बाबूजी की कमी खलती है- अमिताभ बच्चन
यह इंटरव्यू रघुवेन्द्र सिंह के ब्लॉग से लिया गया है चवन्नी के पाठकों के लिए....
अमिताभ बच्चन ने दिल में अपने बाबूजी हरिवंशराय बच्चन की स्मृतियां संजोकर रखी हैं. बाबूजी के साथ रिश्ते की मधुरता और गहराई को अमिताभ बच्चन से विशेष भेंट में रघुवेन्द्र सिंह ने समझने का प्रयास किया
लगता है कि अमिताभ बच्चन के समक्ष उम्र ने हार मान ली है. हर वर्ष जीवन का एक नया बसंत आता है और अडिग, मज़बूत और हिम्मत के साथ डंटकर खड़े अमिताभ को बस छूकर गुज़र जाता है. वे सत्तर वर्ष के हो चुके हैं, लेकिन उन्हें बुजऱ्ुग कहते हुए हम सबको झिझक होती है. प्रतीत होता है िक यह शब्द उनके लिए ईज़ाद ही नहीं हुआ है.
उनका $कद, गरिमा, प्रतिष्ठा, लोकप्रियता समय के साथ एक नई ऊंचाई छूती जा रही है. वह साहस और आत्मविश्वास के साथ अथक चलते, और बस चलते ही जा रहे हैं. वह अंजाने में एक ऐसी रेखा खींचते जा रहे हैं, जिससे लंबी रेखा खींचना आने वाली कई पीढिय़ों के लिए चुनौती होगी. वह नौजवान पीढ़ी के साथ $कदम से $कदम मिलाकर चलते हैं और अपनी सक्रियता एवं ऊर्जा से मॉडर्न जेनरेशन को हैरान करते हैं.
अपने बाबूजी हरिवंशराय बच्चन के लेखन को वह सबसे बड़ी धरोहर मानते हैं. आज भी विशेष अवसरों पर उन्हें बाबूजी की याद आती है. पिछले महीने 11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन का जन्मदिन बहुत धूमधाम से अनोखे अंदाज़ में सेलीब्रेट किया गया. इस माह की 27 तारी$ख को उनके बाबूजी का जन्मदिन है. प्रस्तुत है अमिताभ बच्चन से उनके जन्मदिन एवं उनके बाबूजी के बारे में विस्तृत बातचीत.
पिछले दिनों आपके सत्तरवें जन्मदिन को लेकर आपके शुभचिंतकों, प्रशंसकों और मीडिया में बहुत उत्साह रहा. आपकी मन:स्थिति क्या है?
मन:स्थिति यह है कि एक और साल बीत गया है और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों इतना उत्साह है सबके मन में? प्रत्येक प्राणी के जीवन का एक साल बीत जाता है, मेरा भी एक और साल निकल गया.
दुनिया की नज़र में आपके पास सब कुछ है, मगर जीवन के इस पड़ाव पर अब आपको किन चीज़ों की आकांक्षा है?
हमने कभी इस दृष्टि से न अपने आप को, न अपने जीवन को और न अपने व्यवसाय को देखा है. मैंने हमेशा माना है कि जैसे-जैसे, जो भी हमारे साथ होता जा रहा है, वह होता रहे. ईश्वर की कृपा बनी रहे. परिवार स्वस्थ रहे. मैंने कभी नहीं सोचा कि कल क्या करना है, ऐसा करने से क्या होगा या ऐसा न करने से क्या होगा. जीवन चलता जाता है, हम भी उसमें बहते जाते हैं.
एक सत्तर वर्षीय पुरुष को बुजुर्ग कहा जाता है, लेकिन आपके व्यक्तित्व पर यह शब्द उपयुक्त प्रतीत नहीं होता.
अब क्या बताऊं मैं इसके बारे में? बहुत बड़ी गलतफहमी लोगों को. लेकिन हूं तो मैं सत्तर वर्ष का. आजकल की जो नौजवान पीढ़ी है, उसके साथ हिलमिल जाने का मन करता है. क्या उनकी सोच है, क्या वो कर रहे हैं, उसे देखकर अच्छा लगता है. खासकर के हमारी फिल्म इंडस्ट्री की जो नई पीढ़ी है, जो नए कलाकार हैं, उन सबका जो एक आत्मबल है, एक ऐसी भावना है कि उनको सफल होना है और उनको मालूम है कि उसके लिए क्या-क्या करना चाहिए. इतना कॉन्फिडेंस हम लोगों में नहीं था. अभी भी नहीं है. अभी भी हम लोग बहुत डरते हैं. लेकिन आज की पीढ़ी जो है, वो हमसे ज्यादा ता$कतवर है और बहुत ही सक्षम तरीके से अपने करियर को, अपने जीवन को नापा-तौला है और फिर आगे बढ़े हैं. इतनी नाप-तौल हमको तो नहीं आती. लेकिन आकांक्षाएं जो हैं, वो मैं दूसरों पर छोड़ता हूं. आप यदि कोई चीज़ लाएं कि आपने ये नहीं किया है, आपको ऐसे करना चाहिए, तो मैं उस पर विचार करूंगा. आप कहें कि अपने आपके लिए सोचकर बताइए, तो वो मैं नहीं करता. इतनी क्षमता मुझमें नहीं है कि मैं देख सकूं कि मुझे क्या करना है.
आप जिस तरीके से नौजवान पीढ़ी के साथ कदम से $कदम मिलाकर चलते हैं, वह देखकर लोगों को ताज्जुब होता है कि आप कैसे कर लेते हैं?
ये सब कहने वाली बातें हैं. कष्ट तो होता है, शारीरिक कष्ट होता है. अब जितना हो सकता है, उतना करते हैं, जब नहीं होता है तो बैठ जाते हैं. लेकिन ऐसा कहना कि न जाने कहां से एनर्जी आ रही है, तो क्या कहूं मैं? मैं ऐसा मानता हूं कि जब ये निश्चित हो जाए कि ये काम करना है, तो उसके बाद पूरी दृढ़ता और लगन के साथ उसे करना चाहिए. परिणाम क्या होता है, यह बाद में देखना चाहिए. एक बार जो तय हो गया, उसे हम करते हैं.
क्या आप मानते हैं कि आप शब्दों, विशेषणों आदि से ऊपर उठ चुके हैं? इस बारे में सोचना पड़ता है कि आपके नाम के साथ क्या विशेषण लगाएं?
मैं अपने बारे में कैसे मान सकता हूं? और ये जो तकलीफ है, वह आपकी है. मुझ पर क्यों थोप रहे हैं आप? मैंने तो कभी ऐसा माना नहीं है. आप लोग तो बहुत अच्छी-अच्छी बातें लिखते हैं, अच्छे-अच्छे खिताब देते हैं मुझे. मैंने कभी नहीं माना है उनको, तो मेरे लिए वह ठीक है. अब आप को कष्ट हो रहा हो, तो अब आप जानिए.
बचपन में अम्मा और बाबूजी आपका जन्मदिन किस प्रकार सेलीब्रेट करते थे?
जैसे आम घरों में मनाया जाता था. हम छोटे थे, तो हमारी उम्र के बच्चों के लिए पार्टी-वार्टी दी जाती थी, केक कटता था, कैंडल लगता है. हालांकि ये प्रथा अभी तक चल रही है. अंग्रेज़ चले गए, अपनी प्रथाएं छोड़ गए. पता नहीं क्यों अभी तक केक काटने की प्रथा बनी हुई है! मैं तो धीरे-धीरे उससे दूर हटता जा रहा हूं. बड़ा अजीब लगता है मुझे कि फूंक मारो, कैंडल बुझ जाए. जितनी उम्र है, उतने कैंडल लगाओ. बाबूजी भी इसको कुछ ज़्यादा पसंद नहीं करते थे. इसलिए उन्होंने एक छोटी-सी कविता लिखी थी, जिसे जन्मदिन के दिन वो गाया करते थे. हर्ष नव, वर्ष नव...
