छोटे शहरों में ही मेरे किरदारों को सांस मिलती है-आनंद राय
छोटे शहरों में ही मेरे किरदारों को सांस मिलती है-आनंद राय
-अजय ब्रह्मात्मज
आनंद राय की अगली फिल्म ‘रांझणा’ में ए आर रहमान का संगीत है। गीत इरशाद कामिल ने लिखे हैं। अभी तक जारी हुए तीन गानों में श्रोताओं को बनारस की लय,्र मधुरता और गेयता दिख रही है। आनंद राय ने इस फिल्म की प्लानिंग के समय ही गीत और संगीत के बारे में सोच लिया था। फिल्म की जरूरत को ध्यान में रखते हुए उन्होंने ‘तनु वेडस मनु’ की म्यूजिकल टीम को नहीं दोहराया। आनंद राय एआर रहमान के साथ काम का हतप्रभ और खुश हैं। आरंभ में फिल्म में छह गानों की बात सोची गई थी, लेकिन आनंद राय कहते हैं, ‘रहमान सर के साथ काम करते हुए मैंने पाया कि आप गिन कर गाने नहीं रख सकते। मैं उनके साथ थीम की बात करता हूं तो वह भी गाने का रूप ले लेता है। फिल्म में वैसे छह गाने दिखाई पड़ेंगे, लेकिन अलबम में आठ गाने और दो थीम हैं। रहमान सर के आने के साथ हर फिल्म म्यूजिकल हो जाती है।’
‘रांझणा’ के प्रोमो के आने के साथ ‘मोहल्ला अस्सी’ के निर्देशक डॉ . चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने कहा था, ‘अब मेरी फिल्म की नवीनता खत्म हो गई। बनारस के रंग और ढंग को ‘रांझणा’ ने अच्छी तरह पकड़ा है।’ आनंद राय उनकी इस प्रतिक्रिया से खुश होते हैं और कहते हैं, ‘मैं ‘रांझणा’ में बनारस की धडक़न और इंसान को पकडऩा चाहता था। वहां का एटीट्यूड फिल्म में लाना था। मुझे दीवारों, गलियों और मंदिरों से अधिक आदमी को समझना था। अगर मैं बनारस के आदमी को दिखा पाया तो खुद को सफल मानूंगा।’ वे आगे कहते हैं, ‘मैं दिल्ली में पला-बढ़ा। मुंबई में मैंने काम किया। इन दोनों शहरों को जानता हूं। लखनऊ और बनारस जैसे शहरों के बारे में हम सभी ने धारणाएं बना रखी है। मैं महसूस करता हूं कि अभी हिंदुस्तान की आत्मा ऐसे ही शहरों में बसती है। ‘तनु वेड्स मनु’ के समय मैं लखनऊ और कानपुर गया। इस बार बनारस गया हूं, क्योंकि मेरे किरदारों का देसीपन ऐसे शहरों की पृष्ठभूमि में ही उभरता है। यकीन करें कि इन किरदारों को मुंबई या दिल्ली में रखूंगा तो वे करप्ट और चिप्पी लगेंगे। कुंदन और जोया बनारस के ही हो सकते हैं।’
‘रांझणा’ के प्रमुख किरदारों में कुंदन का किरदार धनुष निभा रहे हैं। आनंद राय के शब्दों में, ‘धनुष का किरदार मेरे लिए बनारस है। वह मेरे ख्याल में बनारस के हर व्यक्ति में एक भोले हैं। कुंदन भी एक भोले है। सबकी अपनी परिभाषा है। खुश होने पर सब न्योछाबर कर देता है। दर्द झेलने की अपार क्षमता है उसमें। प्यार देने की बेइंतहा इच्छा है उसमें। जोया मेरे लिए हर पीढ़ी की वह लडक़ी है, जो हमारे साथ तो रहती है, लेकिन होती है कहीं और की। जोया है तो बनारस में, लेकिन वह उस शहर की हद से बाहर की है। शहर उसके लिए छोटा हो गया है। वह हमेशा यह एहसास देगी कि कभी भी यह लडक़ी शहर छोड़ देगी। अभय देओल में बड़प्पन है। वह लोगों के बारे में सोचता है। वह स्वार्थरहित है, लेकिन दोषरहित नहीं है। वह मुकम्मल इंसान का एहसास देता है। जेएनयू में पढ़ता है। वह हमेशा दूसरों के बारे में सोचता है। खुले दिल का लडक़ा है, जिसे सभी प्यार करते हैं।’
