परदे पर साहित्‍य -ओम थानवी

ओम थानवी का यह लेख जनसत्‍ता से चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया गया है। ओम जी ने मुख्‍य रूप से हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्‍य पर बात की है। इस जानकारीपूर्ण लेख से हम सभी लाभान्वित हों। 
 -ओम थानवी
जनसत्ता 3 मार्च, 2013: साहित्य अकादेमी ने अपने साहित्योत्सव में इस दफा तीन दिन की एक संगोष्ठी साहित्य और अन्य कलाओं के रिश्ते को लेकर की। एक सत्र साहित्य और सिनेमापर हुआ। इसमें मुझे हिंदी कथा-साहित्य और सिनेमा पर बोलने का मौका मिला।
सिनेमा के मामले में हिंदी साहित्य की बात हो तो जाने-अनजाने संस्कृत साहित्य पर आधारित फिल्मों की ओर भी मेरा ध्यान चला जाता है। जो गया भी। मैंने राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा उर्फ बिज्जी के शब्दों में सामने आई लोककथाओं की बात भी अपने बयान में जोड़ ली।
बिज्जी की कही लोककथाएं राजस्थानी और हिंदी दोनों में समान रूप से चर्चित हुई हैं। हिंदी में शायद ज्यादा। उनके दौर में दूसरा लेखक कौन है, जिस पर मणि कौल से लेकर हबीब तनवीर-श्याम बेनेगल, प्रकाश झा और अमोल पालेकर का ध्यान गया हो?
वैसे हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा फिल्में- स्वाभाविक ही- उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की रचनाओं पर बनी हैं। इसलिए नहीं कि जब बंबई (अब मुंबई) में बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ, प्रेमचंद ने खुद बंबई फिल्म जगत की ओर रुख किया। वहां वे विफल ही हुए। सरस्वती प्रेस के घाटे के चलते साप्ताहिक जागरणको दो साल चलाकर बंद करना पड़ा था। सो मोहन भावनानी की कंपनी अजंता सिनेटोन के प्रस्ताव पर 1934 में आठ हजार रुपए सालाना के अच्छे-खासे अनुबंध पर वे मुंबई पहुंच गए।
प्रेमचंद की कहानी पर मोहन भावनानी ने 1934 में मजदूर बनाई। उसका नाम कभी मिल हुआ, कभी सेठ की बेटी भी। प्रेमचंद का क्रांतिकारी तेवर उसमें इतना प्रभावी था कि फिल्म सेंसर के हत्थे चढ़ गई। मुंबई प्रांत; पंजाब/लाहौर; फिर दिल्ली- फिल्म पर प्रतिबंध लगते गए। उसमें श्रमिक अशांतिका खतरा देखा गया। फिल्म की विधा तब नई थी, समाज में फिल्म का असर तब निरक्षर समुदाय तक भी पुरजोर पहुंचता था।
अंतत: मजदूर सेंसर से पास हुई, पर चली नहीं। हां, उसके असर ने कहते हैं प्रेमचंद के अपने सरस्वती प्रेस के मजदूरों को जागृतकर दिया था! वहां के श्रमिकों में असंतोष भड़क गया!