अभिषेक बच्चन ने हालिया भेंट में बताया कि घर के किसी सदस्य के जन्मदिन पर दादाजी उपहार स्वरूप कविता लिखकर देते थे. क्या आपने उन्हें सहेजकर रखा है?
जी, वह एक छोटी-सी कविता लिखकर लाते थे. ज़्यादातर तो हर्ष नव, वर्ष नव... ही हम सुनते थे. उसके बाद बाबूजी-अम्माजी कई जगह गाते थे इसको.
क्या बचपन में आपने बाबूजी से किसी गिफ्ट की मांग की थी? क्या आपकी मांगों को वो पूरा करते थे? उन दिनों इतने समृद्ध नहीं थे आप लोग.
कई बार हमने ऐसी मांग की, लेकिन मां-बाबूजी की परिस्थितियां ऐसी नहीं थीं कि वह हमें मिल सके तो हम निराश हो जाते थे. और अभी यह सुनकर शायद अजीब लगे, लेकिन मेरे स्कूल में एक क्रिकेट क्लब बना और उसमें भर्ती होने के लिए मेंबरशिप फीस थी दो रुपए. मैं मां से मांगने गया, तो उन्होंने कहा कि दो रुपए नहीं हैं हमारे पास. एक बार मैंने कहा कि मुझे कैमरा चाहिए. पुराने जमाने में एक बॉक्स कैमरा होता था, वो एक-एक आने इकट्ठा करके मां जी ने अंत में मुझे कैमरा दिया.
कैमरे का शौक आपको कब लगा? पहला कैमरा आपने कब लिया?
शायद मैं दस या गयारह वर्ष का रहा होऊंगा. कुछ ऐसे ही सडक़ पर पेड़-वेड़ दिखता था, तो लगता था कि यह बहुत खूबसूरत है, उसकी छवि उतारनी चाहिए और इसलिए हमने मां जी से कहा कि हमको एक बॉक्स कैमरा लाकर दो. अभी भी बहुत सारे कैमरे हैं. ये हैं परेश (इंटरव्यू के दौरान हमारी तस्वीरें क्लिक कर रहे शख्स), यही देखभाल करते हैं. कैमरे का जो भी लेटेस्ट मॉडल निकलता है, उसे प्राप्त करना और उसे चलाना अच्छा लगता है मुझे. मैं घर में ही तस्वीरें लेता हूं, बच्चों की, परिवार की.
आपमें और अजिताभ में बाबूजी का लाडला कौन था? कौन उनके सानिध्य में ज़्यादा रहता था? बराबरी का हिस्सा था और हमेशा बाबूजी ने कहा कि जो भी होगा, आधा-आधा कर लो उसको.
क्या बाबूजी आपके स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आया करते थे? क्या वे सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए आपका उत्साहवर्द्धन किया करते थे?
अब पता नहीं कि फाउंडर डे पर जो स्कूल प्ले होता है, उसको एक सांस्कृतिक ओहदा दिया जाए या... लेकिन जब भी हमारा फाउंडर डे होता था, तो मां-बाबूजी आते थे. हम नैनीताल में पढ़ रहे थे. वो लोग आते थे और हफ्ता-दस दिन हमारे साथ गुज़ारते थे. हमारा नाटक देखते थे. हमेशा उन्होंने हमारा साथ दिया. मां जी ने स्पोट्र्स में प्रोत्साहित किया.
क्या आप बचपन में उनके संग कवि सम्मेलनों में जाते थे?
जी. प्रत्येक कवि सम्मेलन में बाबूजी ले जाते थे और मैं भी साथ जाता था. रात-बिरात दिल्ली के पास या इलाहाबाद के पास मैं उनके साथ जाता था.
बाबूजी के कद, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा का ज्ञान आपको कब हुआ?
सारी ज़िन्दगी. मैं तो जब पैदा हुआ, तभी से बच्चन जी, बच्चन जी थे. और हमेशा मैं था हरिवंश राय बच्चन का पुत्र अमिताभ. कहीं भी हम जाएं, तो लोग कहें कि ये बच्चन जी के बेटे हैं. उनकी प्रतिष्ठा जग ज़ाहिर थी.
लगता है कि अमिताभ बच्चन के समक्ष उम्र ने हार मान ली है. हर वर्ष जीवन का एक नया बसंत आता है और अडिग, मज़बूत और हिम्मत के साथ डंटकर खड़े अमिताभ को बस छूकर गुज़र जाता है. वे सत्तर वर्ष के हो चुके हैं, लेकिन उन्हें बुजऱ्ुग कहते हुए हम सबको झिझक होती है. प्रतीत होता है िक यह शब्द उनके लिए ईज़ाद ही नहीं हुआ है.
उनका $कद, गरिमा, प्रतिष्ठा, लोकप्रियता समय के साथ एक नई ऊंचाई छूती जा रही है. वह साहस और आत्मविश्वास के साथ अथक चलते, और बस चलते ही जा रहे हैं. वह अंजाने में एक ऐसी रेखा खींचते जा रहे हैं, जिससे लंबी रेखा खींचना आने वाली कई पीढिय़ों के लिए चुनौती होगी. वह नौजवान पीढ़ी के साथ $कदम से $कदम मिलाकर चलते हैं और अपनी सक्रियता एवं ऊर्जा से मॉडर्न जेनरेशन को हैरान करते हैं.
अपने बाबूजी हरिवंशराय बच्चन के लेखन को वह सबसे बड़ी धरोहर मानते हैं. आज भी विशेष अवसरों पर उन्हें बाबूजी की याद आती है. पिछले महीने 11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन का जन्मदिन बहुत धूमधाम से अनोखे अंदाज़ में सेलीब्रेट किया गया. इस माह की 27 तारी$ख को उनके बाबूजी का जन्मदिन है. प्रस्तुत है अमिताभ बच्चन से उनके जन्मदिन एवं उनके बाबूजी के बारे में विस्तृत बातचीत.
पिछले दिनों आपके सत्तरवें जन्मदिन को लेकर आपके शुभचिंतकों, प्रशंसकों और मीडिया में बहुत उत्साह रहा. आपकी मन:स्थिति क्या है?
मन:स्थिति यह है कि एक और साल बीत गया है और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों इतना उत्साह है सबके मन में? प्रत्येक प्राणी के जीवन का एक साल बीत जाता है, मेरा भी एक और साल निकल गया.
दुनिया की नज़र में आपके पास सब कुछ है, मगर जीवन के इस पड़ाव पर अब आपको किन चीज़ों की आकांक्षा है?
हमने कभी इस दृष्टि से न अपने आप को, न अपने जीवन को और न अपने व्यवसाय को देखा है. मैंने हमेशा माना है कि जैसे-जैसे, जो भी हमारे साथ होता जा रहा है, वह होता रहे. ईश्वर की कृपा बनी रहे. परिवार स्वस्थ रहे. मैंने कभी नहीं सोचा कि कल क्या करना है, ऐसा करने से क्या होगा या ऐसा न करने से क्या होगा. जीवन चलता जाता है, हम भी उसमें बहते जाते हैं.
एक सत्तर वर्षीय पुरुष को बुजुर्ग कहा जाता है, लेकिन आपके व्यक्तित्व पर यह शब्द उपयुक्त प्रतीत नहीं होता.
