना से ज्यादा नहीं चलेगा,क्योंकि
ऐसी कुछ घटनाएं होती नहीं है। उन्होंने कहा कि आपको लगता है कि महीना दिन ही होगा
तो महीना दिन ही लिख दीजिए। बंद करना तो आपके हाथ में है। मैंने लिखना शुरू किया।
श्रवण गर्ग संपादक थे।उनसे शेयर किया। उन्होंने कहा कि ऐसा लिखो जो एंटरटेन भी करो, एजुकेट भी करे और इनलाइटनिंग भी हो। इंफारमेंशन भी दो।
तुम्हारे पास एक्सपीरियेंस है। लिखना शुरू किया तो वह कॉलम पहले दिन से पॉपुलर हो
गया। इसमें भास्कर का सहयोग ये है कि उन्होंने
पहले छह महीने में उसका स्थान फिक्स कर दिया। अगर विज्ञापन भी आए तो उसका स्थान
नहीं हटेगा। उसको एक ही जगह देखने की लोगों को आदत पड़ गई। बाद में जगह भी बदला।
- पहला लेख क्या था?
0 मुझे अच्छी तरह याद है।
पहला लेख था ‘ये बंगला टूटे न्यारा’ उस जमाने में सायरा बानो का जो बंगला था,उसके पास एक जमीन
खाली थी। वहां पर कुछ कंस्ट्रक्शन हो रहा था और दिलीप साहब का भी बंगला तोड़ कर
वहां पर मल्टीस्टोरी बिल्डिंग बनने वाली थी। उसी दरम्यान अजंता में भी तोड़ कर
बिल्डिंग बनी। फिल्म सितारा बंगले में रहता है। फिल्म सितारे की छवि होती है
लार्जर दैन लाइफ। के एल सहगल का गाना था ‘एक बंगला बने न्यारा’ तो मैंने उसको कर दिया ‘एक बंगला टूटे न्यारा’। किन-किन कलाकारों के बंगले टूट के मल्टीस्टोरी बिल्डिंग बन
रही है या बन चुकी है। इस पर मेरा पहला कॉलम था। वह 11 नवंबर 1994 था। 19 साल की उम्र हो गई मेरे कॉलम की।
-
19 साल से बगैर
किसी ब्रेक के...
0 ऐसा कभी नहीं हुआ कि इकट्ठे
चार-पांच कॉलम एक साथ लिख कर भेज दिए। बीमारी-वीमारी में जब डॉक्टर ने कहा, तब
तीन-चार आर्टिकल भेजे हैं। बेहतर इंसान इसलिए बना कि दर्शकों की प्रतिक्रिया आती
थी अजय साहब। वह बहुत रिवीलिंग थी। लोग इतने ध्यान से पढ़ रहे हैं और ऐसा-ऐसा
रिएक्ट कर रहे हैं। अगर नापसंद भी कर रहे हैं तो उसका कारण बता रहे हैं। एक दिन
सुबह सात बजे विदिशा से एक लड़क़ा आया और कहा कि साहब मैं तो किसान का बेटा हूं और
किराने की छोटी सी दुकान है। और नौवीं पास हूं। मैं आपका लेख रोज पढ़ता हूं। सात
दिन में से पांच दिन लेख मुझे समझ में नहीं आता है। तो मैंने कहा कि रोज क्यों
पढ़ते हो? बोला कि नहीं समझ में आता है फिर भी
मेरे मन में ये फीलिंग है कि है कुछ ग्रेट। फिर मेरे दिमाग के चक्षु खड़े हो गए कि
मैं पढ़ रहा हूं मुझे समझ में नहीं आ रहा है। किसी भी चीज को समझने से ज्यादा
जरूरी उसको महसूस करना होता है। वह मेरे लिए गाय का घी लेकर आया था और कहा कि साहब
ये खाइए और शक्तिमान बनिए सर। हमको बड़ा मजा आता है पढऩे में नहीं भी समझ में आता
है तब भी पढ़ते हैं। एक जगह एक पति-पत्नी में डिवोर्स का तय हो गया था। दूसरा मकान
देख रहे थे। एक ही चीज कॉमन थी। अखबार एक ही आता था। रहते अलग-अलग थे लेकिन अखबार
एक ही था। वे साथ में बैठकर पढ़ते थे और शुरू इसी कॉलम से करते थे। धीरे-धीरे
संबंध सुधर गया। तलाक कैंसल हो गया। वे एक बड़ी सी गिफ्ट लेकर मेरे घर आए और कहे
कि साहब आपके वजह से मेरा तलाक कैंसल हो गया। ये चीज बड़ा आधार देती और बहुत खुशी
देती है कि आप जो लिख रहे हो उसमें पाठकों की सहभागिता तो चाहिए। ऐसी घटनाएं बेहतर
इंसान बनने में मदद करती है। जो आप लिख रहे हो झूठ मत लिखो। वही लिख जिस पर तेरा कंविक्शन
है। जो बात तुझे अच्छी नहीं लगती है तो कह दे कि बुरा है। इस तरह से अठारह सालों
में मैंने ये महसूस किया कि मैं बेहतर इंसान हुआ हूं लिखते-लिखते। इसका सारा श्रेय
पाठकों की प्रतिक्रियाओं को जाता है।
उनके साथ मेरे
डायलॉग है। बहुत चिट्ठियां आती है, फोन आते हैं। कई जगह मुझे अपने परिवार का सदस्य मान लिया गया
है। इस साल रायपुर या और किसी जगह से फोन आया आप अपना तस्वीर भेज दीजिए अपने घर के
मंदिर में लगना चाहते हैं। मैंने कहा कि मैडम मैं अपनी तस्वीर नहीं भेजूंगा। मेरी ईश्वर
से दुश्मनी हो जाएगी। कह देंगे कि बेटा जल्दी आ जाओ ऊपर। एक जमाना था जब तस्वीर
नहीं छपता था। मैंने कहा कि मैडम आपने मेरे लिखने के प्रयास को खोटा साबित कर
दिया। मेरा लिखने का पूरा प्रयास ये है कि किसी भी चीज की आंख बंद कर के भक्ति मत
कीजिए। तौलिए सब चीज को। अपने विवेक को डेवलप कीजिए। मैं तो हर तरह के पूजा और हर
तरह के महान बनाने के प्रक्रिया के खिलाफ हूं।
- फिल्म विरादरी से आपके बहुत
नजदीकी रिश्ते रहे हैं। क्या उससे भी कभी कॉलम प्रभावित रहा। और दूसरा सवाल ये कि
क्या कॉलम लिखने में उससे कुछ मदद मिलती है?