‘रांझणा’ बनारस की कहानी है। बनारस की धडक़नों के साथ। इस शहर में कुंदन है। घाट और मंदिर के आसपास पला-बढ़ा। 14 की उम्र से वह डमरू बजा रहा है। जोया बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिस्ट्री के प्रोफेसर की लडक़ी है। इस फिल्म में बनारस की तरह जेएनयू भी एक किरदार है। शहर और कैंपस के एटीट्यूड को आनंद राय ने फिल्म में उतारने की पूरी कोशिश की है। किरदारों की बदलती सोच को दिखाने के लिए जेएनयू का प्रतीकात्मक इस्तेमाल किया गया है। आनंद राय की फिल्मों में छोटे शहरों में लौटती हैं। इस संबंध में वे कहते हैं, ‘मुझे अपने किरदारों को इन शहरों में सांस मिलती है। अपनी कहानियों और किरदारों की मासूमियत के लिए वहां का माहौल जरूरी लगता है। मैं मुंबई का आनंद राय बनारस, कानपुर या लखनऊ पहुंचते ही बदल जाता हूं। यह इन शहरों की खासियत है कि वे आप के चेहरे से नकाब उतार देते हैं।’
-अजय ब्रह्मात्मज
आनंद राय की अगली फिल्म ‘रांझणा’ में ए आर रहमान का संगीत है। गीत इरशाद कामिल ने लिखे हैं। अभी तक जारी हुए तीन गानों में श्रोताओं को बनारस की लय,्र मधुरता और गेयता दिख रही है। आनंद राय ने इस फिल्म की प्लानिंग के समय ही गीत और संगीत के बारे में सोच लिया था। फिल्म की जरूरत को ध्यान में रखते हुए उन्होंने ‘तनु वेडस मनु’ की म्यूजिकल टीम को नहीं दोहराया। आनंद राय एआर रहमान के साथ काम का हतप्रभ और खुश हैं। आरंभ में फिल्म में छह गानों की बात सोची गई थी, लेकिन आनंद राय कहते हैं, ‘रहमान सर के साथ काम करते हुए मैंने पाया कि आप गिन कर गाने नहीं रख सकते। मैं उनके साथ थीम की बात करता हूं तो वह भी गाने का रूप ले लेता है। फिल्म में वैसे छह गाने दिखाई पड़ेंगे, लेकिन अलबम में आठ गाने और दो थीम हैं। रहमान सर के आने के साथ हर फिल्म म्यूजिकल हो जाती है।’
‘रांझणा’ के प्रोमो के आने के साथ ‘मोहल्ला अस्सी’ के निर्देशक डॉ . चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने कहा था, ‘अब मेरी फिल्म की नवीनता खत्म हो गई। बनारस के रंग और ढंग को ‘रांझणा’ ने अच्छी तरह पकड़ा है।’ आनंद राय उनकी इस प्रतिक्रिया से खुश होते हैं और कहते हैं, ‘मैं ‘रांझणा’ में बनारस की धडक़न और इंसान को पकडऩा चाहता था। वहां का एटीट्यूड फिल्म में लाना था। मुझे दीवारों, गलियों और मंदिरों से अधिक आदमी को समझना था। अगर मैं बनारस के आदमी को दिखा पाया तो खुद को सफल मानूंगा।’ वे आगे कहते हैं, ‘मैं दिल्ली में पला-बढ़ा। मुंबई में मैंने काम किया। इन दोनों शहरों को जानता हूं। लखनऊ और बनारस जैसे शहरों के बारे में हम सभी ने धारणाएं बना रखी है। मैं महसूस करता हूं कि अभी हिंदुस्तान की आत्मा ऐसे ही शहरों में बसती है। ‘तनु वेड्स मनु’ के समय मैं लखनऊ और कानपुर गया। इस बार बनारस गया हूं, क्योंकि मेरे किरदारों का देसीपन ऐसे शहरों की पृष्ठभूमि में ही उभरता है। यकीन करें कि इन किरदारों को मुंबई या दिल्ली में रखूंगा तो वे करप्ट और चिप्पी लगेंगे। कुंदन और जोया बनारस के ही हो सकते हैं।’