अब क्या बताऊं मैं इसके बारे में? बहुत बड़ी गलतफहमी लोगों को. लेकिन हूं तो मैं सत्तर वर्ष का. आजकल की जो नौजवान पीढ़ी है, उसके साथ हिलमिल जाने का मन करता है. क्या उनकी सोच है, क्या वो कर रहे हैं, उसे देखकर अच्छा लगता है. खासकर के हमारी फिल्म इंडस्ट्री की जो नई पीढ़ी है, जो नए कलाकार हैं, उन सबका जो एक आत्मबल है, एक ऐसी भावना है कि उनको सफल होना है और उनको मालूम है कि उसके लिए क्या-क्या करना चाहिए. इतना कॉन्फिडेंस हम लोगों में नहीं था. अभी भी नहीं है. अभी भी हम लोग बहुत डरते हैं. लेकिन आज की पीढ़ी जो है, वो हमसे ज्यादा ता$कतवर है और बहुत ही सक्षम तरीके से अपने करियर को, अपने जीवन को नापा-तौला है और फिर आगे बढ़े हैं. इतनी नाप-तौल हमको तो नहीं आती. लेकिन आकांक्षाएं जो हैं, वो मैं दूसरों पर छोड़ता हूं. आप यदि कोई चीज़ लाएं कि आपने ये नहीं किया है, आपको ऐसे करना चाहिए, तो मैं उस पर विचार करूंगा. आप कहें कि अपने आपके लिए सोचकर बताइए, तो वो मैं नहीं करता. इतनी क्षमता मुझमें नहीं है कि मैं देख सकूं कि मुझे क्या करना है.
आप जिस तरीके से नौजवान पीढ़ी के साथ कदम से $कदम मिलाकर चलते हैं, वह देखकर लोगों को ताज्जुब होता है कि आप कैसे कर लेते हैं?
ये सब कहने वाली बातें हैं. कष्ट तो होता है, शारीरिक कष्ट होता है. अब जितना हो सकता है, उतना करते हैं, जब नहीं होता है तो बैठ जाते हैं. लेकिन ऐसा कहना कि न जाने कहां से एनर्जी आ रही है, तो क्या कहूं मैं? मैं ऐसा मानता हूं कि जब ये निश्चित हो जाए कि ये काम करना है, तो उसके बाद पूरी दृढ़ता और लगन के साथ उसे करना चाहिए. परिणाम क्या होता है, यह बाद में देखना चाहिए. एक बार जो तय हो गया, उसे हम करते हैं.
क्या आप मानते हैं कि आप शब्दों, विशेषणों आदि से ऊपर उठ चुके हैं? इस बारे में सोचना पड़ता है कि आपके नाम के साथ क्या विशेषण लगाएं?
मैं अपने बारे में कैसे मान सकता हूं? और ये जो तकलीफ है, वह आपकी है. मुझ पर क्यों थोप रहे हैं आप? मैंने तो कभी ऐसा माना नहीं है. आप लोग तो बहुत अच्छी-अच्छी बातें लिखते हैं, अच्छे-अच्छे खिताब देते हैं मुझे. मैंने कभी नहीं माना है उनको, तो मेरे लिए वह ठीक है. अब आप को कष्ट हो रहा हो, तो अब आप जानिए.
बचपन में अम्मा और बाबूजी आपका जन्मदिन किस प्रकार सेलीब्रेट करते थे?
जैसे आम घरों में मनाया जाता था. हम छोटे थे, तो हमारी उम्र के बच्चों के लिए पार्टी-वार्टी दी जाती थी, केक कटता था, कैंडल लगता है. हालांकि ये प्रथा अभी तक चल रही है. अंग्रेज़ चले गए, अपनी प्रथाएं छोड़ गए. पता नहीं क्यों अभी तक केक काटने की प्रथा बनी हुई है! मैं तो धीरे-धीरे उससे दूर हटता जा रहा हूं. बड़ा अजीब लगता है मुझे कि फूंक मारो, कैंडल बुझ जाए. जितनी उम्र है, उतने कैंडल लगाओ. बाबूजी भी इसको कुछ ज़्यादा पसंद नहीं करते थे. इसलिए उन्होंने एक छोटी-सी कविता लिखी थी, जिसे जन्मदिन के दिन वो गाया करते थे. हर्ष नव, वर्ष नव...
अभिषेक बच्चन ने हालिया भेंट में बताया कि घर के किसी सदस्य के जन्मदिन पर दादाजी उपहार स्वरूप कविता लिखकर देते थे. क्या आपने उन्हें सहेजकर रखा है?
जी, वह एक छोटी-सी कविता लिखकर लाते थे. ज़्यादातर तो हर्ष नव, वर्ष नव... ही हम सुनते थे. उसके बाद बाबूजी-अम्माजी कई जगह गाते थे इसको.
क्या बचपन में आपने बाबूजी से किसी गिफ्ट की मांग की थी? क्या आपकी मांगों को वो पूरा करते थे? उन दिनों इतने समृद्ध नहीं थे आप लोग.
कई बार हमने ऐसी मांग की, लेकिन मां-बाबूजी की परिस्थितियां ऐसी नहीं थीं कि वह हमें मिल सके तो हम निराश हो जाते थे. और अभी यह सुनकर शायद अजीब लगे, लेकिन मेरे स्कूल में एक क्रिकेट क्लब बना और उसमें भर्ती होने के लिए मेंबरशिप फीस थी दो रुपए. मैं मां से मांगने गया, तो उन्होंने कहा कि दो रुपए नहीं हैं हमारे पास. एक बार मैंने कहा कि मुझे कैमरा चाहिए. पुराने जमाने में एक बॉक्स कैमरा होता था, वो एक-एक आने इकट्ठा करके मां जी ने अंत में मुझे कैमरा दिया.
कैमरे का शौक आपको कब लगा? पहला कैमरा आपने कब लिया?
शायद मैं दस या गयारह वर्ष का रहा होऊंगा. कुछ ऐसे ही सडक़ पर पेड़-वेड़ दिखता था, तो लगता था कि यह बहुत खूबसूरत है, उसकी छवि उतारनी चाहिए और इसलिए हमने मां जी से कहा कि हमको एक बॉक्स कैमरा लाकर दो. अभी भी बहुत सारे कैमरे हैं. ये हैं परेश (इंटरव्यू के दौरान हमारी तस्वीरें क्लिक कर रहे शख्स), यही देखभाल करते हैं. कैमरे का जो भी लेटेस्ट मॉडल निकलता है, उसे प्राप्त करना और उसे चलाना अच्छा लगता है मुझे. मैं घर में ही तस्वीरें लेता हूं, बच्चों की, परिवार की.
आपमें और अजिताभ में बाबूजी का लाडला कौन था? कौन उनके सानिध्य में ज़्यादा रहता था? बराबरी का हिस्सा था और हमेशा बाबूजी ने कहा कि जो भी होगा, आधा-आधा कर लो उसको.
क्या बाबूजी आपके स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आया करते थे? क्या वे सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए आपका उत्साहवर्द्धन किया करते थे?
अब पता नहीं कि फाउंडर डे पर जो स्कूल प्ले होता है, उसको एक सांस्कृतिक ओहदा दिया जाए या... लेकिन जब भी हमारा फाउंडर डे होता था, तो मां-बाबूजी आते थे. हम नैनीताल में पढ़ रहे थे. वो लोग आते थे और हफ्ता-दस दिन हमारे साथ गुज़ारते थे. हमारा नाटक देखते थे. हमेशा उन्होंने हमारा साथ दिया. मां जी ने स्पोट्र्स में प्रोत्साहित किया.
क्या आप बचपन में उनके संग कवि सम्मेलनों में जाते थे?
जी. प्रत्येक कवि सम्मेलन में बाबूजी ले जाते थे और मैं भी साथ जाता था. रात-बिरात दिल्ली के पास या इलाहाबाद के पास मैं उनके साथ जाता था.
बाबूजी के कद, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा का ज्ञान आपको कब हुआ?