1934 में ही प्रेमचंद के उपन्यास सेवासदन’ (जो पहले उर्दू में बाजारे-हुस्न नाम से लिखा गया था) पर नानूभाई वकील ने फिल्म बनाई। प्रेमचंद उससे उखड़ गए थे। हिंदी साहित्य में लेखक और फिल्मकार की तकरार की कहानी वहीं से शुरू हो जाती है। हालांकि चार साल बाद इसी उपन्यास पर तमिल में के. सुब्रमण्यम ने जब फिल्म बनाई, प्रेमचंद उससे शायद संतुष्ट हुए हों। उस फिल्म में एमएस सुब्बुलक्ष्मी नायिका थीं। अभिनय, सुब्बुलक्ष्मी के गायन आदि के कारण वह फिल्म बहुत सफल हुई।
अगले वर्ष उनके उपन्यास नवजीवन पर फिल्म बनी। इस बीच प्रेमचंद का मोहभंग हुआ, पीछे सरस्वती प्रेस के मजदूर भी हड़ताल पर चले गए। वे मुंबई छोड़ बनारस लौट आए। 1936 में उनका निधन हो गया। निधन के बाद उनकी कहानी पर स्वामी (औरत की फितरत/त्रिया चरित्र), हीरा-मोती (दो बैलों की कथा), रंगभूमि, गोदान, गबन और बहुत आगे जाकर सत्यजित राय सरीखे फिल्मकार के निर्देशन में शतरंज के खिलाड़ी और सद्गति बनीं।
हिंदी फिल्मों में सत्यजित राय को छोड़कर शायद ही किसी फिल्मकार ने प्रेमचंद के साहित्य के मर्म को समझने की कोशिश की हो। यों मृणाल सेन ने भी कफनकहानी पर तेलुगु में फिल्म (ओका उरी कथा) बनाई है, जिसे मैं अब तक देख नहीं सका हूं। राय ने शतरंज के खिलाड़ी  में बहुत छूट ली- उस पर आगे बात होगी- लेकिन रचना की उनकी समझ पर कौन संदेह कर सकता है?
वैसे प्रेमचंद अजंता सिनेटोन में अपना अनुबंध पूरा होने के पहले ही समझ गए थे कि रचना को लेकर फिल्म वाले फिल्मी ही हैं। 28 नवंबर, 1934 को जैनेंद्र कुमार को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद कहते हैं- ‘‘फिल्मी हाल क्या लिखूं? मिल (बाद में मजदूर नाम से जारी चलचित्र) यहां पास न हुआ। लाहौर में पास हो गया और दिखाया जा रहा है। मैं जिन इरादों से आया था, उनमें से एक भी पूरा होता नजर नहीं आता। ये प्रोड्यूसर जिस ढंग की कहानियां बनाते आए हैं, उसकी लीक से जौ भर भी नहीं हट सकते। वल्गैरिटीको ये एंटरटेनमेंट बैल्यूकहते हैं।... मैंने सामाजिक कहानियां लिखी हैं, जिन्हें शिक्षित समाज भी देखना चाहे; लेकिन उनकी फिल्म बनाते इन लोगों को संदेह होता है कि चले, या न चले!’’
प्रेमचंद की कृतियों पर बनी फिल्मों के दौर में ही अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, सुदर्शन, सेठ गोविंददास, होमवती देवी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी और आचार्य चतुरसेन की रचनाओं पर भी फिल्में बनीं। वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर दो-दो बार। आम तौर वे सब साधारण फिल्में थीं।
