प्राण चूंकि दोस्त था... -सआदत हसन मंटो
(सआदत हसन मंटो ने अपने समकालीन फिल्म कलाकारों पर बेबाक संस्मरण लिखे हैं। उनके संस्मरण मीना बाजार में संकलित है। मीना बाजार में उन्होंने नरगिस, नूरजहां, के .क़े., सितारा, पारो देवी, नीना, नसीम बानो और लतिका रानी के जीवन प्रसंगों को अपने संस्मरण में उकेरा है। उन्होंने के .के. के संस्मरण में प्राण का भी उल्लेख किया है। हम यहां प्राण से संबंधित अंश प्रकाशित कर रहे हैं।)
...बंटवारे पर जब पंजाब के फसादात शुरू हुए तो कुलदीप कौर, जो लाहौर में थी और वहां फिल्मों में काम कर रही थी, अपना वतन छोड़ कर बंबई चली गई। उसके साथ उसका खास दोस्त प्राण भी था, जो पंचोली की कई फिल्म में काम कर के शोहरत हासिल कर चुका था।
अब प्राण का जिक्र आया है तो उसके बारे में भी कुछ पंक्तियां बतौर परिचय लिखने में कोई हर्ज नहीं। प्राण अच्छा-खासा खुशशक्ल मर्द है। लाहौर में उसकी शोहरत इस वजह से भी थी कि वह बड़ा ही खुशपोश था। बहुत ठाठ से रहता था। उसका तांगा-घोड़ा लाहौर के रईसी तांगों में से सबसे ज्यादा खूबसूरत और दिलकश था।
मुझे मालूम नहीं, प्राण से कुलदीप कौर की दोस्ती कब और किस तरह हुई, इसलिए कि मैं लाहौर में नहीं था, लेकिन फिल्मी दुनिया में दोस्तियां कोई अजीब बात नहीं। वहां एक फिल्म की शूटिंग के दौरान एक्ट्रेसों की मित्रता एक ही समय में कई मर्दों से हो सकती है जो उस फिल्म से जुड़े हुए हों।
जिन दिनों प्राण और कुलदीप कौर का प्रेम-प्रसंग चल रहा था, उन दिनों श्याम मरहूम भी वहीं था। पुना और बंबई में किस्मत आजमाई करने के बाद वह लाहौर चला गया था, जिससे उसे प्रेमियों जैसी मोहब्बत थी। इश्क पेशा इंसान था और कुलदीप भी इस मैदान में उससे पीछे नहीं थी ... दोनों का आमना-सामना हुआ। करीब था कि वो एक-दूसरे में समा जाते कि एक और लडक़ी श्याम की जिंदगी में दाखिल हो गई।
... जब बंटवारा हुआ तो कुलदीप कौर और प्राण को अफरा-तफरी में लाहौर छोडऩा पड़ा। प्राण की मोटर (जो गालिबन कुलदीप कौर की मिल्कियत थी) यहीं रह गई, लेकिन कुलदीप कौर एक हिम्मती औरत है। इसके अलावा उसे यह भी मालूम है कि वह मर्दों को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है। इसलिए वह कुछ देर के बाद लाहौर आई और फसादों के दौरान वह मोटर खुद चला कर बंबई ले गई।
जब मैंने मोटर देखी और प्राण से पूछा कि यह कब खरीदी गई तो उसने मुझे सारी घटना सुनाई कि के.के .लाहौर से लेकर आई है और यह कि रास्ते में कोई तकलीफ नहीं हुई। सिर्फ दिल्ली में उसे चंद रोज ठहरना पड़ा कि एक गड़बड़ हो गई थी। वह गड़बड़ क्या थी, इसके बारे में मुझे कुछ पता नहीं।
...मैं फिलमिस्तान छोड़ कर अपने दोस्त अशोक कुमार और शावक चाचा के साथ बांबे टॉकीज चला गया था। उस जमाने में दंगों की शुरुआत थी। उसी दौरान कुलदीप कौर और उसका दोस्त प्राण मुलाजमत के लिए वहां आया।
प्राण से जब मेरी मुलाकात जब श्याम के माध्यम से हुई तो मेरी-उसकी फौरन दोस्ती हो गई। बड़ा पाखंड रहित आदमी है। कुलदीप कौर से अलबत्ता कुछ रस्मी किस्म की मुलाकात रही।