सारी ज़िन्दगी. मैं तो जब पैदा हुआ, तभी से बच्चन जी, बच्चन जी थे. और हमेशा मैं था हरिवंश राय बच्चन का पुत्र अमिताभ. कहीं भी हम जाएं, तो लोग कहें कि ये बच्चन जी के बेटे हैं. उनकी प्रतिष्ठा जग ज़ाहिर थी.
निजी जीवन पर अपने बाबूजी का सबसे गहरा असर क्या मानते हैं? क्या हिंदी
भाषा पर आपकी इतनी ज़बरदस्त पकड़ का श्रेय हम उन्हें दे सकते हैं?
हां, क्यों नहीं. मैंने सबसे अधिक उन्हीं को पढ़ा है. उनकी जो कविताएं हैं, जो लेखन है, जो भी छोटा-मोटा ज्ञान मिला है, उन्हीं से मिला है. लेकिन हिंदी को समझना और उसका उच्चारण करना, दो अलग-अलग बातें हैं. मैं नहीं मानता हूं कि मेरी जिज्ञासा या मेरा ज्ञान हिंदी के प्रति बहुत ज्यादा अच्छा है. लेकिन मैं ऐसा समझता हूं कि किसी भाषा का उच्चारण सही होना चाहिए. उसमें त्रुटियां नहीं होनी चाहिए. हिंदी बोलें या गुजराती या तमिल या कन्नड़ बोलें, तो उसे सही ढंग से बोलने का हमारे मन में हमेशा एक रहता है. और बिना बाबूजी के असर के मैं मानता हूं कि मेरा जीवन बड़ा नीरस होता. स्वयं को भागयशाली समझता हूं कि मैं मां-बाबूजी जैसे माता-पिता की संतान हूं. माता जी सिक्ख परिवार से थीं और बहुत ही अमीर घर की थीं. उनके फादर बार एटलॉ थे उस जमाने में. वह रेवेन्यू मिनिस्टर थे पंजाब सरकार के पटियाला में. अंग्रेजी, विलायती नैनीज़ होती थीं उनकी देखभाल के लिए. उस वातावरण से माता जी आईं और उन्होंने बाबूजी के साथ ब्याह किया. जो कि लोअर मीडिल क्लास से थे, उनके पास व्यवस्था ज़्यादा नहीं थी. ज़मीन पर बैठकर पढ़ाई-लिखाई करते थे, मिट्टी के तेल की लालटेन जलाकर काम करते थे, लाइट नहीं होती थी उन दिनों. मुझे लगता है कि कहीं न कहीं मां जी का जो वातावरण था, जो उनके खयाल थे, वह बहुत ही पश्चिमी था और बाबूजी का बहुत ही उत्तरी था. इन दोनों का इस्टर्न और वेस्टर्न मिश्रण जो है, वो मुझे प्राप्त हुआ. मैं अपने आप को बहुत भागयशाली समझता हूं कि इस तरह का वातावरण हमारे घर के अंदर हमेशा फलता रहा. कई बातें थीं, जो बाबूजी को शायद नहीं पसंद आती होंगी, लेकिन कई बातें थीं, जिसमें मां जी की रुचि थी- जैसे सिनेमा जाना, थिएटर देखना. इसमें बाबूजी की ज़्यादा रुचि नहीं होती थी. वह कहते थे कि यह वेस्ट ऑफ टाइम है, घर बैठकर पढ़ो. मां जी सोचती थीं कि हमारे चरित्र को और उजागर करने के लिए ज़रूरी है कि पढ़ाई के साथ-साथ थोड़ा-सा खेलकूद भी किया जाए. मां जी खुद हमें रेस्टोरेंट ले जाती थीं, बाबूजी न भी जाते हों. तो ये तालमेल था उनका जीवन के प्रति और वो संगम हमको मिल गया.
दोनों अलग-अलग विचारधारा के लोग थे. आप किससे अधिक जुड़ाव महसूस करते थे?
दोनों से ही. उत्तरी-पश्चिमी दोनों सभ्यताएं हमें उनसे प्राप्त हुईं. और उनमें अंतर कब और कहां लाना है, यह हमारे ऊपर निर्भर करता है. वो सारा जो मिश्रण है, वह हमको सोचकर करना पड़ता है.
जया बच्चन के फिल्मफेयर को दिए गए एक पुराने साक्षात्कार में हमने पाया कि आपको लिखने का बहुत शौक है. उन्होंने बताया है कि जब आप काम ज़्यादा नहीं कर रहे थे, तो अपने कमरे में एकांत में लिखते रहते हैं. क्या आप लिखते थे, वो उन्होंने नहीं बताया है.
अच्छा हुआ कि वो उन्होंने नहीं बताया है, क्योंकि मुझसे भी आपको नहीं पता चलने वाला है कि मैंने क्या लिखा उन दिनों. बैठकर कुछ पढ़ते-लिखते रहना, फिर सितार उठाकर बजा दिया, गिटार उठाकर बजा लिया. ये सब हमको आता नहीं है, लेकिन ऐसे ही करते रहते थे.
क्या बाबूजी की तरह आप भी कविताएं लिखते हैं?
कविता हमने नहीं लिखी. अस्पताल में जब था मैं 1982 में, कुली के एक्सीडेंट के बाद, उस समय एक दिन ऐसे ही भावुक होकर हमने अंग्रेज़ी में एक कविता लिख दी. वो हमने बाबूजी को सुनाई, जब वो हमसे मिलने आए. वो चुपचाप उसे ले गए और अगले दिन आकर कहा उसका हिंदी अनुवाद करके हमको दिखाया. उन्होंने कहा कि ये कविता बहुत अच्छी लिखी है, हमने इसका हिंदी अनुवाद किया है. ज़ाहिर है कि उनका जो हिंदी अनुवाद था, वह हमारी अंग्रेज़ी से बेहतर था. वो कविता शायद धर्मयुग वगैरह में छपी थी.
जीवन में किन-किन पड़ावों पर आपको बाबूजी और अम्मा की कमी बहुत अखरती है?
प्रतिदिन कुछ न कुछ जीवन में ऐसा बीतता है, जब लगता है कि उनसे सलाह लेनी चाहिए, लेकिन वो हैं नहीं. लेकिन ये जीवन है, एक न एक दिन सबके साथ ऐसा ही होगा. माता-पिता का साया जो है, ईश्वर न करें, लेकिन खो जाता है. लेकिन जो बीती हुई बातें हैं, उनको सोचकर कि यदि मां-बाबूजी जीवित होते, तो वो क्या करते इन परिस्थितियों में? और फिर अपनी जो सोच रहती है उस विषय पर कि हां, मुझे लगता है कि उनका व्यवहार ऐसा होता, तो हम उसको करते हैं.
अपने अभिनय के बारे में बाबूजी की कोई टिप्पणी आपको याद है? वह आपके प्रशंसक थे या आलोचक?
नहीं, वो बाद के दिनों में $िफल्में वगैरह देखते थे और जो फिल्म उनको पसंद नहीं आती थी, वो कहते थे कि बेटा, ये फिल्म हमको समझ में नहीं आई कि क्या है. हालांकि वो कुछ फिल्मों को पसंद भी करते थे और देखते थे. जब वो अस्वस्थ थे, तो प्रतिदिन शाम को हमारी एक फिल्म देखते थे.
कभी ऐसा पल आया, जब उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की हो कि आप फलां किस्म का रोल करें?
ऐसा कभी उन्होंने व्यक्त नहीं किया. मैंने कभी पूछा भी नहीं. उनके लिए भी समस्या हो जाती और हमारे लिए भी.
क्या बाबूजी को अपना हीरो मानते हैं? उनकी कोई बात, जो आज भी आपको प्रेरणा और हिम्मत देती है?