1966 में फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफामपर बासु चटर्जी ने तीसरी कसम बनाई। भारी कर्ज लेकर फिल्म में पैसा शैलेंद्र ने लगाया। राज कपूर और वहीदा रहमान को लेकर भी फिल्म नहीं चली। कहते हैं इस सदमे में शैलेंद्र की जान चली गई। लेकिन आज वह फिल्म क्लासिक मानी जाती है। अभिनय, गीत-संगीत, नृत्य आदि में फिल्म उत्तम थी। छायांकन में उत्कृष्ट। पथेर पांचाली सहित सत्यजित राय की अनेक फिल्मों के छविकार सुब्रत मित्र ने तीसरी कसम भी फिल्माई थी। पर फिल्म का संपादन कमजोर था। रोचक कहानी भी बिखर-बिखर जाती थी। दूसरे, हीराबाई का दर्द फिल्म में उभर कर ही नहीं आया।
इसके बाद बासु चटर्जी ने राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश (1969)   और मन्नू भंडारी की कहानी यही सच हैपर रजनीगंधा (1974) फिल्में बनाईं, जो चलीं। हालांकि फिल्म की सफलता से यह शायद ही जाहिर होता हो कि फिल्म ने कथा को बखूबी प्रस्तुत किया या नहीं। बासु चटर्जी, साफ नीयत के बावजूद, भावुकतावादी लोकप्रिय बुनावट के कारीगर हैं। हृषिकेश मुखर्जी, गुलजार आदि हमारे यहां यही काम करते रहे हैं।
इस दौर को मैं साहित्य के संदर्भ में हिंदी फिल्मों का खुशगवार दौर कहता हूं। जो और फिल्में साठ और सत्तर के दशक में हिंदी लेखन को केंद्र में रखकर बनीं उनमें उल्लेखनीय थीं- फिर भी (तलाश): कमलेश्वर/शिवेंद्र सिन्हा, बदनाम बस्ती: कमलेश्वर/प्रेम कपूर; 27 डाउन (अठारह सूरज के पौधे): रमेश बक्षी/अवतार कौल; चरणदास चोर: विजयदान देथा/श्याम बेनेगल; त्यागपत्र (जैनेंद्र कुमार/रमेश गुप्ता); आंधी (काली आंधी): कमलेश्वर/गुलजार; जीना यहां (एखाने आकाश नाय): मन्नू भंडारी/बासु चटर्जी, आदि। इस तरह की फिल्में बंबइया बाजार की लीक से कुछ हटकर थीं। मगर थीं व्यावसायिक।
इनसे हटकर हिंदी फिल्मों का वह दौर है, जिसे नई धारा का समांतर सिनेमा भी कहा गया। साहित्य से इसका संबंध ईमानदार रहा, भले ही लेखक अपनी कृति के दृश्यों में ढले रूप से संतुष्ट न रहे हों।
साहित्यिक रचनाओं पर बनी सभी फिल्मों की सूची देना या उनकी समीक्षा करना यहां मेरा प्रयोजन नहीं है। पर उदाहरण के बतौर कुछ फिल्मकारों का उल्लेख और उनके काम की चर्चा मैं करता चलता हूं।
समांतर सिनेमा के दौर में हिंदी साहित्य को सबसे ज्यादा महत्त्व और निष्ठाभरी समझ मणि कौल ने दी। इसी दौर में कुमार शहानी ने निर्मल वर्मा की कहानी माया दर्पण पर फिल्म बनाई। इसके अलावा दामुल (कबूतर): शैवाल/प्रकाश झा; परिणति: विजयदान देथा/प्रकाश झा; पतंग: संजय सहाय/गौतम घोष; सूरज का सातवां घोड़ा: धर्मवीर भारती/श्याम बेनेगल; कोख (किराए की कोख): आलमशाह खान/आरएस विकल; खरगोश: प्रियंवद/परेश कामदार जैसी फिल्में भी कथा के निरूपण की दृष्टि से बेहतर थीं।
मणि कौल ने पूना फिल्म संस्थान की दीक्षा के फौरन बाद उसकी रोटी (1969) बनाई। मोहन राकेश की कहानी पर बनी इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा में कथा कहने का तरीका सिर से पांव तक बदल दिया। मणि के दिमाग में राकेश की कहानी का मर्म था, कथोपकथन और घटना-क्रम उन्होंने उतना ही लिया जितना अनिवार्य जान पड़ा। इस तरह उसकी रोटी ट्रक-ड्राइवर सुच्चा सिंह और उसकी पत्नी बालो की घरेलू दास्तान न बनकर मर्द की बेरुखी और औरत की वेदना का काव्यात्मक चित्रण बन गई। संवादों की अदायगी, संगीत की जगह सहज आवाजों का इस्तेमाल और छायांकन (के.के. महाजन) में ठहरी हुई छवियों की काली-सफेद भंगिमा ने कहानी को जैसे परदे की कविता में ढाल दिया।