0 पहले तो मैं आपको सूचना
देना चाहता हूं जो आपको आश्चर्यजनक लगेगा। फिल्म इंडस्ट्री के जो मेरे निकट के
मित्र हैं, कपूर खानदान, राकेश रोशन का खानदान,
सलीम खान साहब
का खानदान। और भी कई खानदान, महेश भट्ट साहब, राम गोपाल वर्मा की फिल्में हम नियमित लगा रहे हैं वर्षों से।
अभी कुछ समय से पहले लोगो को मालूम पड़ा कि मैं कॉलम जर्नलिस्ट हूं। मैं डेली
लिखता हूं। देखिए हमारे फिल्म वाले हिंदी नहीं पढ़ते हैं। मैं अपना कॉलम किसी को
भेजता भी नहीं हूं। वे पढ़ेंगे ही नहीं। मैंने राजकपूर पर किताब लिखी। राजकपूर के
परिवार में किसी ने भी किताब नहीं पढ़ी। हालांकि सबको कॉपी दिए हैं मैंने। कोई हिंदी
नहीं पढ़ता है। ये मुझे दुखद लगता है। यार आप हिंदी फिल्में बनाते हैं और हिंदी
पढ़ते नहीं है। इस देश में क्लीयर कट है कि अंग्रेजी अखबार में तनखाह ज्यादा है और
हिंदी में कम है। इस देश में 17 करोड़ अखबार के पाठक हैं,जिसमें
से 15 करोड़ नेशनल लैंग्वेज के हैं। केवल
दो करोड़ लोग अंग्रेजी भाषा के पाठक हैं। उसका विज्ञापन का दर ज्यादा है और वहां
तनख्वाहें भी ज्यादा है। वहां इज्जत भी ज्यादा है। इसका मेरे को दुख भी है। आपका
सवाल ये है कि क्या प्रभावित हुए? वह इस तरह से प्रभावित नहीं
हुआ मान लो कि अपने किसी मित्र के फिल्म के खिलाफ लिख रहा हूं तो वो उस तक तो
पहुंचने ही वाला नहीं है। मेरी दोस्ती पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है। बहुत कम
लोगों को मालूम है कि मैं डेली कॉलम लिखता हूं। गुलजार को मालूम है पर गुलजार को
ये नहीं मालूम कि उस कॉलम को अठारह साल हो गया है। जब पहला साल पूरा हुआ था तो
किताब निकली थी तो गुलजार साहब आए थे विमोचन के वक्त। पर ये लोग मेरा कॉलम पढ़ते
थोड़े ही हैं। एक तो ये है कि मैंने बेझिझक लिखी है। अपने मित्रों के फिल्म खराब
लगी है तो भी। कोई दोस्ती टूटने का खतरा नहीं है। मैं कोई बहादुर व्यक्ति नहीं
हूं। पर लिखने में मदद बहुत मिली है इन द सेंस कि मैंने फिल्में बनते हुए देखी है
मैं अपना किरदार ढूंढ़ता रहता हूं। मुझे विष्णु खरे साहब एक बार कहे कि इतिहास दो
तरह का होता है। महाराजा का, राजा का या फिर दरबारी
इतिहास लिखता है दरबार में बैठ कर। एक इतिहास वह होता है,जो सिपाही लिख रहा होता है
जो युद्ध में शामिल है। खरे साहब कह रहे हैं कि चौकसे का फिल्म लेखन के बारे में
विशेषता यह है कि वो सअअल्टर्न है। वह जंग में शामिल है। उसने चोट भी खायी है बदन
पर। ऐसा कभी नहीं हुआ कि ऐसी किसी फिल्म की तारीफ कर दी हो जो मेरे दोस्त ने बनाई
है। मेरे सबसे अधिक मित्रता दो परिवार से रहे हैं। कपूर परिवार और सलीम खान
परिवार। राजकपूर के यहां 2 जून को उनका निर्वाण दिवस
होता है। पूजा-पाठ होता है हर साल नियमित जा रहा हूं। वर्षों से जा रहा हूं और हर
साल आर्टिकल भी लिखता हूं। एक साल मैं अपने साथ आर्टिकल लेकर भी गया था। हालांकि
वह छपने वाला तो दो जून को था। मेरे हाथ का लिखा हुआ मेरे पास था। मैंने पूजा-पाठ
के बाद मैंने भाभी जी को जाकर कहा कि भाभी जी मैं हर 2 जून को राज साहब पर लिखता हूं तो हर साल नया कुछ लिखने की
कोशिश करता हूं। इस साल का आप अगर सुन लें तो अच्छा है। उसकी थीम ये थी कि राजकपूर
को मरे 17 साल हो गए। अगर हिंदू पूनर्जन्म की
अवधारणा सही है तो वे नया जन्म ले चुके होंगे। 17 साल
में तो उसके दो-तीन प्रेम हो चुके होंगे। फिर उस कॉलम अगला हिस्सा ये है कि बीए
पास होकर गोल्ड मेडल लेकर मुंबई आता है एक्टर बनने के लिए तो सब जगह भटकता रहेगा उसको
काम नहीं मिलेगा। सब जगह भटक के आखिर में आरके स्टूडियो जाएगा और दरबान से कहेगा
कि मुझे अंदर जाना है और दरबान उससे कहे कि भईया कहीं और जाओ यहां तो जब से बड़े
साहब मरे हैं तब से फिल्म बनती नहीं है। अब ये एक्चुअली तीनों भाइयों की आलोचना
है। तीनों कुछ खफा भी हुए पर भाभी जी खुश हईं। उन्होंने कहा कि आप बिल्कुल ठीक
लिखे हैं। ऐसा भी हुआ कई बार लोग बुरा भी मान जाते हैं। उस दिन का गुस्सा किसी ने
पाला नहीं है। उनकी दरियादिली है। पर ये एडवांटेज जरूर है, फिल्म देखता हूं तो फिल्ममेकिंग की प्रक्रिया से थोड़ा मेरा
नजरिया में फर्क है। वह फर्क आता है।
- आपने एक बात बहुत अच्छी कही
है कि हिंदी के प्रति फिल्म इंडस्ट्री का लगाव नहीं है। हिंदी में उनका इंटरेस्ट
नहीं है। हिंदी का बिजनेस और हिंदी का सारा बाजार है। पैसे वहां से आते हैं पहले
बहुत ज्यादा आते थे बीच में कम हो गए। अभी फिर से पैसे बढ़ रहे हैं। बावजूद हिंदी
के प्रति ये दुराव क्यों है। दुराव है या उसको कह लें कि अनभिज्ञता है। वे जानते
ही नहीं है कि इसकी कीमत क्या है?