हां, बिल्कुल. साधारण व्यक्ति थे, मनोबल बहुत था उनमें, एक आत्मशक्ति थी उनमें. लेकिन $खास तौर पर उनका आत्मबल. कई उदाहरण हैं उनके. एक बार वो कोई चीज़ ठान लेते थे, फिर वो जब तक $खत्म न हो जाए, तब तक उसे छोड़ते नहीं थे. बाबूजी को पंडित जी (जवाहर लाल नेहरू) ने बुलाया और कहा कि ये आत्मकथा लिखी है माइकल पिशर्ड ने. हम चाहते हैं कि इसका हिंदी अनुवाद हो, लेकिन ये हमारे जन्मदिन के दिन छपकर निकल जानी चाहिए. अब केवल तीन महीने रह गए थे. तीन महीने में एक बॉयोग्रा$फी का पूरा अनुवाद करना और उसे छापना बड़ा मुश्किल काम था, लेकिन बाबूजी दिन-रात उस काम में लगे रहे. जो उनकी स्टडी होती थी, उसके बाहर वो एक पेंटिंग लगा देते थे. उसका मतलब होता था कि अंदर कोई नहीं जा सकता, अभी व्यस्त हूं. बैठे-बैठे जब वो थक जाएं, तो खड़े होकर लिखें, जब खड़े-खड़े थक जाएं, तो ज़मीन पर बैठकर लिखें. विलायत में भी वो ऐसा ही करते थे. जब वो विलायत में अपनी पीएचडी कर रहे थे, तो उन्होंने अपने लिए एक खास मेज़ खुद ही बनाया. उनके पास इतना पैसा नहीं था कि मेज़ खरीद सकें. एक दिन मैं ऐसे ही चला गया, तो मैंने देखा कि एक कटोरी में गरम पानी है और उसमें उन्होंने अपना बायां हाथ डुबोया था. मैंने कहा कि क्या हो गया? तो उन्होंने बताया कि दर्द हो रहा था. हमने कहा कि कैसे हो गया? तो कहा कि लिखते-लिखते दर्द होने लगा. हमने कहा कि ये तो आपका बायां हाथ है, आप तो दाहिने हाथ से लिखते हैं? उन्होंने कहा कि हां, तुम सही कह रहे हो. दाहिने हाथ से लिखते-लिखते मेरा हाथ थक गया था, लेकिन क्योंकि मुझे काम खत्म करना था और लिखना था, तो मैंने अपने आत्मबल से दाहिने हाथ के दर्द को बाएं हाथ में डाल दिया है और अब मेरा बायां हाथ दर्द कर रहा है, इसलिए मैं उसकी मसाज कर रहा हूं. उनके ऐसे विचार थे.
अभिषेक और आपके बीच पिता-पुत्र के साथ-साथ दोस्त का रिश्ता नज़र आता है. क्या ऐसा ही संबंध आपके और आपके बाबूजी के बीच था?
हां, बाद के दिनों में. शुरुआत के सालों में हम सब उन्हें अकेला छोड़ देते थे, क्योंकि वो अपने काम में, अपने लेखन में व्यस्त रहते थे. मां जी थीं हमारे साथ, तो घूमना-फिरना होता था, जो बाबूजी को शायद उतना पसंद नहीं था. बाद में जब हमारे साथ यहां आए तो हमारा उनके साथ अलग तरह का दोस्ताना बना. कई बातें जो केवल दो पुरुषों के बीच हो जाती हैं, कई बार ऐसा अवसर आता था, जब हम करते थे. अभिषेक के पैदा होने के पहले ही मैंने सोच लिया था कि अगर मुझे पुत्र हुआ, तो वह मेरा मित्र होगा, वो बेटा नहीं होगा. मैंने ऐसा ही व्यवहार किया अभिषेक के साथ और अभी तक तो हमारी मित्रता बनी हुई है.
क्या आप चाहते हैं कि अभिषेक और आपकी आने वाली पीढिय़ां बच्चनजी की रचनाओं, विचार और दर्शन को उसी तरह अपनाएं और अपनी पीढ़ी के साथ आगे बढ़ाएं, जैसे आपने बढ़ाया है?
ये अधिकार मैं उन पर छोड़ता हूं. यदि उनके मन में आया कि इस तरह से कुछ काम करना चाहिए, तो वो करें. मैं उन पर किसी तरह का दबाव नहीं डालना चाहता हूं कि देखो, ये हमारे परिवार की परंपरा रही है, हमारे लिए एक धरोहर है, जिसे आगे बढ़ाना है. न ही बाबूजी ने कभी हमसे ये कहा कि ये धरोहर है. क्योंकि उनकी जो वास्तविकता थी, उसे कभी उन्होंने हमारे सामने ऐसे नहीं रखा कि मैंने बहुत बड़ा काम कर दिया है. उसके पीछे छुपी हुई जो बात थी, वो हमेशा पता चलती थी. जैसे विलायत पीएचडी करने गए, पैसा नहीं था. कुछ फेलोशिप मिली, फिर बीच में वो भी बंद हो गई. मां जी ने गहने बेचकर पैसा इकट्ठा किया, क्योंकि वो चाहती थीं कि वो पीएचडी करें. चार साल जिस पीएचडी में लगता है, वो उन्होंने दो वर्षों में ही पूरी कर ली और का$फी मुश्किल परिस्थितियों में रहे वहां. जब वो वापस आए, तो उस ज़माने में तो विलायत जाना और वापस आना बहुत बड़ी बात होती थी और खासकर इलाहाबाद जैसी जगह पर. सब लोग बहुत खुश कि भाई, विलायत से लौटकर के आ रहे हैं और हम बच्चे ये सोचते थे कि हमारे लिए क्या तोहफा लाए होंगे. सबसे पहला सवाल हमने बाबूजी से यही किया कि क्या लाएं हैं आप हमारे लिए? उन्होंने मुझे सात कॉपी, जो उनके हाथ से लिखी हुई पीएचडी है, वो उन्होंने मुझे दी. कहा कि ये मेरा तोहफा है तुम्हारे लिए. ये मेरी मेहनत है, जो मैंने दो साल वहां की. उसे मैंने रखा हुआ है. उससे बड़ा उपहार क्या हो सकता है मेरे लिए.
बाबूजी की कौन सी रचना आपको बहुत प्रिय है और क्यों?
सभी अच्छी हैं. अलग-अलग मानसिक स्थितियों से जब बाबूजी गुज़रे, तो उन परिस्थितियों में उन्होंने अलग-अलग कविताएं लिखीं. बाबूजी के शुरुआत के दिन बहुत गंभीर थे. बाबूजी की पहली पत्नी का देहांत साल भर के अंदर हो गया था. वो बीमार थीं, उनकी चिकित्सा के लिए पैसे नहीं थे बाबूजी के पास, तो वो दुखदायी दिन थे. उनके ऊपर उनका वर्णन है. फिर मां जी से मिलने के बाद उनके जीवन में जो एक नया रंग, उल्लास आया, उसको लेकर उनकी कविताएं आईं. फिर आधुनिक ज़माने में आकर बहुत से जो ट्रेंड थे कविता लिखने के, खास तौर से हिंदी जगत में, वो बदलते जा रहे थे, हास्य रस बहुत प्रचलित हो गया था. कवि सम्मेलनों में हास्य कवियों को ज़्यादा तालियां मिलने लगीं. इन सारे दौर से गुज़रते हुए उन्होंने लेखन किया. किसी एक रचना पर उंगली रखना बड़ा मुश्किल होगा.
आपकी उनकी चीज़ों की आर्कइविंग करने की योजना थी?
