जोखिम और जिम्मेदारी का काम है एक्शन-शाम कौशल



-अजय ब्रह्मात्मज
    इन दिनों हर दूसरी-तीसरी फिल्म में एक्शन डायरेक्टर के तौर पर शाम कौशल का नाम दिखता है। पिछले दिनों आई ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’  के ओपनिंग सिक्वेंस की काफी चर्चा रही। इसकी एक्शन कोरियोग्राफी शाम कौैशल ने की थी। ‘कृष-3’, ‘धूम-3’, ‘लूटेरा’, ‘मटरू की बिजली का मन्डोला’, और ‘घायल रिटन्र्स’ में उनके एक्शन की कारीगरी हम देखेंगे। उनकी हपिछली फिल्मों में ‘कृष’, ‘कमीने’, ‘कहानी’, ‘3 इडियट’, ‘न्यूयार्क’, ‘ब्लैक फ्रायडे’, ‘ए वेडनेसडे’, आदि का नाम गिनाया जा सकता है। ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ में भी शाम कौशल का ही एक्शन था। शाम कौशल ने अंग्रेजी साहित्य से एम ए करने के बाद एक्शन को करिअर के लिए चुना और आज इस ऊंचाई तक पहुंचे हैं।
्र    शाम कौशल ने सोचा था कि अंग्रेजी साहित्य से एम ए करने के बाद प्राध्यापक बनेंगे, लेकिन उसी साल प्राध्यापक के लिए न्यूनतम योग्यता एमफिल हो गई। आगे की पढ़ाई के पैसे नहीं थे। एमए करने के बाद पंजाब में छोटी-मोटी नौकरी करना संभव नहीं था। दोस्तों की सलाह पर मुंबई आ गए। चेंबूर में 300 रुपए में सेल्समैन की पहली नौकरी मिली। कुछ दिनों में उस नौकरी से मन उचट गया। बेकारी के दिनों में मोहल्ले के पंजाबी स्टंटमैन से दोस्ती हुई। उन्होनें सलाह दी कि जब तक कोई व्यवस्था नहीं होती,तुम हमारे साथ आ जाया करो। इसी दौरान वीरू देवगन से भेंट हो गई। पहले तो उन्होंने समझाया और हतोत्साहित किया, लेकिन बाद में एसोसिएशन की मेंबरशिप के लिए सिफारिश कर दी। शाम कौशल ने शुरू में पप्पू वर्मा की टीम में काम किया। पढ़ाई का यह फायदा हुआ कि उन्होंने स्टंटमैन के तकनीक को बारीकी से समझा और जल्दी से आत्मसात किया। उन दिनों या आज भी शाम कौशल से मिलने पर किसी को यकीन नहीं होता कि ऐसा जहीन व्यक्ति फिल्मों में स्टंट या एक्शन की जिम्मेदारी संभालता होगा। उनसे मिलने पर स्टंटमैन या एक्शन डायरेक्टर की इमेज की धारणा टूट जाती है। उनकी कोशिश रहती है कि वे सेट किरी सामान्य नागरिक की तरह व्यवहार करें।
- एक्शन का मतलब क्या होता है?
0 फिल्मों में स्टोरी के हिसाब से एक्शन आता है। बुराई-अच्छाई की लड़ाई में एक्शन होगा। पहले केवल बदले की कहानियों में एक्शन रखना पड़ता था। अब एंटरटेनिंग एक्शन हो गया है। वह थ्रिल पैदा करता है। सिंपल उदाहरण देता हूं ़ ़ ़ ‘कृष’ की ओपनिंग सीन में रितिक रोशन और प्रियंका चोपड़ा ग्लाइडर से जाते हैं और पेड़ों के बीच छिपते हैं। यह भी एक्शन है। पहाड़ से उतरना, पानी में गिरना या तेज चलना भी एक्शन है। कार जैसे ही स्पीड लेगी, वह एक्शन हो जाएगा।
- एक्शन की कोरियोग्राफी क्या होती है?