0 एक्चुअली वे जानते ही नहीं
है। कारण क्या है कि ये जो बंबई के फिल्म परिवार के लडक़े हैं। ये कांवेंट के लडक़े
हैं। इन्होंने जो पढ़ाई की है वो अंग्रेजी मीडियम से की है। सिनेमा उद्योग में जो सिनेमा बनते समय जो भाषा
बोली जाती है वो अंग्रेजी है। टेक्नीकल सारी किताबें अंग्रेजी भाषा की है। वो पूरा
फिल्म के भीतर का वातावरण अंग्रेजी का है। डायलॉग रोमन में लिखे जाते हैं।
स्क्रिप्ट अंग्रेजी में लिखी जाती है। अजय भाई थोड़ी देर के लिए फिल्म उद्योग को
भूल जाइए पूरे देश में हिंदी के प्रति सौतेला व्यवहार है। कहां नहीं है? कॉरपोरेट ऑफिसेस में कौन हिंदी बोलता है? देखिए भाषाओं का मेरा विश्वास ये है कि जो भाषा आपको
रोजी-रोटी दिलाती है। पैसे दिलाती है, लोग वो भाषा सीखते हैं। तो
भारत वर्ष के लोग अंग्रेजी इसलिए सीखे हैं वो उनको रोजी-रोटी सीखा रहे हैं। जब
मुगल लोग आए थे तो फारसी और उर्दू का चलन हुआ तो लाखों हिंदू लोगों ने उर्दू और
फारसी सीखे। क्योंकि वो दरबार की भाषा थी। नौकरी की भाषा थी। इसी तरह जब अंग्रेज
आए तो अंग्रेजी की भाषा हो गई।अंग्रेजी और उर्दू के भाषा में अंतर क्या हुआ कि जब
तक मुगल बादशाह थे तो हमारे लोगों ने उर्दू सीखी। फिर कुछ लोग उर्दू साहित्य से
जुड़े रहे। लेकिन आम आदमी ने उर्दू सीखना बंद कर दिया। यहां तक कि मुसलमान ने भी
उर्दू सीखना बंद कर दिया। लेकिन मुगलों के साम्राज्य के बाद भारत वर्ष में उर्दू
और फारसी का महत्व घट गया। अंग्रेजों के जाने के बाद ऐसा नहीं है। क्योंकि अंग्रेज
के जाने के पहले भारत की जीवनशैली में अंग्रेजियत घुल चुकी थी। जीवन शैली में
अंग्रेजियत आ गई है। वो नहीं जा रही है।
- हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में
ये जो विरोधाभास है, फिल्में हिंदी में बनाना लेकिन निजी
बात-व्यवहार में हिंदी का इस्तेमाल न करना। आपने करीब से देखा होगा। इसकी वजह क्या
है? फिल्म तो वो हिंदी में बनाते हैं।
फायनली जो प्रोडक्ट आता है, वो हिंदी में आता है। एक आम
दर्शक का दंभ है, फिल्में ये हिंदी में बनाते हैं तो
ये लोग हिंदी क्यों नहीं बोलते हैं।
- अजय भाई क्या हुआ कि हमारी
इंडस्ट्री शुरू हुई है 1913 में। ये स्वतंत्रता संग्राम के दिन थे। गांधी जी 1915 में आ गए थे। हिंदुस्तान के
हर क्षेत्र के लोग इस उद्योग से जुडऩा चाहते थे। लोग जुड़े भी। मराठीभाषी लोग ने
इस उद्योग को शुरू किया। देखिए अजय भाई 1913 से 1931 तक मूक फिल्में बनती थी। जब तक मूक फिल्में बनती थी तब तक
अखिल भारतीय थी। जब फिल्में बोलने लगी तब क्षेत्रीय हो गईं। ये मराठी भाषा की
फिल्म है, ये गुजराती भाषा की फिल्म है। ये
पंजाबी फोक का गाना है, ये बिहारी फोक का गाना है।
शुरू में फिल्म उद्योग में ये तय पाया गया कि व्यवहार की बातचीत अंग्रेजी होगी।
क्योंकि फिल्म ग्रामर की अंग्रेजी की किताबें लोग पढ़-पढ़ के लोग फिल्मकार बने।
पहले पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के तरह फिल्म इंस्टीटयूट नहीं थे। स्टूडियो में लोग
पढ़-पढ़ के, सीख-सीख कर लोग फिल्ममेकर बने।
- फिल्म इंटीच्यूट में भी
भारतीय सिद्धांत की बात नहीं है। किसी ने लिखा नहीं है। भारतीय फिल्म का सिद्धांत
अभी तक विकसित भी नहीं हुआ है। कम से कम लिखा नहीं गया है। प्रैक्टिस में है,लेकिन
किसी ने भी लिपिबद्ध करने की कोशिश नहीं किया है अभी तक।
0 फिल्म उद्योग के लोग भी कोई
जान कर हिंदी का अवहेलना नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं है। यहां की भाषा ही अंग्रेजी
बन गई है। इस मीडियम की भाषा ही अंग्रेजी बन गई है। आप खुद बताइए आप हिंदी के बहुत
बड़े जानकार हैं। बहुत अच्छे लेखक भी है। आपने हिंदी भाषा में सिनेमा की कोई
तकनीकी किताब पढ़ी है?
