फिल्म समीक्षा : जिला गाजियाबाद
-अजय ब्रह्मात्मज
इसी हफ्ते रिलीज हुई 'काय पो चे' से ठीक उलट है 'जिला गाजियाबाद'। सब
कुछ बासी, इतना बासी की अब न तो उसमें स्वाद रहा और न उबाल आता है।
हाल-फिलहाल में हिट हुई सभी मसाला फिल्मों के मसाले लेकर बनाई गई एक
बेस्वाद फिल्म ़ ़ ़ कोई टेस्ट नहीं, कोई एस्थेटिक नहीं। बस धूम-धड़ाका और
गोलियों की बौछार। बीच-बीच में गालियां भी।
निर्माता विनोद बच्चन और निर्देशक आनंद कुमार ने मानो तय कर लिया था कि
अधपकी कहानी की इस फिल्म में वे हाल-फिलहाल में पॉपुलर हुई फिल्मों के
सारे मसाले डाल देंगे। दर्शकों को कुछ तो भा जाए। एक्शन, आयटम नंबर,
गाली-गलौज, बेड सीन, गोलीबारी, एक्शन दृश्यों में हवा में ठहरते और कुलांचे
मारते लोग, मोटरसायकिल की छलांग, एक बुजुर्ग एक्टर का एक्शन, कॉलर डांस ़ ़
़ 'जिला गाजियाबाद' में निर्माता-निर्देशक ने कुछ भी नहीं छोड़ा है।
हालांकि उनके पास तीन उम्दा एक्टर थे - विवेक ओबेराय, अरशद वारसी और रवि
किशन, लेकिन तीनों के किरदार को उन्होंने एक्शन में ऐसा लपेटा है कि उनके
टैलेंट का कचूमर निकल गया है। तीनों ही कलाकार कुछ दृश्यों में शानदार
परफारमेंस देते हैं, फिर भी वे फिल्म में कुछ भी जोड़ नहीं पाते। यह उनकी
सीमा नहीं है। पटकथा ऐसी बेतरतीब है कि वह न तो कहीं से चलती है और न कहीं
पहुंचती है। इस कथ्यहीन फिल्म में संजय दत्त की कद्दावर मौजूदगी भी फिसड्डी
रही है। संजय दत्त का आकर्षण ऐसी फिल्मों की वजह से तेजी से खत्म हो रहा
है। इस फिल्म में अरशद वारसी और रवि किशन ने संजीदगी से अपने किरदारों को
चरित्र दिया है। उनकी मेहनत पर पानी फिर गया है।
निर्माता-निर्देशक को लगता है कि उनकी फिल्म देश के आम दर्शक पसंद
करेंगे। ऐसा नहीं है। आम दर्शकों के पापुलर टेस्ट का भी एक सलीका है। 'जिला
गाजियाबाद' उनमें अरुचि ही पैदा करेगी।
-डेढ़ स्टार
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