...कुलदीप कौर से मुझे ज्यादा मिलने-जुलने का इत्तफाक नहीं हुआ। प्राण चूंकि दोस्त था और उसके साथ अक्सर शामें गुजरती थीं। इसलिए कुलदीप भी कभी-कभी हमारे साथ शरीक हो जाती थी। वह एक होटल में रहती थी जो समंदर के किनारे के पास था। प्राण भी उससे कुछ दूर एक स्क्वेयर में ठहरा हुआ था। जहां उसकी बीवी और बच्चा भी था, लेकिन उसका ज्यादा वक्त कुलदीप कौर के साथ गुजरता था। मैं अब आपको एक दिलचस्प घटना सुनाता हूं।
मैं और श्याम ताज होटल में बियर पीने जा रहे थे कि रास्ते में मशहूर गीतकार मधोक से मुलाकात हो गयी। वे हमें ‘इरॉस सिनेमा’ के बार में ले गये। वहां हम सब देर तक बियर पीने में मशगूल रहे। मधोक टैक्सियों का बादशाह मशहूर है। बाहर एक गराण्डील टैक्सी खड़ी थी। वह मधोक साहब के पास तीन दिन से थी।
जब हम पी-पिला चुके तो उन्होंने पूछा कि हमें कहां जाना है। मधोक साहब को अपनी महबूबा निगार सुल्ताना के पास जाना था, जिससे किसी जमाने में श्याम का भी ताल्लुक था और कुलदीप कौर भी उसके आस-पास ही रहती थी। श्याम ने मुझसे कहा, ‘चलो, प्राण से मिलते हैं।’
सो, मधोक साहब की टैक्सी में बैठ कर हम वहां पहुंचे। वे तो अपनी निगार सुल्ताना के पास चले गये और हम दोनों कुलदीप कौर के यहां। प्राण वहां बैठा था। एक छोटा-सा कमरा था। बियर पी हुई थी। उनींदापन तारी था। उसके असर को कम करने के लिए श्याम ने सोचा कि ताश खेलनी चाहिए। कुलदीप फौरन तैयार हो गयी, लेकिन यह कहा कि फ्लश होगी। हम मान गये।
फ्लश शुरू हो गयी। कुलदीप और प्राण एक साथ थे। प्राण ही पत्ते बांटता था। वही उठाता था और कुलदीप उसके कंधे के साथ अपनी नुकीली ठोड़ी टिकाए बैठी थी। अलबत्ता, जितने रुपये प्राण जीतता था, उठा कर अपने पास रख लेती थी।
इस खेल में हम सिर्फ हारा किए। मैंने फ्लश कई मरतबा खेली है, लेकिन यह फ्लश कुछ अजीबो-गरीब किस्म की थी। मेरे पचहत्तर रुपये पन्द्रह मिनट के अंदर-अंदर कुलदीप कौर के पास थे। मेरी समझ में नहीं आता था कि आज पत्तों को क्या हो गया है कि ठिकाने के आते ही नहीं।
श्याम ने जब यह रंग देखा तो मुझसे कहा, ‘मंटो अब बंद करो।’
मैंने खेलना बंद कर दिया। प्राण मुसकराया और उसने कुलदीप से कहा, ‘के ़ के ़, पैसे वापस कर दो मंटो साहब के।’
मैंने कहा यह गलत है। तुम लोगों ने जीते हैं। वापसी का सवाल ही कहां पैदा होता है। इस पर प्राण ने मुझे बताया कि वह अव्वल दर्जे का पत्तेबाज है। उसने जो कुछ मुझसे जीता है, अपनी चाबुकदस्ती की बदौलत मुझसे जीता है। चूंकि मैं उसका दोस्त हूं, इसलिए वह मुझसे धोखा करना नहीं चाहता। मैं पहले समझा कि वह इस हीले से मेरे रुपये वापस करना चाहता है, लेकिन जब उसने ताश की गड्डी उठा कर तीन-चार बार पत्ते बांटे और हर बार बड़े दांव जीतने वाले पत्ते अपने पास गिराए तो मैं उसके हथकण्डे का कायल हो गया। यह काम सचमुच बड़ी चाबुकदस्ती का है। प्राण ने फिर कुलदीप कौर से कहा कि वह रुपये वापस कर दे, मगर उसने इनकार कर दिया। श्याम कबाब हो गया। प्राण नाराज हो कर चला गया। गालिबन उसे अपनी बीवी के साथ कहीं जाना था। श्याम और मैं वहीं बैठे रहे। थोड़ी देर श्याम उससे बातचीत करता रहा, फिर उसने कहा, ‘आओ, चलो, सैर करें।’ कुलदीप राजी हो गयी।