0 नहीं, बिल्कुल नहीं।
0 किसी ने लिखी नहीं ही नहीं
है। आज भी इंस्टीच्यूट में पढऩा चाहते हैं तो द स्टोरी कर के किताब पढ़ते हैं।
टेकनीकल की, फोटोग्राफी की किताब अंग्रेजी में
पढ़ते हैं। सारी किताबें अग्रेजी में है। फिल्म उद्योग वाले जानबूझ कर हिंदी की
अवहेलना नहीं कर रहे हैं। जिस भाषा में फिल्म बनती है वो है हिंदी और हिंदुस्तानी।
मैं नहीं समझता हूं जो राष्ट्रीय फिल्म नामावली आती है। उनका भी स्क्रिप्ट शायद
अंग्रेजी में लिखी जाती है। संवाद भले हिंदी में लिखे जाते हों। हिंदी के साथ
सौतेला व्यवहार इस देश में हर क्षेत्र में है। बल्कि दूसरे क्षेत्र में जान के है।
फिल्म वाले जान के नहीं कर रहे हैं। उनकी मजबूरी है। उनका सोच-विचार अंग्रेजी है।
- मैं खुद आपका नियमित पाठक
हूं। मैंने महसूस किया कि आप विषय कोई भी शुरू करें, कहीं
से भी, अचानक उसमें छलांग लगती है या उड़ान
भरता है वो। कभी आगे जाता है, कभी पीछे जाता है। ऐसा लगता
है कि जैसे फिल्मों का फ्लैशबैक है। या कह लें कि प्रीज्यूम किया जा सकता है कि
आगे क्या हो सकता है। उस ढंग से पूरा कॉलम चलता है। जबकि छह सौ शब्द का कॉलम है।
कई सारी जानकारियां ...या अलग से देखें या कोई दूसरा पढ़ रहा हो। जो पहली बार पढ़
रहा हो। उसको लगेगा कि ये क्यों है? आप लिख रहे हैं राजकपूर के
बारे में तो आपको जर्मनी जाने की क्या जरूरत है? आपको
रसिया जाने की क्या जरूरत है। जो आम हिंदी में तरीका है लीनियर लिखने का। उससे अलग
ये स्टाइल कब से और कैसे डेवलप हुआ?
0 सिंपल प्रश्न पूछता हूं
आपसे। क्योंकि आपने जो प्रश्न पूछा उसका जवाब भी इसी में है। जब आप मन ही मन कोई
विचार कर रहे होते हैं तो क्या कोई अर्द्ध विराम या विराम लगाते हैं? आपकी जो विचार प्रक्रिया चल रही होती है, उसमें कोई ग्रामर नहीं है। न उसमें कोई अर्द्ध विराम लगा रहा
है न कोई विराम है। तो ये फलैशबैक जो कह रहा है बात, हम
बैठ कर विचार कर रहे होते हैं। वर्तमान समय के बारे में विचार कर रहे हैं। उसी समय
विगत भी हमारे दिमाग में कौंध रहा है और भविष्य की चिंता भी हमको सता रही है। एक
क्षण जो है, उसमें पास्ट का भी कुछ हिस्सा होता
है और भविष्य का संकेत मौजूद होता है। कोई गुजर कर भी पूरी तरह नहीं गुजरता है। आने
वाला वक्त अपने आने की परछायी डाल देता है। मैं तो उन क्षणों को पकड़ता हूं। मैं
राजकपूर पर लिख रहा हूं और वो लिखते-लिखते एक जर्मन नॉवलिस्ट द किंगडम याद आया तो
मैंने वहां वो कोट किया। वहां पर ऐसी-ऐसी बात है। तो मेरी लेखन शैली जो पूरी है, मैं जिस प्रक्रिया में विचार कर रहा हूं। ऐसे ही कागज पर लिख
रहा हूं।
- साथ में मैं यह भी देखता हूं
कि कभी भी आप अकेडमिक होने की कोशिश नहीं करते हैं। या ऐसा नहीं लगता है कि आप नेम
ड्रापिंग कर रहे हैं। या ये नहीं लगता है कि आप ज्ञान बघार रहे हैं। कई बार लगता
है कि कई सारी अबूझ बातें या कह लें कि टेकनीकल बातें भी बहुत ही सिंपल शब्दों
में, समझ में आने लायक वाक्यों में लिखा
जाता है।
0 मैंने साहित्य भी पढ़ा है और फिल्में भी देखी
है। साहित्य में जो पढ़ा वो अच्छा भी है
और बुरी भी है। मुंशी प्रेमचंद सार्वकालिक महान लेखक हैं। ये महान भी हैं और
रुचिकर भी हैं। आप रेणु की कहानी पढ़ते हुए कभी कोई बोर नहीं हो सकते। मैं लिख कर
दे सकता हूं। कमाल के लेखक हैं। हमने सारी जिंदगी किताबें ही पढ़ी है। ऐसे मेरा
विचार भी बन गया है। मैंने सिनेमा शास्त्र पर कोई किताब नहीं पढ़ी है। सिनेमा क्या
है?
0आप पूछेंगे कि सिनेमा का विशेषता क्या है? तो मैं कहूंगा कि मैं नहीं जानता। अगर मैंने अमेरिकन सिनेमा
देखा है तो कमर्शियली देखा है। रसियन सिनेमा देखा तो जब रसियन सिनेमा पूरे वर्ल्ड
को अपील करता था। मैं वो क्लासिकल स्कूल का आदमी नहीं हूं।
- शास्त्रीय होने की कोशिश कभी
नहीं करते हैं?
