हौले-हौले बदल रही है औरतों की छवि और भूमिका

महिला दिवस विशेष

-अजय ब्रह्मात्मज
    पहले ‘द डर्टी पिक्चर’ और फिर ‘कहानी’ की कामयाबी और स्वीकृति से विद्या बालन को खास पहचान मिली। पुरुष-प्रधान हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दशकों से हीरो की तूती बोलती है। माना जाता है कि हीरो के कंधे पर ही फिल्मों की कामयाबी टिकी रहती है। विद्या बालन की दोनों फिल्मों से साबित हुआ कि हीरोइनें भी कामयाबी का जुआ अपने कंधे पर ले सकती हैं। पिछले साल आई श्रीदेवी की ‘इंग्लिश विंग्लिश’ भी इस बदलते ट्रेंड को पुष्ट करती है। गौरी शिंदे के निर्देशन में लंबे समय के बाद लौटीं श्रीदेवी की यह फिल्म उम्रदराज अभिनेत्री और किरदार के कई पहलुओं को उद्घाटित करती है। ‘इंग्लिश विंग्लिश’ का स्वर आक्रामक नहीं है, लेकिन चेतना नारी अधिकार और स्वतंत्रता की है। अपनी अस्मिता की तलाश की है। रानी मुखर्जी की ‘अय्या’ और करीना कपूर की ‘हीरोइन’ बाक्स आफिस पर कमाल नहीं दिखा सकीं, फिर भी दोनों फिल्में नायिका प्रधान हैं। दोनों में नायक गौण हैं और पुरुषों की भूमिका भी हाशिए पर है। लेकिन इनके साथ ही ‘कॉकटेल’ जैसी फिल्में भी आती हैं, जहां प्रेम हासिल करने के लिए आजादख्याल की वेरोनिका को अपना चोला और दिमाग दोनोंं बदलना पड़ता है। हीरो को पाने के लिए वह मीरा की राह पर चल पड़ती है। कमाल है कि नायिका के इस चरित्रगत भटकाव से अभिनेत्री दीपिका पादुकोण को दिक्कत नहीं होती। उस चरित्र को पर्दे पर निभाना पेशागत निर्णय हो सकता है, लेकिन उसके बदलाव को उचित ठहराने से जाहिर होता है कि पढ़ी-लिखी समझदार और आधुनिक अभिनेत्रियां भी अपनी सोच में अभी तक दुविधाग्रस्त और रूढि़वादी हैं। यह अलग अध्ययन का विषय हो सकता है कि पर्दे पर स्वंतत्र छवि पेश करती अभिनेत्रियां खुद कितनी सजग और स्वतंत्र हैं।
    हौले-हौले ही हिंदी फिल्मों में औरतों की स्थिति बदल रही है। पहले आम तौर पुरुष प्रधान और नारीवादी फिल्मों में स्त्री स्वर सुनाई पड़ता था। मुख्यधारा की फिल्मों में मदर इंडिया के बावजूद इसकी गुंजाइश कम थी। अब मुख्यधारा की छोटी-बड़ी फिल्मों में नायिकाएं और अन्य महिला चरित्र स्वतंत्र होती नजर आ रही हैं। आमिर खान के होने के बावजूद ‘तलाश’ में रीमा कागती ने रानी मुखर्जी का स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखा। वह अपने पति से सवाल करती है और चाहती है कि वह उसके साथ अपनी तकलीफें शेयर करे। वह पुरानी हीरोइनों की तरह बिसूरती नहीं है। वह मांग करती है। जिरह करती है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में नगमा की भूमिका में रिचा चड्ढा अपने गैंगस्टर पति की बेजा हरकतों को बर्दाश्त नहीं करती। यहां तक कि रखैल बनी औरत भी अपने दृष्टिकोण से हक न मिलने पर सरदार खान के खिलाफ दुश्मनों की साजिश का हिस्सा बन जाती है। यह भी तो बगावत है। ‘साहब बीवी और गैंगस्टर’ में बीवी की बगावत हम देख चुके हैं। देखना है कि ‘साहब बीवी और गैंगस्टर रिटन्र्स’ में तिग्मांशु धूलिया बीवी को किस नए रूप में पेश करते हैं? बीवी का बदला अंदाज एक प्रस्थान है। अब वह मीना कुमारी की तरह ‘कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूंगी’ नहीं गाती। वह अपने व्यवहार से साहब की बेवफाई का जवाब ‘कसम तुम्हारी मैं सो पड़ूंगी’ से देती हैं।
