निर्देशक की सामन्ती कुर्सी और लेखक का समाजवादी लैपटॉप - दीपांकर गिरि
दीपांकर गिरि अपने परिचय में लिखते हैं....जब सबकुछ सफेद था तो रंग ढूढने निकल पडे। जब रंग मिले तो वापस ब्लैक एंड व्हाइट की तलाश में निकले।बस यूं ही किसी न किसी बहाने चलतो रहे।कहीं कोई मजमा दिखा तो खडे होकर देखने लगे। मजमेबाज़, तमाशेबाज़,जादूगर, बहुरूपिये चलो ढूंढें अपने आसपास इन्हें ..
बचपन में जब फुटबॉल खेलते थे तो
15 -20 लड़कों के बीच से उछलते फुटबाल को देखकर बस एक ही इच्छा रहती थी
कि किसी तरह एक बार फुटबाल मेरे पास भी आ जाए। उतनी भीड़ में बाल कभी
कभार ही अपने पास आता था लेकिन उस एक पल में फुटबॉल को किक करने का जो
रोमांच था वो उस लड़की को देखने में भी नहीं था जिस पर हमारा आवारा दिल
आया हुआ था
कई सालों बाद कई फिल्मों की खुजली के
बाद अपनी पहली फिल्म का पहला शॉट लेते हुए कुछ वैसा ही महसूस हुआ …वो एक
टॉप शॉट था जहाँ से एक शहर भागता दौड़ता अपनी पूरी रवानी में दीखता था
….”कैमरा” और “एक्शन” बोलते हुए एक लडखडाहट थी और एक पल के लिए कुछ समझ
नहीं आया की मैंने क्या शूट किया ….समझ में नहीं आता था की जिस भीडभाड को
मैं रोज़ देखता हूँ वो आज अचानक अलग क्यों लग रहा है ….
फिर समझ में आया कि सिनेमा दरअसल यही है ……चीज़ों को एक नए पर्सपेक्टिव में देखना।
मेरे लिए ये ज़रूरी नहीं था की मैं
कितना अच्छा शूट करूँ …..मेरे लिए ज़रूरी था की मैं उस एक पल को महसूस कर
पाया या नहीं ..अगर उस एक पल ने मुझे फुटबॉल के उस किक का एहसास नहीं
दिलाया तो मेरे लिए ये शॉट कोई मायने नहीं रखता था। ये एक लिटमस टेस्ट था
और मैंने एक पल को जिया था .
लेखक अपने लैपटॉप में जो चाहे लिख
सकता है …अपने सपने लिख सकता है पान खा के पचर पचर थूक सकता है ..बीडी मार
ले …दोस्तों के साथ बतियाते ..उनके साथ दारु पी कर बकचोदी कर सकता है .एक
धुआं उडाती बेफिक्री होती है ..जी भर कर उलटी कर सकता है …लड़कियों को ताड़
सकता है .. ….लेकिन यही लेखक जब निर्देशक होता है तो और उन्ही दोस्तों के
साथ काम कर रहा होता है तब शायद वो कोन्शस हो जाता है।
ज़ाहिर है यूनिट में कई नए लोग होते
हैं और निर्देशक को सब के साथ सामंजस्य बना कर चलना होता है। और इस तरह वो
सबको अपने निर्देश देता रहता है। इस फिल्म के दौरान मैं अक्सर इस सवाल से
उलझता रहा कि निर्देशक ऐसा फ्यूडल क्यों है ….क्यों नहीं वो लेखक की तरह
समाजवादी है ….?
फिर धीरे धीरे मुझे काम करते हुए ये
बात समझ में आती गयी कि कुछ काम फ्यूडल तरीके से करने ही पड़ते हैं …..अपने
सारे सुख वैभव छोड़कर मजदूरों के बीच काम करने वाले डॉक्टर भी एक फ्यूडल
की तरह काम नहीं करेगा तो शायद मजदूरों का सही इलाज नहीं हो पाए।
अब वो निर्देशक अपने उन्ही दोस्तों
को उसे इंस्ट्रक्शन देता है जिनके साथ कल रात वो दारु पी रहा था …ये एक
अजीब सी अवस्था है जिससे गुजरना लाजमी है ….
यहाँ प्रेमचंद की “पंच परमेश्वर” की
कहानी याद आती है ….अलगू चौधरी को जब जुम्मन की खाला जुम्मन के ही खिलाफ
पंच चुनती है तो अलगू चौधरी की मन स्थिति ऐसी ही होगी …जब वो पंच के आसन
पर बैठता है तब वो जुम्मन का दोस्त नहीं रह पाता ….और उसे larger context
में चीजों को देखना होता है….
जैसे आग के लिए पानी का संतुलन बना रहना चाहिए उसी तरह निर्देशक के लिए लेखक का संतुलन बने रहना चाहिए …
to be continued ….(I will write about the idea of the film ..where it came from and how i relate to it)
दीपांकर गिरि के ब्लॉग से साधिकार
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