खयाल करने की बात है कि इसी अंदाज में माया दर्पण (1972) चलती है, जो रंगीन भी है। कहानी का निर्वाह उसमें काव्यात्मक- दूसरे अर्थ में कलात्मक- है। लेकिन उसमें बिखराव भी है। चाहे प्रयोग हो, पर दर्शक के साथ तारतम्य टूटने का मतलब होता है, फिल्म का अपनी लय से छूटना। साहित्य में पाठक के साथ रिश्ता टुकड़ों में शक्ल ले सकता है, लेकिन सिनेमा में दर्शक को एक निरंतरता चाहिए। फिल्म के साथ अपने रिश्ते को दर्शक- पाठक की तरह- आगे भी आविष्कृत कर सकता है, लेकिन हर बार उसे एक तारतम्य फिर भी चाहिए।
अपने अंदाज में ही मणि कौल ने बाद में आषाढ़ का एक दिन (मोहन राकेश), दुविधा (विजयदान देथा), सतह से उठता आदमी (मुक्तिबोध) और नौकर की कमीज (विनोद कुमार शुक्ल) फिल्में बनाईं। सतह से उठता आदमी जरूर- माया दर्पण की तरह- किसी संगति से उचट जाती है, लेकिन नौकर की कमीज संगति के मामले में उन्हें बिल्कुल मुकम्मल ढंग से पेश करती है।
प्रसंगवश जिक्र करना मुनासिब होगा कि 1994 में एक जर्मन निर्माता के लिए मणि कौल ने एक छोटी फिल्म द क्लाउड डोर (बादल द्वार) बनाई थी। भास के नाटक अविमारकऔर जायसी के महाकाव्य पद्मावतपर आधारित फिल्म सिनेमाई बिंबविधान की दृष्टि से, मेरी समझ में, मणि कौल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है।
साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को जोड़े रखने में दूरदर्शन की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन कड़ियों में घर-घर को ध्यान में रखकर बनने वाले फिल्म-रूप आम तौर पर लचर ही देखे गए हैं। छोटे परदे के लिए फिल्मांकन की अपनी सीमाएं होती हैं। सद्गति (प्रेमचंद/सत्यजित राय) और तमस (भीष्म साहनी/गोविंद निहलानी) को छोड़कर कोई उल्लेखनीय चित्रांकन मुझे खयाल नहीं पड़ता। यों चंद्रकांता (देवकीनंदन खत्री), निर्मला (प्रेमचंद), राग दरबारी (श्रीलाल शुक्ल), कब तक पुकारूं (रांगेय राघव), मुझे चांद चाहिए (सुरेंद्र वर्मा), नेताजी कहिन (कक्काजी कहिन, मनोहर श्याम जोशी) पर भी धारावाहिक फिल्मांकन हुआ है। अन्य अनेक कहानियों पर भी। प्रेमचंद की कहानियों पर तो गुलजार ने काम किया। लेकिन यह सब कहानियों का इस्तेमाल भर रहा।
साफ कर दूं कि सिनेमा या टीवी के लिए संवाद या पटकथा लेखन को मैं यहां दूर रखता हूं। वरना प्रेमचंद के अलावा सुदर्शन, हरिकृष्ण प्रेमी, सेठ गोविंददास, द्वारकाप्रसाद मिश्र, धनीराम प्रेम, अमृतलाल नागर, राही मासूम रजा, मनोहर श्याम जोशी ने फिल्मों और टीवी के लिए भी बड़ी कलम-घिसाई की।