0 कभी नहीं। वो मैंने पढ़ा ही
नहीं। हिंदी में मैं एम़ ए कर रहा था। टीचर बन के परीक्षा दे रहे हो आप। आप क्लास
में तो बड़े होशियारी दिखाते हो, आप अग्रेजी पढ़ाते हो। मुझे
लगा कि यार हिंदी में कर रहा हूं। फर्स्ट क्लास नहीं आया तो लोग तो यही सोचेंगे
कि डफर स्टूडेंट है। हमारे भाई थे देवेन्द्र कुमार जी जयंत। हेड डिपार्टमेंट हेड थे
हिंदी के। क्या करोगे प्रभू? मर-मरा जाएंगे। खराब नंबर आएंगे तो न जाने क्या होगा। नौकरी की
भी गड़बड़ हो जाएगी। उन्होंने कहा कि देखाे सिंपल बात है। एक पर्चा ऐसा आता है
जिसमें नंबर आते हैं। तुम संस्कृत का ग्रामर घोंट सको , चालीस-पचास पेज की किताब है। उसमें अच्छे नंबर मिल जाते हैं।
वो एक पर्चा ऐसा है जिसमें सत्तर नंबर भी मिल सकते हैं। ऐसा कुछ कर सकते हो। तो
मैंने घोंट लिया वो जो किताब थी पचास पेज की। उसको घोंट लिया। रट्टा मार लिया।
रट्टा ऐसा नहीं कि किसी भी परीक्षा में बैठा हूं, नोटस
हाथ में नहीं। लिखते समय क्लीयर उसका विजूअल रहता है। क्योंकि मुझे मालूम है ये
पेज यहां पर मोड़ा हुआ था। ये मारजीन, ये हरकत की है मैंने।
परीक्षा में मेरी याद्दाश्त से नंबर मिले हैं। लेखन पर याद्दाश्त बहुत मदद करती
है। काफी फिल्में याद आ जाती है। सब पुरानी फिल्में याद आ जाती हैं।
- उस बात से कई बार ईर्ष्या
होती है। कई बार लगता है कि लिखते समय आपके पास रेफरेंस बुक है।
0 कुछ भी नहीं है। मेरे पास
सिनेमा की सबसे कम किताब है। जो किताब है वो पॉपुलर किस्म की किताब है। सआदत हसन
मंटो की किताब है, बलराज साहनी की किताब है। इस तरह की
किताबें हैं। और मनमोहन चड्ढा का हिस्ट्री ऑफ इंडियन सिनेमा है। और कोई खास किताब
नहीं है मेरे पास। और कोई रेफरेंस भी नहीं है। न ही मैं कुछ सहेज कर रखा है। ऐसा
कुछ नहीं है। मेरे पास कोई रेफरेंस नहीं है। इसीलिए कई बार मैं अपने लेख में कविता
कोट करता हूं तो उसमें गलती हो जाती है। क्योंकि मैं उसमें याद्दाश्त से कोट कर
रहा हूं। एक दो बार मुझे भोपाल से नाराजगी के फोन आए। सर आपने जो शेर लिखा है
उसमें काफिया दोष है। हम खुद दुरूस्त नहीं हैं तो काफिया कैसे दुरूस्त होगा। एक
बार बैठक में जो आधे-पौन घंटे में जो लेख लिखा। वो लिख दिया। उस समय जो कविता याद
आयी वो कोट कर दिया। जो फिल्म याद आयी वो कोट कर दिया। दिन भर बैठ कर कॉलम नहीं
बनाता हूं। न ही मुझे कम्प्यूटर आता है कि गूगल में देख लूं। उसने कितनी फिल्में
की है। ऐसे ही जवानी याद है। असल में मेरे याद्दाश्त बहुत अच्छी है। कुछ लोग मुझे
इंटेलीजेंट समझ रहे हैं। मैं इंटेलीजेंट नहीं हूं।
- अच्छा अपने लिखने के अलावा
आप क्या पढ़ते हैं?
0 मुझे बहुत चीजों में रुचि
है।
- फिल्मों पर लिखा हुआ पढ़ते
हैं दूसरे का?
0 हां, बिल्कुल पढ़ता हूं। वो भी पढ़ता हूं। उपन्यास भी पढ़ता हूं, बायोग्राफी भी पढ़ता हूं। हिस्ट्री भी पढ़ता हूं। यार मेरी एक
बहू डॉक्टर है। एक हाउस मैग्जीन आती है। हाउस ऑफ डॉक्टर कर के। उसे भी पढ़ता हूं।
- फिल्म पत्रकारिता की बात
हिंदी और अंग्रेजी की भी। भारत में फिल्म पत्रकारिता को किस रूप में देख पाते हैं।
0 अंग्रेजी की जो फिल्म
पत्रकारिता है वो बहुत ही अकल और इंटलेक्चुअल हेकड़ी के साथ लिखी जाती है। उनका
अंदाज हमेशा फिल्म का माहौल बनाने का होता है। और ये बताने का होता है कि ये टोरेनटिनो
के मुकाबले कुछ नहीं है। जो लिखा जाता है अंग्रेजी अखबारों में, ये सिनेमा के बारे में नहीं है। उन आलोचकों के तथा कथित भौतिक
अहंकार का बात है। मैं आपको मोटा उदाहरण देता हूं। सूरज बडज़ात्या की फिल्म विवाह रिलीज
हुई। मुझे तो अभूतपूर्व फिल्म लगी। जिस लडक़ी को प्रेम करता है। शादी करना चाहता
है। शादी के पहले आधी जल गई वो आधी जल गई लडक़ी से शादी कर रहा है। क्या प्रेम है? पूरा हनीमून - मुझे अदभुत फिल्म लगी। मैंने इसकी बड़ी प्रशंसा
की। लेकिन अंग्रेजी के अखबार में उस फिल्म की धुलाई हुई है। उसका धंधा भी मुंबई
में कम हुआ है। मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार में ज्यादा हुआ है। जैसे नदिया के पार का हुआ था। रीजनल
और हिंदी में जो समीक्षा है, उसके समीक्षक कुछ प्रयास
करते हैं फिल्म को समझने का और वो समझ के साथ फिल्म के बारे में लिखते हैं।
अंग्रेजी की समीक्षाएं जो है उसमें भौतिक हेकड़ी है। वो अपने ज्ञान के प्रदर्शन का
दिखावा करते हैं। मैं पढ़ता हूं पर डोंट टेक सीरियसली। एक जमाने में अजीत मर्चेंट
फ्री प्रेस में समीक्षा लिखते थे फिल्म के।
बहुत अच्छे लिखते थे। वो मैंने पढ़ी बहुत अच्छी लगी। लेकिन मुझे मौजूदा समय
ऐसा कुछ लगता नहीं है।
- और हिंदी के फिल्म
पत्रकारिता के बारे में?