    ज्यादातर युवा फिल्मकारों का सामाजिक परिवेश बराबरी का रहा है। पुरुष प्रधान समाज से आने के बावजूद अपनी पढ़ाई-लिखाई और ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने लड़कियों की इज्जत करना सीखा है। उनसे दोस्ती की है और बराबरी के साथ अनुभव बटोरे हैं। इन सभी निर्देशकों की फिल्मों में औरतें छोटी और सहायक भूमिकाओं में होने पर भी स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं। हम उन्हें फैसले लेते देखते हैं। महज शो पीस या नाच-गानों के लिए उन्हें नहीं रखा जाता। उल्लेखनीय है कि देश के दूर-दराज इलाकों से आए ये फिल्मकार नारी चरित्रों को गढऩे में रूढि़ और परंपराएं तोड़ रहे हैं। इनके छोटे प्रयासों को तब बड़ा झटका लगता है, जब तथाकथित बड़ी और कामयाब फिल्मों में हम फिर से औरतों को गौण भूमिकाओं में देखते हैं। पिछले साल एक ‘बर्फी’ के अलावा 100 करोड़ क्लब में आई सभी फिल्मों की नायिकाओं को हम उसी स्वरूप में देखते हैं। हीरो के साथ ठुमके लगाने और प्यार करने के अलावा उनके पास कोई काम ही नहीं रहता, जबकि छोटी फिल्मों में ज्यादातर नायिकाएं कामकाजी होती हैं।
    किसी जमाने में ‘अर्थ’ जैसी फिल्म निर्देशित कर चुके महेश भट्ट की देखरेख में ‘मर्डर 3’ आती है तो हम देखते हैं कि कामकाजी हीरोइनें सारे काम छोडक़र हीरो के आगे-पीछे डोलती नजर आती हैं। क्या हीरो से प्यार करने के लिए अपने करिअर की कुर्बानी दी जा सकती है? अभी के शहरी माहौल में यह सोच संभव नहीं है। फिल्मों में चाहे यह जितना अच्छा लगे और वास्तविक दुनिया में चाहे जितनी भी मजबूरियां और दुश्वारियां हों, लेकिन एक कामकाजी लडक़ी आजादी का आनंद उठाने के बाद सहज ढंग से करिअर नहीं छोड़ देगी। उन्हें बेमेल लडक़े पसंद नहीं हैं। शादी के बाद भी जोड़ी नहीं बनने पर या अंडरस्टैंडिंग विकसित नहीं होने पर आज की लड़कियों को तलाक लेने में देर नहीं लगती।
    चूंकि हिंदी फिल्में मुख्य रूप से पुरुषों की सोच को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं और भारतीय समाज में ज्यादातर पुरुष अभी तक सामंती ढकोसलों से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इसलिए नारी चरित्रों के निर्वाह में लेखक-निर्देशक के अंतर्विरोध नजर आते हैं। स्ािितियां बदल रही हैं। फिल्म निर्माण में लेखन-निर्देशन समेत सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। आप देख लें कि ‘विकी डोनर’ की मां बेटे के लिए खीर बनाने वाली मां नहीं है। वह आराम से ह्विस्की पीती है और अपनी सास के साथ गप्पें लड़ाती है। उस चरित्र का सृजन जूही चतुर्वेदी ने किया था।
    हाल ही में केंद्रीय फिल्म प्रमाण बोर्ड ने एक नया अधिनियम जारी किया है। इसके मुताबिक अब फिल्मों में औरतों पर थप्पड़ नहीं उठाया जा सकता। इस अधिनियम पर विवाद हो सकता है, लेकिन यह भी संकेत मिलता है कि औरतों की बदलती स्थिति के लिहाज से नियम-अधिनियम जोडऩे या बदलने पड़ रहे हैं। तमाम संभावनाओं के बावजूद हिंदी फिल्मों और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में औरतों की भूमिका अभी तक दोयम दर्जे की ही है। पारिश्रमिक से लेकर चरित्र तक उन्हें प्राथमिकता नहीं मिलती। अभी उनके स्तरों पर समानता हासिल करनी है। उसके लिए अवसर चाहिए। फिलहाल एक अच्छी बात हुई है कि कम ही सही, लेकिन ऐसे अवसर मिल रहे हैं।


Comments

सिनेमा के बदलते परिदृश्य पर सार्थक टिप्पणी की है आपने।
sujit sinha said…
बदलते समाज की झलक अब फिल्मों में दिख रही है |

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