0 फिल्मों में ज्यादातर लड़ाई आमने-सामने की होती है। हीरो और विलेन लड़ते हैं। इन दिनों या पहले भी हीरो का हीरोइज्म दिखाने के लिए उसे तीन या ज्यादा व्यक्तियों से एक साथ लडऩा होता था। उन सभी के साथ हीरो के पंच, किक, डिफेंस और अटैक को पहले से सोचना और डिजायन करना पड़ता है। पूरे सिक्वेंस की कोरियाग्राफी होती है। यहां तक कि विलेन की एंट्री को भी टाइमिंग होती है। एक्शन कोरियोग्राफी के साथ साउंड का तालमेल सही हो तो इफेक्ट बढ़ जाता है। दर्शक रोमांचित होते हैं। हमें हर फिल्म में सिचुएशन, लोकेशन और कैरेक्टरराइजेशन का खयाल रखना होता है।
- स्टार की क्षमताओं और योग्यताओं का कितना खयाल रखना पड़ता है?
0 हमें स्टार के प्लस और माइनस पाइंट मालूम रहते हैं। एक्टिंग की तरह ही एक्शन होता है। एक्टर की क्षमता और योग्यता के अनुसार ही सीन लिखे और दिए जाते हैं। अगर एक्टर किसी चीज में कमजोर है तो हम वैसा पंच ही नहीं देते। पहले आडिएंस को चीट कर सकते थे। अब ऐसा मुमकिन नहीं है। अभी हीरो भी रिहर्सल के लिए तैयार रहते हैं। समय देते हैं। एक्शन के लिहाज से हम अभी सबसे अच्छे दौर में हैं।
- ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के ओपनिंग सीन की काफी चर्चा रही। कहते हैं कि उसमें इतनी गोलियां चलाने की क्या जरूरत थी?
0 एक्शन स्टोरी के हिसाब से होता है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के किरदार संगठित अपराधी नहीं थे। वे गिन कर गोलियां नहीं चला सकते। वे कमांडो नहीं हैं। रॉ किस्म के किरदार हैं। रॉ व्यक्ति के हाथों में बंदूक दे देंगे तो क्या होगा? बंदूक पावर का प्रतीक है। बंदूक कंधे पर टांगते या हाथ में लेते ही चाल बदल जाती है। अगर आप ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के दोनों पार्ट देखें तो अंधाधुंध गोलियां चलाने का मतलब समझ में आ जाता है। डॉन को मारने एक आदमी तो जाता नहीं और फिर उन्हें नहीं मालूम कि अंदर में कैसा इंतजाम है? जबरदस्त आक्रमण सीन की डिमांड थी। डर पैदा करने के लिए भी ज्यादा गोलियां चलानी पड़ती हैं।
- पहले एक्शन फिल्मों को बी ग्रेड की फिल्में कहा जाता था। अभी तो सारे बड़े स्टार एक्शन फिल्म करना चाहते हैं?
0 पहले ए ग्रेड के एक्टर एक्शन फिल्में नहीं करते थे, इसलिए आप देखेंगे कि दारा सिंह एक्शन फिल्मों में ज्यादा दिखाई पड़ते थे। बी ग्रेड के एक्टर होते थे, इसलिए बी ग्रेड की फिल्में होती थीं। अमिताभ बच्चन के आने के बाद परिदृश्य बदल गया। एक्शन फिल्में भी ए ग्रेड हो गईं। स्टार से फिल्मों को ग्रेड मिलता है। जॉनर का कोई ग्रेड नहीं होता।
- फिल्मों में एक्शन के हथियार भी बदलते गए हैं?
0 फिल्म सोसायटी का रिफ्लेक्शन है। एके 47 पहले सोसायटी में आई है, फिर फिल्मों में दिखाई पड़ी। पहले लाठी, तलवार, बल्लम से काम चलता था। अभी हर तरह के हथियार आ गए हैं। बम भी हैं।
- इसके बावजूद हीरो-विलेन के बीच हार-जीत का फैसला परस्पर मुठभेड़ से ही होता है। देश-विदेश की फिल्मों में आखिरी लड़ाई में हीरो-विलेन फिजिकल फाइट ही करते हैं?
