फिल्‍म समीक्षा : रांझणा

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
अगर आप छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में नहीं रहे हैं तो 'रांझणा' का कुंदन बेवकूफ और बच्चा लगेगा। उसके प्रेम से आप अभिभूत नहीं होंगे। 21वीं सदी में ऐसे प्रेमी की कल्पना आनंद राय ही कर सकते थे। उसके लिए उन्होंने बनारस शहर चुना। मुंबई और दिल्ली के गली-कूचों में भी ऐसे प्रेमी मिल सकते हैं, लेकिन वे ऊिलहाल सिनेमा की नजर के बाहर हैं। बनारस को अलग-अलग रंग-ढंग में फिल्मकार दिखाते रहे हैं। 'रांझणा' का बनारस अपनी बेफिक्री, मस्ती और जोश के साथ मौजूद है। कुंदन, जोया, बिंदिया, मुरारी, कुंदन के माता-पिता, जोया के माता-पिता और बाकी बनारस भी गलियों, मंदिरों, घाट और गंगा के साथ फिल्म में प्रवहमान है। 'रांझणा' के चरित्र और प्रसंग के बनारस के मंद जीवन की गतिमान अंतर्धारा को उसकी चपलता के साथ चित्रित करते हैं। सिनेमा में शहर को किरदार के तौर पर समझने और देखने में रुचि रखने वाले दर्शकों के लिए 'रांझणा' एक पाठ है। फिल्म में आई बनारस की झलक सम्मोहक है।
'रांझणा' कुंदन और जोया की अनोखी असमाप्त प्रेम कहानी है। बचपन में ही कुंदन की दुआ जोया की नमाज में पूरी होती दिखती है। पहली झलक में ही जोया उसे प्रिय लगने लगती है। उम्र बढ़ने के साथ 16 थप्पड़ों के बाद भी कुंदन उसे रिझा नहीं पाता तो भावावेश में उसके सामने कलाई काट लेता है। किशोरी जोया उसके भावातिरेक को समझ नहीं पाती। वह उसके गले लग जाती है। कुंदन के एकतरफा प्यार के लिए यह स्वीकृति है, जबकि जोया की अनायास प्रतिक्रिया.. बहरहाल, खबर जोया के पिता तक पहुंचती है। जोया पहले अपनी फूफी के पास अलीगढ़ भेज दी जाती है। वहां से आगे की पढ़ाई के लिए वह जेएनयू चली जाती है। इधर बनारसी आशिक अपनी जोया के इंतजार में दिन गुजार रहा है। जेएनयू से जोया लौटती है तो फिर से मुलाकातें होती हैं। जोया बातों ही बातों में उसे अपने जेएनयू के प्रेमी के बारे में बता देती है। यहां से 'रांझणा' हिंदी फिल्मों की आम प्रेम कहानी नहीं रह जाती है।
कबीर से लेकर अनेक कवियों ने प्रेम, प्यार, मोहब्बत की भावनाओं को अलग-अलग रूपों और शब्दों में व्यक्त किया है। कुंदन के प्रेम के लिए कबीर की यह पंक्ति उचित होगी, 'प्रेम पियाला जो पिए, शीश दक्षिणा देय।' कुंदन अपनी जोया के लिए किसी हद तक जा सकता है। दुनियावी अर्थो में वह व्यावहारिक और समझदार नहीं है। उसे तो जोया के प्यार की धुन ल“ी है। वह उसी में रमा रहता है। अपने दोस्त मुरारी को मुसीबतों में डालता है और बचपन की दोस्त बिंदिया के प्रेम की परवाह नहीं करता। जोया को हासिल करना उसका लक्ष्य नहीं है। उसके प्रेम के विचित्र लक्षण हैं। उसका दिल सीने के बीच में अटक गया है, इसलिए उसे बाएं या दाएं दर्द महसूस नहीं होता।
आनंद राय ने बहुत खूबसूरती और सोच से कुंदन के चरित्र को गढ़ा है। बाकी किरदारों में भी उनकी सोच झलकती है, लेकिन कुंदन अप्रतिम है। कुंदन के स्वभाव को समझने के लिए इस नाम के शाब्दिक और लाक्षणिक अर्थ को भी समझना होच्च। हिंदी फिल्मों में नायक का इतना उपयुक्त नाम लंबे समय के बाद सुनाई पड़ा है। यह नाम ही उसके चरित्र का बखान कर देता है। 'तपे सो कुंदन होय'.. पवित्र धातु सोना भी आग में तपने के बाद कुंदन कहलाता है। इस लिहाज से नायक वर्तमान समाज में प्यार में तपा कुंदन है। वह अपने व्यवहार और कार्य से इसे सिद्ध करता है। 'रांझणा' की प्रेमकहानी शब्दों में नहीं बांधी जा सकती, क्योंकि कुंदन, जोया, अकरम, मुरारी, बिंदिया समेत अन्य किरदारों के भावोद्रक और अभिव्यक्ति का वर्णन मुश्किल है। फिल्म देख कर ही उन्हें समझा जा सकता है। रसास्वादन लिया जा सकता है।
जेएनयू के छात्र जीवन, राजनीति और अकरम के चरित्र में आनंद राय ने सरलीकरण से काम लिया है। छात्र राजनीति और जेएनयू के छात्र जीवन से वाकिफ दर्शकों के लिए ये घटनाएं अपेक्षाकृत सिनेमाई आजादी के सहारे गढ़ी गई है। आनंद राय का उद्देश्य छात्र राजनीति में गहरे उतरना भी नहीं था। उन्होंने एक संदर्भ लिया है, लेकिन उसके विवरण और चित्रण में वे धारणाओं पर निर्भर रहे हैं। फिल्म का यह प्रसंग थोड़ा खिंचता भी है, लेकिन काल्पनिक और अवास्तविक होने के बावजूद 'रांझणा' की मूल कहानी को प्रभावकारी बना देता है। इन दृश्यों में ही बनारस का पंडितपुत्र सघन प्रेमी के रूप में उभरता है। प्रेम में तपता और फिर कुंदन की तरह दमकता है।
कुंदन की भूमिका में धनुष का चुनाव आनंद राय की सबसे बड़ी कुशलता है। धनुष की निर्मल और स्वच्छ अभिनय कुंदन के किरदार को प्रिय और विश्वसनीय बना देता है। सोनम कपूर अपनी सीमाओं में बेहतरीन अभिनय कर पाई हैं। पटकथा और निर्देशक की मदद मिली है। मुरारी और बिंदिया की छोटी भूमिकाओं में आए मोहम्मद जीशान अयूब और स्वरा भास्कर इस फिल्म को आवश्यक बनारसी कलेवर देते हैं। कुमुद मिश्रा और विपिन शर्मा भी उल्लेखनीय योगदान करते हैं।
'रांझणा' के गीत-संगीत में बनारस की लय है। इरशाद कामिल ने “ीतों में अमीर खुसरो की शैली में मुकरियों और पहेलियों का भावपूर्ण प्रयोग किया है। ध्यान से सुनें तो “ीतों के भाव मर्मस्पर्शी और अर्थपूर्ण हैं। ए आर रहमान ने अपनी धुनों और ध्वनियों में विषय के अनुकूल प्रयोग और आयोजन किया है।
'रांझणा' के लेखक हिमांशु शर्मा को अतिरिक्त धन्यवाद। उन्होंने बनारस के रंग, तंज, तेजाबी प्रवृति और चरित्रों को दृश्यों ,शब्दों और संवादों में तीक्ष्णता से उतारा है।
अवधि-141 मिनट
**** चार स्टार