0 हिंदी फिल्म पत्रकारिता के
बारे में अब तो बहुत गॉसिप ओरियेंटेड हो गया। पर एक जमाने में हिंदी में, मराठी में, बंगाली में सिनेमा के बारे
में गंभीरता से विचार उठता था। कुछ अच्छी बातें लिखी जाती थी। अब वहां पर भी गॉसिप
बहुत हो गया है। पहले तो प्रयास हुए हैं ऐसे। बहुत हुए हैं। आज एक बात देखना अजय
साहब गौर से, गुरुदत्त हों, राज कपूर हों, शांताराम जी हों इनके जन्म
दिन आए या मृत्यु के दिन तो हिंदुस्तानी अखबारों में उसका मेंशन होता है। अंग्रेजी
अखबार में कहीं मेंशन नहीं होता है।
- लेकिन फिल्म पत्रकारिता कैसे
सुधर सकती है? और क्या होना चाहिए?
0 फिल्म पत्रकारिता सुधरने के
लिए जो पत्रकार इस व्यवसाय में आना चाहते हैं,
उनको भारतवर्ष
का ज्ञान अध्यन करना चाहिए। डिस्कवरी ऑफ इंडिया पढ़ें और बहुत सारी किताबें हैं
हिंदुस्तान के बारे में। अज्ञेय की किताब है और सारी किताब है। आप जानते हैं सब
किताब के बारे में। आप पहले देश को समझ लो। मेरे कहने का तात्पर्य है कि पहले देश
को समझ लो उसके ओडियेंश को समझ लो। कि उसके अवचेतन में कौन सी भय बैठे हैं। उसके
अवचेतन में कौन सी शब्द हैं। उसकी कमजोरियां क्या है? फिर फिल्म की कहानी में देखिए कि फिल्म के प्रजेंटेशन में
उनका कहीं जिक्र है। या कहां उनको छू रही है। या नहीं छू रही है। इस तरह से लिखी
जाए। मैं तो चाहता हूं कि फिल्मकार हो या फिल्म जर्नलिस्ट हो हिंदुस्तान का इतिहास
बांचना जरूरी है। सांस्कृतिक इतिहास बांचना जरूरी है। मैंने किसी भी फिल्म पढ़ाने
वाले संस्थान में हिंदुस्तान की इतिहास या सांस्कृतिक इतिहास की कोई किताब
लाइब्रेरी में नहीं देखी। कोई किताब नहीं।
- हिंदी की फिल्मों के बारे
में आप क्या कहेंगे। जब से आप लिख रहे हैं तब से बहुत संक्षेप में आप बता दें।
0 बहुत संक्षेप में यह कह रहा
हूं कि लगातार ग्रोथ है। सौ साल में पंद्रह प्रतिशत फिल्म ही बॉक्स ऑफिस पर सफल
रही है। इन पंद्रह प्रतिशत में पांच प्रतिशत फिल्में बहुत सार्थक रही हैं। सार्थक
फिल्मों की संख्या पांचवें दशक में जितने थी उससे कुछ कम आज भी नहीं है। पिछले
दो-चार साल में ‘विकी डोनर’ बना है, ‘कहानी’ बनी है। ‘पान सिंह तोमर’ बनाी है। ‘शांघाई’ बना है। कई फिल्म फिल्में बनी है। तो कोई भी दशक उठा के देखो
अच्छी फिल्मों की संख्या कम ही है। ऐसा नहीं है कि नहीं है। बनी है। क्या पचास साल
पहले ‘विकी डोनर’ पॉसिबल था। नहीं था। क्या ‘कहानी’ पॉसिबल थी। नहीं थी। यार एक ‘कहानी’ का संवाद है - पिक्चर खत्म होने के बाद छह-आठ घंटे तक मेरे
दिमाग नहीं निकला वो। वो लडक़ी महीनों घूमती रही। वो लडक़ी प्रेग्नेंट बनने की नाटक
कर रही है। प्रेग्नेंट तो है नहीं। उसको तो अपने पति के हत्यारे को ढूंढऩा है।
अपने देश की अस्मत लुटी है। सब बदला लेना है। अंत में वह अपने ससुर से कहती है -‘मैंने जो प्रेग्नेंसी का नाटक किया, मुझे लगने लगा कि वो बच्चा मेरे गर्भ में है।’ भाई क्या बात है? ये दिल को हिला देने वाली
बात है। आप प्रेग्नेनसी का नाटक करो तो भी एक बच्चे का भाव, एक ममता आपके हृदय में जाग जाती है। अद्भुत है ऐसी चीजें मुझे
रोमांचित कर देती है। कई फिल्म है। ‘ए वेडनेसडे’ में एक हैकर को पकड़ लाए हैं। ये कहां से बैठकर हमारे को
उंगली कर रहा है। इसके कम्प्यूटर को डी कोड करो। देखिए वो हैकर ड्रॉप आउट है।
कॉलेज के सिस्टम में अनफिट है। लेकिन अपने काम में जीनियस है। वो पांच मिनट में
पकड़ लेता है। लेकिन पकडऩे के बाद बताता नहीं है कि ये देशभक्ति का काम होगा।
कितनी कमाल की बात है। कम्प्यूटर जीनियस जो है वो फॉर्मल एजुकेशन में फेल्योर है। मेरेको
सिनेमा कभी भी निराशाजनक नहीं लगा।
- पाठकों के लिए क्या कहना
चाहेंगे आप?