पर सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी के लिए हमें सत्यजित राय पर अलग से बात करनी चाहिए। हिंदी में राय ने   दो ही फिल्में बनाईं; दोनों प्रेमचंद की कहानियों पर। शतरंज के खिलाड़ी 1977 में बनी। सद्गति दूरदर्शन के लिए चार साल बाद बनाई। पहली फिल्म पर विवाद उठा। दरअसल, ‘शतरंज के खिलाड़ीछोटी कहानी है, पूर्ण अवधि की फिल्म उस पर बन नहीं सकती। राय फिल्म में वाजिद अली शाह और लॉर्ड डलहौजी के सैनिकों की पेशकदमी ले आए। वरना प्रेमचंद की कहानी घर-परिवार और समाज-सरकार को ताक पर रख हरदम शतरंज खेलने वाले दो निकम्मे नवाबों के गिर्द सिमटी रहती है। राय ने कहानी का अंत फिल्म में बदल दिया।
सत्यजित राय ने प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ीका विस्तार तो किया ही था, अंत भी बदल दिया था। मिर्जा और मीर वहां एक दूसरे को तलवार से मौत के घाट नहीं उतारते, फिर से बाजी जमा कर बैठ जाते हैं। परस्पर मार-काट दो नवाबों की आपसी कहानी बन कर रह जाता; फिल्म में तमंचे निकाल कर, चला कर अंतत: फिर बाजी पर आ जाना अंगरेजी फौज के हमले के प्रति अवध की (व्यापक अर्थ में हमारी) अनवरत उदासीनता का मंजर बन जाता है। मुझे लगता है राय ने प्रेमचंद को आदर भी दिया (कहानी का चुनाव और उस पर उस दौर में बड़े बजट की फिल्म बनाना भी एक प्रमाण है) और उसके असर में इजाफा भी किया।
हालांकि किसी लेखक के गले यह बात न उतरे कि फिल्मकार- चाहे कितना ही महान हो- अपनी पुनर्रचना में इतनी छूट ले सकता है। आलोचकों ने इसे खिलवाड़कहा।
राय अपनी ज्यादातर फिल्में कथा-साहित्य पर ही केंद्रित रखते आए थे। शायद ही कभी कथा में बड़ा बदलाव उन्होंने किया हो। हिंदी कहानी के साथ यह प्रयोगभारी आलोचना का कारण बना। विवाद का नतीजा था या राय ने खुद सद्गति में किसी तरह के परिवर्तन की जरूरत अनुभव नहीं की, कहा नहीं जा सकता।
इस बारे में मेरा विचार यह है कि अगर फिल्मकार पाए का है और लेखक को उस पर भरोसा है तो फिल्मकार को पर्याप्त छूट मिलनी चाहिए। एक फिल्मकार किसी कहानी, उपन्यास या नाटक पर हमेशा इसलिए फिल्म नहीं बनाता कि उसे फिल्म की पटकथा के लिए बना-बनाया कथा-सूत्र चाहिए। इसके लिए उसे बेहतर लोकप्रिय चीजें- गुलशन नंदा से लेकर चेतन भगत तक ढेर उदाहरण मिल जाएंगे- मिल सकती हैं। साहित्यिक कृति को चुनने में ही गंभीर सृजन के प्रति उसका सम्मान जाहिर हो जाता है; अगर लेखक का भी भरोसा उसमें हो तो अपनी कृति उसे फिल्मकार के विवेक पर छोड़ देनी चाहिए। वह परदे पर संवर भी सकती है, बिगड़ भी सकती है।
हम इस बात का खयाल रखें कि किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म उसके पाठकों का विस्तार करने के लिए नहीं बनाई जाती। न इसलिए कि जिन तक लेखनी न पहुंच सके, चाक्षुष रूप में फिल्म पहुंच जाए। फिल्म शब्दों का दृश्य विधा में अनुवादनहीं हो सकती। यह फिल्म की विधा को कमतर करके देखना होगा, और साहित्य को भी। फिल्मकार के उपकरण जुदा होते हैं। वह रचना को शब्दों के पार ले जाना चाहता है। मुश्किल यहीं पर है, जब साहित्यजगत फिल्म में से साहित्य को हू-ब-हू देखना चाहता है। एक हद तक यह लगभग असंभव अपेक्षा ही है; गद्य का विवरण- नैरेटिव- फिल्म में सिर्फ पार्श्व से बोलकर व्यक्त किया जा सकता है- सूरज का सातवां घोड़ा- पर वह हमेशा शायद ही कारगर साबित हो।