प्रयत्न जारी है. समय नहीं मिल रहा है. दूसरी बड़ी बात ये है कि जो लोग बाबूजी के साथ उस ज़माने में थे, वो वृद्ध हो गए हैं. लेकिन मैं ये चाहूंगा कि जो उनके साथ उस ज़माने में थे, उन्हें ढूंढें. क्योंकि कई ऐसी बातें हैं, जो हमको नहीं पता हैं. बाबूजी पत्र बहुत लिखते थे और वो अपने हाथ से लिखते थे. प्रतिदिन वो पचास-सौ पोस्ट कार्ड लिखते थे जवाब में, जो उनके पास चिट्ठियां आती थीं और उसे $खुद ले जाकर पोस्ट बॉक्स में डालते थे. उन्होंने बहुत सी चिट्ठियां जो लोगों को लिखी हैं, उन चिट्ठियों को एकत्रित करके लोगों ने किताब के रूप में छाप दिया है. अब ये पता नहीं कि कानूनन ठीक है या नहीं, लेकिन उन्होंने कहा कि साहब, ये पत्र तो उन्होंने हमें लिखा है, आपका इसके ऊपर कोई अधिकार नहीं है. तो मैं ऐसा सोच रहा था कि कभी अगर मुझे जानकारी हासिल करनी होगी तो मैं इश्तहार दूंगा मैं या पूछूंगा कि जिन लोगों के पास बाबूजी की लिखी चिट्ठियां हैं या याददाश्त हैं, वो हमें बताएं ताकि हम उनका एक आर्काइव बना सकें.
अब आप स्वयं दादाजी बन चुके हैं. इस संबोधन से आपको अपने दादाजी (प्रताप नारायण श्रीवास्तव) एवं दादीजी (सरस्वती देवी) की याद आती है. उनके बारे में हमें बहुत कम सामग्री मिलती है.
जी, दादाजी की स्मृतियां हैं नहीं, क्योंकि जब मैं पैदा हुआ, तो उनका देहांत हो गया था. दादी थीं, लेकिन उनका भी मेरे पैदा होने के साल-डेढ़ साल बाद स्वर्गवास हो गया. मां जी की तरफ से, उनकी माता जी का देहांत उनके जन्म पर ही हो गया था. जो नाना जी थे, मुझे ऐसा बताया गया है कि अब तो वो पाकिस्तान हो गया है, मां जी का जन्म लायलपुर में हुआ था, जो अब फैसलाबाद हो गया है और उनकी शिक्षा-दीक्षा सब गर्वमेंट कॉलेज लाहौर में हुई. वो वहां पढ़ाने भी लगीं. मुझे बताया गया है कि जब मैं दो साल का था, तो मां जी उनसे मिलवाने कराची ले गई थीं. ऐसा मां जी बताती हैं कि एक बार मैं नाना के पास गया, तो चूंकि वो सरदार थे, तो उनकी दाढ़ी बड़ी थी, तो मैंने आश्चर्य से उनसे पूछा कि आप कौन हैं? तो मेरे नानाजी ने कहा कि अपनी मां से जाकर पूछो कि मैं कौन हूं.
अभिषेक चाहते हैं कि आप अब काम कम और आराम ज़्यादा करें, अपने नाती-पोतों को वह सारे संस्कार और गुर सिखाएं, जो आपने उन्हें और श्वेता को सिखाए हैं. आपकी इस बारे में क्या राय है?
मैं ज़रूर नाती-पोतों को सिखाऊंगा और मैं काम भी करूंगा. यदि शरीर चलता रहा और सांस आती रहेगी, तो मैं चाहूंगा कि मैं काम करूं और जिस दिन मेरा शरीर काम नहीं करेगा, जैसा कि मैंने आपसे कई बार कहा है कि हमारे शरीर के ऊपर निर्भर है, चेहरा सही है, टांग-वांग चल रही है, तो काम है, वरना हम बोल देंगे कि अब हम घर बैठते हैं.
फिल्मों को लेकर आपकी ओर से कब घोषणा होगी?
एक तो अभी हुई है प्रकाश झा की सत्याग्रह और दूसरी है सुधीर मिश्रा की मेहरुन्निसा. उसमें चिंटू (ऋषि) कपूर हैं, शायद चित्रांगदा हैं और मैं हूं. दो-एक और फिल्में हैं, महीने भर के अंदर उनकी भी घोषणा की जाएगी.
हां, क्यों नहीं. मैंने सबसे अधिक उन्हीं को पढ़ा है. उनकी जो कविताएं हैं, जो लेखन है, जो भी छोटा-मोटा ज्ञान मिला है, उन्हीं से मिला है. लेकिन हिंदी को समझना और उसका उच्चारण करना, दो अलग-अलग बातें हैं. मैं नहीं मानता हूं कि मेरी जिज्ञासा या मेरा ज्ञान हिंदी के प्रति बहुत ज्यादा अच्छा है. लेकिन मैं ऐसा समझता हूं कि किसी भाषा का उच्चारण सही होना चाहिए. उसमें त्रुटियां नहीं होनी चाहिए. हिंदी बोलें या गुजराती या तमिल या कन्नड़ बोलें, तो उसे सही ढंग से बोलने का हमारे मन में हमेशा एक रहता है. और बिना बाबूजी के असर के मैं मानता हूं कि मेरा जीवन बड़ा नीरस होता. स्वयं को भागयशाली समझता हूं कि मैं मां-बाबूजी जैसे माता-पिता की संतान हूं. माता जी सिक्ख परिवार से थीं और बहुत ही अमीर घर की थीं. उनके फादर बार एटलॉ थे उस जमाने में. वह रेवेन्यू मिनिस्टर थे पंजाब सरकार के पटियाला में. अंग्रेजी, विलायती नैनीज़ होती थीं उनकी देखभाल के लिए. उस वातावरण से माता जी आईं और उन्होंने बाबूजी के साथ ब्याह किया. जो कि लोअर मीडिल क्लास से थे, उनके पास व्यवस्था ज़्यादा नहीं थी. ज़मीन पर बैठकर पढ़ाई-लिखाई करते थे, मिट्टी के तेल की लालटेन जलाकर काम करते थे, लाइट नहीं होती थी उन दिनों. मुझे लगता है कि कहीं न कहीं मां जी का जो वातावरण था, जो उनके खयाल थे, वह बहुत ही पश्चिमी था और बाबूजी का बहुत ही उत्तरी था. इन दोनों का इस्टर्न और वेस्टर्न मिश्रण जो है, वो मुझे प्राप्त हुआ. मैं अपने आप को बहुत भागयशाली समझता हूं कि इस तरह का वातावरण हमारे घर के अंदर हमेशा फलता रहा. कई बातें थीं, जो बाबूजी को शायद नहीं पसंद आती होंगी, लेकिन कई बातें थीं, जिसमें मां जी की रुचि थी- जैसे सिनेमा जाना, थिएटर देखना. इसमें बाबूजी की ज़्यादा रुचि नहीं होती थी. वह कहते थे कि यह वेस्ट ऑफ टाइम है, घर बैठकर पढ़ो. मां जी सोचती थीं कि हमारे चरित्र को और उजागर करने के लिए ज़रूरी है कि पढ़ाई के साथ-साथ थोड़ा-सा खेलकूद भी किया जाए. मां जी खुद हमें रेस्टोरेंट ले जाती थीं, बाबूजी न भी जाते हों. तो ये तालमेल था उनका जीवन के प्रति और वो संगम हमको मिल गया.
दोनों अलग-अलग विचारधारा के लोग थे. आप किससे अधिक जुड़ाव महसूस करते थे?
दोनों से ही. उत्तरी-पश्चिमी दोनों सभ्यताएं हमें उनसे प्राप्त हुईं. और उनमें अंतर कब और कहां लाना है, यह हमारे ऊपर निर्भर करता है. वो सारा जो मिश्रण है, वह हमको सोचकर करना पड़ता है.