0 पाठकों को मैं ये कहना
चाहूंगा कि किसी तरह से अपने हृदय में संवेदनाओं का रक्षण करें। आज के जमाने में
जिस तरह से जीवन हो रहा है। उसमें संवेदनहीन प्राणी बनने की आशंकाए मंडरा रही है।
क्योंकि संवेदनाओं का रक्षण किया है हृदय में तो जीवन में बहुत सारी चीजें सरल हो
जाती है। मेरे दृष्टि में जो कुर्सी बना रहा है वो कविता है। जो अच्छी तरह झाड़ू
बुहार रही है क्लीन कर रही है सडक़ को वो कविता कर रही है। मेरे लिए श्रेष्ठ काम
करने का मतलब है कविता करना। तो मेरा संदेश यह होगा पाठकों को कि कविता करें।
कविता पढ़ें। कवि बन जाइए। इसका अर्थ ये कतई नहीं कि आप पोएट्री लिखने लग जाइए।
कवि का मतलब संवेदनशील व्यक्ति। लेखक होने का मतलब जो सहज हो के बात लिख सके। मेरी ताजा किताब का नाम है ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’
ये हिंदी भाषा
में उपलब्ध है और इसका अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है। सवा दो सौ रुपए की किताब है ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’
मौर्या हाउस ने
पब्लिश किया मुंबई का। पाठकों से गुजारिश है ये किताब पढऩे का कष्ट करें।
- आपके फेवरिट कौन लोग रहे हैं
एक्ट्रेस, एक्टर और फिल्में रही हैं?
0 देखिए मेरे फेवरेट
फिल्ममेकर राज कपूर रहे हैं। इसका ये मतलब नहीं कि दिलीप कुमार मुझे पसंद नहीं है।
मैं ‘गंगा जमुना’ को ऑल टाइम फिल्म मानता हूं।
फिल्में मुझे हिंदी में अच्छी लगी है। ‘दो बीघा जमीन’, ‘आवारा’, ‘श्री 402’, ‘जागते रहो’, ‘मदर इंडिया’, ‘प्यासा’, ‘दो आंखें बारह हाथ’ मुझे देव आनंद की ‘गाइड’ मुझे ऑल टाइम अच्छी लगी है। दरअसल फिल्में तो बहुत देखी है और
बहुत फेवरेट भी हैं। लेकिन मेरे को आनंद जो जीवन में आया है वो शंकर-जयकिशन, शैलेन्द्र हसरत, लता मंगेशकर, रफी, मुकेश का आया है। गाने मेरे को
अविस्मणीय लगे हैं। मुझे लगता है जितनी हिंदी सेवा इन लोगों ने की है। मुझे हिंदी में
सबसे अच्छे गीत शैलेन्द्र के लगते हैं। मैं जानता हूं साहिर साहब भी हैं, मजरूह साहब भी हैं, शकील साहब भी हैं। मैं इनकी
कद्र भी करता हूं। शैलेन्द्र से ज्यादा विलक्षण हिंदी सिनेमा में गीतकार नहीं हुआ
है और शंकर जयकिशन का म्यूजिक बहुत ही कमाल की।
- हिंदी सिनेमा की विशेषता अगर
मैं पूछूं तो आपके हिसाब से क्या है? जो दूसरे देशों के फिल्मों
से अलग करता है।
0
‘प्यासा’ एक गंभीर सामाजिक फिल्म था। ‘प्यासा’ एक डाक्यूमेंट है। हिंदुस्तान के कल्चरल पतन का डाक्यूमेंट
है। इस गंभीर फिल्म में एक गाना है ‘सर जो तेरा चकराए या दिल
डूबा जाए, आ जा प्यारे पास हमारे काहे घबराए ’ कॉमेडी है उसमें। ‘मधुमति’ फिल्म एक गाना है ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा? हम
थोड़ी सी पीके बहके सबने ने देखा’ । हमारे गंभीर फिल्म में इस
तरह के गाने हैं। एक बहुत खराब फिल्म है ‘बंडलवाज’ उसमें एक जिन्न है चिराग से निकला हुआ वो शापित जिन्न है उसकी
शक्तियां गायब हो गई छह महीने के लिए। उसको हीरो के साथ पहाड़ पर चढऩा है। जिन्न
का रोल शम्मी कपूर ने प्ले किया। वो बोलता है कि आज मुझे मालूम पड़ा कि आम आदमी बन
के जीना कितना मुश्किल है। एक बहुत खराब फिल्म में दार्शनिक वाक्य है। ‘मधुमति’ और ‘प्यासा’ जैसी फिल्म में जॉनी वॉकर ने
गाना गाया है। जिसकी आप कोई परिभाषा ही नहीं कर सकते हैं आप। कहां आपको क्या मिल
जाएगा इसमें बताना कठिन है। - एकाध चीज अच्छी मिल ही जाती है। यह अद्भुत संसार है।
यह अमेरिका के सिनेमा जैसा नहीं है। जिसमें जॉनर और हॉरर ऐसा नहीं है। हमारे यहां
सब कुछ फिल्म में होता है।
- तो हमें क्या नहीं छोडऩा
चाहिए?
क्योंकि
सिनेमा बदल रहा है, नए टेकनीक, नया प्रस्तुति, सब कुछ आ रहा है। कौन सा ऐसा
सूत्र है,जिसे हमें पकड़ कर रखना चाहिए?
0 जो दिल को छू जाए। ‘विकी डोनर’ इसलिए पसंद नहीं है कि उसके
कथानक बोल्ड है। उसमें दो बूढ़ी औरतें, सास और बहू वो दिन में दुशमन
है एक-दूसरे का। वो रात में साथ बैठ कर शराब पीती है और एक-दूसरे के साथ प्रेम का
आना हो जाता है? ये जो हयुमन बीज है मनुष्य अपनी कमजोरियों के बीच में अपनी
करुणा और संवेदना को सहेजता हुआ मनुष्य इसको कोट करे। ये ज्यादा अच्छा है। मैं तो
यही ढूंढ़ता हूं सिनेमा में कि दिल को क्या छू रहा है? मुझे तकनीक-वकनीक कुछ प्रभावित नहीं करता है। मैं तो समझता भी
नहीं हूं। मैं इतने सालों से फिल्मों के बारे में लिख रहा हूं, लेकिन मैं कोई तकनीकी बात बता नहीं सकता हूं। शॉट कैसा लिया
गया है।
- इसकी वजह क्या रही होगी? शुरू में तीन लोग दिखते थे, त्रयी
हैं वो - राज साहब, देव साहब और दिलीप साहब। उसके बाद
अमिताभ चलते हैं। बाकी लोग का भी कंट्रीब्यूशन है। लेकिन अमिताभ का एक फेज चलता
है। फिर उसके बाद फिर तीन खान आ जाते हैं। फिर से त्रयी आ जाते हैं। इन तीनों
खानों के चलने की वजह क्या है? जो ये पिछले बीस साल से टिके
हुए है?