...बंटवारे पर जब पंजाब के फसादात शुरू हुए तो कुलदीप कौर, जो लाहौर में थी और वहां फिल्मों में काम कर रही थी, अपना वतन छोड़ कर बंबई चली गई। उसके साथ उसका खास दोस्त प्राण भी था, जो पंचोली की कई फिल्म में काम कर के शोहरत हासिल कर चुका था।
अब प्राण का जिक्र आया है तो उसके बारे में भी कुछ पंक्तियां बतौर परिचय लिखने में कोई हर्ज नहीं। प्राण अच्छा-खासा खुशशक्ल मर्द है। लाहौर में उसकी शोहरत इस वजह से भी थी कि वह बड़ा ही खुशपोश था। बहुत ठाठ से रहता था। उसका तांगा-घोड़ा लाहौर के रईसी तांगों में से सबसे ज्यादा खूबसूरत और दिलकश था।
मुझे मालूम नहीं, प्राण से कुलदीप कौर की दोस्ती कब और किस तरह हुई, इसलिए कि मैं लाहौर में नहीं था, लेकिन फिल्मी दुनिया में दोस्तियां कोई अजीब बात नहीं। वहां एक फिल्म की शूटिंग के दौरान एक्ट्रेसों की मित्रता एक ही समय में कई मर्दों से हो सकती है जो उस फिल्म से जुड़े हुए हों।
जिन दिनों प्राण और कुलदीप कौर का प्रेम-प्रसंग चल रहा था, उन दिनों श्याम मरहूम भी वहीं था। पुना और बंबई में किस्मत आजमाई करने के बाद वह लाहौर चला गया था, जिससे उसे प्रेमियों जैसी मोहब्बत थी। इश्क पेशा इंसान था और कुलदीप भी इस मैदान में उससे पीछे नहीं थी ... दोनों का आमना-सामना हुआ। करीब था कि वो एक-दूसरे में समा जाते कि एक और लडक़ी श्याम की जिंदगी में दाखिल हो गई।
... जब बंटवारा हुआ तो कुलदीप कौर और प्राण को अफरा-तफरी में लाहौर छोडऩा पड़ा। प्राण की मोटर (जो गालिबन कुलदीप कौर की मिल्कियत थी) यहीं रह गई, लेकिन कुलदीप कौर एक हिम्मती औरत है। इसके अलावा उसे यह भी मालूम है कि वह मर्दों को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है। इसलिए वह कुछ देर के बाद लाहौर आई और फसादों के दौरान वह मोटर खुद चला कर बंबई ले गई।
जब मैंने मोटर देखी और प्राण से पूछा कि यह कब खरीदी गई तो उसने मुझे सारी घटना सुनाई कि के.के .लाहौर से लेकर आई है और यह कि रास्ते में कोई तकलीफ नहीं हुई। सिर्फ दिल्ली में उसे चंद रोज ठहरना पड़ा कि एक गड़बड़ हो गई थी। वह गड़बड़ क्या थी, इसके बारे में मुझे कुछ पता नहीं।
...मैं फिलमिस्तान छोड़ कर अपने दोस्त अशोक कुमार और शावक चाचा के साथ बांबे टॉकीज चला गया था। उस जमाने में दंगों की शुरुआत थी। उसी दौरान कुलदीप कौर और उसका दोस्त प्राण मुलाजमत के लिए वहां आया।
प्राण से जब मेरी मुलाकात जब श्याम के माध्यम से हुई तो मेरी-उसकी फौरन दोस्ती हो गई। बड़ा पाखंड रहित आदमी है। कुलदीप कौर से अलबत्ता कुछ रस्मी किस्म की मुलाकात रही।
...कुलदीप कौर से मुझे ज्यादा मिलने-जुलने का इत्तफाक नहीं हुआ। प्राण चूंकि दोस्त था और उसके साथ अक्सर शामें गुजरती थीं। इसलिए कुलदीप भी कभी-कभी हमारे साथ शरीक हो जाती थी। वह एक होटल में रहती थी जो समंदर के किनारे के पास था। प्राण भी उससे कुछ दूर एक स्क्वेयर में ठहरा हुआ था। जहां उसकी बीवी और बच्चा भी था, लेकिन उसका ज्यादा वक्त कुलदीप कौर के साथ गुजरता था। मैं अब आपको एक दिलचस्प घटना सुनाता हूं।
