फिल्म समीक्षा : शिप ऑफ थीसियस
-अजय ब्रह्मात्मज
आनंद गांधी की 'शिप ऑफ थीसियस' अवांगार्द फिल्म है। उन्होंने जीवन के कुछ पहलुओं को दार्शनिक अंदाज में पेश करने के साथ प्रश्न छोड़ दिया है। यह प्रश्न मनुष्य के जीवन,जीजिविषा और अनुत्तरित प्रसंगों को टच करता है। फिल्मों में कला की अपेक्षा रखने वाले दर्शकों के लिए किरण राव की यह कलात्मक सौगात है। दृश्यबंध और संरचना, शिल्प और मूर्त्तन एवं प्रस्तुति में आनंद गांधी हिंदी आर्ट फिल्म निर्देशकों की परंपरा से जुड़ते हैं। उनकी यह साहसिक कोशिश प्रशंसनीय है, क्योंकि फिलहाल हिंदी सिनेमा 'एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट' का पर्याय बन चुका है।
आनंद गांधी ने बीच की राह चुनने का प्रयत्न नहीं किया है। अपनी शैली में वे कलाप्रवृत्त हैं। दर्शकों को रिझाने या बहलाने के लिए इस फिल्म में कुछ भी नहीं है। मूलत: तीन कहानियों को एक सूत्र से जोड़ती यह फिल्म मानव की अस्मिता, अस्तित्व और अस्तित्ववादी प्रश्नों से जूझती है।
आलिया, मैत्रेय और नवीन की कहानी हम देखते हैं। फिल्म के अंत में पता चलता है कि पात्र तो और भी हैं, जिनकी कहानियां अनसुनी रह गई। नित बदल रहे इस संसार में मनुष्य भी तो बदल रहा है। थिर कुछ भी नहीं है,लेकिन सब कुछ अस्थिर भी नहीं है।
थीसियस के जहाज का पुर्जा-पुर्जा बदल देने के बाद यह सवाल उठा था कि क्या यह अब भी थीसियस का जहाज है और क्या उन सभी पुर्जो को जोर नया जहाज बना दिया जाए तो वह थीसियस का ही जहाज होगा? हम अपने जीवन में भाव, विचार और अंग प्रत्यारोपण करते हैं। क्या हम इस प्रक्रिया के बाद वही के वही रहते हैं या कोई नया स्वरूप ले लेते हैं? यदि नया स्वरूप लेते हैं तो क्या उसे मूल की संज्ञा दी जा सकती है?
आनंद गांधी की 'शिप ऑफ थीसियस' तेज रफ्तार दृश्यों के आदी दर्शकों को पसंद नहीं आएगी। इस फिल्म के रसास्वादन के लिए धैर्य और समर्पण आवश्यक है। 'फास्ट एंड फन' केशौकीन दर्शकों को भी यह फिल्म देखनी चाहिए कि स्लो, स्थिर और सौंदर्य के मिश्रण से सृजित कृति कैसा आनंद देती है?
अवधि -140 मिनट
***1/2 साढ़े तीन स्टार
आनंद गांधी की 'शिप ऑफ थीसियस' अवांगार्द फिल्म है। उन्होंने जीवन के कुछ पहलुओं को दार्शनिक अंदाज में पेश करने के साथ प्रश्न छोड़ दिया है। यह प्रश्न मनुष्य के जीवन,जीजिविषा और अनुत्तरित प्रसंगों को टच करता है। फिल्मों में कला की अपेक्षा रखने वाले दर्शकों के लिए किरण राव की यह कलात्मक सौगात है। दृश्यबंध और संरचना, शिल्प और मूर्त्तन एवं प्रस्तुति में आनंद गांधी हिंदी आर्ट फिल्म निर्देशकों की परंपरा से जुड़ते हैं। उनकी यह साहसिक कोशिश प्रशंसनीय है, क्योंकि फिलहाल हिंदी सिनेमा 'एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट' का पर्याय बन चुका है।
आनंद गांधी ने बीच की राह चुनने का प्रयत्न नहीं किया है। अपनी शैली में वे कलाप्रवृत्त हैं। दर्शकों को रिझाने या बहलाने के लिए इस फिल्म में कुछ भी नहीं है। मूलत: तीन कहानियों को एक सूत्र से जोड़ती यह फिल्म मानव की अस्मिता, अस्तित्व और अस्तित्ववादी प्रश्नों से जूझती है।
आलिया, मैत्रेय और नवीन की कहानी हम देखते हैं। फिल्म के अंत में पता चलता है कि पात्र तो और भी हैं, जिनकी कहानियां अनसुनी रह गई। नित बदल रहे इस संसार में मनुष्य भी तो बदल रहा है। थिर कुछ भी नहीं है,लेकिन सब कुछ अस्थिर भी नहीं है।
थीसियस के जहाज का पुर्जा-पुर्जा बदल देने के बाद यह सवाल उठा था कि क्या यह अब भी थीसियस का जहाज है और क्या उन सभी पुर्जो को जोर नया जहाज बना दिया जाए तो वह थीसियस का ही जहाज होगा? हम अपने जीवन में भाव, विचार और अंग प्रत्यारोपण करते हैं। क्या हम इस प्रक्रिया के बाद वही के वही रहते हैं या कोई नया स्वरूप ले लेते हैं? यदि नया स्वरूप लेते हैं तो क्या उसे मूल की संज्ञा दी जा सकती है?
आनंद गांधी की 'शिप ऑफ थीसियस' तेज रफ्तार दृश्यों के आदी दर्शकों को पसंद नहीं आएगी। इस फिल्म के रसास्वादन के लिए धैर्य और समर्पण आवश्यक है। 'फास्ट एंड फन' केशौकीन दर्शकों को भी यह फिल्म देखनी चाहिए कि स्लो, स्थिर और सौंदर्य के मिश्रण से सृजित कृति कैसा आनंद देती है?
अवधि -140 मिनट
***1/2 साढ़े तीन स्टार
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