Comments

Unknown said…
वाह उस्ताद
बड़े दिनों बाद इतनी सधी फिल्म समीक्षा पढने को मिली.
सच कहूँ तो आपने भी शायद बड़े दिनों बाद दिल से इतना बेहतरीन लिखा होगा.
पिछली कई समीक्षाओं को पढने के बाद थोड़ी निराशा हो रही थी पर इस बार राँझना की समीक्षा पढने के बाद लगा की उस्ताद तो आप ही हो
बाकि तो घास ही घास है.
बस यही कहूँगा कि आपकी समीक्षा पढ़ के मजा आ गया.
फिल्म तो देख के ही पता चलेगी की कैसी लगती है .
hariom rajoria said…
आपकी पोस्ट पढने के बाद यह फिल्म देखी । निर्देशक के पास राजनीति की प्राथमिक समझ् भी नहीं है । पात्रों के चरित्र भी स्पष्ठ नहीं हो पाये हैं । मुझे लगता है अरविंद गौड इसमें सलाहकार रहे होंगे । मध्यांतर के बाद फिल्म पूरी तरह से भटक जाती है । धनुष और उनके मित्र का अभिनय अच्छा है पर सोनम कपूर ने निराश किया। अंतत: फिल्म स्त्री और मुस्लिम समाज के बिरुद्ध खडी होती है और यही इस फिल्म का सबसे नकारात्मक पक्ष है ।

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