0 जो वजह पहली त्रयी की है, राज कपूर, देव आनंद, दिलीप साहब। वे आज भी टिके हुए है। वे मरने के बाद भी टिके हैं।
आज भी मुझे रात को बारह बजे ‘गाइड’ दे दो तो तीन बजे तक
वगैर पलक झपकाए देखता रहूंगा। ‘प्यासा’ दे दो तो मैं हिलता नहीं अपनी जगह से। ये वो जो तीनों लोग हैं
फिल्मकार भारतीय हृदय को छूती है। और वही बात इन तीनों खानों में कहीं न कहीं है।
सलमान आम आदमी की अपनी कमजोरियों को पूरे ईमानदारियो के साथ निर्वाह करना। शाहरुख
अपने ढंग से करता है। आमिर अपने ढंग से करता है। कोई एक्टर बीस साल, बाईस साल पॉपुलर रहे वो गिमिक नहीं हो सकता है। न प्रचार से
हो सकता है। प्रचार से दो-तीन साल निकाल लोगे और क्या हो सकता है। और ये लोग मासेस
के हीरो हैं। ये फिल्म इंडस्ट्री बहुत ही अदभुत संसार है। नासिर हुसैन साहब ने
सारी जिंदगी व्यावसायिक फिल्में बनाई। फार्मूला फिल्म। सिंपली फार्मूला फिल्म।
नासिर हुसैन साहब के बारे में हमारे दिमाग में एक खाका उभरता है। वो एक व्यावसायिक
आदमी है। व्यावहारिक आदमी है जिसने बड़े पैसे कमाए। उनका बेटा मंसूर हुर्सन, उसने
करोड़ों रूपए की संपत्ति पाली हिल में अपनी बहन को दे दी और वो दक्षिण भारत की
किसी कोने में रहता है। जहां कोई सुविधा नहीं है। उसने नर्मदा बांध के ऊपर एक किताब
लिखी है।चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ लडक़ा। जो करोड़ों में खेला है। उसको आम आदमी
के प्रति संवेदना कितनी गहरी है। उसने गरीबों के दर्द के बारे में सोचा। बंगला
अपने बहन को दिया। एक छोटे से मकान में रहता है ओरगेनिक खेती करता है। खुद काम
करता है। यह समझ में आता है? क्या नासिर हुसैन साहब का
बेटा ऐसा करेगा।
- सलमान के व्यक्तित्व का पूरा
रहस्य और पहेली क्या है? आप उनके करीब हैं। सलमान को
परिभाषित या उद्घाटित कर सकते हैं?
0 सलमान खान जो है न वो हातिमताई
है। ‘नेकी कर दरिया में डाल’ वाला। हातिमताई का सात सवाल कीजिए आप तो सलमान के चरित्र के
बारे में समझ जाएंगे। वो मनमौजी आदमी है। जो उसको मन में आता है बोल देता है। जो
मन में आता है कर देता है। उसको अपने अच्छे-बुरे का भी ध्यान नहीं है। उसने अपना
नुकसान भी बहुत किया है। उसने कई उलटे-सीधे फिल्म साईन किया है। मजरूह साहब का
बेटा आया उसने कहा कि आप मेरी फिल्म साइन कर लोगे तो मुझे रोजगार मिल जाएगा। उसने
ये सोचा भी नहीं कि फ्लॉप फिल्म बनाएगा तो इसमें मेरा क्या होगा? वो नहीं सोचता है। न पहले सोचता था, न आज सोचता है। जो उसके मन को अच्छा लगता है वो करता है। ये
मन के मुताबिक चल पाना जीवन में ये कितना मुश्किल काम है। कितने लोग कर पाते हैं? वो तो जैसा है, वैसा उजागर हो जाता है। अच्छा
वो बॉडी बिल्डिंर है। ऐसा उसने पॉपुलर एक्टर बनने के लिए किया है, ऐसा है नहीं। उसको अच्छा लगता है इसलिए किया है उसने। उसको मजा आता है उसमें। आप
उसके मन के खिलाफ कुछ भी उससे नहीं करा सकते हैं। वह खुदा को मानता है तो खुदा भी
दिल को नीचे बनाया है और दिमाग को ऊपर बनाया है। अगर आप ऐसा भी उससे कह देंगे तो
वो कह देगा कि कंधों की जो तुला इसके बैलेंस के लिए दिमाग बनाया है। शायद वो ऐसा
कह दे। वो मूडी आदमी है। वो कब किस बात से प्रसन्न है और कब किस बात नाराज है, समझ में नहीं आता है। पर वो अपनी तरफ से किसी को नुकसान करने
की कोशिश नहीं करता है। अगर वो नाराज भी होता है तो नुकसान नहीं करता है। मैंने उस
से एक बार रिकमेंड किया था कि एक जर्नलिस्ट आउट ऑफ जॉब है। उसका हस्बैंड से भी डिवॉर्स
हो गया है। वो बहुत तकलीफ में है। आप अगर रिकमेंड कर देंगे तो उसको जॉब मिल सकती
है। उसके साथ रहने वाले जो लोग थे वो बोले कि भाई इसकी कोई रिकमेंड मत करना। ये
जर्नलिस्ट है वो आपके खिलाफ बहुत लिखा है। जो उसके खिलाफ लिखता है,उसको पसंद नहीं
करता है। आज वो तकलीफ में है। मेरे दो शब्द कह देने से उसको नौकरी मिल सकती है तो
उसमें मेरा क्या जाता है? तो उसने कर दिया। इस तरह का आदमी
है वो। उस जर्नलिस्ट का नाम नहीं लूंगा। वो जर्नलिस्ट अभी भी एक्टिव है। इस तरह का
लोग है सलमान।
- चलिए धन्यवाद...
0 बस यार बहुत हो गया...
Comments
.... REALY....RARE...
...Open-Hearted...Talks...
...Regards....