जया बच्चन के फिल्मफेयर को दिए गए एक पुराने साक्षात्कार में हमने पाया कि आपको लिखने का बहुत शौक है. उन्होंने बताया है कि जब आप काम ज़्यादा नहीं कर रहे थे, तो अपने कमरे में एकांत में लिखते रहते हैं. क्या आप लिखते थे, वो उन्होंने नहीं बताया है.
अच्छा हुआ कि वो उन्होंने नहीं बताया है, क्योंकि मुझसे भी आपको नहीं पता चलने वाला है कि मैंने क्या लिखा उन दिनों. बैठकर कुछ पढ़ते-लिखते रहना, फिर सितार उठाकर बजा दिया, गिटार उठाकर बजा लिया. ये सब हमको आता नहीं है, लेकिन ऐसे ही करते रहते थे.
क्या बाबूजी की तरह आप भी कविताएं लिखते हैं?
कविता हमने नहीं लिखी. अस्पताल में जब था मैं 1982 में, कुली के एक्सीडेंट के बाद, उस समय एक दिन ऐसे ही भावुक होकर हमने अंग्रेज़ी में एक कविता लिख दी. वो हमने बाबूजी को सुनाई, जब वो हमसे मिलने आए. वो चुपचाप उसे ले गए और अगले दिन आकर कहा उसका हिंदी अनुवाद करके हमको दिखाया. उन्होंने कहा कि ये कविता बहुत अच्छी लिखी है, हमने इसका हिंदी अनुवाद किया है. ज़ाहिर है कि उनका जो हिंदी अनुवाद था, वह हमारी अंग्रेज़ी से बेहतर था. वो कविता शायद धर्मयुग वगैरह में छपी थी.
जीवन में किन-किन पड़ावों पर आपको बाबूजी और अम्मा की कमी बहुत अखरती है?
प्रतिदिन कुछ न कुछ जीवन में ऐसा बीतता है, जब लगता है कि उनसे सलाह लेनी चाहिए, लेकिन वो हैं नहीं. लेकिन ये जीवन है, एक न एक दिन सबके साथ ऐसा ही होगा. माता-पिता का साया जो है, ईश्वर न करें, लेकिन खो जाता है. लेकिन जो बीती हुई बातें हैं, उनको सोचकर कि यदि मां-बाबूजी जीवित होते, तो वो क्या करते इन परिस्थितियों में? और फिर अपनी जो सोच रहती है उस विषय पर कि हां, मुझे लगता है कि उनका व्यवहार ऐसा होता, तो हम उसको करते हैं.
अपने अभिनय के बारे में बाबूजी की कोई टिप्पणी आपको याद है? वह आपके प्रशंसक थे या आलोचक?
नहीं, वो बाद के दिनों में $िफल्में वगैरह देखते थे और जो फिल्म उनको पसंद नहीं आती थी, वो कहते थे कि बेटा, ये फिल्म हमको समझ में नहीं आई कि क्या है. हालांकि वो कुछ फिल्मों को पसंद भी करते थे और देखते थे. जब वो अस्वस्थ थे, तो प्रतिदिन शाम को हमारी एक फिल्म देखते थे.
कभी ऐसा पल आया, जब उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की हो कि आप फलां किस्म का रोल करें?
ऐसा कभी उन्होंने व्यक्त नहीं किया. मैंने कभी पूछा भी नहीं. उनके लिए भी समस्या हो जाती और हमारे लिए भी.
क्या बाबूजी को अपना हीरो मानते हैं? उनकी कोई बात, जो आज भी आपको प्रेरणा और हिम्मत देती है?
हां, बिल्कुल. साधारण व्यक्ति थे, मनोबल बहुत था उनमें, एक आत्मशक्ति थी उनमें. लेकिन $खास तौर पर उनका आत्मबल. कई उदाहरण हैं उनके. एक बार वो कोई चीज़ ठान लेते थे, फिर वो जब तक $खत्म न हो जाए, तब तक उसे छोड़ते नहीं थे. बाबूजी को पंडित जी (जवाहर लाल नेहरू) ने बुलाया और कहा कि ये आत्मकथा लिखी है माइकल पिशर्ड ने. हम चाहते हैं कि इसका हिंदी अनुवाद हो, लेकिन ये हमारे जन्मदिन के दिन छपकर निकल जानी चाहिए. अब केवल तीन महीने रह गए थे. तीन महीने में एक बॉयोग्रा$फी का पूरा अनुवाद करना और उसे छापना बड़ा मुश्किल काम था, लेकिन बाबूजी दिन-रात उस काम में लगे रहे. जो उनकी स्टडी होती थी, उसके बाहर वो एक पेंटिंग लगा देते थे. उसका मतलब होता था कि अंदर कोई नहीं जा सकता, अभी व्यस्त हूं. बैठे-बैठे जब वो थक जाएं, तो खड़े होकर लिखें, जब खड़े-खड़े थक जाएं, तो ज़मीन पर बैठकर लिखें. विलायत में भी वो ऐसा ही करते थे. जब वो विलायत में अपनी पीएचडी कर रहे थे, तो उन्होंने अपने लिए एक खास मेज़ खुद ही बनाया. उनके पास इतना पैसा नहीं था कि मेज़ खरीद सकें. एक दिन मैं ऐसे ही चला गया, तो मैंने देखा कि एक कटोरी में गरम पानी है और उसमें उन्होंने अपना बायां हाथ डुबोया था. मैंने कहा कि क्या हो गया? तो उन्होंने बताया कि दर्द हो रहा था. हमने कहा कि कैसे हो गया? तो कहा कि लिखते-लिखते दर्द होने लगा. हमने कहा कि ये तो आपका बायां हाथ है, आप तो दाहिने हाथ से लिखते हैं? उन्होंने कहा कि हां, तुम सही कह रहे हो. दाहिने हाथ से लिखते-लिखते मेरा हाथ थक गया था, लेकिन क्योंकि मुझे काम खत्म करना था और लिखना था, तो मैंने अपने आत्मबल से दाहिने हाथ के दर्द को बाएं हाथ में डाल दिया है और अब मेरा बायां हाथ दर्द कर रहा है, इसलिए मैं उसकी मसाज कर रहा हूं. उनके ऐसे विचार थे.
अभिषेक और आपके बीच पिता-पुत्र के साथ-साथ दोस्त का रिश्ता नज़र आता है. क्या ऐसा ही संबंध आपके और आपके बाबूजी के बीच था?
हां, बाद के दिनों में. शुरुआत के सालों में हम सब उन्हें अकेला छोड़ देते थे, क्योंकि वो अपने काम में, अपने लेखन में व्यस्त रहते थे. मां जी थीं हमारे साथ, तो घूमना-फिरना होता था, जो बाबूजी को शायद उतना पसंद नहीं था. बाद में जब हमारे साथ यहां आए तो हमारा उनके साथ अलग तरह का दोस्ताना बना. कई बातें जो केवल दो पुरुषों के बीच हो जाती हैं, कई बार ऐसा अवसर आता था, जब हम करते थे. अभिषेक के पैदा होने के पहले ही मैंने सोच लिया था कि अगर मुझे पुत्र हुआ, तो वह मेरा मित्र होगा, वो बेटा नहीं होगा. मैंने ऐसा ही व्यवहार किया अभिषेक के साथ और अभी तक तो हमारी मित्रता बनी हुई है.
क्या आप चाहते हैं कि अभिषेक और आपकी आने वाली पीढिय़ां बच्चनजी की रचनाओं, विचार और दर्शन को उसी तरह अपनाएं और अपनी पीढ़ी के साथ आगे बढ़ाएं, जैसे आपने बढ़ाया है?