मैं और श्याम ताज होटल में बियर पीने जा रहे थे कि रास्ते में मशहूर गीतकार मधोक से मुलाकात हो गयी। वे हमें ‘इरॉस सिनेमा’ के बार में ले गये। वहां हम सब देर तक बियर पीने में मशगूल रहे। मधोक टैक्सियों का बादशाह मशहूर है। बाहर एक गराण्डील टैक्सी खड़ी थी। वह मधोक साहब के पास तीन दिन से थी।
जब हम पी-पिला चुके तो उन्होंने पूछा कि हमें कहां जाना है। मधोक साहब को अपनी महबूबा निगार सुल्ताना के पास जाना था, जिससे किसी जमाने में श्याम का भी ताल्लुक था और कुलदीप कौर भी उसके आस-पास ही रहती थी। श्याम ने मुझसे कहा, ‘चलो, प्राण से मिलते हैं।’
सो, मधोक साहब की टैक्सी में बैठ कर हम वहां पहुंचे। वे तो अपनी निगार सुल्ताना के पास चले गये और हम दोनों कुलदीप कौर के यहां। प्राण वहां बैठा था। एक छोटा-सा कमरा था। बियर पी हुई थी। उनींदापन तारी था। उसके असर को कम करने के लिए श्याम ने सोचा कि ताश खेलनी चाहिए। कुलदीप फौरन तैयार हो गयी, लेकिन यह कहा कि फ्लश होगी। हम मान गये।
फ्लश शुरू हो गयी। कुलदीप और प्राण एक साथ थे। प्राण ही पत्ते बांटता था। वही उठाता था और कुलदीप उसके कंधे के साथ अपनी नुकीली ठोड़ी टिकाए बैठी थी। अलबत्ता, जितने रुपये प्राण जीतता था, उठा कर अपने पास रख लेती थी।
इस खेल में हम सिर्फ हारा किए। मैंने फ्लश कई मरतबा खेली है, लेकिन यह फ्लश कुछ अजीबो-गरीब किस्म की थी। मेरे पचहत्तर रुपये पन्द्रह मिनट के अंदर-अंदर कुलदीप कौर के पास थे। मेरी समझ में नहीं आता था कि आज पत्तों को क्या हो गया है कि ठिकाने के आते ही नहीं।
श्याम ने जब यह रंग देखा तो मुझसे कहा, ‘मंटो अब बंद करो।’
मैंने खेलना बंद कर दिया। प्राण मुसकराया और उसने कुलदीप से कहा, ‘के ़ के ़, पैसे वापस कर दो मंटो साहब के।’
मैंने कहा यह गलत है। तुम लोगों ने जीते हैं। वापसी का सवाल ही कहां पैदा होता है। इस पर प्राण ने मुझे बताया कि वह अव्वल दर्जे का पत्तेबाज है। उसने जो कुछ मुझसे जीता है, अपनी चाबुकदस्ती की बदौलत मुझसे जीता है। चूंकि मैं उसका दोस्त हूं, इसलिए वह मुझसे धोखा करना नहीं चाहता। मैं पहले समझा कि वह इस हीले से मेरे रुपये वापस करना चाहता है, लेकिन जब उसने ताश की गड्डी उठा कर तीन-चार बार पत्ते बांटे और हर बार बड़े दांव जीतने वाले पत्ते अपने पास गिराए तो मैं उसके हथकण्डे का कायल हो गया। यह काम सचमुच बड़ी चाबुकदस्ती का है। प्राण ने फिर कुलदीप कौर से कहा कि वह रुपये वापस कर दे, मगर उसने इनकार कर दिया। श्याम कबाब हो गया। प्राण नाराज हो कर चला गया। गालिबन उसे अपनी बीवी के साथ कहीं जाना था। श्याम और मैं वहीं बैठे रहे। थोड़ी देर श्याम उससे बातचीत करता रहा, फिर उसने कहा, ‘आओ, चलो, सैर करें।’ कुलदीप राजी हो गयी।
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