‘ ---और प्राण’ को मिला दादा साहेब फालके सम्मान
-अजय ब्रह्मात्मज
आखिरकार प्राण को दादा साहेब सम्मान मिला। सन् 2004 से हर साल फाल्के सम्मान की घोषणा के समय उनके नाम की चर्चा होती रही है, लेकिन साल-दर-साल दूसरे दिग्गज सम्मानित होते रहे। प्राण के समर्थक और प्रशंसक मायूस होते रहे। इस तरह दरकिनार किए जाने पर प्राण साहेब ने कभी नाखुशी जाहिर नहीं की, लेकिन पूरी फिल्म इंडस्ट्री महसूस करती रही कि उन्हें पुरस्कार मिलने में देर हो रही है। देर आयद, दुरूस्त आयद ...2013 में 94 की उम्र में उन्हें देश का फिल्म संबंधी सर्वोच्च सम्मान मिल ही गया। मनोज कुमार ने इसी बात की खुशी जाहिर की है कि उन्हें जीते-जी यह पुरस्कार मिला।
उनके करिअर पर सरसरी नजर डालें तो पंजाब और उत्तरप्रदेश के कुछ शहरों में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे अविभाजित भारत के लाहौर शहर में स्टिल फोटोग्राफी में करिअर के लिए प्रयत्नशील थे। एटीट्यूड और स्टायल उनमें शुरू से था। लाहौर में राम लुभाया के पान की दुकान के सामने पान मुंह में डालने और चबाने के उनके अंदाज से वली मोहम्मद वली प्रभावित हुए। उन्हें उनमें अपना खलनायक दिख गया। उन्होनें ज्यादा बातचीत नहीं की। बसख्अपनी लिखी फिल्म पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ के लिए राजी कर लिया। प्राण साहेब ने फिर पलट कर नहीं देखा। तुरंत ही उन्हें पंचोली स्टूडियो की हिंदी फिल्म ‘चौधरी’ मिल गई। मंटो ने लाहौर के प्राण साहेब के बारे में लिखा है, ‘प्राण बहुत हैंडसम और पॉपुलर थे। अपने पहनावे और टांगे की वजह से शहर में जाने जाते थे।’ यही वजह रही होगी कि उन्हें तीसरी फिल्म ‘खानदान’ में नूरजहां के साथ नायक की भूमिका मिली। जब प्राण ने खुद ‘खानदान’ देखी तो उन्होंने स्वयं को ही रिजेक्ट कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि हीरो की भूमिका में वे जंच नहीं रहे हैं। उन्होंने अपनी जीवनी और इंटरव्यू में हमेशा जिक्र किया कि उन्हें गीत गाने और हीरोइन के पीछे भागने में दिक्कत हुई थी। हीरो की एक्टिंग के लिए जरूरी ये दोनों बातें उन्हें खुद पर नहीं फबी।
देश विभाजन के पहले प्राण लाहौर में 20 से अधिक फिल्म कर चुके थे। उनका करिअर अच्छा चल रहा था। शादी हो गई थी और बड़े बेटे अरविंद का जन्म हो चुका था। आजादी के एक साल पहले से माहौल बदतर हो रहा था। तबाही का अनुमान करते हुए उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को इंदौर भेज दिया था। पत्नी की जिद पर अपने बेटे के पहले जन्मदिन में शामिल होने के लिए प्राण 10 अगस्त 1947 को इंदौर पहुंचे और फिर कभी लाहौर नहीं लौट सके। रिश्तेदारों से कुछ उधार लेकर वे मुंबई आए। यहां आठ महीने की प्रतीक्षा के बाद सआदत हसन मंटो, श्याम और कुक्कू की सिफारिश से उन्हें बांबे टॉकीज की फिल्म मिली। पारिश्रमिक 500 रुपए तय हुआ। भारत में उनकी पहली फिल्म देवआनंद के साथ ‘जिद्दी’ थी। तब से दस साल पहले तक प्राण विभिन्न भूमिकाओं में फिल्मों में दिखते रहे।
प्रसिद्ध निर्देशक सुधीर मिश्र के शब्दों में, ‘प्राण की अपनी अदायगी थी। वे अपनी भूमिकाओं में ऐसा आकर्षण पैदा करते थे कि खलनायक को भी दर्शक चाहने लगते थे। याद करें तो उन्होंने देव आनंद से लेकर अमिताभ बच्चन तक एक सफल पारी खेली। उनकी अदाकारी से फिल्म के हीरो का कद बढ़ जाता था।’ प्राण ने लगभग सभी नायकों के साथ खलनायक की भूमिका निभायी। दिलीप कुमार की फिल्म ‘राम और श्याम’ के गजेन्द्र को याद करें तो आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हर फिल्म में खलनायकी का उनका एक नया रंग और मैनरिज्म रहता था। शब्दों को चबा कर बोलने से वे खतरनाक और दुष्ट लगते थे। लेकिन जब मनोज कुमार ने ‘उपकार’ में उन्हें मस्त मौला मलंग की भूमिका दी तो उन्होंने अपनी ही छवि बदल दी। पहली बार निर्माता-निर्देशकों को लगा कि वे सहयोगी और चरित्र भूमिकाएं भी निभा सकते हैं।
निश्चित ही अमिताभ बच्चन की ‘जंजीर’ भी उनकी प्रमुख फिल्म है, लेकिन उसकी ज्यादा चर्चा अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता की वजह से होती है। उन्होंने शेर खान जैसे अनेक किरदार इसी खूबी से निभाए हैं। बहरहाल, अमिताभ बच्चन ने उन्हें याद करते हुए हाल ही में लिखा था कि ‘जंजीर’ के भारी मेकअप के बावजूद वे सेट पर सबसे पहले तैयार मिलते थे। यह अनुशासन ही उन्हें इस ऊंचाई तक ले आया।
प्राण साहेब ने अपनी फिल्में देखरी बहुत पहले ही बंद कर दी थीं। केवल डबिंग के समय ही वे उसे हिस्सों में देखते थे। शुरू में प्रीमियर और ट्रायल में जाते थे तो अपना काम देख कर कोफ्त होती थी। दूसरे समय भी बर्बाद होता था,इसलिए फिल्में देखना ही बंद कर दिया। अब रिटायरमेंट के बाद इन दिनों टीवी पर अपनी फिल्में देखते हैं। एक बार अमिताभ बच्चन ने जिक्र किया था कि ‘जंजीर’ की रिलीज के 20 साल बाद उनका फोन आया था कि ‘मुझे आप का परफारमेंस पसंद आया।’ ‘अमिताभ बच्चन के शब्दों में प्राण ने हिंदी सिनेमा को अपनी कलाकारी से प्राण दिया।’
खलनायक प्राण से एक बार आज के खलनायकों के बारे में पूछा गया था तो उनका जवाब था, ‘अभी के खलनायक लाउड हो गए हैं। वास्तव में खल भूमिकाएं निभाते समय चरित्र के स्वभाव में खल भाव आना चाहिए। लाउड होने या चिल्लाने की जरूरत नहीं है।’ उन्हें अपनी फिल्म ‘हलाकू’ सबसे अधिक पंसद है और लगभग 400 फिल्में कर चुके प्राण को परिचय में दादा की भूमिका मुश्किल और चैलेंजिंग लगी थी।’
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