फिल्मों पर पाबंदी


-अजय ब्रह्मात्मज
    अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदियां बढ़ती जा रही हैं। फिल्मों के मामले में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का प्रमाण मिलने के बाद चंद फिल्मों पर पाबंदी लगाने की मांग को लेकर बहसें चलती रहती हैं। आए दिन व्यक्ति, समूह, संगठन, राजनीतिक पार्टियां और दूसरे स्वार्थी समुदाय विभिन्न कारणों से फिल्मों की रिलीज को बाधित करते हैं। कमल हासन की ‘विश्वरूप’ की रिलीज को चल रहे विवाद के समय पाबंदी का मामला राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया था। इस बार सेंसर बोर्ड औचित्य पर सवाल नहीं किए जा रहे थे। आम धारणा है कि भारत में सेंसर बोर्ड प्रासंगिक नहीं रह गया है। मौजूदा स्वरूप में वह अपनी जिम्मेदारी ढंग से नहीं निभा पा रहा है। निश्चिित ही सेंसर बोर्ड के नियमों-अधिनियमों में परिवर्तन की जरूरत है।
    दरअसल, सेंसर बोर्ड के सदस्य हर फिल्म की रिलीज के पहले उसे देखते हैं। अधिनियम के अनुसार वे दृश्यों, संवादों या पूरी फिल्म पर पाबंदी लगाने की हिदायत देते हैं। सेंसर बोर्ड के नियम 3 ़ 3 के मुताबिक , ‘तीन साल पहले उच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया कि फिल्मों का सेंसरशिप इसलिए जरूरी है कि एक फिल्म विचार और प्रवृत्ति को प्रेरित करती है, जबकि मुद्रित शब्दों की तुलना में वह कहीं अधिक अनुपात में ध्यान और स्मरण सुनिश्चित करती हैं। थिएटर के अद्र्ध-अंधेरे कमरे में सभी विचलित विचारों को दूर कर के बैठे हुए दर्शकों के मन में अभिनय,वाणी, दृश्य और ध्वनि के मेल से न सिर्फ उसके मन पर बल्कि उनके विचारों पर भी प्रभाव पड़ता है।’ इस वजह से न्यायालय ने सेंसरशिप को भारतीय समाज के लिए अत्यावश्यक माना। सेंसर बोर्ड का काम और परिणाम कमोबेश संतोषजनक रहा है। हालांकि फिल्मकार खुले समाज में ‘सेल्फ सेंसरशिप’ की वकालत करते हैं। इस मांग के उचित और और जरूरी होने के बाद सच्चाई है कि भारत जैसे विविध और अद्र्ध विकसित देश में पूरी आजादी दे देने का मतलब अनेक खतरों से खेलना होगा।
    लखनऊ के आरटीआई कार्यकर्ता अमिताभ एवं नूतन ठाकुर ने सेंसर बोर्ड से 2001 से 2011 के बीच पाबंदी लगी फिल्मों की जानकारी मांगी थी। उनके अनुसार ग्यारह सालों में सेंसर बोर्ड ने कुल 256 फिल्मों पर पाबंदी लगाई। उन्हें सार्वजनिक प्रदर्शन से रोका। ये फिल्में देश के आम दर्शकों तक नहीं पहुंच सकीं। सेंसर बोर्ड पर हम लगातार प्रश्न चिह्न लगाते रहे हैं, लेकिन वत्र्तमान संदर्भ में उनके इन निर्णयों की प्रशंसा करनी होगी।
    2001 से 2011 के बीच सेंसर बोर्ड ने जिन 256 फिल्मों पर पाबंदी लगाई, उनमें सर्वाधिक फिल्में हिंदी की थीं। कुल 78। इस दरम्यान 52 अंग्रेजी, 51 तमिल, 33 कन्नड़, 15 तेलुगू, 14 मलयालम, 5 मराठी, 2 हरियाणवी, 2 भोजपुरी और बंगाली-गुजराती की एक-एक फिल्म रही। सिर्फ फिल्मों के शीर्षक ही पढ़ें तो उनके कंटेंट का आभास हो सकता है। ‘फ्रिवलस सेक्स’, ‘आदमखोर हसीना’, ‘कातिल शिकारी’, ‘आलिंगनम’, ‘आग है ये बदन’, ‘जो अंदर फिट वो बाहर भी हिट’, ‘रंभा’, ‘सनम हरजाई’, ‘हुस्न बेवफा’ आदि। अगर इन फिल्मों को प्रदर्शन की अनु़मति मिली होती तो फिल्मों के गिरते स्तर में इजाफा ही होता। अमिताभ नूतन ठाकुर की सूची में राहुल ढोलकिया की ‘परजानिया’ का नाम देख कर थोड़ा आश्चर्य हुआ। राजनीतिक कंटेंट की वजह से उस पर पाबंदी लगी थी। सेक्स और वासना की फूहड़ फिल्मों पर अवश्य पाबंदी लगनी चाहिए।
    प्रदर्शित फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण करें तो पाएंगे कि कई पापुलर फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर इन दिनों फूहड़ता पड़ोसी जा रही है। अफसोस की बात है कि इन फिल्मों के साथ पापुलर सितारों का नाम जुड़ा है। इन फिल्मों की अश्लीलता मनोरंजन के आवरण में रहती है। सेंसर बोर्ड के सदस्यों का काम निश्चित ही मुश्किल है। उन्हें विवेक, मर्यादा और मूल्य के साथ दबाव और प्रभाव का भी खयाल रखना पड़ता है। 

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