ये अधिकार मैं उन पर छोड़ता हूं. यदि उनके मन में आया कि इस तरह से कुछ काम करना चाहिए, तो वो करें. मैं उन पर किसी तरह का दबाव नहीं डालना चाहता हूं कि देखो, ये हमारे परिवार की परंपरा रही है, हमारे लिए एक धरोहर है, जिसे आगे बढ़ाना है. न ही बाबूजी ने कभी हमसे ये कहा कि ये धरोहर है. क्योंकि उनकी जो वास्तविकता थी, उसे कभी उन्होंने हमारे सामने ऐसे नहीं रखा कि मैंने बहुत बड़ा काम कर दिया है. उसके पीछे छुपी हुई जो बात थी, वो हमेशा पता चलती थी. जैसे विलायत पीएचडी करने गए, पैसा नहीं था. कुछ फेलोशिप मिली, फिर बीच में वो भी बंद हो गई. मां जी ने गहने बेचकर पैसा इकट्ठा किया, क्योंकि वो चाहती थीं कि वो पीएचडी करें. चार साल जिस पीएचडी में लगता है, वो उन्होंने दो वर्षों में ही पूरी कर ली और का$फी मुश्किल परिस्थितियों में रहे वहां. जब वो वापस आए, तो उस ज़माने में तो विलायत जाना और वापस आना बहुत बड़ी बात होती थी और खासकर इलाहाबाद जैसी जगह पर. सब लोग बहुत खुश कि भाई, विलायत से लौटकर के आ रहे हैं और हम बच्चे ये सोचते थे कि हमारे लिए क्या तोहफा लाए होंगे. सबसे पहला सवाल हमने बाबूजी से यही किया कि क्या लाएं हैं आप हमारे लिए? उन्होंने मुझे सात कॉपी, जो उनके हाथ से लिखी हुई पीएचडी है, वो उन्होंने मुझे दी. कहा कि ये मेरा तोहफा है तुम्हारे लिए. ये मेरी मेहनत है, जो मैंने दो साल वहां की. उसे मैंने रखा हुआ है. उससे बड़ा उपहार क्या हो सकता है मेरे लिए.
बाबूजी की कौन सी रचना आपको बहुत प्रिय है और क्यों?
सभी अच्छी हैं. अलग-अलग मानसिक स्थितियों से जब बाबूजी गुज़रे, तो उन परिस्थितियों में उन्होंने अलग-अलग कविताएं लिखीं. बाबूजी के शुरुआत के दिन बहुत गंभीर थे. बाबूजी की पहली पत्नी का देहांत साल भर के अंदर हो गया था. वो बीमार थीं, उनकी चिकित्सा के लिए पैसे नहीं थे बाबूजी के पास, तो वो दुखदायी दिन थे. उनके ऊपर उनका वर्णन है. फिर मां जी से मिलने के बाद उनके जीवन में जो एक नया रंग, उल्लास आया, उसको लेकर उनकी कविताएं आईं. फिर आधुनिक ज़माने में आकर बहुत से जो ट्रेंड थे कविता लिखने के, खास तौर से हिंदी जगत में, वो बदलते जा रहे थे, हास्य रस बहुत प्रचलित हो गया था. कवि सम्मेलनों में हास्य कवियों को ज़्यादा तालियां मिलने लगीं. इन सारे दौर से गुज़रते हुए उन्होंने लेखन किया. किसी एक रचना पर उंगली रखना बड़ा मुश्किल होगा.
आपकी उनकी चीज़ों की आर्कइविंग करने की योजना थी?
प्रयत्न जारी है. समय नहीं मिल रहा है. दूसरी बड़ी बात ये है कि जो लोग बाबूजी के साथ उस ज़माने में थे, वो वृद्ध हो गए हैं. लेकिन मैं ये चाहूंगा कि जो उनके साथ उस ज़माने में थे, उन्हें ढूंढें. क्योंकि कई ऐसी बातें हैं, जो हमको नहीं पता हैं. बाबूजी पत्र बहुत लिखते थे और वो अपने हाथ से लिखते थे. प्रतिदिन वो पचास-सौ पोस्ट कार्ड लिखते थे जवाब में, जो उनके पास चिट्ठियां आती थीं और उसे $खुद ले जाकर पोस्ट बॉक्स में डालते थे. उन्होंने बहुत सी चिट्ठियां जो लोगों को लिखी हैं, उन चिट्ठियों को एकत्रित करके लोगों ने किताब के रूप में छाप दिया है. अब ये पता नहीं कि कानूनन ठीक है या नहीं, लेकिन उन्होंने कहा कि साहब, ये पत्र तो उन्होंने हमें लिखा है, आपका इसके ऊपर कोई अधिकार नहीं है. तो मैं ऐसा सोच रहा था कि कभी अगर मुझे जानकारी हासिल करनी होगी तो मैं इश्तहार दूंगा मैं या पूछूंगा कि जिन लोगों के पास बाबूजी की लिखी चिट्ठियां हैं या याददाश्त हैं, वो हमें बताएं ताकि हम उनका एक आर्काइव बना सकें.
अब आप स्वयं दादाजी बन चुके हैं. इस संबोधन से आपको अपने दादाजी (प्रताप नारायण श्रीवास्तव) एवं दादीजी (सरस्वती देवी) की याद आती है. उनके बारे में हमें बहुत कम सामग्री मिलती है.
जी, दादाजी की स्मृतियां हैं नहीं, क्योंकि जब मैं पैदा हुआ, तो उनका देहांत हो गया था. दादी थीं, लेकिन उनका भी मेरे पैदा होने के साल-डेढ़ साल बाद स्वर्गवास हो गया. मां जी की तरफ से, उनकी माता जी का देहांत उनके जन्म पर ही हो गया था. जो नाना जी थे, मुझे ऐसा बताया गया है कि अब तो वो पाकिस्तान हो गया है, मां जी का जन्म लायलपुर में हुआ था, जो अब फैसलाबाद हो गया है और उनकी शिक्षा-दीक्षा सब गर्वमेंट कॉलेज लाहौर में हुई. वो वहां पढ़ाने भी लगीं. मुझे बताया गया है कि जब मैं दो साल का था, तो मां जी उनसे मिलवाने कराची ले गई थीं. ऐसा मां जी बताती हैं कि एक बार मैं नाना के पास गया, तो चूंकि वो सरदार थे, तो उनकी दाढ़ी बड़ी थी, तो मैंने आश्चर्य से उनसे पूछा कि आप कौन हैं? तो मेरे नानाजी ने कहा कि अपनी मां से जाकर पूछो कि मैं कौन हूं.
अभिषेक चाहते हैं कि आप अब काम कम और आराम ज़्यादा करें, अपने नाती-पोतों को वह सारे संस्कार और गुर सिखाएं, जो आपने उन्हें और श्वेता को सिखाए हैं. आपकी इस बारे में क्या राय है?
मैं ज़रूर नाती-पोतों को सिखाऊंगा और मैं काम भी करूंगा. यदि शरीर चलता रहा और सांस आती रहेगी, तो मैं चाहूंगा कि मैं काम करूं और जिस दिन मेरा शरीर काम नहीं करेगा, जैसा कि मैंने आपसे कई बार कहा है कि हमारे शरीर के ऊपर निर्भर है, चेहरा सही है, टांग-वांग चल रही है, तो काम है, वरना हम बोल देंगे कि अब हम घर बैठते हैं.
फिल्मों को लेकर आपकी ओर से कब घोषणा होगी?
एक तो अभी हुई है प्रकाश झा की सत्याग्रह और दूसरी है सुधीर मिश्रा की मेहरुन्निसा. उसमें चिंटू (ऋषि) कपूर हैं, शायद चित्रांगदा हैं और मैं हूं. दो-एक और फिल्में हैं, महीने भर के अंदर उनकी भी घोषणा की जाएगी.
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आशा
आपका शुक्रिया यह पोस्ट हम तक पहुंचाने के लिए
तमाशा-ए-ज़िन्दगी