0 सही सवाल है। दर्शक तब तक रोमांचित नहीं होते, जब तक हीरो और विलेन आमने-सामने नहीं आ जाते। दोनों के क्लोज आने के बाद ही एक्शन पूरा होता है। फिल्मों में बड़ी लड़ाई वास्तव में उस छोटी लड़ाई की तैयारी होती है, जब हीरो अकेला हो और विलेन के सारे आदमी मारे जा चुके हों। दर्शक इस लड़ाई की प्रतीक्षा में रहते हैं। वहां तक पहुंचने के पहले हमें अपनी काबिलियत दिखानी पड़ती है। जाहिर है कि जब दोनों आमने-सामने होंगे तो फिजिकल फाइट होगी। गोली चलाने पर तो चंद सेकेंड में सीन खत्म हो जाएगा।
- एक्शन सिक्वेंस में किन चीजों का ख्याल रखना पड़ता है?
0 मैं इस तरह से डिजायन करता हूं कि थिएटर में बैठा दर्शक रोमांचित हो। विलेन के चेहरे पर डर और भय जाहिर हो। हीरो की वीरता और बहादुरी दिखे। दिल और दिमाग दोनों से एक साथ काम लेना पड़ता है हमें। एक्शन सीन में भी एक्टर को इमोशन पर ध्यान देना पड़ता है। चिल्लाते,मारते या बचते हुए चेहरे पर सही एक्सप्रेशन नहीं आएगा तो एक्शन फीका हो जाएगा। थप्पड़ भी फेक लगेगा। कई एक्टरों को इसमें मुश्किल होती है। उनके बॉडी से एक्शन जाहिर होता है, लेकिन चेहरे पर इमोशन नहीं आ पाता। मेरे लिए ‘एक्शन इज द एक्सटेंशन ऑफ एंगर’  है।
- आप को किन फिल्मों में हुनर दिखाने का मौका मिला?
0 मैं आज भी उसी टेंशन में रहता हूं। बीस साल पहले फाइट डायरेक्टर बना था, तब से अभी तक बदलाव नहीं आया है। अभी तक संतुष्ट नहीं हो सका हूं। रोज नया चैलेंज आता है। अपनी ही फिल्म देख कर लगता है कि इस से अच्छा काम हो सकता था। हर फिल्म से सबक मिलता है। एक्शन बहुत ही जोखिम और जिम्मेदारी का काम है। मेरे फायटर जब एक्शन कर रहे होते हैं तो मेरी सांसें अटकी रहती हैं। कई बार लगता है कि हर्ट अटैक आ जाएगा। मैं सुरक्षा इंतजामों पर बहुत ध्यान देता हूं। कोई लापरवाही नहीं बरतता। कई बार लगता है कि एक्शन डायरेक्टर के बजाए फायटर का काम ही अच्छा था। कोई टेंशन नहीं, जिम्मेदारी नहीं। अभी तो एक्शन के ही सपने आते हैं।
- एक्शन सीन करते-करते आप के व्यवहार और स्वभाव में भी बदलाव आया है क्या?
0 थोड़ा तो आ ही जाता है। पुलिस अधिकारी या फौजी को ही देख लें। उनके पेशे की झलक उनकी जिंदगी में मिलती है। हमें आम लोगों की तरह डर नहीं लगता। मुश्किल सिचुएशन से निकलना आता है। मैं व्यक्तित्व को प्रभावित नहीं होने देना चाहता। हां, जो सीखा है, उसका सही इस्तेमाल करता हूं।
- एक्शन की दृष्टि से कौन सी हिंदी फिल्मों को श्रेष्ठ मानते हैं?
0 ‘शोले’ तो प्रतिमान है। ‘दीवार’ में इनबिल्ट एक्शन था। सनी देओल की ‘घायल’ का एक्शन यादगार है। ‘फूल और कांटे’ में अजय देवगन ने कमाल दिखाया था। अभी एक्शन के साथ तकनीक जुड़ गया है। हमारा काम भी एक तरह से आसान हुआ है।
- अपनी फिल्मों में किन फिल्मों का नाम लेंगे?
0 ‘प्रहार’, ‘कृष’, ‘कमीने’, ‘इश्कजादे’, ‘अशोका’  ़ ़ ़ अभी ‘कृष 3’, ‘धूम 3’ और ‘घायल रिटन्र्स’ आएंगी।

Comments

Ankur Jain said…
श्याम कौशल जी के विषय में इतनी विस्तृत और उपयोगी जानकारी देने के लिए शुक्रिया।।।

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को