हिंदी फिल्मों का फैलता विदेशी बाजार
-अजय ब्रह्मात्मज
अप्रैल से सितंबर के बीच जापान में छह हिंदी फिल्में रेगुलर सिनेमाघरों में रिलीज होंगी। अभी टोक्यो में हिंदी फिल्मों के प्रीमियर का सिलसिला चल रहा है। कबीर खान निर्देशित सलमान खान की ‘एक था टाइगर’ के बाद फराह खान निर्देशित शाहरुख खान की ‘ओम शांति ओम’ का प्रीमियर हुआ। जल्दी ही ‘3 इडियट’ और ‘स्टेनली का डब्बा’ के भी प्रीमियर होंगे। टोक्यो के प्रीमियर में कोई भी स्टार नहीं गया। दोनों ही फिल्मों के निर्देशक मौजूद रहे। ‘एक था टाइगर’ के प्रीमियर के समय कबीर खान ने स्वीकार किया था कि अभी सलमान खान को टोक्यो बुलाना बेमानी होता। कुछ फिल्में चलेंगी और उनका क्रेज बनेगा तो जाकर उनकी भागीदारी बड़ी खबर बनेगी। अभी तो जरूरत है कि हिंदी फिल्मों का बाजार बनाया जाए।
हिंदी फिल्मों के विदेशी बाजारों का उल्लेख करते समय हम मुख्य रूप से अमेरिका, इंग्लैंड और मध्य पूर्व के देशों की बातें करते हैं। इधर जर्मनी और फ्रांस का भी जिक्र होने लगा है। पूर्व एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के बाजार पर हमारी नजर ही नहीं थी। याद करें तो फिल्म फिल्म समारोहों के बाहर के दर्शकों के बीच सबसे पहले ‘आवारा’ ने चीन और सोवियत संघ में जगह बनाई थी। खास ऐतिहासिक परिस्थिति में दोनों कम्युनिस्ट देशों में रिलीज होने के बाद ‘आवारा’ सराही गई थी। अपने चीन प्रवास के दौरान मैंने चीन के टीवी से प्रसारित ‘आवारा’ और अन्य हिंदी फिल्में देखी थीं। ‘आवारा’ की बात करें तो फिल्म में इस पर जोर दिया गया था कि कोई भी व्यक्ति जन्मजात कुछ भी नहीं होता। उसकी परिस्थितियां ही उसको व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। फिल्म का यह दर्शन कम्युनिज्म के मूल सिद्धांतों के मेल में था। दूसरे तब के सोवियत संघ और चीन में साम्राज्यवादी देश अमेरिका की पूंजीवादी सोच की हालीवुड की फिल्मों का प्रवेश निषेध था। चीन में ‘आवारा’ और ‘दो बीघा जमीन’ जैसी फिल्मों को कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार का समर्थन हासिल था। बाद में आर्थिक उदारीकरण और सुधार की नीति अपनाने पर धीरे-धीरे हालीवुड की फिल्मों का प्रवेश हुआ। अब हालीवुड की फिल्में चीन में काफी पापुलर हैं। अपनी भाषा की फिल्मों के संरक्षण और विकास के मद्देनजर चीन ने फिल्मों के आयात की संख्या तय कर दी है। उससे ज्यादा विदेशी फिल्में आयात नहीं की जा सकतीं। दो साल पहले चीन में बमुश्किल ‘3 इडियट’ रिलीज हो पाई थी।
भारतीय निर्माता-निर्देशकों ने दक्षिण पूर्व और पूर्व एशिया के देशों में भारतीय और खास कर हिंदी फिल्मों के निर्यात और बाजार पर ध्यान देना शुरू किया है। मलेशिया, हांगकांग, सिंगापुर, थाइलैंड, इंडोनेशिया, चीन और जापान जैसे देशों में पिछले कुछ सालों में भारतवंशियों की संख्या बढ़ी है। भारतवंशी अपनी भाषा में फिल्म मनोरंजन चाहते हैं। इसके अलावा फिल्म समारोहों और इंटरनेशनल पुरस्कारों में भारतीय प्रतिभाओं की गूंज से भी इन देशों में भारतीय फिल्मों के प्रति जिज्ञासा बढ़ी है। ग्लोबल दौर में भारतीय फिल्मों ने अपारंपरिक बाजारों में भी घुसने की राह खोज ली है। इधर देखने में आ रहा है कि इन देशों के पर्यटन विभाग भारतीय फिल्मों की शूटिंग के लिए सहूलियतें प्रदान कर रहे हैं। लक्ष्य है कि ‘डॉन’ की शूटिंग के बाद मलेशिया जाने वाले भारतीयों की संख्या में इजाफा हुआ है। मलेशिया की तरह ही जापान भी चाहता है कि वहां किसी भारतीय फिल्म की शूटिंग हो ताकि भारतीय पर्यटक जापान का रुख करें।
भारत सरकार ने कभी भारतीय फिल्मों को अधिक तरजीह नहीं दी। भारतीय फिल्मों की व्यापक लोकप्रियता के राजनयिक उपयोग पर विचार ही नहीं किया गया। निर्माता-निर्देशक स्वयं के लाभ के लिए सक्रिय रहे। आज भी भारतीय फिल्मों के निर्यात, प्रचार और प्रसार को लेकर भारत सरकार की कोई नीति नहीं है। अगर सरकारी संस्थाएं और फिल्म इंडस्ट्री की प्रतिभाएं मिल कर अभियान चलाएं तो भारतीय फिल्मों का विदेशी बाजार तेजी से विकसित हो सकता है। संभावनाएं हैं। जरूरत है उन संभावनाओं को आंकने और उन पर अमल करने की।
Comments