दरअसल : टूटते-जुड़ते सपनों की कहानियां
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले हफ्ते राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘भाग मिल्खा भाग’ आई। उसके एक हफ्ते पहले विक्रमादित्य मोटवाणी की ‘लुटेरा’ आई थी। थोड़ा और पीछे जाएं तो पिछले साल तिग्मांशु धूलिया की ‘पान सिंह तोमर’ भी है। तीनों फिल्मों में एक जबरदस्त समानता है। तीनों ही फिल्मों में भारतीय समाज के छठे दशक की कहानियां हैं। यह दशक भारतीय इतिहास में नेहरू युग के नाम से भी जाना जाता है। देश की आजादी के साथ अनेक सपने जागे थे और उन सपनों ने लाखों नागरिकों की महत्वाकांक्षाओं को जगा दिया था। ऐसे ही चंद युवकों में वास्तविक पान सिंह तोमर और मिल्खा सिंह थे तो काल्पनिक वरुण श्रीवास्तव भी था। तीनों को एक कतार में नहीं रख सकते, लेकिन तीनों छठे दशक के प्रतिनिधि चरित्र हैं। संयोग से पहले दो की पृष्ठभूमि में फौज और खेल का मैदान है। हां, तीसरा ठग है, लेकिन वह भी उसी दशक का एक प्रतिनिधि है।
समाज और सिनेमा पर नेहरू युग के प्रभाव पर समाजशास्त्री और चिंतक विमर्श करते रहे हैं। नेहरू ने समाजवादी सोच के साथ देश के उत्थान और विकास की कल्पना की थी। उनकी कल्पनाएं साकार हुईं, लेकिन उनके जीवन काल में ही स्वप्नभंग का भी दौर शुरू हो गया था। आजादी के साथ जुड़े सपने सच्चाइयों से टकराकर चकनाचूर हो रहे थे। नेहरू युग से मोहभंग की प्रक्रिया उसी समय आरंभ हो गई थी। मिल्खा सिंह और पान सिंह तोमर की कहानियां उसी दौर के सपनों के बनने और टूटने के बीच की हैं। गौर करें तो छठे दशक के सिनेमा भी निराशा और हताशा का चित्रण मिलता है। गुरुदत्त समेत अनेक फिल्मकार स्वप्नभंग की कहानियां सुना रहे थे। उनके चरित्र काल्पनिक थे, लेकिन उन चरित्रों की कल्पना वास्तविक थी।
उस दौर की आशा और निराशा से अलग इस दौर में बन रही छठे दशक की फिल्मों के समाज और चरित्र का स्वभाव और चित्रण है। अब हम उस दौर के वास्तविक किरदारों को देख पा रहे हैं। साहित्य और सिनेमा में कभी भी समकालीन चरित्रों और नायकों की कथा नहीं रहती। उनकी प्रेरणा और प्रभाव से चरित्र गढ़े जाते हैं। कुछ दशकों के बाद जब कोई साहित्यकार और फिल्मकार अपने समाज की दुविधाओं के हल खोजने निकलता तो है वह निकट अतीत की यात्रा करता है। अतीत की इस यात्रा में ही उसे अपने भावों के अनुरूपों किरदार मिलते हैं। मुझे तो सुधीर मिश्र, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, तिग्मांशु धूलिया, अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवाणी की फिल्मों में गुरुदत्त और बिमल राय की सृजनात्मक छटपटाहट ही दिखती है। इस दृष्टिकोण से युवा फिल्मकारों पर विचार करना शायद जल्दबाजी होगी, लेकिन उनकी फिल्मों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए हमें अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा।
इन दिनों मास मीडिया के स्कूलों और विश्वविद्यालयों में सिनेमा के सामाजिक अध्ययन हो रहे हैं। किसी शोधार्थी और विशेषज्ञ को आज की फिल्मों का राजनीतिक अध्ययन भी करना चाहिए। हालांकि चार दशक पहले की राजनीतिक प्रतिबद्धता आज के फिल्मकारों में नहीं मिलती। सोच के स्तर पर उनके अराजनीतिक घोषणाओं के बावजूद हमें उनकी फिल्मों में राजनीति परिलक्षित होती है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि मनुष्य आखिरकार राजनीतिक प्राणि है। हिंदी फिल्मों में एक तरफ मसाला एंटरटेनमेंट फिल्में बन और चल रही हैं तो दूसरी तरफ ऐसे फिल्मकार भी सक्रिय हैं जो राजनीतिक चेतना के साथ सामाजिक फिल्में बना रहे हैं।
‘भाग मिल्खा भाग’ देखने के बाद आए इन विचारों की जमीन अभी कच्ची है। छठे दशक या नेहरू युग पर बनी कुछ फिल्मों के सिलसिलेवार दर्शन और अध्ययन के बाद हम कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
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