साहित्य पर बनी गंभीर और ईमानदार फिल्म दृश्यों, ध्वनियों, रंगों और प्रकाश के आयामों में एक कृति को समझने की कोशिश होती है। पाठक रचना से हजार अर्थ लेकर बाहर निकलते हैं, एक फिल्मकार भी एक श्रेष्ठ कृति का अपना पाठ प्रस्तुत करता है। इस तरह वह किसी रचना की पुनर्रचना भी करता है, जो बड़ा काम है।
हिंदी में सौ वर्षों में साहित्यिक कृतियों पर सौ फिल्में भी नहीं बनी हैं। कुमार शहानी जैसे फिल्मकार ने माया दर्पण बनाई, पर निर्मल वर्मा उसमें अपनी कहानी देखते थे। शहानी कहते थे, यह उस कहानी का बिंबों में पुनराविष्कार है।
मन्नू भंडारी के उपन्यास आपका बंटीपर फिल्म बनी तो मामला उच्च न्यायालय तक पहुंच गया। अंत में यह समझौता हुआ कि फिल्म आपका बंटीसे जोड़कर नहीं प्रचारित की जाएगी। वह फिल्म समय की धारा नाम से दिखाई गई। बहरहाल, यह व्यावसायिक फिल्म थी। बाजार के लिए किए गए बदलाव छूट के घेरे में नहीं आ सकते।
यहीं मायादर्पण का मामला यहां अलग हो जाता है। शतरंज के खिलाड़ी या उसकी रोटी का भी। दुविधा के सिनेमाई भाष्य में मणि कौल और अमोल पालेकर में रात-दिन का भेद है। श्याम बेनेगल ने भी चरणदास चोर में अपने भाष्य की खूब छूट ली है। कहानी उसे निखारती ही है।
विदेश में साहित्य और सिनेमा का रिश्ता बेहतर है। वहां शेक्सपियर की कृतियों पर बेशुमार फिल्में बनी हैं। एक ही कृति पर अनेक बार फिल्म बनना जाहिर करता है कि हर फिल्मकार कृति को नए सिरे से पढ़ना’, अपनी विधा में आविष्कृत करना चाहता है। बालजाक, सरवांतेस, तोलस्तोय, चार्ल्स डिकंस, टॉमस हार्डी, मार्क ट्वेन, अल्बेयर कामू, ग्राहम ग्रीन, ईएम फॉस्टर, व्लादीमिर नाबोकोव, मार्शल प्रूस्त, एमिल जोला, गुंथर ग्रास, हरमन हेस... सूची बेहद लंबी है। उनकी कृतियों पर अच्छी फिल्में भी मिलती हैं, बुरी भी। गाब्रिएल गार्सिया मार्केस ने अपने तीन उपन्यासों पर बनी फिल्में देखने के बाद निश्चय किया कि अ हंड्रेड इयर्स आॅफ सॉलिट्यूडपर फिल्म बनाने की इजाजत कभी नहीं देंगे।
मैं समझता हूं फिल्म की विधा जब तक कथा का   आधार चाहती है- हालांकि अब इस पद्धति में बदलाव आ रहे हैं- तब तक उसे साहित्य को अपना भाष्य देने की आजादी रहनी चाहिए। साहित्य और सिनेमा का यह सार्थक रिश्ता होगा। हिंदी में तो अनेक कृतियों में सिनेमा की संभावनाएं हैं। किसी कृति का मेरा पाठ मुझ में है, पर मैं यह भी क्यों न जानना चाहूं कि चाक्षुष विधा का कोई गंभीर सर्जक बाणभट्ट की आत्मकथा, नदी के द्वीप, अमृत और विष, दिव्या या मैला आंचल को किस तरह सामने ला सकता है?

Comments

बहुत ही दहरा व जानकारीपूर्ण आलेख
Rahul Singh said…
समग्र और सिलसिलेवार जानकारी.

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