‘रांझणा’ के प्रमुख किरदारों में कुंदन का किरदार धनुष निभा रहे हैं। आनंद राय के शब्दों में, ‘धनुष का किरदार मेरे लिए बनारस है। वह मेरे ख्याल में बनारस के हर व्यक्ति में एक भोले हैं। कुंदन भी एक भोले है। सबकी अपनी परिभाषा है। खुश होने पर सब न्योछाबर कर देता है। दर्द झेलने की अपार क्षमता है उसमें। प्यार देने की बेइंतहा इच्छा है उसमें। जोया मेरे लिए हर पीढ़ी की वह लडक़ी है, जो हमारे साथ तो रहती है, लेकिन होती है कहीं और की। जोया है तो बनारस में, लेकिन वह उस शहर की हद से बाहर की है। शहर उसके लिए छोटा हो गया है। वह हमेशा यह एहसास देगी कि कभी भी यह लडक़ी शहर छोड़ देगी। अभय देओल में बड़प्पन है। वह लोगों के बारे में सोचता है। वह स्वार्थरहित है, लेकिन दोषरहित नहीं है। वह मुकम्मल इंसान का एहसास देता है। जेएनयू में पढ़ता है। वह हमेशा दूसरों के बारे में सोचता है। खुले दिल का लडक़ा है, जिसे सभी प्यार करते हैं।’
‘रांझणा’ बनारस की कहानी है। बनारस की धडक़नों के साथ। इस शहर में कुंदन है। घाट और मंदिर के आसपास पला-बढ़ा। 14 की उम्र से वह डमरू बजा रहा है। जोया बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिस्ट्री के प्रोफेसर की लडक़ी है। इस फिल्म में बनारस की तरह जेएनयू भी एक किरदार है। शहर और कैंपस के एटीट्यूड को आनंद राय ने फिल्म में उतारने की पूरी कोशिश की है। किरदारों की बदलती सोच को दिखाने के लिए जेएनयू का प्रतीकात्मक इस्तेमाल किया गया है। आनंद राय की फिल्मों में छोटे शहरों में लौटती हैं। इस संबंध में वे कहते हैं, ‘मुझे अपने किरदारों को इन शहरों में सांस मिलती है। अपनी कहानियों और किरदारों की मासूमियत के लिए वहां का माहौल जरूरी लगता है। मैं मुंबई का आनंद राय बनारस, कानपुर या लखनऊ पहुंचते ही बदल जाता हूं। यह इन शहरों की खासियत है कि वे आप के चेहरे से नकाब उतार देते हैं।’
इस फिल्म की कल्पना और योजना के बारे में पूछने पर आनंद राय स्पष्ट करते हैं, ‘मैं चालीस पार का चुका हूं। अभी कॉफी सेंटर में बैठने पर मुझे अगली जेनरेशन दिखाई पड़ती है। यह पीढ़ी ईमानदार और दो टूक है। मैं उन्हें समझने की कोशिश करता हूं। सारी अच्छाइयों के बावजूद उनके रिलेशनशिप में एक छिछोरापन है। उनका दिल टूटता है तो दो कप कॉफी और दो दिन बीतने के बाद किसी और से जुड़ जाता है। जिंदगी आगे बढ़ जाती है। इनका प्यार और विछोह क्येां इतना झणभंगुर है। मोहब्बत के दर्द का वे आनंद क्यों नहीं ले पा रहे हैं? मैं कुंदन और जोया के बहाने एक ऐसा प्रेम दिखा रहा हूं, जो बड़े शहरों से गायब है। छोटे शहरों में सात सालों से किसी के पीछे घूम रहे हैं और जब हाथ पकड़ा तो वह सबसे बड़ा दिन बन गया। ऐसे प्यार के बारे में मैट्रो के युवा सोच ही नहीं सकते। छोटे शहरों और कस्बों में प्यार के लिए आप अपनी औकात भी लांघ जाते हैं। कुंदन और जोया का प्यार ऐसा ही है। वह बनारसी प्यार है।’
Comments