छोटी फिल्मों को मिले पुरस्कार
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों के निमित्त तीन बड़े पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी है। इस बार सभी पुरस्कारों की सूची गौर से देखें तो एक जरूरी तब्दीली पाएंगे। जी सिने अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड और फिल्मफेअर अवार्ड तीनों ही जगह ‘बर्फी’ और ‘कहानी’ की धूम रही। इनके अलावा ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘विकी डोनर’, ‘पान सिंह तोमर’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के कलाकारों और तकनीशियनों को पुरस्कृत किया गया है। अपेक्षाकृत युवा और नई प्रतिभाओं को मिले सम्मान से जाहिर हो रहा है कि दर्शकों एवं निर्णायकों की पसंद बदल रही है। उन पर दबाव है। दबाव है कथ्य और उद्देश्य का। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री दावा और यकीन करती है कि मनोरंजन और मुनाफा ही सिनेमा के अंतिम लक्ष्य हैं। खास संदर्भ में यह धारणा सही होने पर भी कहा जा सकता है कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन और मुनाफा नहीं है।
पुरस्कारों की सूची पर नजर डालें तो इनमें एक ‘बर्फी’ के अलावा और कोई भी 100 करोड़ी फिल्म नहीं है। 100 करोड़ी फिल्मों के कलाकारों और तकनीशियनों को पुरस्कार के योग्य नहीं माना गया है। ‘जब तक है जान’, ‘राउडी राठोड़’ और ‘दबंग-2’ के छिटपुट रूप से कुछ परस्कार, मिले हैं। ज्यादातर पुरस्कार कथित छोटी फिल्मों के कलाकारों और तकनीशियनों को मिले हैं। पुरस्कार सूची में उनकी मौजूदगी बड़े बदलाव का संकेत भर है, क्योंकि उनकी मजबूत मौजूदगी के बावजूद पापुलर कैंटगरी में अभी तक पापुलर स्टार ही हावी है। घूम-फिर कर किसी न किसी बहाने शाहरुख खान, सलमान खान, रितिक रोशन और रणबीर कपूर को सामने कर दिया जाता है। हीरोइनों में कट्रीना कैफ और प्रियंका चोपड़ा का नाम लिया जाता है। अर्जुन कपूर और अनुष्का शर्मा, इस पापुलर कैटेगरी के नए नाम हैं।
बाकी पुरस्कार तो छोटी फिल्मों के कलाकारों और तकनीशियनों को दिए गए, लेकिन जब पापुलर कैटेगरी में खास कर सर्वोत्तम अभिनेता के लिए हीरो चुनने की बात आई तो सभी रणबीर कपूर की ओर लपके। निस्संदेह रणबीर कपूर ने ‘बर्फी’ में सुंदर अभिनय किया है। फिल्मी परिवारों से आए वत्र्तमान पीढ़ी के कलाकारों में वे अकेले संजीला आर्टिस्ट हैं। ग्लैमर और इमेज में नहीं बंधे हुए हैं। फिर भी अभिनय के लिहाज से वे इस साल इरफान खान, मनोज बाजपेयी, आयुष्मान खुराना ने उनसे कमतर प्रदर्शन नहीं किया है। चरित्रों को निभाने में वे रणबीर कपूर से मीलों आगे हैं। सिर्फ एक पुरस्कार सूची में इरफान खान को रणबीर कपूर के साथ संयुक्त रूप से सम्मानित किया गया। बाकी के नाम तो कहीं-कहीं नामांकित भी नहीं थे।
पुरस्कार समितियों को ‘बर्फी’ ने बड़ी राहत दी। अगर अनुराग बसु की ‘बर्फी’ बेहतर नहीं बनी होती तो सारे पुरस्कार कथित छोटी फिल्मों को ही मिलते। पुरस्कार समिति ने ‘बर्फी’ पर पुरस्कारों की बारिश कर दी है। मैं ऐसा नहीं कहता कि ‘बर्फी’ को पुरस्कार नहीं मिलने चाहिए थे। ‘बर्फी’ को कुछ ज्यादा ही पुरस्कार मिल गए। सभी को याद होगा कि ‘बर्फी’ को ऑस्कर के लिए भेजे जाने के समय इस पर विदेशी फिल्मों से दृश्य चुराने के आरोप लगे थे। ऑस्कर में यह नामांकन सूची तक नहीं पहुंच पाई। औसत से बेहतर यह फिल्म भारत में सभी तरह के पुरस्कार बटोरने में सफल रही। अगर पुरस्कार समितियों के निर्णायक इसके स्थान पर छोटी फिल्मों को तरजीह देते तो पुरस्कारों की खोई प्रतिष्ठा बढ़ जाती।
बहरहाल, यह गर्व की बात और समय है कि छोटी फिल्मों से जुड़े तकनीशियनों और कलाकारों को पहचान मिल रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन फिल्मों के निर्देशक फिल्मी परिवारों या फिल्म इंडस्ट्री के नहीं हैं। उन्होंने बाहर से आकर अपनी प्रतिभा, लगन और अनवरत कोशिशों से यह मुकाम हासिल किया है। सुजॉय घोष, सुजीत सरकार, अनुराग कश्यप और अनुराग बसु भी पिछले दस-पंद्रह सालों के संघर्ष के बाद यहां पहुंचे हैं। इस साल नवाजुद्दीन सिद्दिकी को पहचान और प्रतिष्ठा मिला, जबकि वे ‘सरफरोश’ के समय से छोटी-मोटी भूमिकाएं निभा रहे हैं।
समीक्षक बदल चुके हैं। दर्शक बदल रहे हैं और अब निर्णायकों को भी बदलना पड़ रहा है। यह समय की मांग और जरूरत है। पहले ही पुरस्कारों की प्रतिष्ठा संदिग्ध हो चुकी है। अगर भविष्य में भी युवा, नई और सही प्रतिभाओं को पुरस्कृत किया जाए तो पुरस्कारों की गरिमा और प्रामाणिकता बढ़ेगी। इस साल के अभी तक के घोषित पुरस्कार इस दिशा में बढ़ते दिख रहे हैं।
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Tamasha-E-Zindagi
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